कितनी घुटन पी गया हूँ मैं!
(एक गीत फिर.......)
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कस कर तनी हुई वल्गायें,
छोर शरासन के पर, ढीले।।
तूणीरों में भरे हुए हैं
बाण नहीं, बस शब्द नुकीले।।०।।
कोमल कुसुम लिये आया था,
किन्तु बबूलों में जा उलझा।
कितने दिन बीते, पर मुझसे,
दो कड़ियों का छन्द न सुलझा।।
मृदु अभिव्यक्ति कहाँ रोपूं मैं?
भूमि न अब तक पड़ी दिखाई,
केवल वैमनस्य उगता है,
मन हो गये रेत के टीले।।१।।
मन हो गये रेत के टीले।।१।।
शब्द बँँटे हैं, रङ्ग बँँटे हैं।
कथनों के अनुषंग बँँटे हैं।।
अपना जीवन-सूत्र भुला कर,
एक राष्ट्र के अङ्ग बँँटे हैं।।
“तद्धेतुव्यपदेशाच्च।
मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते।”*
जग को ज्ञान सिखाने वाले-
अब हैं रक्त-पिपासु कबीले।।२।।
कब और कैसे सूख गया था,
स्नेह न जाने, गङ्गा-जल का!
सुर-लय-ताल-राग से निर्मित,
ध्वंस हुआ कब ‘भाव-महल’ का।।
भूल गया था, मेरी रातें,
गीत संग अभिसार हेतु हैं।
सूख रहे घावों की पपड़ी
किसने पुनः सदय हो छीले??३।।
किसने पुनः सदय हो छीले??३।।
कालातीत हो गये कैसे,
छन्दों से अनुबन्ध हमारे।
विकल कपर्दी उच्च स्वरों में,
अपनी खोई शक्ति पुकारे।।
“अष्टोत्तरशत करण”** नृत्य के,
हैं ताण्डव में आज समाहित!
फिर रुद्राक्ष उगेंगे क्या?
हैं आज त्रिलोचन के दृग गीले।।४।।
हैं आज त्रिलोचन के दृग गीले।।४।।
पल-पल जग का है व्यवसायी,
चक्रव्यूह से ताने-बाने।
तक्षित कृतियों की छाती में,
पलतीं कितनी छली कटानें?
गीतों को मधुमय करने में,
कितनी घुटन पी गया हूँ मैं!
गीत भले “गौरा” हो लेकिन,
कवि के कण्ठ रहेंगे “नीले”।।५।।
कवि के कण्ठ रहेंगे “नीले”।।५।।
© त्रिलोचन नाथ
तिवारी.
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* “तद्धेतुव्यपदेशाच्च। मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते।” (जो सभी को आनंद प्रदान करता है, वही स्वयं आनंदघन है। मंत्राक्षरों में जिसका वर्णन है, उसी का यह गान है।) वेदान्त दर्शन
१/१/१४,१५।
** “अष्टोत्तरशत करण” नृत्य के --- शास्त्रीय नृत्य की एक सौ आठ स्थितियाँ।