साहित्य की सत्यनारायण-कथा और छंद के फंद
---------------(दुर्ललित निबन्ध)--------------------
किसी भी शुभ कार्य से
पूर्व या किसी इच्छित अभिलाषा के पूर्ण होने पर प्रत्येक सनातनी सत्यनारायण भगवान्
की कथा अवश्य सुनता है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक तो इस कथा-श्रवण का उत्सव
प्रत्येक माह में एकादशी या पूर्णिमा को आयोजित हो जाया करता था किन्तु अब वह बात
नहीं रही। फिर भी स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से संकलित इस कथा-श्रवण की महत्ता
सनातनी हृदय में अब भी संरक्षित है अतः नियमित न सही, यदा-कदा ही सही, इस कथा के
आयोजन होते ही रहते हैं।
नाम तो है सत्यनारायण
व्रत-कथा, किन्तु लोगों में भ्रम है कि यह सत्यनाराण कथा है। और यह भ्रम शंकायें
उत्पन्न करता है क्योंकि कथा में श्रीमन् सत्यनारायण देव की कोई कथा नहीं है। कथा
तो ब्राह्मण, बाणिये, राजा तथा लीलावती - कलावती की है कि किसने व्रत किया तो उसे
क्या फल मिला और प्रमाद किया तो उसे क्या दण्ड मिला। सत्यनारायण देव के पूजन का
संकल्प ले कर उसे भूल जाने का तथा पूजन में प्रयुक्त देवजुष्ट-भोग के प्रसाद का
अपमान करने का क्या बुरा परिणाम होता है, इस कथा के दो ही प्रमुख क्षेत्र हैं।
सत्यनारायण देव की
पूजा में कदली-फल एवं कदलीपत्र प्रमुख प्रयोज्य सामग्री है। गोमय आधार पर
कदली-पत्र की ध्वजा रोपित कर के चतुरस्र मण्डल का निर्माण किया जाता है जिसके मध्य
कच्चे दूध से भरी कटोरी के क्षीरसागर में शालिग्राम-रूप सत्य नारायण विष्णु आसीन
होते हैं। देवता को पंचगव्य, पंचामृत, गंगोदक के पश्चात शुद्धोदक स्नान करा,
वस्त्र, रोली, चन्दन, कुमकुम, मौली, अक्षत, तुलसीदल, नागवल्ली, पूगीफल, एला,
दूर्वा आदि अर्पित किया जाता है। ऋतु-फल एवं मिष्ठान्न के अतिरिक्त दुग्ध, दधि,
मधु, घृत, गंगाजल, तुलसी-दल तथा सूखे मेवे आदि डाल कर जो पंचामृत निर्मित होता है
वह, तथा गोधूम-चूर्ण को भून कर खांड-मिश्री आदि मिला कर जो मोहनभोग
निर्मित होता है वह, ये दो पदार्थ देवता के प्रमुख भोग हैं तथा यही मुख्य प्रसाद
रूप में वितरित भी होता है। आयोजन का मुख्य भाग यह पूजन-कर्म ही है।
आज की परस्थितियों में
समय किसी के पास नहीं है। सभी भाग रहे हैं। न भी भाग रहे हों तो भागने को उद्यत हैं। मन भागने में ही लगा रहता है भले ही शरीर किसी विवशता के कारण रुक जाय। मन तो
वैसे भी बहुत तीव्र-गतिक है। वह तो स्थिर होता ही नहीं। तो शरीर का स्थैर्य चंचल मन
को एक उद्विग्नता से भर गया है। कथा में मन है कहाँ? मन तो भाग कर कभी कार्यालय
में है, कभी व्यवसाय में, कभी धंधे में, कभी कथा के अवसर पर जुटे लोगों की आव-भगत,
जल-जलपान में! कथा में किसका मन है? कथा कौन सुनता है? और जब सुनने वाला मन से न
सुने तो मन से कथा कहता भी कौन है? वेदी के नीचे नीले, लाल, पीले चढ़ावे और दक्षिणा
आती रहे बस। यजमान की अपनी विवशता है, अतः वह औपचारिक है। कथावाचक पण्डित की अपनी
विवशता है, उसे भी वही दुनियादारी खींच रही है, उसे भी अभी कई लोगों के यहाँ कथा
सुनानी है, तो वह भी औपचारिक ही है। और सभी तो नहीं, किन्तु अधिकांश पंडितों के
पास है क्या? झोली में वर्तमान संवत्सर का पञ्चांग, सत्यनारायण भगवान् के व्रत-कथा
की पोथी, और बहुत हुआ तो एक दुर्गा-सप्तशती! तो फिर फूंको शंख! यही पण्डित के
पाण्डित्य का चरम है। पण्डित सोइ जो गाल बजावा! नहीं गाल सही, शंख बजावा! बोलो
श्रीमन् सत्यनारायण देव की जय! कथा समाप्त हुई यजमान! अब आरती!
सत्यनारायण देव को
अर्पित भोग तो वैसे भी दिव्य पदार्थों से निर्मित होता है और देवता को अर्पित होकर
तो कोई भी पदार्थ दिव्य हो जाता है, किन्तु व्यक्तिगत रूप से मुझे खांड-मिश्री
मिला भुना आटा अर्थात मोहनभोग कभी भी बहुत रुचिकर नहीं लगा। अब देवता का प्रसाद है
तथा प्रसाद रूप में प्राप्त देवजुष्ट पदार्थ का अपमान नहीं होना चाहिये तो
जैसे-तैसे करके उसे ग्रहण करना ही होता है। यह मात्र अनिष्ट-भय के कारण नहीं है।
यह श्रद्धा का निकष भी है। किन्तु जहाँ उसी देवता के अन्य उच्छिष्ट दिव्यातिदिव्य
स्वाद के होते हैं वहीं यह मोहनभोग? स्वाद तो इसका भी उत्तम होता है, किन्तु मुख
में प्रविष्ट होते ही यह चूर्ण जो मुखगुहा का समस्त लालारस एक ही बार में सोख कर
कंठ तक का क्षेत्र शुष्क कर डालता है वह अच्छा नहीं लगता। और यदि देवता कुपित न हो
तो सोच कर देखिये - यदि उसी समय खांसी आ जाय, या हँसी ही आ जाय? तिरपन सरक जाते हैं
भइया! फांसी सी लगने लगती है। मरण-ग्रास उपस्थित हो उठता है। जाने किस शुष्क-हृदय
मूढ़ ने भोग के रूप में देवता को अर्पित करने हेतु ऐसा शुष्क पदार्थ आविष्कृत किया
और उसे देवार्पित करने का विधान बनाया। और नाम? नाम मोहनभोग! अरे भईया! उदक या
दुग्ध के रूप में थोड़ी सी तरलता भी मिश्रित कर देते तो तुम्हारा गाँठ से क्या झर
जाता? और तब उस स्थिति में क्या दिव्य अवलेह निर्मित होता! अहहह! तो मैं तो भाई
ढेर सारे चरणामृत में मोहनभोग मिला देता हूँ और तब प्रसाद ग्रहण करता हूँ। चरणामृत
की मात्रा अल्प हुई तो जल ही सही, किन्तु सूखा मोहनभोग? नारायण! नारायण!
प्रसाद का मुख्य गुण
ही प्रसाद-गुण तथा माधुर्य है। प्रसाद-गुण अर्थात जो प्रसन्न कर दे। प्रसाद शब्द
का तो अर्थ ही प्रसन्नता है। और माधुर्य अर्थात मीठापन! वैसे माधुर्य का एक और
अर्थ होता है जो मधु से नहीं मधूक से निष्पन्न है, माध्वी और माधवी से संश्लिष्ट
है। माधुर्य अर्थात मादकता भी! अनायास नहीं कहा गया है कि मदिरा, कविता तथा प्रसाद
का आनन्द तो वितरण करके ग्रहण करने में है। मदिरा तथा देव-जुष्ट प्रसाद के ही समान
कविता, या कहें कि साहित्य का भी मुख्य गुण प्रसाद-गुण तथा माधुर्य ही है, यह
अवश्य है कि साहित्य में सर्व-हित की भावना भी अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।
किन्तु साहित्य के
क्षेत्र में भी सत्यनारायण कथा के ऐसे अनेक विद्वान् वाचक हैं जिनकी झोली में
पञ्चांग, सत्यनारायण भगवान् के व्रत-कथा की पोथी, और बहुत हुआ तो एक
दुर्गा-सप्तशती के अतिरिक्त कुछ नहीं! हाँ! शंख अवश्य है और उसे जोर से फूंकने का
उन्हें अभ्यास भी है। और साहित्य के सत्यनारायण को वे पंचामृत, गंगोदक, रोली,
चन्दन, कुमकुम, मौली, अक्षत, तुलसीदल, नागवल्ली, पूगीफल, एला, दूर्वा आदि-आदि
समर्पित भी नहीं करते - कराते। उनके किये तो देवता के लिये है मात्र मोहनभोग! एक
फंकी में ही मुख का सारा लालारस सोख लेने वाला सूखा मोहनभोग! और जैसे सत्यनारायण
देव की पूजा तो कथा प्रारम्भ होने के पूर्व ही सम्पूर्ण हो चुकी होती है, उनका भी
निहितार्थ शीर्षक तथा उसके पश्चात की दो-चार पंक्तियों में अभिव्यक्त हो लेता है।
फिर तो बस लीलावती कन्या कलावती कन्या ही शेष रहता है अथवा फिर शंखनाद। निहित
उद्देश्य को सामने रखने के अतिरिक्त उन्हें अन्य किसी क्रिया को संपादित करने का
ध्यान ही नहीं रहता। ध्यान रहता है वेदी के नीचे के चढ़ावे पर। सच है। समय किसके
पास है? और इस चेष्टा में अवहेलित होती है मुख्य पूजा। जबकि यदि पूजा ढंग से हो
जाय तभी फलश्रुति की कथा का कोई महत्व है। यह भी सत्य है कि स्तोत्र-पाठ या
पूजन-कर्म का पूर्ण-फल फलश्रुति के उपरान्त ही प्राप्त होता है किन्तु तब, जब
स्तोत्र-पाठ या पूजन पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास सहित सम्यक रीति से निष्पन्न हुआ
हो, अन्यथा मात्र फलश्रुति का कोई महत्व नहीं। किन्तु फलश्रुति-श्रवण न भी किया
गया हो तो भी पूजन के दिव्य कर्म का न्यूनाधिक फल तो मिलेगा ही, तथा यदि पूजन ढंग
से नहीं हुआ तो उसके दुष्परिणाम क्या हैं, यह ध्यान में नहीं रहता, सारा ध्यान
इसमें रहता है कि पांच अध्याय पढ़ कर शंख बजा दो! उपस्थित लोग भी जय-जय करते हैं।
उन्हें भी ध्यान नहीं कि पूजन – कर्म तथा उसकी फलश्रुति में क्या भेद है? या दोनों
में क्या अधिक महत्वपूर्ण है?
साहित्य का उत्स काव्य
से है। संसार का सर्वप्रथम साहित्य वेद हैं जो काव्य शैली में रचे गये। किन्तु
काव्य साहिय का ही नहीं भाषा का भी उत्स है। और दोनों का उत्स ध्वनि से है। पशु-पक्षियों
की भाषा से ही मनुष्य ने अपनी भाषा निर्मित की है और पशु-पक्षियों की भाषा में कोई
स्पष्ट काव्य भले न परिलक्षित हो, उसमें एक स्वर-सारस्य, एक नाद माधुरी और एक
लय-साम्य अवश्य प्राप्त होता है। नदियों की कल-कल में, निर्झर के निनाद में,
पर्जन्य की टिप-टिप या धारासार वृष्टि में एक स्वर है, एक लय है, एक संगीत है, एक
भाषा है, और एक काव्य है। वैदिक ऋषि तो उषा को देख कर ही बोल उठा – “पश्य देवस्य
काव्यं... देवता रचित इस कविता को देखो!” प्रकृति के इस काव्य ने मनुष्य को अपना
काव्य रचित करने की प्रेरणा अवश्य दी होगी। मनुष्य की आदिम भाषा ही काव्यमय रही
होगी। गद्य तो संभवतः बहुत बाद का आविष्कार है। आज भी तीव्र भावोद्वेग तथा भावोद्रेक
की दशा में मनुष्य की भाषा काव्यात्मक हो उठती है।
आज कविता गद्य की भूमि
पर जा खड़ी हुई है और गद्य युद्ध की भूमि पर तलवारें भांज रहा है। ऐसे समय में यदि
कोई छंद के प्रति उत्सुक हो तो प्रसन्नता होती है। दो वर्षों से इस सम्बंध में
अनेकों प्रश्न मेरे पास साग्रह आये, किन्तु मैंने उन्हें अवहेलित किया क्योंकि मैं
सरल वैष्णव कथावाचक नहीं हूँ! मैं हूँ अघोरी! मेरा प्रसाद है चिमटा – प्रहार,
जिसमें न माधुर्य है न प्रसाद-गुण! अभक्ष्य-भोजी, कटुभाषी, नग्न (आप ठेठ भाषा का
नंगा समझें), एकान्त-विहारी अघोरी के चिमटे का प्रहार सह कर छनमनाना कौन चाहेगा?
किन्तु कुछ हैं, जो चिमटा – प्रहार से भी विमुख नहीं हुये। किन्तु भाई! उन
वैष्णवों के यहाँ कम से कम मोहनभोग तो है? यहाँ तो वह भी नहीं! चिता-भस्म है बस!
आप राख कहिये, भभूत कहिये या विभूति, जैसी आपकी श्रद्धा!
कालिदास ने कहा – मन्दः कवियशः प्रार्थी
गमिष्याम्युपहास्यतां। प्रांशु लभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः।। मुझ मन्दबुद्धि
का (स्वयं को) यशस्वी कवियों में गणना कराने का प्रयास वैसा ही हास्यास्पद है जैसा
लम्बी भुजाओं वाले को सहज उपलब्ध, किसी ऊँची डाल के फलों हेतु किसी बौने का अपने
छोटे हाथ उठाना। कालिदास ने तो अतिशय विनम्रता की औपचारिकता का निर्वहन मात्र किया
था अन्यथा भला उनसे अच्छा कवि कौन है? किन्तु मेरा तो, यह उदाहरण उल्लिखित करना भी
मूर्खता है। और यह मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मैं मूर्ख हूँ! मूर्खों के सभी
लक्षण मुझमें अपने चरम मात्रा में हैं। गर्वीला, दुर्वचन बोलने वाला, क्रोधी स्वभाव, दृढ़ वादी, और दूसरों की बात न मानना - ये पाँच लक्षण मूर्ख
के हैं।
मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येश्वनादरः।।
मेरा तो प्रारम्भिक परिचय ही दिया गया कि – ‘कमाल की तुकबन्दियाँ करता
है।’ कमाल की तुकबन्दियाँ? तुकबन्दियाँ भी कमाल की होती हैं?
पीर जो उठैगो, वाको गीत करिबे को धुन,
हो गयो कलेवो, मेरो युग
बीते काल की।
लोहू से लिखन वारी लेखनी को त्याग दीनो,
पोटरी बहाय दीनो छंद लय
ताल की।।
आज, तुकबन्दियाँ, जरे की राख जैसे शेष,
भाव छटपटाँय ऐसे, मीन जैसे
जाल की।
होती जो कमाल की, तो होती तुकबन्दी नाँहि,
औ होती तुकबन्दी जो, तो
होती न कमाल की।।
(स्वरचित)
फिर वह भी समय आया जब मैंने वास्तव में तुकबन्दियाँ करनी प्रारम्भ कर
दीं, और वह भी कमाल की नहीं, घटिया, निकृष्ट, निकृष्टतम। स्वयं से प्रतियोगिता
प्रारम्भ कर दी कि पिछले से भी निकृष्ट लिखो! अस्तु!
तो ऐसे में मुझसे
छंद-शास्त्र के सम्बंध में प्रश्न करना मुझ पर अत्याचार नहीं तो और क्या है? और वह
भी तब, जब जानता हूँ कि कोई न मानेगा, न सीखेगा, और, और तो और, सीख कर भी, कम से
कम मुझे तो नहीं ही मानेगा। किन्तु मैंने कहा न, मैं मूर्ख हूँ! जो इन्सान न करने योग्य
कार्य करता है उसका वहीं निधन होता है, वैसे ही जैसे कीला उखाडने वाला बंदर मर गया। अव्यापारेषु
व्यापारं यो नरःकर्तुमिच्छति। स तत्र निधनं याति कीलोत्पाटीव वानरः॥ किन्तु अब
मूर्ख के सींग तो होते नहीं! और मेरे भी नहीं हैं। कुछ लोगों को लगता है कि हैं
सींग मेरे, किन्तु हैं नहीं वास्तव में। तो मैं वह करने जा रहा हूँ जो उस मूर्ख
वानर ने किया था। क्योंकि आज जब कविता गद्य की भूमि पर जा खड़ी हुई है और गद्य
युद्ध की भूमि पर तलवारें भांज रहा है, ऐसे समय में यदि कोई छंद के प्रति उत्सुक
हो, चिमटा खा कर भी उत्सुक हो, तो प्रसन्नता तो होती है। मूर्ख हूँ! दुर्जन नहीं
हूँ! कम से कम मैं तो अपने सम्बंध में ऐसा ही सोचता हूँ।
गद्य हो, या पद्य,
मेरी दृष्टि में दोनों काव्य के ही दो भेद हैं। और किसी भी काव्य की उत्कृष्टता के
दो महत्वपूर्ण घटक होते हैं। एक उसका भाव-पक्ष, और दूसरा उसका कला पक्ष। यदि किसी व्यक्ति
में भावनात्मक उद्रेक का अभाव है तब तो वह काव्य-कामिनी हेतु भसुर ही रह जायेगा
जिसके लिये काव्य का प्रणयन तो दूर, आस्वादन तक गो-मांस बराबर है किन्तु उनके
सम्बंध में कुछ कहना भी क्यों? अतः बात बस उनकी, जिनके भीतर भाव जीवित है, जाग्रत
है। किन्तु मात्र भाव-संपन्न होने से काव्य का आस्वादन तो सम्भव है, प्रणयन नहीं।
काव्य-प्रणयन हेतु भाव होने के साथ – साथ कला और शिल्प में भी अधिक नहीं तो कुछ –
कुछ हाथ चलना चाहिये। अब बात उनकी, जिनके पास थोड़ा भाव भी है, थोड़ी कला या शिल्प
भी है। वैसे भी - दम न दिलासा, भाव है अकासा की बहुत पूछ नहीं होती।
काव्य के प्रणयन हेतु
व्यक्ति में क्या होना चाहिये इसकी सूची विशाल है जिसके बिना बात बनती नहीं,
किन्तु यदि यह ध्यान रहे कि क्या नहीं होना चाहिये तो बात बिगड़ने से बच जाती है। यद्यपि
यह सब कहना उचित तो नहीं है किन्तु जब ओखली में सिर डाल ही दिया है तो मूसलों से
क्या डरना?
काव्य, चाहे गद्य हो
या पद्य, उसके भावपक्ष का सबसे बुरा दोष है नीरस-रूक्ष अभिव्यक्ति या कहें तो
सपाट-बयानी! कौन सी बात, कब और कैसे कही जाती है, ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती
है। किन्तु आज-कल समय का अभाव है भाई। तो भूमिका और विषय-प्रवेश की अवहेलना तो आदत
से अधिक लत बन गयी है। सीधे पहुँचो और माथे पर चार लट्ठ बजा दो! पहले लात, फिर बात और अगर बहुत ही आवश्यक हो तो मुलाकात! कहानियाँ तक घटना केन्द्रित न रह
कर परिणाम केन्द्रित हो गयी हैं। किन्तु यह काव्य का प्रथम दोष है। पहले श्रोता या
पाठक को अपने मनोनुकूल भाव-भूमि पर उतरने तो दो! उसमें यह उत्सुकता तो जगाओ कि वह
आपका मंतव्य जानना चाहे!
दूसरा दोष है अति-स्वतंत्रता। परम्परा तथा
आदर्शो के विरुद्ध विद्रोह काव्य में कोई नयी बात नहीं, किन्तु अपना पक्ष प्रस्तुत
करने में अति से बचना आवश्यक है। सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात! लेकिन नहीं! जिसे
जो करना हो कर ले, हम तो आँख में लट्ठ कोंचेंगे! तो यही काव्य की परिभाषा को आहत
करता है। यह साम्वादिकता हो सकती है, काव्य नहीं हो सकता। अब सामान्य जन को यह सब नहीं
पता, किन्तु जिन्हें पता है वे साम्वादिकता तथा काव्य का भेद जान कर ही मूल्यांकन
करेंगे। हर स्वतन्त्रता की अपनी सीमा है। और हर स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता तक हो तो
उचित है, उसे अराजकता की सीमा में नहीं प्रवेश करना चाहिये, समाज में ही नहीं, साहित्य
में भी।
तीसरा दोष है अति स्तर-हीनता या अति-क्लिष्टता! क्लिष्टता से बचने का अर्थ
यह नहीं कि भाषा के दरिद्रों के स्तर पर उतर कर समाचार-पत्रों की भाषा में काव्य
रचे जाँय। यह करने से तो भाषा की ऋद्धि ही क्षरित हो जायेगी। आज से सौ वर्ष
पश्चात आप की बात समझने वाला या समझाने वाला उत्पन्न हो सकता है, किन्तु तब आप
अपना श्रेष्ठ देने हेतु क्या पता रहें, न रहें? क्लिष्टता से बचने का अर्थ मात्र
यह कि अनावश्यक एवं अप्रासंगिक क्लिष्टता से बचा जाय। भाषा को स्तर-हीन होने से
बचाते हुये क्लिष्टता से बचा जाय। शब्दों की अनावश्यक ठुँसाई से बचा जाय। भाव के
अनुरूप प्रवाहमयी भाषा, शब्द एवं वाक्य-गठन का प्रयोग हो।
काव्य में भावपक्ष की
दुर्बलताएं और भी हैं, किन्तु इतना भर बचा लें तो पर्याप्त है। दोष तो विधाता में
भी खोजे गये हैं -
गन्धः सुवर्णे, फलं इक्षुदण्डे, नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य,
विद्वान् धनी भूपतिर्दीर्घजीवी, धातु पुरा कोऽपि न
बुद्धिदोऽभूत्।।
अब कलापक्ष या शिल्प
के दोष। प्रथम है गद्य में वाक्य-विन्यास और वर्तनी, तथा पद्य में छंद के दोष।
पद्य में वर्तनी-दोष उतना महत्वपूर्ण नहीं है। कई बार तो छंद को शुद्ध रखने हेतु
भाषा और वर्तनी में तोड़-मरोड़ कर देने की स्वतन्त्रता भी है किन्तु यदि इससे बच सका
जाय तो बचा जाना चाहिये और इसके लिये आवश्यक है शब्दों की समृद्धि तथा उनके प्रयोग
के सम्बंध में सतर्क रहना। किन्तु काव्य में छंद-दोष सबसे बड़ा दोष है और छंद-दोष
में आते हैं मात्राभार, उट्टवणिका, मात्रा-मैत्री, यति, दग्धाक्षर प्रयोग तथा गण
सम्बंधी दोष। यहीं से छंद – शास्त्र प्रारम्भ होता है।
छंद शब्द के शास्त्रीय
परिभाषा से इतर इस शब्द की प्रकृति पर विचार करें तो यह शब्द बड़ा लुभावना है। इस
संसृति में, प्रकृति में और जीवन में ही एक छंद है - एक सामरस्य, एक मोहक
उतार-चढ़ाव, एक आकर्षक कटाव-बनाव, एक आवृति, एक संतुलन, एक क्रम। जीवन में हुआ छन्द-भंग
जीवन को नीरस कर देता है, कभी – कभी जीवन दूभर कर देता है, और कभी-कभी तो जीवन ले
भी लेता है। काव्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो इस शब्द का मूल संस्कृत के
छंदस् शब्द में है जिसका समासगत रूप छंदः है। इस शब्द का एक अर्थ गति से है और एक
अर्थ आच्छादन से भी। छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात्कर्मणो यस्यां कस्यांचिद्दिशि
कामयते। (ऐतरेय आरण्यक २/१/६)। अतः छंद वह है जिसकी गति सब कुछ आच्छादित किये है।
छंद प्रकृत की वाणी है तथा संभवतः आदि मानव की प्राथमिक अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम
भी। छंद ही संगीत की योनि है तथा काव्य का प्राण भी।
छंद के सम्बंध में
छान्दोग्य उपनिषद् में एक अत्यंत सुन्दर रूपक है। देवताओं ने अपने मृत्यु के भय से
स्वयं को छंदों में ढाल लिया। मृत्यु से बचाव हेतु आच्छादन रूप में प्रयुक्त होने
के कारण ही छंद का नाम छंद हुआ – “देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविशस्ते
छन्दोभिरच्छादयन्यदेभिरच्छादयस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्।” सायण के अनुसार “अपमृत्यु
वारयितुमाच्छादयतीति छन्दः” – कलाकार तथा कलाकृति को अपमृत्यु से बचाने वाला छंद
ही है। सत्य है, छंदबद्ध रचना स्मृतियों में दीर्घजीवी होती है।
मनुष्य के दो पैर हैं,
पशुओं के चार, भृंग-शलभ आदि कीटों के छह, कुछ अन्य के आठ, कुछ के तो सौ तक। छंद के
भी दो, चार, छः आठ आदि पाद या चरण हो सकते हैं किन्तु सामान्यतः चार चरण होते हैं।
किसी भी छंद में विशेष प्रकार से संतुलित ध्वनि-समुच्चय को ही पाद या चरण कहते
हैं। छंद-बद्ध रचनाओं में विश्व के सर्वप्रथम उपलब्ध काव्य ऋग्वेद में सात मुख्य
छंदों का प्रयोग हुआ है जिनके नाम गायत्री, अनुष्टुप्, बृहती, पक्ति, त्रिष्टुभ्,
जगती तथा उष्णिक् हैं। इनमें गायत्री तथा अनुष्टुप् के तीन चरण हैं, बृहती, पक्ति,
त्रिष्टुभ् तथा जगती के चार चरण तथा उष्णिक् के पाँच। गायत्री छंद के प्रत्येक चरण
में आठ वर्ण हैं, उष्णिक् के दो चरण आठ-आठ वर्ण के तथा एक चरण बारह वर्ण का, और
अनुष्टुप् के चारो चरण आठ – आठ वर्ण के हैं। उष्णिक् के किस चरण में कितने वर्ण है
इस आधार पर उसके तीन भेद हो जाते हैं। आठ, आठ, बारह के क्रम वाला उष्णिक्, आठ,
बारह, आठ के क्रम वाला ककुप तथा बारह, आठ, आठ के क्रम से वर्णों वाला छंद पुर
उष्णिक् कहलाता है। बृहती चार चरणों का छत्तीस वर्ण का छंद है जिसमें तीन चरण
आठ-आठ वर्ण के तथा कोई एक चरण बारह वर्ण का होता है। यद्यपि चरणों में वर्णों की
संख्या के आधार पर इसके चार भेद हो सकते हैं किंतु बृहती आठ, आठ, बारह, आठ के क्रम
से तथा सतो बृहती आठ, आठ बारह, आठ के क्रम से, ही अधिक प्राप्त होता है। पक्ति के
पाँचों चरण आठ – आठ वर्ण के होते हैं। त्रिष्टुभ् के चारो चरणों में प्रत्येक में
ग्यारह वर्ण होते हैं, और जगती के चारो चरणों में प्रत्येक में बारह वर्ण। इसके
अतिरिक्त एक छंद विराज् का प्रयोग भी ऋग्वेद सप्तम मण्डल में हुआ है जिसके मात्र
दो चरण हैं तथा प्रत्येक चरण में दस वर्ण हैं।
इन सभी छंदों का आधार
छंदों में चरणों की संख्या तथा प्रत्येक चरण में अक्षरों की गिनती ही है तथा यह
उनका यह स्थूल नियम भी अपवादों से परे नहीं है। कहीं-कहीं एक या दो अक्षर कम या
अधिक भी हैं। अक्षरों के न्यूनाधिक्य के आधार पर न्यूनाक्षर वाले छंदों को विच्छंद
तथा अधिकाक्षर वाले छंदों को अतिछंद नाम दिया गया है। अक्षरों की संख्या के
न्यूनाधिक्य के आधार पर इन्हें निचृत (एक अक्षर हीन वाले), विराड् (दो अक्षर हीन
वाले), भूरिक् (एक अक्षर अधिक वाले) तथा स्वराड् (दो अक्षर अधिक वाले) नाम मिला
है। सुप्रसिद्ध गायत्री मन्त्र के ही एक चरण में तत्सवितुर्वरेण्यम् में आठ के
स्थान पर सात ही वर्ण हैं (ध्यान रहे कि अर्धाक्षरों की गणना नहीं की जाती।) यही
कारण है कि पाठ करते समय कुछ लोग वरेण्यम् का उच्चारण वरेणियम् भी करते हैं जबकि
व्याकरण की दृष्टि से वरेण्यम् ही शुद्ध है। और ऐसे अपवाद अनेक हैं। इन छंदों के
अतिरिक्त भी शक्वरी, अतिशक्वरी, तीन भेदों के साथ प्रगाथ, ककुभ प्रगाथ, बार्हत्
प्रगाथ कुल सत्रह छंद ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं किन्तु वेदों के मूल छंद मुख्यतः
तीन ही हैं – गायत्री, त्रिष्टुभ् तथा जगती। शेष अन्य छंद इन्ही के भेद या विस्तार
हैं। अधिक विस्तार में न जा कर, यह सब उल्लेख करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि
छंदों की अवधारणा वेद ही नहीं वरन् उससे भी प्राचीन है।
संसृति, प्रकृति तथा
जीवन के छंद की बात छोड़ कर मात्र काव्य के छंद पर केन्द्रित हों तो छंद की
सर्वाधिक जटित गुत्थी है छंदों में मात्राभार का आंकलन। अधिकतर छंद के विमर्श
मात्राभार से उठ कर उसी पर समाप्त होते देखे गये हैं और इसका कारण हैं छंद में
मात्राभार-निर्धारण के वे सूत्र जो रट लिये गये हैं, समझे नहीं गये। समझे इस लिये
नहीं गये कि वे समझाये ही नहीं गये और समझाये इस लिये नहीं गये कि समझाने वाले ने
भी रटे ही थे, समझे नहीं थे। यह परम्परा चलती चली आयी और हम नियमों की गुत्थी में
उलझ कर रह गये। यह गुत्थी मात्र सिद्धांतों से नहीं सुलझने वाली। यह गुत्थी तो उन
सिद्धांतों के आधार को समझने से ही सुलझेगी।
मात्राभार का आधार हैं
ध्वनियाँ और उनका चढ़ाव-उतार। ध्वनियाँ छंद का आकार-प्रकार रचती हैं तो उन ध्वनियों
का चढ़ाव-उतार छंद को एक लय प्रदान करता है। जिस प्रकार छंद की सबसे छोटी इकाई उसका
पाद या चरण है, उसी प्रकार छंद के किसी चरण की लघुतम इकाई ध्वनि है। अतः काव्य के
छंद को समझना है तो प्रारम्भ ध्वनियों से करना पडेगा। बिना ध्वनि को समझे छंद को
नहीं समझा जा सकता और इस आलेख विशेष में मात्र हिन्दी छंद तक तथा उसमें भी मात्र
उनके मूलभूत सूत्रों तक ही केन्द्रित रहना ध्येय है अतः सर्वप्रथम हिन्दी भाषा की
ध्वनियों से पारंभ करते हैं, जिसका स्रोत है हिन्दी वर्णमाला। हिन्दी वर्णमाला के
दो मुख्य भाग हैं – स्वर तथा व्यञ्जन।
ध्वनि का स्रोत हैं
स्वर। संगीत में तो स्वर ही ध्वनि का पर्याय है तथा उसे ही सुर कहा जाता है,
किन्तु वैसे भी ध्वनि का आधार स्वर ही हैं। व्यञ्जन की अपनी कोई ध्वनि नहीं होती।
यह कथन भ्रामक प्रतीत हो सकता है, किन्तु यह भ्रम उस भ्रम के कारण है जो हमारे
भीतर पहले से विद्यमान है। वह पूर्व का अवस्थित भ्रम समाप्त होते ही यह कथन भ्रामक
नहीं रह जायेगा।
स्वर ही ध्वनि हैं और
स्वर या ध्वनियों के तीन प्रकार हैं – (क) अनुदात्त ध्वनि या लघु स्वर या ह्रस्व
स्वर, (ख) उदात्त ध्वनि या दीर्घ स्वर या गुरु स्वर तथा (ग) स्वरित ध्वनि या प्लुत
स्वर। लघु स्वर ध्वनि की सबसे छोटी इकाई है तथा इसके मापन का आधार या कहें कि विमा
है समय। एक बार चुटकी बजने में लगने वाले, बजाने में नहीं, बजने में लगने वाले समय
की अवधि ही एक अनुदात्त या लघु स्वर की इकाई है और इसी अवधि को छंद-शास्त्र में,
या व्याकरण में भी, मात्रा कहते हैं। एक लघु स्वर के उच्चारण में इतना ही समय लगता
है और लगना चाहिये। इसी अवधि का मान एक मात्रा है तथा इसका संकेत एक खड़ी सीधी रेखा
(।) है। उदात्त या दीर्घ स्वर में लघु स्वर के उच्चारण से दो गुना समय लगता है, और
लगना चाहिये अतः दीर्घ स्वर का मान दो मात्रा हुआ और इसका संकेत अवग्रह (ऽ) है।
भाषा में इस चिह्न का प्रयोग लुप्त ‘अ’ स्वर की उपस्थिति दर्शाने हेतु होती है जैसे
संस्कृत में “यह बालक है” को “अयं बालकः” कहा जाता है और इसे “बालकः अयं” भी कहा
जा सकता है तथा स्वर संधि के फलस्वरूप इसे बालकोऽयम् भी कह सकते हैं जिसमें ऽ
चिह्न विलुप्त ‘अ’ अक्षर की उपस्थिति दर्शाता है कितु छंद-शास्त्र में यह दो
मात्राभार का प्रतीक है। छंद-शास्त्र की चर्चा के मध्य संस्कृत व्याकरण का यह
उदाहरण प्रयोजनहीन प्रतीत हो सकता है किन्तु संस्कृत के इस वाक्य-प्रयोग को बताने
का एक विशेष उद्देश्य है, किन्तु वह सम्बंधित प्रकरण उपस्थित होने पर।
छंद-शास्त्र में स्वरित
या प्लुत का प्रयोग नहीं होता, संगीत में तथा भाषा में किसी को पुकारते समय, जैसे
‘हरेऽऽ मोहनाऽऽऽ!’ होता है। अब यह समझने जैसी बात है कि जितने अवग्रह प्रयुक्त
हुये हैं उसी अनुसार स्वर को दीर्घ या विलंबित कर के उच्चारण करना, स्वरित करना
होगा – ‘रे’ को दो गुरु स्वर के अवधि तक खींच कर और ‘ना’ को तीन गुरु स्वर की अवधि
तक खींच कर। विलंबित शब्द भी संगीत में इसी अर्थ में बहुधा प्रयुक्त होता है। संगीत
में ऐसी परिस्थियाँ आलाप या टेक आदि के समय आती हैं अतः वहाँ इसका प्रयोग किया
जाता है। प्लुत या स्वरित स्वर का मात्राभार तीन लघुस्वर के बराबर होता है, किन्तु
चूंकि छंद-शास्त्र में इसका उपयोग नहीं है अतः इस स्वर के लिये कोई चिह्न भी नहीं
है।
हिन्दी वर्णमाला के
चार मूल स्वर हैं तथा ये चारो स्वर अनुदात्त कोटि के हैं और वे ही लघु स्वर कहे
जाते हैं। वे स्वर हैं अ, इ, उ, तथा ऋ और इनका मात्राभार एक मात्रा होता है।
हिन्दी वर्णमाला में लृ नहीं होता। इन चारो मूल स्वरों के अतिरिक्त अन्य सभी स्वर
जिनमें दीर्घ स्वर आ, ई तथा ऊ, गुण स्वर ए तथा ओ, वृद्ध स्वर ऐ तथा औ एवं अयोगवाह
अं तथा विसर्ग अः आते हैं, ये दीर्घ स्वर हैं तथा इनका मात्राभार दो मात्रा होता
है। (हिन्दी वर्णमाला में ऋृ भी नहीं होता। लृ तथा ऋृ संस्कृत वर्णमाला के स्वर
हैं।)
व्यञ्जनों का कोई
मात्राभार नहीं होता क्योंकि व्यञ्जन ध्वनियाँ नहीं हैं। सभी व्यञ्जनों को ध्वनि
बनाने के लिये उन के साथ कोई न कोई स्वर संयुक्त करना होता है यथा ‘क्’ में ‘अ’
संयुक्त करने पर ‘क’ वर्ण बनता है, ‘आ’ को संयुक्त करने पर ‘का’ वर्ण बनता है और
इसी प्रकार अन्य स्वरों के साथ संयुक्त होने पर क, का, कि, की आदि वर्ण बनते हैं और
तब वह ध्वनि उत्पन्न करने में समर्थ हो पाता है। ‘क’ व्यञ्जन नहीं है, व्यञ्जन तो
‘क्’ है जो किसी स्वर के साथ संयुक्त हो कर ही ध्वनि में परिवर्तित हो सकता है। आप
मात्र ‘क्’ का उच्चारण नहीं कर सकते। यही स्थिति ‘ग्’ ‘च्’ ‘ज्’ आदि के साथ या
कहें कि सभी व्यञ्जनों के साथ है। वास्तव में व्यञ्जन का नाम व्यञ्जन है ही इसलिये
कि वह ध्वनि न हो कर ध्वनि का व्यञ्जक मात्र है तथा किसी स्वर के साथ संयुक्त हो
कर ही वह ध्वनि को व्यक्त कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि आधी मात्राभार वाले व्यञ्जनों
का छंदशास्त्र में कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर सामान्यतः कोई मात्राभार नहीं
होता।
मनुष्य ने अपनी भाषा पशु-पक्षियों से ली है
तथा उनके ध्वनियों से ही मनुष्य की वर्णमाला निर्मित है, कम से कम देवनागरी के
स्वर तथा व्यञ्जन तो अवश्य ही, और इसका प्रमाण यह श्लोक है –
एक मात्रोभवेद्ह्रस्वो, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते,
त्रिमात्रस्तु प्लुतं ज्ञेयो, व्यञ्जनम् चार्द्ध मात्रकं।
चाशष्चैकांवदेन्मात्रा, द्विमात्रं वायसं वदेत्।
त्रिमात्रन्तु शिखी ब्रूते, नकुलाश्चार्धमात्रकं।
[ह्रस्व स्वर/ध्वनि की एक मात्रा होती है। दो मात्रा की ध्वनि दीर्घ
कही जाती है। तीन मात्रा वाली ध्वनि प्लुत कहलाती है तथा व्यञ्जन की आधी मात्रा
होती है। नीलकंठ एक मात्रा वाली ध्वनि में बोलता है, कौआ दो मात्रा की ध्वनि में
बोलता है, मोर तीन मात्रा की ध्वनि में बोलता है तथा नेवला अर्धमात्रा की ध्वनि
बोलता है।]
जिस प्रकार स्वर की
विभिन्न कोटियाँ हैं, व्यञ्जनों के भी प्रकार तथा कोटियाँ हैं। व्यञ्जन चार प्रकार
के हैं – स्पर्श (क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग एवं प वर्ग के व्यञ्जन), अन्तस्थ
(य वर्ग के व्यञ्जन), उष्म – (श, ष, स ह) तथा (संयुक्त - क्ष,
त्र, ज्ञ)। प्रत्येक व्यञ्जन-वर्ग
का प्रथम व्यञ्जन कठोर अल्पप्राण व्यञ्जन होता है। जैसे ‘क्’, ‘च्’, ‘ट्’, ‘त्’,
तथा ‘प्’ तथा इन वर्गों के अन्य सभी व्यञ्जन कठोर अल्पप्राण व्यञ्जन हैं। इसी
प्रकार प्रत्येक व्यञ्जन-वर्ग का तृतीय व्यञ्जन मधुर अल्पप्राण व्यञ्जन होता है।
‘ग्’, ‘ज्’, ‘ड्’, ‘द्’, तथा ‘ब्’ मधुर अल्पप्राण व्यञ्जन हैं। इन कठोर अल्पप्राण व्यञ्जनों
में ‘ह’ जोड़ कर प्रत्येक वर्ग का द्वितीय महाप्राण व्यञ्जन तथा मधुर अल्पप्राण व्यञ्जनों
में ‘ह’ जोड़ कर प्रत्येक वर्ग का चतुर्थ महाप्राण व्यञ्जन बनता है। जैसे ‘क्’ में
‘ह’ जुड़ने से ‘ख्’ तथा ‘ग्’ में ‘ह’ जुड़ने से ‘घ्’ बनता है। प्रत्येक व्यञ्जन वर्ग
का पंचम व्यञ्जन भी अल्पप्राण व्यञ्जन ही होता है किन्तु न कठोर, न मधुर, मात्र
अल्पप्राण! ‘ङ्’ ‘ञ्’ ‘ण्’ ‘न्’ तथा ‘म्’ अल्पप्राण व्यञ्जन हैं। इनमें से प्रथम
तीन के लिये तो ऐसी आवश्यकता नहीं पड़ती किन्तु कुछ विशिष्ट ध्वनियों को प्राप्त
करने के लिये ‘न्’ तथा ‘म्’ में ‘ह’ जोड़ने की आवश्यकता पड़ती है किन्तु इस प्रकार
‘न्’ तथा ‘म्’ में ‘ह’ जोड़ने से प्राप्त ध्वनियों के लिये कोई लिपि निर्धारित नहीं
है। अतः न्ह् तथा म्ह् संयुक्ताक्षर नहीं हैं बल्कि महाप्राण व्यञ्जन हैं जिनके लिये कोई लिपि
स्वीकृत नहीं है। इन दोनों के अतिरिक्त कोई दो व्यञ्जन एक साथ जुड़ें तो वे
संयुक्ताक्षर कहलायेंगे जैसे ‘प्य’, ‘क्र’, ‘ग्य’, ‘व्र’ आदि, किन्तु ‘न्ह्’ तथा ‘म्ह्’
संयुक्ताक्षर नहीं, महाप्राण व्यञ्जन हैं, वैसे ही जैसे ‘घ्’ है, जैसे ‘झ्’ है। और
जब ‘न्ह्’ तथा ‘म्ह्’ से कोई स्वर जुड़ेगा तो परिणाम स्वरुप प्राप्त ध्वनि एक ही
वर्ण मानी जायेगी तथा उसके मात्राभार का निर्धारण इस व्यंजन पर लगी मात्रा से होगा
क्योंकि म्ह या न्ह आदि संयुक्ताक्षर नहीं एक महाप्राण व्यञ्जन ध्वनि हैं। ध्यान
रहे कि यह तब है जब ‘ह्’ ‘न्’ या ‘म्’ के बाद में जुड़ता है। यदि ह् न् या म् के
पूर्व जुड़ेगा जैसे ब्रह्मा या वह्नि में, तब ‘ह्म’ या ‘ह्न’ महाप्राण व्यञ्जन नहीं
बल्कि संयुक्ताक्षर ही होंगे। ऐसी ही स्थिति अल्पप्राण ‘ल्’ के साथ भी है। इसके
साथ भी ‘ह्’ को जोड़ कर एक ध्वनि बनाने की आवश्यकता पड़ती है और उस ध्वनि के लिये भी
कोई लिपि निर्धारित नहीं है अतः ‘ल्ह्’ भी संयुक्ताक्षर नहीं बल्कि एक महाप्राण
ध्वनि है और इसके साथ भी यह शर्त है कि ‘ह्’ को ‘ल्’ के पश्चात जोड़ने से महाप्राण
ध्वनि व्यञ्जक बनेगा, पूर्व में जोड़ने से नहीं।
इतना ध्यान में रहे तो
अब छंद-शास्त्र के अनुसार किसी ध्वनि का मात्राभार निर्धारित करना सुगम है।
* प्रथम तो मत्राभार लिपि या वर्ण का नहीं बल्कि उस वर्ण की ध्वनि या
उसके साथ जुड़े स्वर की होती है अतः जो वर्ण अकारांत, इकारांत या उकारांत हैं या
जिनके साथ ऋ (ृ) जुड़ा है उनका मात्राभार एक मात्रा, तथा आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ,
अयोगवाह स्वर या अनुस्वार (ं) तथा विसर्ग (ः) से जुड़े वर्ण का मात्राभार दो मात्रा
होगा। अनुस्वार के विपरीत अनुनासिक अर्थात चंद्रबिन्दु (ँ) का मात्राभार एक मात्रा
ही होगा क्योंकि यह किसी ध्वनि के उच्चारण में नासिका के सहयोग का निदर्शक मात्र है
तथा यदि किसी अन्य गुरु स्वर के साथ न हो तो इसके संयोग से उच्चारण में काल-वृद्धि
नहीं होती अतः इसे दो मात्राभार प्राप्त नहीं होता।
* किसी संयुक्त वर्ण के उच्चारण में यदि अर्धाक्षर या हल् व्यञ्जन के
पूर्व कोई वर्ण नहीं है तो इस अर्धाक्षर के उच्चारण में उसके बाद वाले वर्ण की
सहायता लेनी पड़ती है और तब इसके उच्चारण में एक लघु स्वर के उच्चारण के बराबर समय
भी नहीं लगता अतः ऐसी दशा में यह अर्धाक्षर मात्राभार में सम्मिलित नहीं होगा
अर्थात उसको गणना में ही नहीं लिया जायेगा, किन्तु यदि अर्धाक्षर या हल् व्यञ्जन
के पूर्व कोई वर्ण है तो इस अर्धाक्षर के उच्चारण में उसके पहले वाले वर्ण की
सहायता लेनी पड़ती है और तब अर्धाक्षर के पूर्व वाले वर्ण के उच्चारण में एक लघु
स्वर के उच्चारण के बराबर का समय अधिक लग जाता है अतः ऐसी दशा में पूर्व वर्ण का
मात्राभार एक मात्रा बढ़ जायेगा किन्तु मात्र तब, जब अर्धाक्षर के पूर्व वाला वर्ण
लघु स्वर संयुक्त हो। यदि अर्धाक्षर के पूर्व वाला वर्ण पहले से ही गुरु है तो
पुनः यह अर्धाक्षर गणना में नहीं लिया जायेगा क्योंकि किसी ध्वनि का मात्राभार दो
मात्रा से अधिक हो ही नहीं सकता। जैसे ‘क्या’ में क् के पूर्व कोई वर्ण नहीं है
अतः इस शब्द का मात्राभार मात्र ‘या’ के आधार पर निर्धारित होगा और ‘आ’ का भार दो
मात्रा है अतः ‘क्या’ का कुल मात्राभार दो मात्रा हुआ। ‘धन्य’ में अर्धाक्षर ‘न्’
के पूर्व एक वर्ण है ‘ध’ जो अकारांत है और लघु स्वर वर्ण है अतः उसका मात्राभार एक
बढ़ जायेगा तथा एक मात्रा अकारांत ‘य’ की अतः ‘धन्य’ का कुल मात्राभार तीन मात्रा
हुआ किन्तु ‘राज्य’ में अर्धाक्षर ‘ज्’ के पूर्व ‘रा’ वर्ण आकारांत है, दीर्घ स्वर
वर्ण है और उसका मात्राभार पहले ही दो मात्रा है अतः ‘ज्’ के कारण ‘रा’ के
मात्राभार में वृद्धि संभव नहीं है जिस कारण ‘राज्य’ शब्द का कुल मात्राभार भी तीन
ही मात्रा हुआ। ध्यातव्य है कि पूर्व में बताये अनुसार ‘न्ह’, ‘म्ह’, तथा ‘ल्ह’
संयुक्ताक्षर नहीं माने जायेंगे। अतः कन्हैया में ‘क’ का, तुम्हारे में ‘तु’ का
तथा मल्हार में ‘म’ का मात्राभार लघु अर्थात एक मात्रा ही रहेगा, भले ही इनके पहले
आने वाले वर्ण, कन्हैया का ‘क’, तुम्हारे का ‘तु’ तथा मल्हार का ‘म’ लघु स्वर वर्ण
है। एक से अधिक अर्धाक्षर एक साथ हों तो दोनों को एक माना जाता है जैसे मत्स्य,
किन्तु ‘न्ह’, ‘म्ह’, तथा ‘ल्ह’ के पूर्व कोई और अर्धाक्षर आ जाय तो उसे गणना में
लेना आवश्यक हो जायेगा क्योंकि तब वह अर्धाक्षर इन तीनों के साथ एक संयुक्ताक्षर बनाने
लगेंगे। वैसे ऐसी स्थिति आती नहीं है, किन्तु नियम नियम है। ध्यान यह भी देना है
कि हिन्दी के छंदों में मात्रा का निर्धारण शब्द प्रति शब्द करना है तथा एक शब्द
के अर्धाक्षर का, उसके पूर्व के शब्द से कोई सम्बंध नहीं होता। संस्कृत छंद में ऐसा
होता है, हिन्दी में नहीं। संयुक्ताक्षर के कारण पूर्व वर्ण को गुरुता मिलने का एक
अपवाद और है। ‘यो’ तथा ‘यौ’ वर्ण के साथ पूर्व में कोई अर्धाक्षर या हल् वर्ण जुड़ा
हो तब भी पूर्व वर्ण को गुरुता प्राप्त नहीं होगी। व्रजभाषा में यो तथा यौ के साथ
हल् वर्ण बहुधा जुड़े मिलते हैं जैसे स्वरचित पद का अंश – “रास गह्यो हे रासविहारी।”
में गह्यो का ‘ग’ लघु है, एक अर्धाक्षर के पहले आया है कितु उसे गुरुता नहीं
प्राप्त होगी। जैसे दिनकर की रश्मिरथी से एक उदाहरण लें – फिरा कर्ण, त्यों
साधु-साधु कह उठे सकल नर-नारी। कर्ण का उच्चारण क-र्-ण है, क लघु है, एक अर्धाक्षर
के पूर्व आया है अतः ‘क’ की मात्रा दो हो गयी और र् की अवहेलना हुई, और ण की
मात्रा एक, कुल मात्रा तीन। किन्तु त्यों में त् के पूर्व कोई वर्ण नहीं है। यहाँ
यह नहीं समझना चाहिये कि ‘त्’ के पूर्व कर्ण का ‘ण’ आता है, वह लघु है अतः उसे
दीर्घ होना होगा। नहीं! ‘कर्ण’ शब्द का मात्राभार अलग, ‘त्यों’ शब्द का मात्राभार
अलग। ‘यों’ की मात्रा दो, अनुस्वार होने पर भी दो ही, क्यों कि दो से अधिक मात्रा
हो ही नहीं सकती अतः त्यों का कुल मात्राभार मात्र दो मात्रा है। मात्रा प्रत्येक
शब्द की अलग – अलग गिनी जायेगी। किन्तु परिस्थिति के अनुरूप अर्धाक्षर से प्रारम्भ
होने वाले शब्दों के पहले के शब्द का अंतिम वर्ण ह्रस्व या दीर्घ, जैसी आवश्यकता
हो वैसा माना जा सकता है यह शास्त्र-वचन है।
पादादाविह वर्णस्य संयोगः क्रमसंज्ञकः,
पुरःस्थितेन तेन स्याल्लघुताSपि क्वचिद् गुरोः।।
(वृत्त रत्नाकर)
मात्राभार निर्धारण
सम्बंधी इन नियमों का अनुपालन किसी भी कवि द्वारा सदा संभव नहीं हो सका। अतः
वास्तविक नियम तो यही है कि जिस वर्ण के उच्चारण में अल्प समय लगता है वह एक
मात्राभार का अर्थात लघु होगा और जिस वर्ण के उच्चारण में अधिक समय लगता है वह दो
मात्राभार का अर्थात गुरु होगा क्योंकि वास्तव में मात्रा का निर्धारण वर्ण के
उच्चारण में लगी अवधि से ही होता है तथा इसके अतिरिक्त इसका अन्य कोई निर्धारक
तत्व नहीं है।
उदात्तश्चानुदात्तश्च स्वरितश्च स्वरास्त्रयः।
ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति कालतो नियमा अचि।।
(पाणिनीय शिक्षा, तृतीय खण्ड, श्लोक ११)
अतः छंदों के लय के आधार पर गुरु को लघु या लघु को गुरु कर के वाचन कर
लेना और उसी आधार पर मात्राभार का निर्धारण करना ही उचित होता है किन्तु कवि को भी
चाहिये कि वह यह उतरदायित्व पाठक या श्रोता पर न छोड़े तथा यथासंभव इसका निराकरण स्वयं
कर के ही छंद प्रस्तुत करे। कवित्व यदि अपवाद नियमों पर आश्रित हो तो कवित्व कैसा?
किन्तु कभी-कभी विवशता भी होती है जब परिस्थिति के अनुरूप कोई प्रतिस्थानीय शब्द
ही नहीं मिलता। वहाँ पाठक को ध्वनि भी समंजित करनी होगी एवं तदनुरूप ही मात्राभार
भी स्वीकार करना होगा।
काव्य
में लघु तथा गुरु वर्णों के कुछ विशिष्ट संयोजन बनते हैं। यदि लघु तथा गुरु के
क्रम का तीन – तीन का एक समूह बनायें तो सम्पूर्ण काव्य-जगत को आठ समूहों में
विभाजित किया जा सकता है। निश्चय ही किसी संख्या को तीन से विभाजित करें तो एक
अथवा दो शेष रहने की सम्भावना रहती ही है अतः किसी कविता के किसी चरण में वर्णों
को उनके मात्रा भार सहित तीन के समूह में विभाजित करने पर एक लघु या एक दीर्घ, या
दो लघु, या दो दीर्घ, या एक लघु तथा एक दीर्घ वर्ण के शेष रह जाने की सम्भावना
रहती है। तीन से विभाजित करने पर दो से अधिक वर्ण शेष नहीं रह सकते तथा वे गुरु और
लघु के अतिरिक्त कुछ अन्य हो नहीं सकते। इस सिद्धांत के आधार पर काव्य में गणों की
परिकल्पना हुई जो छंद के लक्षण निर्धारित करने में सहायक होते हैं तथा इनके आधार
पर काव्य की गेयता तथा ध्वनि की मधुरता का संरक्षण होता है। तीन की संख्या में
गुरु-लघु वर्णों के विशिष्ट क्रम वाले ये
समूह अर्थात ये गण कुल आठ हैं जिनके नाम ‘म’ ‘य’ ‘र’ ‘स’ ‘त’ ‘ज’ ‘भ’ तथा ‘न’ हैं जिनमें
विभाजन पश्चात शेष संभाव्य गुरु वर्ण के लिये ‘ग’ तथा लघु वर्ण के लिये ‘ल’ को जोड़
कर दस अक्षरों का एक समूह है जिसे म य र स त ज भ न ग ल अक्षरों के द्वारा
अभिव्यक्त किया जाता है। अर्थात मगण, यगण, रगण, सगण, तगण, जगण, भगण, नगण, तथा यदि
संभव हुआ तो अन्त में गुरु वर्ण या लघु वर्ण में से कोई एक या दोनों को मिला कर ही
किसी कविता का कोई चरण बना होता है। मयरसतजभनगल के इन दस अक्षरों में सम्पूर्ण
काव्य समाहित है तथा इन दस अक्षरों को पिंगल शास्त्र के दशाक्षर कहा जाता है।
पिंगल शास्त्र छंद शास्त्र का ही नाम है।
गणों के ये त्रिक गुरु
– लघु के जिस क्रम के प्रतीक हैं वे इस प्रकार हैं – मगण (ऽऽऽ), यगण (।ऽऽ), रगण (ऽ।ऽ),
सगण (।।ऽ), तगण (ऽऽ।), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।), गुरु (ऽ), लघु (।)
जिन्हें स्मरण रखने का एक बहुप्रचलित सूत्र यमाताराजभानसलगा है। इस सूत्र में
प्रत्येक वर्ण का मात्राभार लिख कर जिस गण का प्रतीक जानना हो उससे प्रारम्भ कर के
अगले तीन वर्णों के मात्राभार का समूह बना लें तो सम्बंधित गण का प्रतीक मिल जाता
है। यमाताराजभानसलगा का मात्राभार (।ऽऽऽ।ऽ।।।ऽ) इस प्रकार से है।
एक प्रश्न उठता है कि
इन गणों के नाम ऐसे ही यादृच्छया बिना क्रम के ऊटपटांग क्यों रख दिया गया? नाम ही
रखना था तो क्रम से अक्षर चुने जाने चाहिये थे। किन्तु ऐसा नहीं है। इन गणों का
नाम यादृच्छया नहीं है। ये नाम बहुत सोच-समझ कर, पौराणिक मान्यताओं, गणित, ज्योतिष,
तंत्र तथा दर्शन के आधार निर्धारत किये गये हैं जिसके विस्तार में जाने से
विषयांतर होगा, फिर भी बुद्धि-विलास हेतु कुछ संकेत प्रस्तुत हैं।
एकाक्षर के भी अपने
विशिष्ट अर्थ होते हैं। जैसे ‘अ’ अक्षर अनादि अनंत अव्यय स्वरुप परमात्मा का बोधक
है। ‘इ’ कामदेव, रति तथा लक्ष्मी बोधक है। ‘ख’ अक्षर शून्य, व्योम, तथा खड्ग का
बोधक है। ए अक्षर से देवी (दुर्गा) तथा ऐ
से योगिनियों का बोध होता है। इसी प्रकार छंदशास्त्र के गण निरूपक प्रतीकाक्षरों म
य र स त ज भ न के अपने विशिष्ट अर्थ हैं। प्रथम गण ‘म’गण में म अक्षर त्रिदेवों का
अर्थात ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का समन्वित प्रतीक है। कामधेनु तंत्र में इसे परम
कुण्डलिनी कहा गया है। इसके लेखन प्रकार अर्थात दो क्रमागत लघु तथा दीर्घ उर्ध्व
रेखाओं में वाम रेखा के अधोभाग में एक दक्षिणावर्त कुण्डली जो दक्षिण रेखा को मध्य
से जोड़ती है उन में लघु वाम रेखा पर ब्रह्मा, मध्य की कुण्डली संयुक्त क्षैतिज
रेखा पर शक्ति (कुण्डलिनी) युक्त शिव तथा दक्षिण दीर्घ रेखा पर श्रीविष्णु का
निवास है।
उर्ध्वाधःक्रमतो रेखा वामे वक्रतु कुण्डली,
पुनश्चा अधोगता सैव तत उर्ध्वगता पुनः।
ब्रह्मा शम्भुश्च विष्णुश्च क्रमशस्तासु तिष्ठति।।
तंत्रोक्त वर्णाभिधान में इस ‘म’ अक्षर का वर्णन करते हुये इसे सृष्टि
की सभी शुभ महाशक्तियों यथा काली, महाकाली, वैकुंठी आदि से संयुक्त कहा गया है।
सभी उद्धरण देना संभव भी नहीं है और उचित भी नहीं है क्योंकि तंत्र तथा ज्योतिष की
अपनी मर्यादायें हैं किन्तु इतने मात्र से ‘म’ अक्षर की महत्ता स्पष्ट है। इसीलिये काव्य शास्त्र का प्रथम गण ‘म’ अक्षर से निर्धारित किया गया जिसके सभी तीनों
वर्ण गुरु (ऽऽऽ) हैं। यह एक परम शुभ गण है। ध्यान रहे कि सूत्र यमाताराजभानसलगा (।ऽऽऽ।ऽ।।।ऽ)
एक हस्त-गुर (थम्ब रूल) है तथा इसमें गणों का क्रम आदर्श क्रम नहीं बल्कि सुविधाजनक
क्रम है। इस सूत्र में पहले ‘य’गण का उल्लेख है किन्तु छंद शास्त्र का प्रथम गण
‘म’ ही है।
इसी प्रकार द्वितीय गण
‘य’गण में ‘य’ अक्षर यश का बोधक है। कामधेनुतंत्र इसे “पञ्च प्राणमयं वर्णं पञ्च
देव मयं सदा, त्रिशक्ति सहितं त्रिबिंदु सहितं तथा” कह कर इसकी प्रशंसा करता है।
लेखन प्रकार के आधार पर इसे – “उर्ध्वाधःक्रमतो रेखा चतुष्कोणमयी शुभा,
नारायणेशविधयस्तासु तिष्ठन्ति नित्यशः।” कहा गया। इस गण के समूह में एक लघु तथा दो
दीर्घ वर्ण (।ऽऽ) हैं तथा यह भी एक बहुत शुभ गण है।
दो उदाहरण पर्याप्त
हैं। भविष्य में यदि कभी लिखने का मन बना और लिखा जा सका तो इस प्रकरण पर विस्तृत आलेख
लिखा जा सकता है जिसकी सम्भावना शून्य से भी कम है, किन्तु गणों के नामाक्षर के विशिष्ट
अर्थ बता देने में कोई हानि नहीं है अतः शेष गणों के नामाक्षर के अर्थ इस प्रकार
हैं – ‘र’ अग्नि का बोधक है, अग्नि का बीजमंत्र भी रं है, ‘स’ = वायु का बोधक है,
‘त’ तस्कर (दुष्ट, दुर्जन, कुकर्मा) का, ‘ज’ विष का बोधक है, “भ’ तो ज्योतिष
शास्त्र का अत्यंत प्रचलित एकाक्षर है जो नक्षत्रों हेतु प्रयुक्त होता है, तथा
‘न’ स्वर्ग का पर्याय है।
इतना ही नहीं है। ये
अक्षर विष्णु के दशावतारों के भी प्रतीक हैं। म विष्णु के महामत्स्यावतार का, य
गुह्य अर्थात कच्छपावतार का, र शूकर या वराह अवतार का, स सिंह अर्थात नृसिंह
अवतार, त तन्वंग अर्थात छोटे, क्षीण अंग वाले या वामन अवतार का, ज द्विजेष या
परशुराम अवतार का, भ भानु-कुल-भूषण भगवान् राम के अवतार का, न नन्दनन्दन अर्थात
कृष्णावतार का प्रतीक है। अंत में जुड़ने वाले ग तथा ल में ग गोतम या बौद्धावतार का
तथा ल लघुतम अवतार या कल्कि अवतार का प्रतीक अक्षर है।
तत्व-दर्शन के आधार पर
म पृथ्वी तत्व का, य जल तत्व का, र अग्नि तत्व का, स वायु तत्व का, त आकाश, व्योम
या शून्य तत्व का, ज सूर्य तत्व का, भ चन्द्र तत्व का, न स्वर्ग या मोक्ष तत्व का
प्रतीक है।
छंद शास्त्र गणित के
चमत्कारों का भी एक आदर्श उदाहरण है तथा गणों के नाम से सम्बद्ध उनके संकेताक्षर
गणित के एक सूत्र का प्रतिफलन भी हैं। पास्कल का पिरामिड नाम से प्रसिद्ध द्विपद
गुणांकों को त्रिभुजाकार रूप में प्रस्तुत करने की जो विधि है वह पिंगल के
छंद-शास्त्र में हलायुध त्रिकोण या मेरु-प्रस्तार के नाम से पाणिनि के काल से ही
भारतीय मनीषा की थाती रही है। जी हाँ! श्रीमान आचार्य पिंगल, जिन्होंने
छंद-शास्त्र का प्रथम ग्रन्थ पिंगल-शास्त्र लिखा वे स्वनामधन्य पाणिनि के अनुज थे।
उनके द्वारा निर्देशित मेरु-प्रस्तार की कसौटी पर कसें तो लघु या गुरु मात्राभार
वाले तीन वर्णों के अधिकतम आठ ही संयोजन बन सकते हैं और उनका क्रमागत शास्त्रोक्त
तथा आदर्श संयोजन म य र स त ज भ न ग ल अक्षरों से व्यक्त होने वाला संयोजन ही है।
स्पष्ट है कि गणों का
नामकरण बहुत सोच-समझ कर, बड़े तार्किक आधार पर, पौराणिक, तांत्रिक, गणितीय,
ज्योतिषीय तथा दार्शनिक आधार पर किया गया है।
इस नामकरण से यह भी
स्पष्ट है कि कुछ गण शुभ तथा कुछ गण अशुभ हैं। क्रम से र स त ज अर्थात ‘र’गण (ऽ।ऽ),
‘स’गण (।।ऽ), ‘त’गण (ऽऽ।), एवं ‘ज’गण(।ऽ।) की गणना अशुभ गणों में होती है क्योंकि
ये क्रमशः अग्नि, वायु, व्योम तथा यम तत्व के प्रतीक हैं तथा इनका गुण क्रमशः
दाहकता, भटकाव, शून्यता तथा मृत्यु-भय है। इन गणों का प्रयोग किसी भी काव्य-ग्रन्थ,
किसी एकाकी छंद या किसी गीत आदि के प्रारम्भ में नहीं करना चाहिये। यह अनायास नहीं
है कि गोस्वामी जी रामचरितमानस का प्रारम्भ “वर्णानामर्थसंघानां” से करते हैं
जिसके प्रथम तीनों वर्ण गुरु अर्थात ‘म’गण (ऽऽऽ) हैं – त्रिदेवों का प्रतीक, तथा
जब वे संस्कृत से अवधी में उतरते हैं तो पहला सोरठा ‘जो सुमिरत सिधि होय’ लिखते
हैं जिसका प्रारम्भ ‘भ’गण (ऽ।।) से हैं – भानुकुलभूषण श्री राम का प्रतीक! बहुधा
देखा है कि अनेक कवियों की रचनायें गीत, गजल आदि इन गणों से प्रारम्भ होती हैं तथा
अज्ञानीजन उसकी भूरिशः प्रशंसा करते नहीं थकते किन्तु जिस काव्य का प्रारम्भ ही
अशुद्ध तथा शास्त्र विरुद्ध है, विद्वतजनों को उसकी प्रशंसा से भी पातक लगता है,
उतना ही पातक, जितना किसी श्रेष्ठ काव्य का आस्वादन करके उसकी प्रशंसा न करने की
कृपणता से लगता है, यद्यपि अज्ञानियों को किसी भी पातक से मुक्त रखा गया है।
जिस प्रकार ये चार गण
किसी काव्य या ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्जित हैं उसी प्रकार काव्य के प्रारम्भ
में दग्धाक्षरों का प्रयोग भी वर्जित है। ङ, झ, ञ, ट, ठ, ढ, ण, ट, थ, प, फ, ब, भ,
म, र, ल, व, ष, ह, ये उन्नीस अक्षर दग्धाक्षर हैं। इनमें भी पाँच अक्षर झ भ र ष
तथा ह अत्यंत गर्हित हैं अतः काव्य-ग्रन्थ, एकाकी छंद या किसी गीत के प्रारम्भ में
इनका प्रयोग तो पूर्णतः वर्जित है, शेष चौदह अक्षरों का प्रयोग विवशता में किया जा
सकता है। प्रश्न यह है कि ये वर्ण वर्जित क्यों हैं? यह प्रश्न तंत्र-शास्त्र से
सम्बंधित है और गूढ़ है, इस आलेख की परिधि से बाहर है, किन्तु व्यावहारिक उत्तर यह
है कि ये वर्ण क्रूर-कठोर ध्वनि वाले एवं कर्ण-कटु हैं अतः रसोद्रेक में प्रारम्भ
में ही बाधा पहुँचाते हैं।
शास्त्रों ने प्रत्येक
दोष के अनुभवसिद्ध परिहार भी बताये हैं। जैसे अशुभ गणों के प्रयोग के तत्काल
पश्चात किसी शुभ गण का प्रयोग कर दिया जाय तो अशुभ गण प्रयोग दोष का परिहार हो
जाता है या यदि गण भंग हो तब भी दोष का परिहार हो जाता है। साथ ही अशुभ गणों का
प्रयोग मात्रिक छंदों में ही दोष-कारक है, वर्णिक छंदों या वृत्त में यह दोष नहीं
लगता। इसी प्रकार दग्धाक्षरों का लघु प्रयोग ही वर्जित है, यदि उन्हें गुरु कर
लिया जाय तो दोष का परिहार हो जाता है। साथ ही यदि दग्धाक्षरों का प्रयोग देववाची
शब्द के प्रारम्भ में हो, या मंगल-वचन के प्रारम्भ में हो तो भी दग्धाक्षर-प्रयोग
का दोष नहीं लगता।
इन गणों के अतिरिक्त
टगण, ठगण, डगण, ढगण तथा णगण भी होते हैं जो मात्रिक गण हैं किन्तु इन्हें
सामान्यतः षट्कल, पञ्चकल, चतुष्कल, त्रिकल तथा द्विकल नाम से अधिक जाना जाता है।
कल शब्द मात्रा का ही पर्याय है अतः इन गणों का तात्पर्य छह, पाँच, चार, तीन तथा
दो मात्राओं के समूह से है। आठ तथा सात मात्राओं के समूह भी होते हैं जिन्हें
अष्टकल तथा सप्तकल कहा जाता है। मात्रिक गण कहने का तात्पर्य यह है कि इन द्विकल
से अष्टकल तक के मात्रा-समूहों का व्यवहार मात्रिक छंदों में ही होता है, वर्णिक
छंदों में नहीं।
अब यहाँ मात्रिक तथा
वर्णिक छंदों का भी भेद स्पष्ट हो जाय तो उत्तम है। मात्रिक छंद वे छंद हैं जिनके
चरण प्रति चरण कुछ निश्चित मात्राभार वाले वर्णों से मिल कर बनते हैं। ऐसे छंदों
में, उनके चरणों में न तो वर्णों की संख्या ही निश्चित होती है और न ही गणों का
कोई बाध्यकारी निश्चित आवर्ती क्रम ही निर्धारित होता है। किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य
है कि मात्रिक छंदों में गणों का कोई महत्व ही नहीं होता, ऐसा भी नहीं है। गणों का
महत्व तो होता है, बाध्यकारी महत्व होता है, किन्तु गणों की बाध्यकारी आवृत्ति
नहीं हुआ करती। जब कि वर्णिक छंद के प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या भी निश्चित
होती है, गण तथा उनके आवर्ती क्रम भी निश्चित होते हैं, तथा गणों के आवर्ती क्रम
के निश्चित होने के कारण प्रत्येक चरण की मात्रा तो स्वतः निश्चित हो जाती है।
दोनों प्रकार के, मात्रिक भी तथा वर्णिक भी, छंदों का सम, अर्ध सम तथा विषम नाम से
पुनर्विभाजन भी किया गया है। जिन छंदों के चारो चरण मात्रा या गणों के आधार पर
समान हों वे सम मात्रिक या सम वर्णिक, जिनके चारो चरणों में विषम चरण अर्थात प्रथम
तथा तृतीय एक प्रकार के किन्तु सम चरण अर्थात दूसरे तथा चौथे चरण एक प्रकार के
किन्तु विषम चरणों से भिन्न हों वे अर्ध सम मात्रिक या वर्णिक छंद तथा जो न सम
छंदों की कोटि में आते हों न अर्ध सम छंदों की कोटि में आते हों वे विषम छंद कहे
जाते हैं। अधिकतर ऐसे छंद दो भिन्न प्रकार के छंदों के योग से बनते हैं। सरलतम
उदाहरण स्वरुप चौपाई एक सम मात्रिक छंद है जिसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्रायें
होती हैं तथा दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसमें प्रथम तथा तृतीय चरण में तेरह
तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ग्यारह मात्रायें होती हैं। कुण्डलिया एक विषम
मात्रिक छंद है जो दोहा तथा रोला छंदों के योग से अपना आकार पाता है। इसी प्रकार
सवैया एक सम वर्णिक छंद है। अधिक विस्तार आलेख की सीमा का अतिक्रमण करेगा अतः पाठक
को अधिकारी ग्रंथों का सन्दर्भ ग्रहण करना चाहिये।
मात्राओं तथा गणों आदि
के आधार पर छंद की देहयष्टि का निर्धारण हो जाने के पश्चात विचारणीय विषय आता है
छंदों के चरणों की उट्टवणिका! उट्टवणिका का अर्थ है किसी छंद के किसी चरण में
मात्राओं का विभाजन। जैसे दोहा छंद को लेते हैं। स्पष्ट नियम तो मात्र इतना है कि इस
छंद के क्रमागत चरण में १३, ११ मात्रा
होनी चाहिये। उदहारण स्वरुप – देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गंधर्व। बंदउँ
किन्नर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्व।। (रामचरितमानस, बालकाण्ड, ७-घ)। इस दोहे के
प्रथम चरण में नियमानुसार तेरह मात्रायें हैं। प्रथम चरण के शब्दों को उलट पुलट कर
देखें तो – “दनुज नर खग देव नाग” कर देने पर भी उक्त चरण में तेरह मात्रायें यथावत
रहती हैं किन्तु यह परिवर्तन छंद को नष्ट ही कर गया। कारण है दोहे के प्रथम चरण की
मात्रा-बाँट का उल्लंघन। दोहे के प्रथम चरण में एक अष्टकल, फिर एक त्रिकल और
तत्पश्चात एक द्विकल आने चाहिये जो मूल में तो नियमानुसार है किन्तु परिवर्तित में
यह नियम भंग हो गया है। मूल रूप में देव दनुज नर (कुल आठ मात्रा – अष्टकल) नाग (तीन
मात्रा – त्रिकल) खग (दो मात्रा द्विकल) होने से यह चरण दोहे का प्रथम चरण शुद्ध
रूप में प्रस्तुत करता है किन्तु परिवर्तित रूप में दनुज नर खग (सात मात्रा) देव (तीन
मात्रा) नाग (दो मात्रा) प्रथम चरण की मात्राओं के बंटवारे का उल्लंघन है अतः
अशुद्ध है। यदि देव शब्द से दे का मात्राभार प्रथम सप्तकल में जोड़ने का प्रयास
करें तो वह सात से बढ़ कर नौ हो जायेगा अतः यह कर पाना भी उचित या संभव नहीं है। इतना
ही नहीं, दोहे के विषम चरणों की समाप्ति ताल संज्ञक (ता = ऽ, ल = ।) वर्णों से
नहीं होनी चाहिये अतः प्रथम चरण के अंत में ‘नाग’ नहीं आना चाहिये क्योंकि यह ताल
संज्ञक शब्द है। दोहे के प्रथम चरण में जो त्रिकल आता है वह ध्वजा संज्ञक (ध्व =
।, जा = ऽ अर्थात ।ऽ) भी नहीं होना चाहिये। इसी प्रकार दोहे के द्वितीय चरण में क्रमशः
दो चतुष्कल तथा एक ताल या चार द्विकल एक ताल (४, ४, ऽ। या २, २, २, २ ऽ।) होना
चाहिये। और एक स्वतन्त्र छंद के रूप में इसे जगण (।ऽ।) से पारंभ नहीं होना चाहिये
अन्यथा ऐसे दोहे का नाम शास्त्रकारों ने चाण्डालिनी दोहा रखा है।
इसी प्रकार चौपाई
(रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड) का उदाहरण लें – यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ
हरषि हिय धरि रघुनाथा। में यदि प्रथम चरण के शब्दों को परिवर्तित कर के ‘यह कहि
सबन्हि कहुँ नाइ माथा।’ कर देने पर चौपाई की चौपटाई हो गयी जबकि परिवर्तित रूप में
भी नियमानुसार इस चरण में सोलह मात्रायें यथावत हैं क्योंकि चौपाई के प्रत्येक चरण
में सम मात्रा वाले शब्दों के बाद सम मात्रा वाले शब्द ही आने चाहिये या विषम
मात्रा वाले शब्दों के पश्चात विषम मात्रा वाले शब्द ही आने चाहिये जबकि परिवर्तित
चरण में ‘कहुँ’ जो दो मात्राभार वाला शब्द
है, के पश्चात ‘नाइ’ तीन मात्राभार का शब्द आ गया जो लयभंग कर रहा है। अतः चौपाई
के लिये मात्र प्रत्येक चरण की सोलह मात्रायें ही भर आवश्यक नहीं हैं बल्कि यह भी
आवश्यक है कि दो सम मात्राभार या दो विषम मात्राभार के शब्द साथ साथ रहें तथा
चतुष्कल के चार या अष्टकल के दो समूह बन सकें तथा अंत में ‘ज’गण (।ऽ।) तथा ‘त’गण (ऽऽ।)
न आने पायें।
स्पष्ट है कि मात्रिक
छंदों में प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या मात्र निश्चित होने के कारण एक
गुरु वर्ण के स्थान पर दो लघु वर्ण प्रयोग कर लेने की स्वतन्त्रता तो है, किन्तु
जब जहाँ जी चाहे वहाँ अपने मन से गुरु तथा लघु वर्णों का प्रयोग कर लेने या उनके
क्रम में परिवर्तन कर देने की स्वतंत्रता नहीं है। मात्रिक छंदों के चरणों को उनके
निर्धारित मात्रा-बाँट के आधार पर ही गठित किया जा सकता है अन्यथा लयभंग होगा जो
दोषपूर्ण तो होगा ही, काव्य का रसभंग भी करेगा।
लय शब्द का सामान्य
अर्थ एक आवर्ती समत्व से लिया जाता है। एक क्रमिक उतार-चढ़ाव, जो एक निश्चित
अन्तराल पर पुनः-पुनः उपस्थित हो उसे ही लय कहते हैं। सम्पूर्ण प्रकृति, सम्पूर्ण
संसृति, सारा नक्षत्र-मण्डल, ग्रह-उपग्रह-तारे, सबके भीतर एक लय है और यह लय समत्व
के कारण है। हर चित्र सुन्दर तब लगता है जब उसकी रेखाओं तथा रंगों में एक लयबद्ध
समानता हो। हर स्थापत्य दर्शनीय तथा चिर-स्थायी तब हो पाता है जब उसकी निर्मिति
में एक लयबद्ध समानुपात हो। हर मार्ग तब सुखद एवं शीघ्रगति के उपयोगी होता है जब
वह समतल हो। लय शब्द का एक और अर्थ है – विलीन होना। यह विलीनता तब घटित होती है
जब विलेय तथा विलायक किसी गुण-बिन्दु पर समत्व स्थापित करें। जीवन की प्रवृत्ति
तथा निवृत्ति ही लय का अनुसंधान है जो समत्व की, समानता की, सरलता एवं सहजता की
स्थापना में निहित है। सत्य है कि समत्व, सरलता, सहजता की उपलब्धि सदा सम्भव नहीं, किन्तु पूर्णतः नहीं,
शत-प्रतिशत नहीं, तो अधिकतम ही सही, मानवता के समस्त प्रयास इसी समत्व की लब्धि
हेतु ही हैं क्योंकि समत्व की लब्धि ही लय-उत्पादक हो सकती है। यही समता की चाह
ऊबड़-खाबड़ मार्गों को अधिकतम समतल कराती है, चित्रों की रेखाओं में अधिकतम वर्तुलता
एवं समानुपात लाती है, स्थापत्य की नींव से लेकर उसके शिखर तक अधिकतम स्थैर्य की
योजना बनवाती है तथा जीवन की ऊँच-नीच के बीच एक सामरस्य की स्थापना हेतु लालायित
रहती है। यह समता-संयोजन ही लयात्मकता का आधार है और लयात्मकता ही संसृति की छंदबद्धता
की पहचान है।
छंदों की लयात्मकता भी
इसी समत्व की अधिकतम लब्धि पर आश्रित है और इसी के प्राप्ति का सूत्र ही
छंद-शास्त्र में मात्रा-मैत्री के नाम से जाना जाता है। किसी छंद के किसी चरण में
यदि कोई सम मात्रिक शब्द अर्थात जिसका कुल मात्राभार २, ४, ६, ८ आदि सम संख्या
तुल्य हो, यदि किसी विषम-मात्रिक शब्द अर्थात जिसका कुल मात्राभार १, ३, ५, ७ आदि विषम
संख्या तुल्य हो, के पास होता है तो यह समत्व बाधित होता है क्योंकि एक सम तथा एक
विषम मिल कर एक विषम का ही निर्माण कर सकते हैं। और लयात्मकता तो मात्र समत्व में
है। सम संख्यक मात्राओं के प्रयोग से प्रवाहित होना ही लय की नैसर्गिक प्रवृत्ति
है, अतः विषमता के कारण लयभंग होता है। मात्रा-मैत्री का सूत्र इतना ही है कि सम
मात्राभार वाले शब्दों को सम मात्राभार वाले शब्दों के साथ ही रखा जाय तथा यदि कोई
विषम मात्रिक शब्द है तो उसके साथ एक विषम मात्रिक शब्द आये जिससे दो विषम मिल कर
एक सम मात्रिक समूह बना लें तथा समता की स्थापना हो जाय। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता
है कि दो विषम मात्रिक शब्दों के मध्य कोई सम मात्रिक शब्द या दो सम मात्रिक
शब्दों के मध्य कोई विषम मात्रिक शब्द न आने पाये। जैसे यदि “एक बार भूपति मन
माहीं। भा गलानि मोरे सुत नाहीं।।” को “एक भूपति बार मन माहीं।“ कर दें तो लयभंग
होता है क्योंकि ‘एक’ शब्द का भार तीन मात्रा है, भूपति का चार, बार का तीन, और मन
का दो मात्रा। तीन, चार, तीन, दो का संयोजन विषम, सम, विषम, सम का संयोजन बन रहा
है जो लयात्मत्कता को विनष्ट कर दे रहा है। मूल चौपाई में यही शब्द तीन, तीन, चार,
दो का संयोजन बनाते हैं जो विषम-विषम-सम-सम का संयोजन है अतः लयात्मकता स्थापित हो
रही है। मात्रा-मैत्री का नियम मात्रिक छंदों में ही पालनीय है क्योंकि वर्णिक छंद
निश्चित गणों के आवर्तन से बनते हैं अतः उनमें ऐसी स्थिति आती ही नहीं है और यदि
आती है तो वह गण-नियम के अनुसार आती है अतः यदि निम्बोली और करेले का ही मुरब्बा बनाना
हो तो कितना मीठा डालें?
दो विषम मात्रिक
शब्दों के मध्य एक सम मात्रिक शब्द की उपस्थिति लय भंग करती है यह सिद्ध है किन्तु
इसका एक मोहक अपवाद है। चूंकि किसी भी विषम संख्या में एक जोड़ने पर वह सम हो जाती
है अतः दो विषम मात्रिक शब्दों के मध्य कोई ऐसा सम मात्रिक पद हो जो दोनों विषम
पदों को अपने एक-एक मात्रा से संयुक्त हो कर सम हो सकने का अवसर दे दे, तथा इसके
पश्चात भी यदि उस सम मात्रिक शब्द में कुछ शेष रहे तो वह अवशेष भाग सम ही हो, ऐसे
सम मात्रिक शब्द का प्रयोग दो विषम मात्रिक शब्दों के मध्य किया जा सकता है। ‘ज’गण
पद वाले शब्द (।ऽ।) इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। वे अपने प्रथम वर्ण की एक मात्रा
का पूर्व शब्द से तथा अंतिम वर्ण की एक मात्रा का उत्तरवर्ती शब्द से संयोजन बनने
देते हैं तथा मध्य का शेष बचा दो मात्रा वाला वर्ण एक सम मात्रिक वर्ण होता है अतः
दो विषम मात्रिक शब्दों के मध्य ‘ज’गण पद वाले शब्द प्रयोग किये जा सकते हैं।
किन्तु यहाँ ध्यान रहे कि ‘ज’गण के अतिरिक्त अन्य चार मात्रा भार वाले पद, या कोई
दो मात्रा वाला एक वर्ण पद इस अपवाद में सहयोगी नहीं हो पाते। और सम मात्रिक
शब्दों के मध्य कोई विषम मात्रिक पद तो नहीं ही आना चाहिये।
अब शेष रहा यति। छंद
का कोई चरण पढ़ते समय कुछ स्थानों पर जिह्वा को थोड़ा सा विराम देने हेतु प्रवाह को
एक ठहराव दिया जाता है। चरण के मध्य यदि यह ठहराव है तो उसे अंतर्यति कहते हैं तथा
चरण के अंत में जो निश्चित ठहराव होता है वह यति है। लम्बे चरण वाले छंद पढ़ते समय
सांस फूल सकती है तथा इससे अनावश्यक स्थलों पर आपात्कालीन ठहराव घटित हो जाता है
जिससे छंद विकृत न हो कर भी विकृत प्रतीत होता है, छंद-भंग न होने पर भी छंद-भंग
प्रतीत होता है तथा काव्य का माधुर्य नष्ट होता है। अतः यति का उद्देश्य छंद को
वाचन या पाठ द्वारा भी यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना, छंद का भाव स्पष्ट करना तथा
वाणी को उचित स्थानों पर उचित अवधि का विराम देना है। ओज प्रधान भाव वाले छंदों
में यति कम से कम स्थानों पर दिया जाना चाहिये तथा करुणा तथा भक्ति भाव व्यक्त करने
वाले छंदों में पर्याप्त मात्रा में यति होनी चाहिये। इससे भाव की अभिव्यति अधिक
प्रभावी हो जाती है। अब छंद में सपासप तलवार चलाने का वर्णन है और छंद मत्तगयन्द
सवैये की यति पर गजगामिनी की चाल चले तो ओज का तो मृत्युभोज हो गया। अतः छंदों का
चुनाव भाव के अनुरूप होना चाहिये।
काव्य में तुक का अपना
विशेष स्थान है। इतना, कि तुक ने ही तुकबन्दी शब्द की सर्जना की है। छत्रक कवियों
को तो यही लगता है कि अंत में तुक भिंड़ा दो, कविता हो गयी। किन्तु सत्य यही है
काव्य में तुक ध्वनि-साम्य के कारण एक मधुरता तथा स्वारस्य भले उत्पन्न करता है,
यह काव्य में छंद का नहीं बल्कि अलंकार का अंग है और इसे अन्त्यानुप्रास अलंकार
कहते हैं। अन्त्यानुप्रास का प्रयोग मधुरता तथा स्वारस्य के साथ छंद-विशेष के
अंतिम पदों के मात्राभारों को संतुलित रखने में सहायक भी होता है अतः इस कारण भी
इसका प्रयोग किया जाता है क्योंकि छंद का संतुलन भी स्वयं में एक अलंकार है और
अन्त्यानुप्रास के उपयोग से उसमें सहायता ही मिलती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है।
फिर भी इतना अवश्य है कि तुक की अवहेलना से छंद अतुका कम, बेतुका अधिक प्रतीत होने
लगता है। और इसका अर्थ यह भी नहीं है कि तुक मिल गया तो छंद की सभी अन्य विशेषताओं
का ध्यान रखना आवश्यक ही नहीं है।
मात्रिक छंदों के अपने
अलग झंझट हैं तो वर्णिक छंदों के भी अपने अलग झमेले हैं। जिन छंदों में वर्णों की
संख्या तथा उनके लघु या गुरु होने का क्रम स्पष्टतया निर्धारित होता है वे वर्णिक
छंद कहे जाते हैं। वर्णों की गिनती में अर्धाक्षरों की संख्या सम्मिलित नहीं होती,
स्वरयुक्त पूर्ण वर्ण ही गिने जाते हैं तथा उनका मात्रभार लघु हो या गुरु, उन्हें
एक वर्ण ही माना जाता है। अब उन गिनती के वर्णों में गुरु – लघु का जो एक निश्चित
क्रम होता है उसी अनुसार शब्दों को नियोजित किया जाता है। इस प्रकार हम देखें तो वर्णिक
छंद के नियम इतने कसे हुये होते है कि यदि उनका अनुसरण किया जाय तो कोई काव्यगत
दोष आ सकने की सम्भावना ही नहीं बचती किन्तु ऐसा हो नहीं पाता है। बहुधा
परिस्थितियाँ ऐसी आ पड़ती हैं कि भाव की अभिव्यक्ति हेतु जिन शब्दों का प्रयोग किया
जाता है वे गुरु – लघु क्रम की अवहेलना कर जाते हैं अतः छंद-दोष आ जाता है।
सत्य है कि वरेण्य
जनों का दोष नहीं देखना चाहिये। किन्तु फिर छंद-शास्त्र की त्रुटियों के उदाहरण
कहाँ से लायें? स्वयं त्रुटिपूर्ण छंद लिख कर उसका दोष-निराकरण करना उपाय है अवश्य,
किन्तु शुद्ध छंद लिखना यदि कठिन है तो किसी विशेष त्रुटि के साथ छंद लिखना तो
साक्षात् कपरबत्थी है। और नवीनों में ऐसे दोष खोज कर उन्हें इंगित कर देना “निंदा”
मान लिया जायेगा तो ओखली में सिर भले दे दिया हो, मूसलों को निमंत्रण देने का मेरा
कोई विचार नहीं है। महान कवियों के निर्दोष काव्य से किसी त्रुटि-विशेष का उदाहरण
खोज लेना उससे भी बड़ी समस्या है क्योंकि ऐसे त्रुटिपूर्ण छंद बहुत कम हैं। कितु
हैं अवश्य, और यही छंद का फंद है। कितना भी श्रेष्ठ कवि हो, छंदों के सन्दर्भ में
कभी न कभी चूका अवश्य है। तो सीखने के लिये उन्हीं आदरणीयों का स्खलन भी देखना
होगा जिनको पढ़-पढ़ कर काव्य का ककहरा सीखा जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास से
अधिक श्रेष्ठ भाषा का कवि कौन है? उनके एक दोहे का उदाहरण लेते हैं।
हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड विवाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥
जिमि पाखंड विवाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥
चार चरण वाले इस दोहा छंद में प्रथम तथा तृतीय चरण में तेरह मात्रायें
होनी चाहिये। प्रथम चरण का मात्राभार इस प्रकार है –
। । । ऽ । । । ऽ । । = १२ मात्रा
हरित भूमि तृन संकुल,
यहाँ प्रथम चरण में तेरह के स्थान पर बारह मात्रा क्यों है? क्या
गोस्वामी जी ने कोई त्रुटि की है? नहीं। वास्तव में संकुल शब्द ‘संकुल’ की भांति
नहीं ‘संकुलऽ’ की भांति उच्चारित किया जायेगा अतः संकुल में ‘ल’ का मात्राभार
ह्रस्व न हो कर दीर्घ होगा और तब प्रथम चरण में तेरह मात्रा हो जायेगी। किन्तु फिर
भी जो वाचन में इसका ध्यान न रखे उसका लयभंग होगा अतः कवि को ऐसी स्थिति से बचना
चाहिये। कहने का अधिकारी तो नहीं हूँ, किन्तु गोस्वामी जी ने यदि संकुल के स्थान
पर संकुलित शब्द का प्रयोग कर लिया होता तो यह भ्रम उत्पन्न ही नहीं होता।
इसी प्रकार
ब्यापक अकल अनीह अज, निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि, करत चरित्र अनूप॥
गोस्वामी जी के उक्त दोहे में चतुर्थ चरण में एक मात्रा कम है जो बिधि
शब्द को बिधा कर देने से संतुलित हो जायेगा।
रश्मिरथी के षष्ठ सर्ग में राष्ट्रकवि दिनकर एक छंद में लिखते हैं –
संग्राम धर्मगुण का विशेष्य किस तरह भला हो सकता है?
कैसे मनुष्य अङ्गारों से अपना प्रदाह धो सकता है?
ऽ।ऽ ।।। ऽ ऽ ।।ऽ ऽऽ।
।ऽ ऽ ऽऽऽ
सर्पिणी – उदर से जो निकला, पीयूष नहीं दे पायेगा,
ऽ।। ऽ।। ऽऽ। ऽ। ऽ ऽ। । ।ऽ ऽ ऽऽऽ
निश्छल होकर संग्राम धर्म का साथ न कभी दे पायेगा।
प्रत्येक चरण में बत्तीस मात्रायें हैं, किसी भी गण-विशेष की कोई
आवृति नहीं है, ८,८,६,१० पर यति है अतः यह तंत्री नामक मात्रिक छंद है। छंद के
चतुर्थ चरण में स्पष्टतया लय-भंग है क्योंकि इस चरण में बत्तीस के स्थान पर तैंतीस
मात्रायें हैं। “साथ न कभी दे पायेगा।” के स्थान पर यदि “कैसे साथ निभायेगा?” कर दें
तो मात्रा संतुलित हो जाती है। इसी छंद से आगे के तीसरे छंद के अंतिम चरण “एक ही सदृश
हम करते हैं सबके सिर पर पाद-प्रहार” में एक मात्रा कम है क्योंकि पाद-प्रहार में
द लघु है जिसे पादऽ करके वाचन करने पर लय तथा मात्राभार संतुलित होता है। पाद शब्द
के स्थान पर निर्मम शब्द प्रतिस्थापित कर दें तो झंझट ही समाप्त। और रश्मिरथी में
छंद की और भी त्रुटियाँ हैं।
हरिऔध के प्रियप्रवास में
द्रुतविलंबित वर्णिक छंद (।।। ऽ।। ऽ।। ऽ।ऽ) “पर किसी चिर संचित पुण्य से, गरल अमृत
अर्भक को हुआ।” में द्वितीय चरण का चतुर्थ वर्ण गुरु होना चाहिये जो नहीं है।
द्वितीय चरण को “अमृत अर्भक को विष भी हुआ।” के रूप में परिवर्तित कर दें तो छंद सोलह
आने पाव रत्ती ठीक हो जायेगा।
रसखान के सवैये अति
प्रसिद्ध हैं। उनका एक मत्तगयंद सवैया है –
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी औ कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिये हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
मत्तगयंद सवैया के प्रत्येक चरण में बत्तीस वर्ण होते हैं जिनका क्रम सात
लगातार ‘भ’गण के पश्चात दो गुरु वर्ण (ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽऽ) होता है। उक्त
प्रथम चरण के चौथे ‘भ’गण के स्थान पर ‘श्याम जू’ (ऽ।ऽ) ‘र’गण हो गया है। द्वितीय
चरण में ‘पैंजनी औ कटि पीरी’ में हस्व और गुरु के अवांछित विनिमय हैं तथा अंतिम
‘भ’गण के साथ दो गुरु के स्थान पर ‘पीरी कछौटी’ (ऽऽ ।ऽऽ) ‘त’गण के साथ दो गुरु हो
गया है। अंतिम चरण में ‘काग के’, ‘हाथ सों’ और ‘ले गयो’ में तीनों स्थान पर ‘भ’गण
के स्थान पर ‘र’गण हो गया है। अनधिकृत चेष्टा है किन्तु यही छंद थोड़े से परिवर्तन के
द्वारा शुद्ध किया जा सकता है -
धूरि भरे अति शोभित श्यामहि, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनिया कटि पीत कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
भाग कहा कहि कागहि जो हरि हाथन ले गय माखन रोटी।।
उदाहरण बहुत हैं
किन्तु उदाहरण मात्र उदाहरण हेतु हैं, किसी की निंदा करने हेतु नहीं। मात्र यह
बताने के लिये कि...
शफरी जु तरी सु तरी यहि काव्य नदी क कटाव बड़े गहिरे हैं।
तरवारि दुधारि उपानह हीन प्रवीनन के इहँ पांव चिरे हैं।।
तुलसी रसखान गिरीधर औ हरिऔध सरीखन थाह थिरे हैं।
एहि छंद क फंद पड़े बहुधा बड़के कवि भी अँझुराइ गिरे हैं।।
(स्वरचित, सुन्दरी सवैया, प्रत्येक चरण में पचीस वर्ण, चौंतीस मात्रा,
आठ क्रमिक ‘स’गण के पश्चात एक गुरु वर्ण ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ऽ)
छंद रचना अधर में तने इस्पात के महीन तार पर
शैलूष की कुशलता से चलने के समान है जिसमें तनिक सी भी असावधानी चरण को रक्तरंजित
कर सकती है, छंद का यष्टि-भंग कर सकती है। शैलूष की कुशलता उसके अभ्यास में, उसके
शरीर की लोच में, उसके संतुलन में निहित है तो कवि की कुशलता भी उसके अभ्यास में,
शब्दों की संपन्नता तथा सामर्थ्य में, पर्यायवाची, कारक-विभक्ति, संधि और समास, शब्दों
के स्थानापन्न प्रयोग, तथा मात्राभार के संतुलन में सन्निहित है। और काव्य-शैलूष
के खेल मात्र संतुलन के भरोसे नहीं चलते! कुछ और भी आकर्षण चाहिये! विम्बों, प्रतीकों,
मुहावरे और लोकोक्तियों, ध्वनि के टकोरों, अर्थ के हिलकोरों, कथन की नवीनता और
रससिक्त अलंकृत शब्दावली गूंथने की प्रवीणता छंद को काव्य बनाती है। किन्तु कवि
“ठाकुर” का एक छंद है –
सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीन्हों जस औ प्रताप
को कहानो हैं।
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामनि,
सीखि लीन्हों मेर औ कुबेर
गिरयानो हैं।।
‘ठाकुर’ कहत या की बड़ी है कठिन बात,
वामो नहिं भूलि कहूँ बाँधि
अस बानो हैं।
डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोग तो कबित्त कीबो खेल जस
जानो हैं।।
कवित्व वैभ्राज के
उपवन में सामोद विचरण करती भुवन-मोहिनी का दक्षिण-स्मित है, त्रिपुर-सुन्दरी का
कृपा-कटाक्ष है, जिसके लिये शिव-तत्व लालायित रहता है। कवित्व वाग्देवी का वह
कृपाप्रसाद है जिसके लोभ में हिरण्यगर्भ ने चार शीश उगा लिये जिससे वह आठ कानों से
श्रवण-सुख पा सके। और भुवन-मोहिनी के दक्षिण-स्मित, त्रिपुर-सुन्दरी के
कृपा-कटाक्ष या वाग्देवी के कृपा-प्रसाद का लाभ जन्म-जन्मान्तरों के संचित पुण्य
के प्रतिफल में किसी-किसी को प्राप्त होता है। यह विस्तीर्ण नील-गगन के नीचे और
अगाध नील-सागर के ऊपर उड़ते सुपर्ण के पंखों से उभरता रथन्तर और वृहत्साम भी है और
किसी नील-तमसा के तट पर किसी व्याध के धूर्तबाण से निहत क्रौंच के कंठ से बहते
रुधिर के साथ उभरा दारुण चीत्कार भी। जब तक भाव व्यष्टिगत रहता है तब तक वह अनुभव
मात्र है। जब वह समष्टिगत होता है तब वह अनुभाव बनता है। भाव का अनुभाव में
परिवर्तन संचारियो के सहयोग से रस में रूपांतरित हो जब छंदों के अलंकृत सुवर्ण-चषक
में ढलता है तब उसे पान करने वाला ब्रह्म-सायुज्य सम आनन्द प्राप्त करता है और तब
उसे काव्य के ब्रह्मानंद-सहोदर होने की या ‘रसो वै सः’ की अनुभूति होती है। वह
अनुभूति, जो जड़ को चेतन में, काम को क्रतु में, मृण्मय को चिन्मय में, आनन्द को
परमानन्द में और परमानन्द को निर्विकल्प समाधि में परिवर्तित कर सकती है, कर देती
है। किन्तु क्या करें? भिखारीदास झूठ थोड़े न लिख गये कि –
जुगनू भानु-प्रभानु के सामुने आपुने जोतिन को जस गइहें।
माखिहुँ जाइ खगाधिप सूं उड़िबे की बड़ी-बड़ी बाति सुनइहें।।
‘दास’ जो हैं तुक जोरनिहार कवीन्द्र उदारन की सरि पइहें।
तो करतार सों और कुम्हार सों एक दिना झगरो बढ़ि जइहें।।
सत्य की नारायण रूप
में उपासना ही सत्यनारायण की उपासना है जिसका मुख्य भाग है सत्य के उस परम तत्व को
समझते हुये उसकी जीवन में स्थापना तथा उसका भाव-संपृक्त पूजन! उपरोक्त शब्दों में वह,
और उतना सब, यथामति-यथाशक्ति हो गया। कुछ उपचारों की अवश्य अवहेलना हुई है, जो समय
के अभाव तथा पटल की सीमा के कारण जानबूझ कर की गयी है किन्तु उन्हें सप्रयास अन्य
उपचारों में संयुक्त तथा समाहित कर दिया गया है। अब शेष रहा फल-श्रवण – अर्थात मात्रिक
एवं वर्णिक छंदों के नाम, उनके भेद और उनके लक्षण, तो वह लीलावती कन्या, कलावती कन्या
की कथा मात्र के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है अतः यजमान उन्हें उच्च शंख-ध्वनि करने
वाले अन्य वैष्णव कथावाचकों से सुन लें या पोथियों में पढ़ लें। ध्यान रहे कि वह भी
आवश्यक है! बिना उसके पूरा फल नहीं मिलेगा किन्तु मुझे उन पांचो अध्याय का पाठ
करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह पोथी के रूप में पोथा है, अकेले सवैया छंद के
बीस भेद हैं, और यद्यपि मेरे निबन्ध निर्बन्ध होते हैं फिर भी निबन्ध की अपनी
सीमायें हैं। हाँ! जब आरती हो जाय तो चढ़ावा और दक्षिणा तो नहीं किन्तु मोहनभोग एवं
चरणामृत, अर्थात प्रसाद, मुझे भी अवश्य उपलब्ध करायें! प्रयास रहे कि मोहनभोग का
आटा तनिक ढंग से भुना हो, और उसमें देशी घी तथा खांड थोड़ा अधिक ही रहे। ध्यान रहे
कि कविता, कादम्बरी तथा प्रसाद का आनन्द वितरण कर के ग्रहण करने में ही है।
नरत्वं दुर्लभं लोके,
विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र कदाचित।। कोई पुण्य था
कि मुझे नरत्व मिल गया, किन्तु कोई पाप था कि विद्या नहीं मिली। तो कवित्व क्या और
उसकी शक्ति कैसी? जिस समय पेट को अन्न उपलब्ध था, विद्या क्या होती है यह पता ही
नहीं था। और जब विद्या के प्रति आकर्षण उपजा तब मेरे जीवन में भूख का साम्राज्य
था। अन्न और विद्या, दोनों मुझे उच्छिष्ट रूप में ही मिल सके। मुझे जो भी मिला, वह
परोसा हुआ नहीं था, फेंका हुआ था, किन्तु कौन है जिसका ज्ञान मनीषियों का उच्छिष्ट
नहीं है? जिस नगरी की जूठन खा कर पला उसे जगाये रखने को कर्तव्य समझने वाला मैं ठहरा
सारमेय! किन्तु यह उच्छिष्ट-भोक्ता सारमेय बहुत भूँक चुका। अब और नहीं।
अंत में यह ध्यान रहे
कि यह कटुरस की हाट थी और है। गरिष्ठ ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर
कोई मार्ग नहीं जाता अतः यदि इससे आप को कटुरस मिला तो दोष आपका, और उसके अतिरिक्त
कुछ मिल गया तो श्रेय भी आप ही को। और मैं शुन:पुच्छ, मैं शुन:शेप, मैं शुन:लांगूल! मैं सीधा होने से
रहा। तो प्रसाद में कहीं लट्ठ न आते हों अतः चलते-चलते यह अथर्व-मन्त्र दुहराना तो
आवश्यक है -
अभयं नः करत्यन्तरिक्षं अभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तात् , उत्तरात्, अवरात्, अभयं नो अस्तु ।।
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात !
अभयं नक्तमभयं दिव नः सर्वाः आशाः मम मित्रं भवन्तु !!
वाणी-हिरण्यगर्भयौ प्रणामपूर्वकं सत्यनारायणदेवाय अर्पणमस्तु।
© त्रिलोचन नाथ तिवारी.