शङ्खावर्तनिभा नवीनचपलामाला विलासास्पदा।
सुप्ता सर्पसमा शिवोपरि लसत्सार्द्धत्रिवृत्ताकृतिः।।
-----तन्त्रपरक ललित निबन्ध (भाग ८)-----
[यदि आपने इस शृंखला के पिछले भाग नहीं पढ़े हैं तो यह भाग पढ़ने से कोई लाभ
नहीं, अतः निवेदन है कि इस शृंखला के सभी आलेख एक नैरन्तर्य में पढ़ें।]
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आकाश में उपस्थित मेघ अब भी
जमे थे, किन्तु सम्भवतः वे थक चुके थे अतः विश्राम कर रहे थे। पवन अपनी तीव्रता
त्याग कर अब मन्द-मन्द गति से प्रवाहित था। बीते घटी-पलों की चिन्तना एक लक्ष्य तक
पहुँचा हुआ अनुभव करते हुए अब अलसाने लगी थी। मानसर में छायी शरत्चंद्रिका की
अपांग धवलता, उसमें इतस्तः तैरते सरस्वती के शुभ्र हंस, और उस आद्या का आक्षितिज
विराट् स्वरूप, इस सब के बीच मन एक विश्रांति का अनुभव करता तन्द्रालीन होने लगा
था कि तभी एक फुसकार ने चेतना को झकझोर दिया, जैसे एक शान्त झील में किसी ने कोई
पत्थर उछाल दिया हो।
मैं तत्काल सतर्क हुआ। उस
अन्धकार में नेत्र उस फुसकार के स्रोत का अन्वेषण करने में सफल नहीं हो सकते थे।
मैंने अपने समस्त ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति अपने कानों को सौंप दी। प्रथम बार जो
फुसकार मैंने सुनी थी, उससे यह अनुमान लगता था कि स्रोत कहीं निकट ही है, अत्यन्त
निकट! किन्तु कहाँ है? कहाँ?
नातिविलम्ब फुसकार की ध्वनि
पुनः आयी, पहले से अधिक स्पष्ट, अधिक तीव्र, और कुछ अधिक निकट से भी। मैं उस काठ
की चौकी पर एक झटके से उछल कर बैठ गया और तत्काल पीड़ा की एक लहर मेरे मेरुदण्ड के
निचले भाग से उठ कर कपाल-मूल तक छा गयी।
मेरे मेरुदण्ड के कशेरुकाओं का
शोथ वर्षों से मुझे पीड़ा दे रहा है। मैं इस पीड़ा के साथ जीने का अभ्यस्त हो चुका
हूँ अतः यह पीड़ा रहती भले सदैव साथ है, मेरा ध्यान इस पीड़ा पर अत्यन्त कम ही जाता
है। किन्तु मेरा झटके से सीधे ही उठ बैठना, पीड़ा की तरंगों को उत्प्रेरित कर गया
और मेरे मुख से न चाहते हुए भी एक आह निकल ही गयी। किन्तु इस पीड़ा को दुलराने का
समय नहीं था। मेरे अत्यन्त निकट ही कहीं काल का एक स्वरुप इस विषम परिस्थिति को
और विषम बनाता हुआ उपस्थित था। मैं फुसकार की उस ध्वनि से उसकी दूरी का अनुमान
करने का प्रयास कर ही रहा था कि तभी फुसकार पुनः उभरी। और इस बार मैंने सटीक
अनुमान लगा लिया कि एक भयानक विषधर मेरे चौकी के पायताने ही कहीं कुण्डली मारे
बैठा है।
सर्प कभी रेंगते समय नहीं
फुसकारता। जब तक वह पृथ्वी की सतह के समान्तर होता है, उसका सिर पृथ्वी से लगा हुआ
होता है, वह कभी स्थिर भी नहीं होता! सर्प तभी फुसकारता है जब वह क्रोध में हो और
रेंगना छोड़ कर कहीं अपना फन उठाये कुण्डली-बद्ध हो गया हो।
चौकी से नीचे उतरना एक मूर्खता
भरा निर्णय होता। दैहिक पीड़ा को बिसराते हुए मैंने उत्सुकता से, और सतर्कता से भी,
चौकी के पायताने की ओर तनिक सा झुकने का प्रयास किया। फुसकार पुनः उभरी, किन्तु इस
बार उसमें तीव्रता कम थी और तत्क्षण मुझे दिखीं दो चमकती हुई आँखें। एक मोटा भुजङ्ग,
एक गेंहुअन नाग, मेरे ही द्वारा ला कर धरे पाषाण-को घेर कर कुण्डली मारे बैठा था और
उस अन्धकार में भी उसका सुवर्ण-पीत-गात्र स्पष्ट चमक रहा था।
लगभग अपराह्न काल में, तटबन्ध
का निरीक्षण करते समय मुझे तटबन्ध की ढलान पर एक चिकना सुडौल लम्बोतरा सा ललछौंहाँ
पत्थर दिखा था। प्रथम दृष्टि में ही मुझे उसके प्रति एक आकर्षण जागा। मैंने उसे
उठाया, तो वह डेढ़ या दो सेर से अधिक भार का नहीं था। रवीन्द्र नाथ जी भी मेरे साथ
ही थे। मैंने उस पत्थर को उठा कर उन्हें दे दिया – “इसे ले चलो! मैं इसे घर ले
जाऊँगा!”। घर जाते समय मैं भूल न जाऊँ, इस लिये पत्थर को सामने ही रखवाया अतः वह
मेरी चौकी के पायताने ही धरा था। वह भुजङ्ग उसी पाषाण-खण्ड को घेर कर कुण्डली मारे
ऐसे बैठा था, जैसे किसी शिवलिङ्ग को घेर कर बैठा हो, और रह-रह कर फुसकार रहा था,
कभी तीव्र, कभी मन्थर!
ऐसे समय के लिये मैंने एक
कामचलाऊ बरछी बनवायी थी, एक लाठी में एक तीक्ष्ण धार वाली नुकीली लौह-शलाका लगा कर,
किन्तु इस समय वह झोंपड़ी के उस सिरे पर थी जिधर रवीन्द्र नाथ महाशय सोये थे, और वह
निकट होती भी तो क्या होता? इस अन्धकार में उस भुजंग पर किया गया प्रहार यदि चूक
जाता तो? मैंने अपना फोन टटोला, उसमें टॉर्च ऑप्शन है तो! किन्तु फोन डिस्चार्ज
था।
मैंने चौकी पर ही हाथ से जोर
से आघात किया। थप-थप की उस ध्वनि से उस भुजङ्ग को कुछ आभास हुआ होगा, सर्प
चक्षुश्रवा होते ही हैं, उसका उठा फन झुका और उसी पाषाण पर जा टिका। मैंने चौकी पर
दो-चार बार और थपथपाया और फिर मुझे रेंगने की सरसराहट सुनायी दी। प्रतीत हुआ कि वह
अपनी कुण्डली खोल कर तटबन्ध के दूसरी ओर रेंग गया। मैंने संतोष की साँस ली।
पूरी पीठ पीड़ा का आगार बनी हुई
थी। मोटरसायकिल के बैग में दवा थी, पेन-किलर स्प्रे भी था, किन्तु चौकी से उतरने
का साहस अब मुझमें नहीं था। मैंने लेटने का प्रयास किया किन्तु पीठ के चौकी से
लगते ही पीड़ा और झकझोर गयी। मैं पुनः उठ बैठा।
जिस स्थान पर सर्वत्र जल ही जल
था वहाँ मुझे दवा खाने भर को जल नहीं था। उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न
मनोरथैः। मैंने सोचा – मिरहिरिया कुटी पर हैण्डपम्प है। वहीं जा कर दवा खा लेते
हैं और जल ले भी आते हैं। किन्तु इतनी दूर से केवल एक बोतल में पानी भर कर लाने से
अच्छा होता यदि कोई और बड़ा पात्र होता। ध्यान आया – रवीन्द्र ने भोजन लाने हेतु एक
बाल्टी जैसे डब्बे का उपयोग किया था जो सिरहाने ही धरा था। मैं पीड़ा को दबा कर उठ
खड़ा हुआ।
डिब्बा उठाया तो वह सामान्य से
भारी था। मैं अत्यल्प भोजी हूँ अतः मेरे भोजन के उपरान्त काफी कुछ बचा था और जो
बचा था वह ‘म’कार था। मैंने सोचा – हो सकता है सर्प ने इस डिब्बे को छुआ हो।
हानिप्रद हो, न हो, किन्तु अब यह भोज्य नहीं रहा। सर्प, श्वान एवं गर्दभ का स्पर्श
किया भोजन ग्राह्य नहीं होता। अतः जब कल फेंकना ही है तो अभी क्यों नहीं? मैंने
झोंपड़ी के सामने तटबन्ध की दूसरी पटरी पर वह सब अवशेष उलट दिया। डिब्बा थोड़ा और
साफ हो जाये यह विचार कर उसे उलटा कर के ठोंका। धीमी सी खनखनाहट अवश्य आयी, और जो
रवीन्द्र महाशय इतनी देर से तनिक कुनमुनाए भी न थे, वे इस धीमी सी खनखनाहट से उठ
बैठे – “का हुआ साहेब?” उन्होंने पूछा – “आप सोये नहीं?”
“नहीं! पीठ का दर्द बहुत बढ़
गया है। मुझे प्यास भी लग रही है और ठंढ भी। लेकिन तुम चौकी पर ही रहो। अपने फोन
का टॉर्च जलाओ। मेरा फोन डिस्चार्ज है। और मेरी बरछी मुझे दो। तुम घास काटने वाली
छपकी-तलवार उठाओ! सावधानी से! यही कहीं एक नागिन है!”
रवीन्द्र ने सेल फोन से टोर्च
जलाया और निकट आ कर मेरा माथा छुआ – “आपको तो बहुत तेज बुखार है।”
“होगा।”
“होगा नहीं, है। दवा तो रखते
हैं आप?”
“मोटरसायकिल के बैग में है, दर्द
की भी, बुखार की भी, लेकिन पानी नहीं है, खायें कैसे? और मुझे प्यास भी जोरों की
लगी है। गला चिटक रहा है। पानी लेने जा रहा था कुटी पर। तुम सो जाओ।”
“आप जायेंगे पानी लेने? मुझे
क्यों नहीं जगाया?”
“ऐसे ही! तुम दिन भर के थके हो
और अचिरावती के जो लक्षण हैं उसके अनुसार हम दोनों का आने वाला दिन न जाने कैसा
बीते?”
उसने मेरे हाथ से डिब्बा ले
लिया और पूछा – “और?”
“और क्या?”
“मतलब और कुछ चाहिये?”
“और क्या चाहिये?”
“ठीक है। आप चल कर लेटिये। मैं
पानी मँगवाता हूँ। एक चादर भी।”
“किससे?”
“दिनेश से।”
“अरे नहीं! इस समय उसे परेशान
न करो! चलो मोटरसायकिल से हम दोनों ही चलते हैं।”
“परेशान कैसा? उन्हें परोरा
बोवे खातिर राखल बा का? ड्यूटी है उसकी झोंपड़ी पर। आपने छुट्टी दी उसे नहीं तो
यहीं सोता न?”
“नहीं! हम ही दोनों चलते हैं।
मिरहिरिया कुटी पर हैण्डपंप है।”
“आपकी पीठ में दर्द है और तटबन्ध
की कच्ची सतह वर्षा में फिसलन भरी होगी। मोटरसाकिल सँभालना कठिन होगा। कुछ ऊँच –
खाल पड़ गया तो हाथ-गोड़ टूट जायेगा। नहीं। मैं फोन करता हूँ दिनेश को। पानी लायेगा
वह अभी।”
“कुछ नहीं होगा। वर्षा रुक
चुकी है। तटबन्ध का निरीक्षण करने भी तो जाना चाहिये कि नहीं! तुम रहने दो! मैं
अकेला जाता हूँ।”
“आप इतने जिद्दी क्यों हैं? सब
आपे क चली? चुपाई मार के बैठिये। मैं खुद ही पैदल ही चला जाता हूँ। बस आधा घण्टा
अधिक से अधिक!”
एक तरह से मुझे झोंपड़ी में
धकेल कर रवीन्द्र नाथ महाशय मेरे लिये जल की व्यवस्था करने हेतु प्रस्थान कर गये।
झोंपड़ी के बाहर जहाँ कुछ भी
दिखना सम्भव न था, मेरे नेत्र कुछ देखने का प्रयास कर रहे थे। सायास नहीं, अनायास! अधिक
समय तक अन्धकार में रहने पर नेत्र अन्धकार में देख लेने के अभ्यस्त हो जाते हैं
तथा नेत्र यदि वास्तव में खुले हों तो बहुत कुछ देखा जाने लगता है।
मीलों पसरा बाढ़ का जल। मनुष्य
तो फिर भी अपने लिये कहीं कोई आश्रय खोज चुका था किन्तु यह धरित्री मात्र मनुष्यों
की तो है नहीं? तो कुछ मनुष्यों सहित अन्य जीवों का भी आश्रय था यह तटबन्ध! खरहे,
साही, सर्प, गोह, सियार, और जाने कितने जीव, सभी इस तटबन्ध पर शरण लेने पहले ही आ
चुके थे, सैकड़ों – हजारों! अचानक एक धूसर सा गोला, जिसके दो लाल नेत्र उस अन्धकार
में चमक रहे थे, तटबन्ध पर भागता, फिर रुकता, फिर भागता सा, जैसे चौंका सा हुआ हो,
झोंपड़ी के सामने से निकला। उसके पीछे एक और। दोनों बड़े-बड़े खरहे थे, जो किसी कारण
चौंक कर भाग रहे थे। वे दोनों भागते हुए तटबन्ध के किनारे बहबोल की झाड़ियों में
समा गये और उस पीड़ा में भी मेरे अधरों पर एक मुस्कान तैर गयी। कोमल, प्यारा सा यह
जीव तटबन्ध के रात्रि-कालीन निरीक्षण में सैकड़ों बार मेरे सामने मुझे टुकुर-टुकुर
चकित सा देखता आ खड़ा होता रहा है और मैं उसे कुछ पल निहार कर प्रसन्नता का अनुभव
करता रहा हूँ। निश्चित ही किसी भय से ग्रसित ये भाग रहे थे और अपने बुद्धि के
अनुसार उन्होंने एक सुरक्षित स्थान संभवतः खोज लिया था।
किन्तु वे भाग किसके भय से रहे
थे? निकट के गाँवों से भाग कर तटबन्ध पर आ चुके कुत्ते इनके प्रबल शत्रु थे।
किन्तु कुत्ते यथा-सम्भव अन्धकार में अपना आखेट नहीं पकड़ते। कुत्ते आस-पास दिख भी
नहीं रहे थे। दौड़ने – दौड़ाने की भगदड़ भी नहीं सुनायी पड़ रही थी तो ये खरहे भाग
किसके भय से रहे थे? मन ने मन को समझाया – ऐसे ही कुलेल कर रहे होंगे। किन्तु
नहीं! बात ऐसी कुछ थी नहीं!
कब तक बैठा रहता? मैंने पुनः
लेटने का प्रयास किया किन्तु लेटा न गया। पीड़ा वास्तव में अधिक थी और इस पीड़ा को
झुठलाना कठिन होता जा रहा था। मैं फिर उठ बैठा और तभी मेरे कान पुनः सतर्क हो उठे।
खुक-खुक। खुक-खुक। बारह चमकती पीताभ आँखें झोंपड़ी की ओर बढ़ी आ रही थीं। मैंने उस
अन्धकार में उन्हें पहचानने का प्रयास किया। वे सियार थे। छह सियार! और उनमें से
एक के मुख में किसी बड़े पशु के शव से नोची हुई एक बड़ी सी हड्डी भी थी जो उस
अन्धकार की पृष्ठभूमि में श्वेत चमक रही थी।
मैंने सोचा कि इधर से आ रहे
हैं, उधर को चले जायेंगे! मैंने अपनी देह को यथा-सम्भव निश्चल कर लिया। किन्तु वे
आये तो अवश्य, गये नहीं! मेरे द्वारा तटबन्ध पर गिराया भोजन का अवशेष भाग सूँघते
हुए उन्होंने उसे सफाचट कर दिया। और मुझे आश्चर्य हुआ – वे कुत्तों की भाँति आपस
में झगड़ नहीं रहे थे। जिसे जितना मिला उतना खा लिया। उनमें से एक ने ईशान कोण की
ओर मुँह उठा उच्च स्वर में ध्वनि की – हुँ..आँ...ऽ.. ऽऽ... ऽऽऽ....। और एक के मुँह
उठाते ही अन्यों ने भी उसका साथ दिया। वातावरण एक रव से आपूरित हो उठा -
हुँ..आँ...ऽ.. ऽऽ... हुँ..आँ...ऽऽऽ....।
उस अन्धकारमय परिवेश में मेरे
भीतर से बाहर तक एक जुगुप्सा भर गयी। मैंने एक रोमांच का, एक लोमहर्षण का अनुभव
किया। अब बरछी मेरे निकट ही थी किन्तु यह अवसर दुस्साहस दिखाने का नहीं था। बरछी
साधे सतर्क एवं प्रहार को सज्ज हो कर भी, मैंने प्रतीक्षा करनी उचित समझी। जायेंगे
ही! जब तक वे झोंपड़ी में नहीं आते तब तक निश्चल मौन ही श्रेयस्कर था। किन्तु वहाँ
से टलने के स्थान पर उन्होंने तो झोंपड़ी को तीन ओर से घेर कर एक व्यूह सा बना
लिया। दो-दो का दो समूह अचिरावती वाले छोर पर दो कोने, और शेष दो पोह नाले वाले
छोर पर, वहाँ, जहाँ मैंने वह बचा भोजन गिराया था, अन्य दोनों जोड़े से लगभग समान
दूरी पर। सबके मुख झोंपड़ी की ओर, या कहें कि मेरी ओर! ये छहों सियार झोंपड़ी को ऐसे
घेर कर व्यूह-बद्ध क्यों बैठे हैं? मैंने ध्यान दिया तो उनकी स्थिति एक
त्रिभुजाकार व्यूह बना रही थी जिसके दो शीर्ष मेरे सिरहाने की ओर थे, और तीसरा
मेरे पायताने, सीधे मेरे द्वारा आज ला कर धरे गये उस पाषाण की सीध में।
मैंने सोचा कि जायेंगे ही, चुप
बैठ रे मन! किन्तु वे तो ऐसे बैठे थे जैसे उन्हें मूर्तिवत भूमि में जड़ दिया गया
हो! अब मुझे घबराहट होने लगी थी। मेरे जिस मेरुदण्ड में पीड़ा लहरा रही थी, उसमें अब
एक आशंका भी लहरा उठी – “यह सब क्या हो रहा है भाई? क्यों हो रहा है? यह सब तो महा-अपशकुन
है। यह अमा-निशा! यह श्मशान-क्षेत्र! और यह मुझे इस प्रकार घेर कर बैठी शृगालों की
टोली, यह मुँह में हड्डी दबा कर आयी शृगाली का शय्या के पायताने मुँह उठा कर रुदन-ध्वनि
करना, फिर उन सबका समवेत रुदन! क्या कुछ अघटित घटित होने वाला है माते? हे माता!
दया करो! मेरे घर पर सब कुशल हो! मेरे कुल में कुशल हो! मेरे परिचितों में से सब
कुशल से हों!”
मुझे अपने हृत्पिण्ड का स्पंदन
स्पष्ट सुनाई दे रहा था – धाड़ – धाड़ – धाड़। प्रत्येक क्षण ऐसे व्यतीत हो रहा था
जैसे समय का प्रवाह अत्यन्त धीमा हो गया हो। मेरे मन में भय नहीं था, मैं ऐसी
स्थितियों से पहले भी साक्षात्कार कर चुका था, किन्तु श्मशान में बितायी उन
रात्रियों से यह रात्रि कुछ भिन्न थी। तब मैं प्रकाश सहित जिन तान्त्रिक उपादानों
के साथ होता था, आज मैं उनसे रिक्त था। अतः यह संशय अवश्य था कि क्या यह अमा-निशा
मेरे लिये किसी अप्रत्याशित, अतार्किक, अचिन्त्य, अद्भुद से साक्षात्कार का आयोजन
कर के आयी है?
कितने समय तक यह स्थिति रही उस
अवधि का अनुमान तो नहीं बता सकता, किन्तु तटबन्ध पर प्रकाश की एक किरण दिखी।
संभवतः रवीन्द्र जल ले कर लौट रहा था। मुझे प्रतीत हुआ कि प्रकाश देख कर ये भाग
जायेंगे, किन्तु वे सियार बहुत ढीठ थे। रवीन्द्र जब निकट आया तब तक पुनः एक बार
समवेत शिवा-गान प्रारम्भ हो गया - हुँ..आँ...ऽ.. ऽऽ... हुँ..आँ...ऽऽऽ....।
निकट आ कर रवीन्द्र ने उन्हें
एक झिडकी दी - “भाऽगऽ सऽ! इहाँ का रोवत है सभे रे दूनो?”
“दो नहीं, छह हैं रवीन्द्र! दो
जोड़ी इधर हैं। झोंपड़ी के पीछे।”
प्रयास नहीं करना पड़ा। कुछ ही
पलों पश्चात् वे छहो शृगाल तितर-बितर हो रहे।
रवीन्द्र जल ही नहीं, एक चादर भी
ले कर आया था। मैंने पूछा – ‘चादर कहाँ से जुगाड़े?”
“दिनेश को फोन कर दिया था। वह
ला कर दे गया। आधे रास्ते मैं गया आधे रास्ते वह आया, तो समय बच गया।”
“मतलब माना नहीं तुमने!”
रवीन्द्र ने संभवतः उत्तर देना
उचित नहीं समझा। मैंने दवा खाई, रवींद्र से पीठ पर पेनकिलर भी स्प्रे कराया। फिर रवीन्द्र
नाथ जी अपनी चौकी पर जा कर लेट गये और कुछ ही देर में महाशय पुनः अंटा-गाफ़िल हो
चुके थे। मैंने मन ही मन उस आद्या को प्रणाम करते हुए कहा – “धन्य हो महामाया!
तुम्हारा यह निद्रा नामक ताप-शामक स्वरूप सभी को इतना सुलभ है? और मुझ पातकी को
इतना दुर्लभ? क्यों देवि? क्यों?”
मन ने कहा – “या निशा
सर्वभूतानाम्, तस्यां जागर्ति संयमी!”
मैंने अपने ही मन को कोसा –
‘हमरे कुल विपति के जड़ तू ही हो सरऊ!”
मन ने मेरी इस वितृष्णा पर
ध्यान नहीं दिया। मैंने प्रश्न किया – “मन के सरोवर में छायी उस धवल चन्द्रिमा के मध्य
यह सर्पिणी की फुसकार, मेरुदण्ड में उभर आयी पीड़ा, यह शृगालों का व्यूह, यह उनके
द्वारा मुँह में दबा कर लायी हड्डी, उनका यह रुदन, यह सब क्या था? क्यों था? कोई
अपशकुन था या मात्र एक संयोग?”
मन ने उत्तर दिया – “कोई
अपशकुन नहीं था। देखा नहीं? रोदन करती मुख्य शृगाली का मुख ईशान कोण की ओर था! शिवाओं
ने तुम्हारी बलि स्वीकार की है! शाक्त द्वारा प्रदत्त मांस-बलि ग्रहण कर यदि
शृगाली ईशान कोण की ओर मुख उठा कर ध्वनि करे तो इसका अर्थ है कि आद्या को बलि
स्वीकार हुई है।
विल्वमूले प्रान्तरे वा श्मशाने वापि साधकः।
मांस-प्रधान नैवेद्यं संध्याकाले निवेदयेत्।।
कालिकालीति वक्तव्यः – ‘तत्रो माम शिव-रूपिणी,
पशुरूपा समायाति परिवार-गणै सह'।।
भुक्त्वा रवति यद् ऐशान्यं मुखं उत्तोल्य सुस्वरं,
तदैव मंगलम तस्य, नान्यथा कुलदूषणं।।
(- श्यामा रहस्य)
विल्ववृक्ष की जड़ के समीप,
किसी निर्जन स्थान में, या श्मशान में, संध्याकाल में साधक को उस आद्या काली को
मांस-प्रधान बलि निवेदित करनी चाहिये। स्वयं काली का कथन है कि वह पशु-रूप में
शृगाली का रूप धारण कर के अपने परिवार-गणों - अनुचरियों आदि सहित उपस्थित होती है।
यदि प्रदत्त बलि सम्पूर्ण भक्षण कर के ईशान की ओर मुख उठाकर वह शृगाली सु-स्वर में
रुदन करे तो मङ्गल ही मङ्गल समझो अन्यथा यदि सूँघ कर या थोड़ा सा खा कर छोड़ दे तो कुल-दूषण
है – कुल में किसी की मृत्यु होगी! विशेष यह, कि यह बलि-ग्रहण एकान्त में होना
चाहिये। उसी आद्या की प्रेरणा थी जो रवीन्द्र तुम्हें एकाकी छोड़ तुम्हारे लिये जल
लाने चला गया। अब तुम अपने घर की चिन्ता छोड़ सकते हो! शिवा ने तुम्हारी बलि
स्वीकार की है और ईशान की ओर मुख उठा कर रोदन भी किया है। यह शुभ ही शुभ का द्योतक
है, अशुभ का नहीं! और यमदूतिका (इमली का फल या उसका गुच्छा), क्षेमंकरी (चील), जम्बूकी
(शृगाल/शृगाली), कुरर (पूर्वांचल में तो इसे कड़ाकुल कहते हैं, अन्य क्षेत्रों में
इसका क्या नाम है यह मुझे ज्ञात नहीं। कुरर पक्षी का स्वर सुनना या इसका दर्शन,
विशेषतया यदि यह चंचु में मांस लिए हो, तो महाअशुभ माना जाता है।), श्येन (बाज,
यदि चंचु में मांस लिए हो तो और भी गर्हित), भूकाक (काला बुज्जा, जिसकी पीठ, गर्दन
और पङ्ख कुछ कृष्ण-वर्णी सा होता है), श्यामा-मार्जार/मार्जारी (काली बिल्ली), गीध्र,
शव, जलती चिता, काला वस्त्र पहने नारी (बुर्कानशीनों का दर्शन अशुभ है), ये सब
शाक्तों हेतु नहीं, वैष्णवों हेतु अपशकुन होते हैं! यात्रा में, किसी शुभ कार्य के
प्रारम्भ में या कभी भी, इनके दर्शन हो जाने पर शाक्त को गुप्त रूप से काली को
स्मरण कर उसे मानसिक प्रणाम मात्र कर लेना चाहिये। वैष्णवों हेतु ये अपशकुन,
शाक्तों हेतु अतिशुभ-शकुन हैं। हाथी, अश्वयुत रथ, राजा, राजपुत्र, फलक वाले
शस्त्र, और महिष, इनका दर्शन भी यात्रा में कष्ट का प्रतीक है किन्तु शाक्तों हेतु
इनका दर्शन भी शुभ ही होता है (वही - श्यामा रहस्य)। किन्तु यह सब जो तुम्हारे साथ
बीता है, वह कोई संयोग भी नहीं था। हाँ, अपनी सम्पूर्ण शुभता के पश्चात् भी यह सब इस
बात का सङ्केत अवश्य था कि तुम्हारी भाव-मूर्ति अभी अपूर्ण है!”
“अपूर्ण कैसे? सात छन्दों में
मन्त्र एवं स्वरूप का जो निदर्शन कवि ने कराया उसे शब्द-शब्द मैंने अनुभाव में
ढाला तो! देवी का विराट् स्वरुप मूर्तिमान हुआ तो! तो अब बचा क्या?”
“क्योंकि कर्पूरादिस्तोत्र के
अगले छन्द पर ध्यान नहीं दिया तुमने! तुम्हारी समस्या ही यही है! तुम अति-शीघ्र
अभिभूत हो जाते हो! और तुम्हारा यह स्वभाव ही तुम्हारे कई दुःखों का कारण भी बनता
है। व्यक्तियों से, भावनाओं से इतना शीघ्र प्रभावित होना उचित नहीं! तुम सातवें
छन्द के अंत तक पहुँचते-पहुँचते विभोर हो उठे क्योंकि तुम्हारे अब तक देखे चित्रों
से तुम्हारी भाव-मूर्ति लगभग मिलने लगी थी किन्तु चाहे छन्द-बद्ध रचना की सीमा इसका
कारण रही हो, अथवा कवि का कोई सूक्ष्म प्रयोजन, कवि ने उस आद्या के रूप का एक अंश
आठवें छन्द के लिये बचा लिया था। तनिक आठवाँ छन्द स्मरण करो तो!”
और मैंने मन ही मन दुहराया -
शिवाभिर्घोराभिः
शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः
परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां
हरवधूम्।
प्रविष्टां संतुष्टामुपरिसुरतेनातियुवतीं
सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि
न तेषां परिभवः॥८॥
“तो कहाँ है उस तुम्हारी
भाव-मूर्ति में ‘शिवाभिर्घोराभिः’? कहाँ है ‘शवनिवह मुण्डास्थिनिकरैः’?”
“शिवा, अर्थात् सियारिन! शिवाभिः
घोराभिः अर्थात् भयंकर सियारिनें! किन्तु इन्हें तो कोई चित्रकार या मूर्तिकार उस
दक्षिणा-काली के चित्र या मूर्ति के साथ उकेरता नहीं?”
“यही कारण है कि चित्र या
मूर्ति के सम्मुख होते हुए भी ध्यान-श्लोक दुहराना आवश्यक होता है। क्योंकि
सामान्यतः चित्रकार या मूर्तिकार तन्त्र के ज्ञाता नहीं होते! अतः वे उस आद्या का
अविकल चित्र खचित ही नहीं कर सकते। एक चित्र हजार शब्दों से श्रेष्ठ हो ही, यह
आवश्यक नहीं। अतः जो चित्र या मूर्ति में न हो, ध्यान-श्लोक के आधार पर ध्यान करने
से उसकी भी भावना ध्यान से छूटने नहीं पाती! और ज्ञाताओं को भी चाहिये कि वे मूर्तिकारों
एवं चित्रकारों को इस दिशा में प्रेरित करें! दक्षिणा काली के चित्र के साथ इन
सियारिनों का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि इनके बिना उस काली का कोई भी चित्र
या मूर्ति हो, अपूर्ण है। देखा तुमने? कैसे बैठीं थीं वे? जैसे एक त्रिभुज के तीन
शीर्ष बिन्दुओं पर अपना स्थान लिये हों! वास्तव में वे सियार नहीं थे, सियारिनें
ही थीं! और वह नाग भी नाग नहीं था! नागिन थी! और नागिन भी नहीं! वही आद्या!
तुम्हारी भावना में अपने अधूरे रूप के कारण क्रुद्ध तो नहीं, किन्तु खिन्न-मना
अवश्य!
“तो सियारिनों की कल्पना करनी
ही होगी उस आद्या के निकट! एक त्रिकोण के तीन शीर्ष पर जोड़े में बैठी छः
सियारिनें! किन्तु वास्तव में वे सियारिनें भी नहीं हैं! वे शिवायें ही हैं! लौकिक
संस्कृत की शिवा सियारिन है, और तन्त्र की सियारिन शिवा है। शिवायें ही चित्र में
सियारिनें हैं, और सियारिनें ही तन्त्र में शिवायें! और यह भी एक प्रतीक है। जब भावना
रहस्य से अनभिज्ञ एवं अपरिपक्व रहती है तब वे सियारिनें होती हैं और रहस्य को जान
लेने के पश्चात्, भावना के परिपक्व होने पर वे शिवायें होती हैं। शिवायें क्या
हैं? ज्ञात है?”
“हाँ हाँ! अवश्य ज्ञात है।”
“क्या हैं शिवायें?”
“तुम ही कहो! मैं संभवतः ठीक
से न अभिव्यक्त कर सकूँ।”
“शिव तथा शक्ति के समन्वित रूप
हंसः के बिन्दु और विसर्ग क्रमशः वह्नि, इन्दु एवं मिस्र या मित्र या सूर्य रूप
हैं। यही तीन बिन्दु एक त्रिकोण रूप में सृष्टि के मूल आधार स्वरुप त्रिपुर-कुण्ड
या त्रिपुरा का रूपक रचते हैं तथा केन्द्रस्थ मूल बिन्दु को आवृत कर के अवस्थित
रहते हैं। मूल बिन्दु से उद्भूत वर्णमाला इन तीन बिन्दुओं से बने त्रिभुज की
भुजाओं पर वामावर्ती क्रम से प्रत्येक भुजा पर सोलह – सोलह की सङ्ख्या में अवस्थित
होती है। वामावर्त क्रम में शीर्ष की आधार भुजा पर ‘अ’ से ‘अः’ तक, दूसरी वाम भुजा
पर ‘क’ से ‘त’ तक, और तीसरी दक्षिण भुजा पर ‘थ’ से ‘स’ तक। तीनों भुजाओं पर स्थित
वर्ण-समूहों का प्रथम अक्षर ‘अ’, ‘क’ तथा ‘थ’ ही आगे चल कर ‘अकथ’ त्रिकोण बनाता
है। और अब कुछ क्षण रुक कर तनिक ध्यान दो कि उलटा लिखने की प्रक्रिया वास्तव में
है किसकी? और क्यों? वर्णमाला का क्रम वामावर्ती है और हम उसे व्यवहार में
दक्षिणावर्ती लिखते हैं। इसका भी एक रहस्यमय कारण है किन्तु वह फिर कभी। इस
त्रिभुज के मध्य में शिव स्वरुप ‘ह’ होता है जिसे साढ़े तीन वामावर्त फेरों में
लपेट कर वह आद्या एक भुजङ्गिनी के रूप में उस पर अपना शीश टिकाये पड़ी है। त्रिभुज
के तीनो शीर्ष बिन्दु कलात्मक-रूप हैं। चूंकि बिन्दु का विस्तार ही वृत्त है और
वृत्त का संकोच ही बिन्दु, अतः त्रिभुज की भुजाओं के इस तनाव में ये तीनों शीर्ष
बिन्दु द्विभाजित अर्ध-वृत्त स्वरूप हो जाते हैं। बिन्दु से अर्द्धवृत्त रूप में
विभाजित प्रणव की ये छह कलायें ही षट्-शिवायें हैं जिनके नाम परा, परात्परा, अतीता, चित्परा,
तत्परा एवं रसाभिधा हैं। इन्हीं को प्रतीकात्मक रूप से छह सियारिनों रूप में
कल्पित किया गया है क्योंकि शिवा का एक अर्थ सियारिन या जम्बुकी भी होता है। सप्तमी
कला प्रणव की सर्वातीता कला रूप में, उसी आद्या रूप में, त्रिकोण के मध्यवर्ती
बिन्दु ‘ह’ पर स्थित होती है। यह अधोमुख त्रिकोण रूपी त्रिपुरा ही वह सिद्ध-पीठ है
जिसके केंद्र में ‘ह’ कार शिव के ऊपर वह सर्वातीता आद्या स्थित है और अधोमुख
त्रिकोण रूप त्रिपुरा पीठ के तीनों शीर्ष पर दो-दो शिव-कलायें ही कुल छह शिवायें
हैं। था तुम्हारी भाव-मूर्ति में यह सब?”
“नहीं!”
“तो जो अधूरा रह गया उसे पूर्ण
करो!”
“आज नहीं! मेरे मेरुदण्ड में
महती पीड़ा है।”
“कहाँ है पीड़ा ? कहाँ-कहाँ
है?”
“सारी पीठ ही दुःख रही है।”
“किन्तु उस पसरी हुई पीड़ा के
कुछ निश्चित उद्गम-बिन्दु हैं। उन्हें पहचानो तो!”
और एक ही क्षण में मेरे अंतर
में अनेकों ज्योतिस्फुल्लिंग फूट पड़े। बुद्धि ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता। यह भ्रम
है। मन ने कहा – नहीं! यही सत्य है। अतः इस पीर को सहेजो और मूर्ति को पूर्ण करो!
शिवाओं को गढ़ो, अस्थियों को सजाओ, चिताग्नि की दहकती अग्नि के मध्य उस आद्या का
स्वरूप खींचो!
“चिता कहाँ होती है
दक्षिण-कालिका के चित्र में?”
“चित्रकार द्वारा बनाये चित्र
में नहीं होती! किन्तु आद्या का वास्तविक निवास वहीं तो है! देवी सूक्त में पढ़ा
नहीं क्या - चितिरूपेण या कृत्स्न-मेतद्-व्याप्य स्थिता जगत्। नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:।।”
“नहीं! यह चिति स्वरूप देवी का
वर्णन हो सकता है, मानता हूँ! किन्तु देवी के स्वरूप निदर्शक चित्र में कहीं कोई चिता
नहीं होती!”
“तो और सुनो। एक तो देवी स्वयं
सम्पूर्णतः चिति मात्र ही नहीं है, उससे अभिन्न हो कर भी भिन्न है। अतः चिति तो एक
उद्वेलन मात्र है उस शक्ति के जागरण का! महाकाल संहिता के अनुसार –
चिदाग्नि-कुण्ड-सम्भूतं सुन्दरं, सगुणोपरम्। रूपं जातु महेशानि मोहरात्रि
निशामुखे।। यह ही सृष्टि का मूल आधार है – मूलाधार है। यहाँ एक अग्नि धधकती रहती
है। यहीं सागर को भी सोख लेने वाला बडवा-मुख है। इसे त्रिपुरा – पीठ, काली-पीठ तथा
शक्ति-उद्गम भी कहा जाता है।
“किन्तु उसकी उपमा चिताग्नि से
क्यों?”
मन तनिक झुंझला उठा – “अरे
मूर्ख! वह अधोमुख त्रिकोण, वह त्रिपुर-योनि, चिता नहीं तो और क्या है? समस्त
जड़-चेतन उसी योनि से जन्म पा कर भी पुनः उसी में तो भस्म हो रहा है! वही अधोमुख
त्रिकोण जिसे तन्त्र में योनि कहा जाता है, वही चिति भी है और उसे ही चिता के रूप
में भी अभिव्यक्त किया गया है। उसी का ध्यान चिता का ध्यान है, या चिता से
तात्पर्य उसी आदि-योनि से है; लकड़ियों के
जलते समूह से नहीं! जैसे महाप्रलय की अवस्था को तन्त्र में महाश्मशान कहा जाता है
वैसे ही अधःमुख त्रिकोण रूप में अभिकल्पित योनि-रूपा वह काली जिससे सभी जन्म भी
पाते हैं, ही वह चिता भी है जिसमे पुनः सभी लय भी हो जाते हैं। जीव की कामाग्नि ही
वह धधकती चिता है जिसमें वह सुप्त सर्पिणी पड़ी-पड़ी विष उगलती रहती है जिससे जीव का
जीवन एक दाह बना रहता है। वासना की अग्नि शान्त होती नहीं; और यह अग्नि शरीर एवं
मन की दिव्य-संभावनाओं का विनाश करती रहती है। और उसी योनि के मध्य वह हकार शिव भी
शव जैसा निश्चेष्ट पड़ा है और जिसके ऊपर वह मन्त्र-मयी, वह ज्योति-मयी, एक
तडित्-शृंखला सी, यथा-स्थिति-संतुष्ट सो रही है। यद्यपि पूर्णतः तो नहीं, किन्तु
यह भी उसकी विपरीत-रति प्रसन्ना अवस्था ही है।
वज्राख्यावक्त्रदेशेविलसति सततं कर्णिकामध्यसंस्थं
कोणं तत्त्रैपुराख्यं तडित् इव विलसद् कोमलं कामरूपम्।
कन्दर्पोनाम वायुर्निवसति सततं तस्यमध्ये,
समन्तात् जीवेशो बन्धुजीवप्रकरमभिहसन् कोटिसूर्य्यप्रकाशः।।
वज्रा नामक नाड़ी के मुख-विवर के निकट, मूलाधार-पद्म की कर्णिका में, अत्यंत
कोमल, किन्तु विद्युल्लता सी प्रकाशमान, और जो बंधूक-पुष्प - गुलदुपहरिया या
दुपहरिया के फूल - से भी अधिक गाढ़े लाल रंग की, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान,
जो जीवेश है, जीवों के अस्ति की, अस्तित्व की, अस्ति-त्व की स्वामिनी है, लार्ड ऑफ़
बीइंग है, जिसके भीतर निरंतर ‘कन्दर्प’ नामक वायु प्रवाहित होती रहती है, ऐसी एक
त्रिकोण-आकृति है - जो कामरूपा है, और त्रिपुरा नाम से जानी जाती है। अब कन्दर्प
नामक वायु के प्रवाहित होने का अर्थ भी समझाना पड़ेगा? मन्मथ की हिलोरें बहती हैं
वहाँ! क्षण-प्रतिक्षण उमगते-धधकते-भभकते कामनाओं का अधिवास है वह! कामायनी है वह!
चिता और कैसी होती है मूर्ख?”
“नहीं! कन्दर्प नामक वायु का
अर्थ तो समझ गया! किन्तु यह गुलदुपहरिया का फूल? यह क्या है?”
“ह्ह्ह्हह!
देखो! शतरंज के खेल में यदि एक ही व्यक्ति दोनों ओर से चालें चले तो बाजी बहुत उलझ
जाती है अतः मन से मन को चतुरंग नहीं खेलना चाहिये! तुम्हें स्मरण तो होगा!
गीतगोविन्द में जयदेव ने कृष्ण द्वारा राधा का रूप-वर्णन कराते हुए कहा था ---
बंधूकद्युतिबांधवो अयं अधरः स्निग्धो मधूकच्छ्विर्
गंडश्चंडि चकास्ति नीलनलिनश्रीमोचनं लोचनं |
नासाभ्येति तिलप्रसूनपदवीं कुन्दाभ दन्ति प्रिये
प्रायस्त्वन्मुखसेवया विजयते विश्वं स पुष्पायुधः ||
(गीतगोविन्द, दशम सर्ग, श्लोक १३)
और तुमने तो उसका भावानुवाद भी किया है न? सुनाओं तो तनिक!
अपनी
विस्मृति पर मैं लज्जित था, किन्तु मुझे मेरे मन की स्मृति पर प्यार उमड़ आया। जाने
कितनी ऐसी छुटफुट बातें हैं जो अब स्मरण नहीं रहतीं। मन से बच्चा हो कर भी, देह से
बूढ़ा तो होने ही लगा हूँ! किन्तु मन ने स्मरण दिलाया तो स्मरण हो ही आया! ‘आप ने
याद दिलाया, तो मुझे याद आया!’ मैंने लजाते-सकुचाते वह अनुवादित छन्द दोहरा दिया
-
ऐसे दमकते हैं तेरे ये अधर युगल,
जैसे दुपहरिया के
फूल लाल-लाल हैं।
आँखें तुम्हारी हरें आभा नील-कमलों की,
महुए की सरस
स्वर्ण-कांति जैसे गाल हैं।।
नाक यह तुम्हारी सोहे, जैसे एक तिल का फूल,
दन्त-पंक्ति जैसे
कुंद-कली पंक्तिमाल हैं।
तेरे इस मुखड़े की सेवा में मानो
जग-विजयी पुष्पधन्वा
ने भेजे पुष्प-डाल हैं।।
(गीत-गोविन्द के उपरोक्त श्लोक का स्वयं कृत काव्यानुवाद)
अब इस इक्कीसवीं सदी में
बेचारा “दुपहरिया का फूल” भी अपना गौरव खो कर “कुछ नहीं मिला तो” की श्रेणी में आ
गया है! कभी “बन्धूकपुष्पसङ्काशम्” से सूर्य के रंग की उपमा देने में समर्थ,
“बंधूकद्युतिबांधवो अयं अधरः’ से राधा के अधरों की उपमा देने में समर्थ, उस “दुपहरिया
के फूल” को तनिक हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है, किन्तु यह “दुपहरिया का फूल”
होता बड़ा सुरंग है। राधा के प्यार सा, “टह-टह गुलनार, पीताभ रक्तिम वर्णी”!
संस्कृत में इसे बंधूक–पुष्प कहते हैं। खिलता है भरी दोपहर में अतः लोक में इसे नाम
मिल गया “दुपहरिया का फूल या गुल-दुपहरिया”! उपमेय और उपमान दोनों की महत्ता जान
कर ही प्राचीन काव्य-सम्राटों ने इसे चुना होगा। वास्तव में असली मंजिष्ठ रंग तो इसी
फूल का होता है, बाकी तो काम-चलाऊ, थोड़े आस-पास वाले ही हैं!”
“अब यह नया कण्टक क्या ला दिये?
मंजिष्ठ क्या?”
“रुबिया कॉर्डीफ़ोलिया एल! इसकी
जड़ों का उपयोग मधुमेह, हृदय-रोग एवं कर्कट रोग तक में अत्यंत लाभकर है! किन्तु यह
उत्तम कोटि का रंजक भी है और हमारे ऋषियों – मुनियों ने इस मंजिष्ठ से प्राप्त
रङ्ग से रँगा वस्त्र वैराग्य का प्रतिमान माना है। ये भगवा-ओगवा तो स्वयं ही
राग-रञ्जित है! वैराग्य का वास्तविक रंग है मजीठी रंग! काम-दहन का वास्तविक प्रतीक
तो यही है! और कवि की व्यंजना तो देखो! ‘बन्धुजीवप्रकरमभिहसन्’ से उसने ‘कन्दर्पोनाम
वायुर्निवसति’ का क्या ही अनुपम निरसन किया है? एक ओर है काम का दहकता कुण्ड, और उसकी
उपमा है बंधूक पुष्प के मजीठी रंग से! यही है भारतीय पद्धति! राग से वैराग्य का,
रङ्ग से अनङ्ग का पराभव!”
मुझे मन का यह बहकाव तनिक भी
भा नहीं रहा था। मैंने टोका – “तुम बहक रहे हो! प्रकृत विषय यत्र का तत्र रह गया
और तुम जाने क्या-क्या सुनाने लगे।”
मन तो सिरे से ही उखड़ गया –
“मैं बहक रहा हूँ? या तुम मुझे बहका रहे हो?”
“अरे! मैंने तो यही जाना है कि
मनुष्य का मन ही उसे बहकाता है! आज यह नयी बात तुमने बतायी कि मनुष्य अपने मन को
भी बहका सकता है!”
“देखे! शास्त्रों में मन की
उपमा वाजि से दी गयी है। इस मन-तुरग की अभिषु यदि कड़े एवं सधे हाथों से थामोगे तो
यह तुम्हारे अनुकूल चलेगा, और यदि ढीला छोड़ दिया तो तुम्हें उसके अनुसार चलना
पडेगा। दोष मेरा नहीं, तुम्हारा है!”
“अच्छा यह सब छोडो! यह कहो कि वह
‘शवनिवहमुण्डास्थिकरैः’, हड्डियाँ, कपाल के ढेर, ये कहाँ होते हैं उस दक्षिण
कालिका के चित्र में?”
“तुम समझते क्यों नहीं? या समझ
कर भी समझना नहीं चाहते? अच्छा कहो तो! कल्पान्त में जीवों के कर काट कर उस आद्या
ने करधनी तो बना ली, किन्तु मृत जीवों के अन्य अङ्ग कहाँ गये? उनकी हड्डियाँ कहाँ
गयीं? उस कल्पान्त में उस महाश्मशान में, उसी शून्याकाश में, वहीं, ढेर के ढेर पड़े
रहते हैं सब, क्योंकि अस्थियाँ हैं शुद्ध सतोगुण का प्रतीक! और जीव का सतोगुण ही तो
शेष रह जाता है उस कल्पान्त में। मांस है माम् स – वह मेरा है – तो ऐसी भावना का प्रतीक
मांस तो विगलित हो चुका होता है, रजस का प्रतीक रक्त भी सूख चुका होता है, मे-द –
देहि मे - की भावना का प्रतीक मेद पिघल कर बह चुका होता है, और ओज का प्रतीक मज्जा
तथा वीर्य शेष ही रहता तो मृत्यु आती ही कैसे? अतः उस कल्पान्त में जीव का शेष
बचता है मात्र सत्व-गुण-बोधक अस्थि-जाल, उसका कङ्काल! और उस सतोगुणी मेचक-मेदुर श्यामा
के चित्र या मूर्ति के पृष्ठदेश में यदि ढेर के ढेर ये श्वेत कङ्काल न हों तो उसका
रूप और निखर कर सामने कैसे आयेगा? कोई भी चतुर चितेरा इस पृष्ठभूमि की अवहेलना
नहीं कर सकता! जो करते हैं वे तन्त्र की दृष्टि से ही अज्ञानी नहीं हैं, चित्रकला
की दृष्टि से भी हैं। अतः दुहराओ स्तोत्र का आठवाँ छन्द और उस छन्द की
अर्थ-निष्पत्ति! पूर्ण करो अपनी भाव-मूर्ति!
शिवाभिर्घोराभिः*
शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः
परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां
हरवधूम्।
प्रविष्टां संतुष्टामुपरिसुरतेनातियुवतीं
सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः॥
(* पादटिप्पणी देखें।)
भयानक शृगालियों से घिरे, शवों
के समूह के अस्थियों एवं कपालों से, कंकालों से व्याप्त क्षेत्र में प्रज्ज्वलित
चिता में प्रविष्ट - प्रकटीभूत, अति-युवती – तारुण्य से परिपूर्ण, विपरीत रति से
संतुष्ट, हे परम संकीर्णे हर-वधू! जो तुम्हारे इस स्वरूप का सदा ध्यान करता है,
उसका कभी भी, कभी भी, पराभव नहीं होता।
“अच्छा यह हर वधू तो शिव की
अर्द्धांगिनी का व्यञ्जक है, किन्तु परम सङ्कीर्णे? यह क्या है? वह सर्व-व्यापिनी
सङ्कीर्ण कैसे हुई?” जिज्ञासा थी, तो थी!
मन ने कहा – “सुना नहीं है? रहिमन
पैंडा प्रेम का अजब सिलसिली गैल। बिछलत पाँव पिपीलिको, लोग लदावें बैल।। वह चराचर
में व्याप्त है, सही, किन्तु उस तक की यात्रा नितान्त असङ्ग हो कर ही की जा सकती
है। सारी ले-दे, सारी माया, सारे आवरण, समस्त आकर्षण, समस्त बन्धन, सारा
काम-क्रोध-लोभ-मोह-मत्सर और भय त्याग कर आओ तब कहीं उसकी यात्रा का द्वार खुले तो
खुले, अन्यथा तो सम्भव नहीं! अतः वह विराटा इस अर्थ में परम सङ्कीर्णा है। अति
सांकरी! या में दो न समाहिं!
“और इतना ही नहीं है। वह
महाकाल नामक कवि जितना उद्भट कौलाचार्य है, उतना ही चतुर कवि भी! यह
अर्थ-निष्पत्ति तो अभी कुछ नहीं! इस छन्द के माध्यम से उस महा-कौल ने प्रचलित रूढ़
शब्दों के प्रयोग द्वारा अत्यन्त गूढ़ निहितार्थ अभिव्यक्त किया है जिसे टीकाओं के
माध्यम से नहीं जाना जा सकता। यह रहस्य या तो कोई परम-कौल अपने पट्ट-शिष्य को
बताता है, या निरन्तर उस आद्या के स्वरूप की चिन्तना में निमग्न किसी अबोध को
अचानक कभी वह आद्या ही चुपके से बता जाती है। क्योंकि, टीकाओं के कर्ता शब्द
समझते-समझाते हैं, शब्दों का कूट नहीं समझते-समझाते! और कुछ तो इतने मूढ़, इतने
मोह-मदान्ध होते हैं कि “संशोधितं” का उद्घोष तक कर उठते हैं। कूट-सन्देश को यदि
अपने अनुसार संशोधित कर के प्रस्तुत किया जाएगा तो वास्तविक सन्देश का ज्ञान किसी को
होगा कैसे?
वास्तव में इस संसार का दुःख
अज्ञान नहीं है। इस संसार का वास्तविक दुःख तो अधकचरा ज्ञान है। न व्याकरण का
ज्ञान है, न मीमांसा का, न वर्णों के वास्तविक रहस्य का, बस क्षुधा, तृषा, आर्ति,
काम, घृणा, द्वेष, लोभ, मोह, जुगुप्सा आदि ज्ञात है और उसी को शब्द देना है
क्योंकि इसमें समाज का हित हो, न हो, उनका अपना हित तो है न? अतः जब – जब कोई अभिमन्यु
इस दुश्चक्रव्यूह के विरुद्ध सहस्रार छोड़ मात्र प्राथमिक षट्चक्र-भेदन का भी प्रयास
करे तो कु-रवी प्रवृत्ति कौरव उसका सामूहिक-रव से वध कर देते हैं। किन्तु अभिमन्यु
(अभि मन्यु : अभि - ओढ़ा हुआ, मन्यु - क्रोध : जान-बूझ कर ओढ़ा हुआ क्रोध, कृत्रिम
क्रोध। मन्यु क्या है यह जानने के लिये ब्लॉग पर ‘सुनहु तात यह अकथ कहानी’ पढ़ें।)
को षट्चक्र-द्वार-भेदन तक तो कोई भी रोक नहीं सका था! और एक अंतिम-चक्र-भेदन की क्रिया-विधि
न जानने वाले को भी, सप्तम चक्र-भेदन से रोकने हेतु भी कम से कम सात महारथियों की
आवश्यकता होती है। अभिमन्यु सहस्रार-भेदन नहीं जानता था, अंतिम द्वार को भंग करने
की विधि उसे नहीं ज्ञात थी, किन्तु इतिहास जानता है, कि जब-जब अनीति एवं अत्य की
कथायें स्मरण की गयी हैं, अभिमन्यु सबके मानस में पोर-पोर धँसे बाणों और एवं उनके
द्वारा हुए क्षतों से झर-झर झरते रक्त के साथ अपने दोनों हाथों से किसी भग्न रथ से
उखड़ कर गिरा एक पहिया उठाये, सबकी स्मृतियों में सजीव हो उठता रहा है और सजीव हो
उठता रहेगा।
अधकचरे ज्ञान के बल पर
चक्र-भेदन का साहस करने वाले अभिमन्यु मरते तो हैं, क्योंकि उनके अर्जन-सन्नद्ध अर्जुन-पिताओं
एवं त्रिभुवन-आकर्षणी कृष्ण-मातुलों को उन्हें सहस्रार-भेदन का ज्ञान देने का
अवकाश आजीवन प्राप्त नहीं हो पाता, किन्तु वे अनीति एवं अत्य के महारथियों को विश्व
के समक्ष नग्न करने के पश्चात् मरते हैं। किन्तु यह सब छोडो! स्मरण है? सातवें
छन्द में उस महाकाल नाम्नी कवि ने कुण्डलिनी-तन्त्र की एक पीठिका रची थी न? इस
आठवें छन्द में उसने सङ्केत ही सङ्केत में उस कुण्डलिनी का रहस्य ढाल दिया है।”
“दक्षिण कालिका का कुण्डलिनी
से क्या सम्बन्ध?”
“भ्रम में न पड़ो! कुण्डलिनी ही तो वह
दक्षिण कालिका है! शाक्त ही नहीं तन्त्र की प्रत्येक धारा का उत्स, उसका मूल,
कुण्डलिनी ही है। शाक्तों की जो कालिका है, त्रिपुरसुन्दरी है, तारा है, या
दश-महाविद्याओं का प्रत्येक रूप, उन सबका रूप एक ही है – वही कुण्डलिनी! वही सौरों
की गायत्री है। वही ‘कामो योनिः कमला’ के कूटाख्य का रहस्य है। इसी कारण यह छन्द
उस रूप में है ही नहीं जिस रूप में तुमने इसे पढ़ा और जाना! शब्दार्थ यहाँ निहितार्थ
व्यक्त करने में अक्षम हैं क्योंकि कवि ने शब्दों को कूट-रूप में व्यवहृत किया है।
“शिवाभिर्घोराभिः अर्थात् भयङ्कर
सियारिनें। शिवाभिः का, सियारिनों का निहितार्थ तो तुम्हें ज्ञात हो गया किन्तु
घोराभिः का क्या? क्या प्रतीकरूप वे शिवायें भयप्रद हैं? नहीं! क्योंकि शिवाभिर्घोराभिः,
शिवाभिः घोराभिः है ही नहीं! वह शिवाभिःऽघोराभिः है। शिवाभिः अघोराभिः। अघोर भी
शिव का ही एक नाम है। नाम तो अघोर ही है किन्तु वह अघोर, घोर भी है - अघोरेभ्योऽथघोरेभ्यो
घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेस्तु रुद्र रूपेभ्यः।। जो अघोर है, वह
घोर है! घोर से भी घोरतर है! सर्व-संहारकारी है! ऐसे रुद्र रूप को नमस्कार है।
अघोर शिव का पञ्चम मुख है! और वह मुख घोर है अतः घोर भी हुआ शिव ही, तो घोराभिः या
ऽघोराभिः या अघोराभिः भी वही है जो शिवाभिः है। अतएव कवि का अभिप्राय है – शिवाभिः
अघोराभिः वा। शिवायें कहो या अघोरायें कहो, एक ही बात है। और इस प्रकार वह स्पष्ट
कर देता है कि सियारिनें तो कहीं हैं ही नहीं! और यदि किसी तन्त्र का बोध रखने
वाले चित्रकार ने किसी चित्र में उन्हें खचित भी किया हो तब भी, सियारिनों का
ध्यान नहीं करना होता! यह तो एक सङ्केत है कि षट्-कला-रूप शिवाओं का ध्यान करना
है। किस प्रकार? उस अधोमुख त्रिकोण, उस चिदग्नि-योनि, उस त्रिपुर-कुण्ड के तीनों शीर्ष
बिन्दुओं पर, जोड़े में! इसके लिये शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः पर ध्यान दो! यह ‘शवनिवह’
भी वास्तव में ‘शवनिवह’ नहीं, ‘शवन् इ वह’
है। ‘शव’ द्वारा ‘इ’ को ढोया जाता हुआ! शव स्वरूप वहाँ कौन है? केन्द्रस्थ ‘ह’ कार
शिव! और ‘इ’ क्या और कौन? ‘शक्ति’! अतः उस योनि-कुण्ड में, वह ‘शव’ हुआ ‘शिव’, ‘इ’
रूप ‘शक्ति’ को, ‘वह’ - अर्थात ‘वहन’ कर रहा है, ढो रहा है। करघे सहित शिवलिंग और
उसके उच्चस्थ भाग पर फन टिकाये नाग की स्मृति हुई? शिवलिंग का अरघे या योनि सहित
विग्रह और उसे लपेट कर शिव-लिंग के शीर्ष पर फन रख कर सोया एक नाग भी वही है। अरघे
सहित शिवलिंग, तन्त्र-शास्त्र का मूल-आधार प्रतीक है – मूलाधार प्रतीक है जिसमें
अरघे में अर्थात् योनि-त्रिकोण में, एक सर्पिणी, ध्यान रहे, वह नाग नहीं है, नागिन
है, लिपटी हुई प्रदर्शित की जाती है जिसका फन लिंग-शृंग पर टिका होता है और एक
त्रिपाद आधार पर स्थित कलश से लिंग-शृंग पर जल टपकता रहता है। यह त्रिपाद उन्ही
तीन बिन्दुओं का प्रतीक है। कहीं-कहीं यह कलश गर्भ-गृह के छत से लटका होता है औत
तब वह सहस्रार का अमृत-कलश माना जाना चाहिये, और कलश से टपकता जल सहस्रार से झरते
अमृत का प्रतीक है जिसे स्वयं वह
कुण्डलिनी, वह सर्पिणी, लिंग तक पहुँचने नहीं देती, तब तक, जब तक वह जाग्रत हो
अपना फन न उठा दे। और एक बार उसका फन उठा नहीं, कि वह वहाँ टिकेगी ही नहीं। एक
धूमकेतु सी छूटेगी और सहस्रार के परमशिव तक जा कर ही विश्राम लेगी, समय चाहे जितना
लगे। चित्रित करने वाले, नाग का फन लिंग से ऊपर उठा हुआ चित्रित या खचित करते हैं।
और यह करके वे भूल करते हैं।
“रहा मुण्डास्थिनिकरैः? तो वह
है ‘मुण्डाः स्थीनि करैः’ - मुण्ड पर, त्रिकोण-शीर्ष पर, स्थीनि – जो स्थित हैं,
वे तीन बिन्दु, वे सत्, रज, तम, वे अग्नि, चन्द्र, सूर्य, वे उत्पत्ति, स्थिति,
संहार, वे जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति, उनका, करैः – करः द्वयोपाख्याता - कर का अर्थ
संख्यावाची अर्थ में ‘दो’ का बोधक है और करैः अर्थात् सभी दो-दो, तीनों शीर्ष दो –
दो, अतः इस प्रकार प्रथम पद में कवि ने स्पष्टतः शिव, शक्ति तथा शिवाओं को ही
परिभाषित करते हुए उनकी स्थिति को स्पष्ट किया है। यह ‘महाकाल’ नामक कवि उस आद्या
का स्वरूप वर्णन करते-करते तन्त्र-दर्शन भी उद्घाटित करता चल रहा है। यह अधोमुख
त्रिकोण, षट्-शिवायें, वर्णमाला का वाम-क्रम, त्रिपुर-कुण्ड, सामान्यतः तो इस छन्द
में कहीं लक्षित नहीं होते, किन्तु सूक्ष्मता में जायें तो ऐसे निगूढ़ अर्थ प्राप्त
होते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि यही तन्त्र की शैली है।
“अब आगे है परं संकीर्णायां! और सत्य ही
अब आगे इस छन्द का अर्थ भी परं संकीर्णायां ही है जिसे समझने हेतु कुण्डलिनी–तन्त्र
में थोड़ी गति आवश्यक है। अधिक विस्तार में जाने का तो अवकाश भी नहीं, आवश्यकता भी
नहीं, और वह उचित भी नहीं, किन्तु कुण्डलिनी-तन्त्र की मूल अवधारणा को जाने बिना अब
आगे इस छन्द का निहितार्थ जाना ही नहीं जा सकता और मन्त्र, यन्त्र, स्तोत्र, उनके
प्रतीक आदि का निहितार्थ ज्ञात न हो तो उनका कोई लाभ नहीं!
नार्थज्ञानविहीनं
शब्दस्योच्चारणम् फलति,
भस्मनि वह्निविहीने न
प्रक्षिप्तं हविर्ज्वलति।
अर्थम् अजानानाम्
नानाविधशब्दमात्रपाठवताम्,
उपमेयश्चक्रीवान् मलयजभारस्यवोढैव।।
(वरिवस्या रहस्य)
अर्थ-ज्ञान से हीन शब्दों का उच्चारण
फलप्रद नहीं होता। वह्नि-विहीन भस्म-राशि में हवि प्रक्षिप्त करने से वह्नि
प्रज्ज्वलित नहीं हो जाती। अर्थ से अनभिज्ञ मात्र शब्दों का पाठ करने वाला चन्दन
ढोते हुए गर्दभ की उपमा के ही योग्य है। उससे तो उत्तम है मात्र भावना के साथ पूर्ण
शरणागति! किन्तु बिना साधना के तो शरणागति भी नहीं सधती। चक्रीवान गर्दभ को कहते
हैं। एक सूक्ति “यथा खरश्चंदनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य।” वाली भी
है।
“बाह्य उपासना मन को उस आद्या
की ओर उन्मुख करने का एक साधारण उपक्रम है। बाह्याचार में हमारे समक्ष एक चित्र या
मूर्ति होती है जिसके आश्रय से हम उसके स्वरूप को समझने तथा उसे हृदयङ्गम करने का
प्रयास करते हैं और परम्परागत रूप से उस पर पुष्प, धूप या अगरुवर्तिका, दीप, चन्दन, तथा
नैवेद्य अर्पित करते हैं। यह पञ्चोपचार कहा जाता है। कुछ और आगे बढ़ कर यह
षोडशोपचार में भी परिवर्तित हो जाता है। किन्तु यह पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा
चन्दन स्थूल पदार्थ होते हुए भी भावनात्मक उपादान हैं। पुष्प आकाश तत्व का, धूप
वायु तत्व का, दीप अग्नि तत्व का, नैवेद्य आपः या जल तत्व का तथा चन्दन पृथ्वी तत्व
का प्रतीक है। इष्टदेवता को इन्हें अर्पित करते समय यदि इन पञ्चतत्वों के समर्पण की
भावना मन में नहीं है तो ये उपचार एक मूर्खतापूर्ण अभिनय मात्र हैं अतः स्थूल पूजन
में भी इन उपचारों का मूल भाव पञ्चतत्वों क्षिति, जल, पावक, समीर एवं आकाश, जिससे
यह नश्वर देही आकार पाये हुए है, का उस इष्ट में लय है। शनैः-शनैः जब इष्ट के
प्रति समर्पण बलवती हो चले तब बाह्य आचारों की आवश्यकता नहीं रह जाती। और तब इष्ट
की परिकल्पना भी बाहर नहीं रह जाती।
“तन्त्र की प्रत्येक धारा जब
बाहर से भीतर की ओर उन्मुख होती है तो उसका अंतिम सोपान कुण्डलिनी-तन्त्र ही होता
है। तन्त्र-दर्शन की अवधारणा है, और मात्र अवधारणा नहीं, आधुनिक परीक्षणों से भी
इसे सत्य पाया गया है, यद्यपि अद्यावधि आधुनिक शरीर-शास्त्रियों को इस अवधारणा के
रहस्य का साक्षात् नहीं हो सका है, कि हमारे मेरुदण्ड के निचले भाग में, मेढ्र (मूत्रेन्द्रिय)
से दो अङ्गुल नीचे तथा गुदा से दो अङ्गुल ऊपर एक मांसपिण्ड, एक मांसकन्द है जिसकी
आकृति खगाण्ड (पक्षी के अण्डे) जैसी है और शरीर में व्याप्त बहत्तर हजार नाड़ियों
का यह उद्भव-केन्द्र है। इन बहत्तर हजार नाड़ियों में अधिकांश तो जीवन हेतु आवश्यक
स्थूल क्रियाओं में सहभागी हैं किन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो आध्यात्मिक ऊर्जा तथा
प्राण-शक्ति की संवाहक हैं। इनमें से भी चौदह नाड़ियाँ विशिष्ट हैं – सुषुम्ना,
इडा, पिंगला, कुहू, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, सरस्वती, पूषा, पयस्विनी, शङ्खिनी,
यशस्विनी, वरुणा, विश्वोदरा तथा अलम्बुषा। इन चौदह में से भी तीन मुख्य हैं – इडा,
पिंगला एवं सुषुम्ना। इडा को चन्द्र नाडी तथा शशिनी, पिंगला को सूर्य नाडी तथा मिहिरा
एवं सुषुम्ना को अग्नि नाडी भी कहा जाता है। इनका क्रमशः नाम यमुना, सरस्वती तथा गंगा
भी है।
मेरुदण्ड की कशेरुकाओं के
रंध्रों में कुछ निश्चित स्थानों पर कुछ विशिष्ट शक्ति-केंद्र हैं जिन्हें तन्त्र
एवं योग की भाषा में चक्र या पद्म कहा जाता है जिनके नाम मूलाधार, स्वाधिष्ठान,
मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, एवं आज्ञा चक्र हैं। मूलाधार का क्षेत्र तो मेरुदण्ड का
वही निचला भाग है जहाँ मुर्गी के अण्डे जैसा कन्द स्थित है। स्वाधिष्ठान का स्थान
इन्द्रियों से थोड़ा ऊपर है, मणिपूर नाभि-क्षेत्र में है, अनाहत चक्र हृदय के आस-पास
कहीं, विशुद्ध चक्र है कण्ठ की सीध में, तथा आज्ञा चक्र भ्रू-मध्य के सामने कहीं।
इन शक्ति-केन्द्रों की कल्पना अधोमुख अधखिले कमल जैसी है तथा उन कमलों की कुछ
पंखुड़ियाँ भी कल्पित की गयी हैं। वास्तव में यह संरचना विभिन्न नाड़ियों के सहयोग
से मेरुदण्ड में वास्तव में निर्मित होती है किन्तु ये संरचनायें इतनी सूक्ष्म हैं
कि उन्हें अभी तक मानव-निर्मित अनेकानेक शक्तिशाली यंत्रों द्वारा देखा तक नहीं जा
सका है। सबसे ऊपर कपाल में ब्रह्म-रंध्र के निकट एक सहस्र-दल कमल है जिसे
सहस्त्रार कहते हैं। इनके अतिरिक्त भी ललना आदि अन्य चक्र भी हैं किन्तु वास्तव
में यह अत्यन्त विस्तृत विषय है और यहाँ अधिक विस्तार में जाने का कोई प्रयोजन
नहीं।
अधोमुख त्रिकोण जैसी आकृति
वाले क्षेत्र के मध्य स्थित उस कन्द से निकली नाड़ियों में से ये तीनों प्रमुख
नाड़ियाँ इन मेरुदण्ड में स्थित कमलों को, जैसे नारियाँ अपने केश की चोटी गूँथती
है, वैसी ही गूँथती हुई ऊपर जाती हैं। इनमें इडा वाम नासारंध्र तथा पिंगला दक्षिण नासारंध्र
तक जाती हैं। सुषुम्ना आगे निकल जाती है - ‘सुषुम्णाया मूलादिमस्तकपर्य्यंत स्थिति
प्रकारमाह’। और शक्ति के अजस्र स्रोत के रूप
में कुण्डली के आकार में एक सर्पिणी जैसी सूक्ष्माकृति अब्ज-तन्तु-सदृशी – कमल नाल
को तोड़ कर खींचने पर जो पतला सा तार जैसा खिंच जाता है, वैसी, जिसे कुण्डलिनी
शक्ति कहा जाता है, साढ़े तीन फेरों में उस कन्द को लपेट कर, अपना ऊपरी सिरा, जिसे
उसका फन कहा जाता है, उस कन्द पर इस प्रकार टिकाये पड़ी रहती है कि सुषुम्ना नाड़ी
का प्रवेशद्वार जिसे ब्रह्मद्वार भी कहा जाता है, बन्द हो जाता है। इसे ही ‘इ’ कहा
गया है। इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना मकड़ी के जाले के धागे जैसी, प्रत्युत उससे भी
सूक्ष्म हैं, अतः सुषुम्ना का यह द्वार अत्यन्त संकीर्ण है तथा कुण्डलिनी स्वयं
उसे बन्द कर के पड़ी होती है।
जब जीव की चित-शक्ति जाग्रत
होती है, प्रज्ज्वलित होती है, तो वह कुण्डलिनी शक्ति फूत्कार मार कर जाग उठती है
तथा सुषुम्ना के उस सङ्कीर्ण द्वार में प्रविष्ट हो ऊपर की ओर बढ़ती हुई एक एक कर
क्रमशः समस्त ऊपरी चक्रों का वेधन करती, उन कमलों को प्रस्फुटित करती, अंत में
सहस्रार में पहुँचती है।
मूलाधार में स्थित उस कन्द का
नाम ‘स्वयम्भू लिंग’ है तथा वहाँ स्थित अधोमुख त्रिकोण का नाम त्रिपुरा है। स्वाधिष्ठान
चक्र में भी एक लिंग होता है जिसे विष्णु लिंग कहते हैं। मणिपूर में स्थित लिंग को
रूद्र, अनाहत में स्थित लिंग को ईश, विशुद्ध चक्र में स्थित लिंग को सदाशिव तथा
आज्ञा चक्र में स्थित लिंग को शम्भु कहते हैं। सर्वोच्च-कमल सहस्रार में परमशिव का
वास होता है।
यह कुण्डलिनी शक्ति जब समस्त
चक्रों का भेदन कर सहस्रार तक पहुँचती है तो परम-शिव का सायुज्य पा कर, अति
प्रसन्न होती है और क्योंकि प्रयास उसका था, आरोहण उसका था, तो कामशास्त्र के
अनुसार यह विपरीत रति है। इत्यलमतिविस्तरेण! अतः जब कवि
शिवाभिर्घोराभिः शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः
परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां
हरवधूम्,
प्रविष्टां संतुष्टामुपरिसुरतेनातियुवतीं
कहता है तो उसका तात्पर्य –
प्रकटितचितायां – चित् शक्ति
के प्रकटीकरण के उपरान्त, मुण्डाः स्थीनि करैः – त्रिपुरा कुण्ड के तीनों शीर्षों
पर अवस्थित, शिवाभिः अघोराभिः वा – षट्-कला-रूप शिवाओं के साथ, शवन् इ वह – शिव
जिसको अपने शीर्ष पर ढो रहा है वह ‘इ’ से अभिव्यक्त शक्ति – ‘तुम’, हरवधूम् – शिव
की अर्धांगिनी, किन्तु, ‘ह’ का अर्थ ‘शिव’ ही नहीं ‘सूर्य’ भी होता है, ‘र’ अग्नि
है ही, और ‘व’ वायु है, ‘धूम’ है धुँआँ, किन्तु यहाँ कवि को वधूम् से विधुम् अर्थात
चंद्रमा का भी ग्रहण अभिप्रेत है – ह र विधुं - अतः ‘ह’ ‘र’ ‘विधुं’ इस प्रकार
त्रिगुणात्मिका अर्थात सुषुम्ना (सुषुम्ना वास्तव में सुषुम्ना, वज्रा तथा
चित्रिणी तीन नाड़ियों की लड़ी है, अतः गुण का अर्थ यहाँ धागे या सूत्र से भी
ग्रहणीय है तथा तीनों के गुण सत्व, रजस एवं तमस भी हैं अतः वह अर्थ भी ग्रहणीय है)
परं संकीर्णायां प्रविष्टां – परम संकीर्ण [ब्रह्मद्वारे इति] प्रविष्टाम्, अतियुवतीं
[अतियुवतीम् = अति य-वतीम्! य अर्थात् प्रकाश, पिछली कड़ियाँ नहीं पढ़ेंगे तो
भटकेंगे! अति य-वतीम् = अत्यन्त प्रकाशवान] उपरिसुरतेन संतुष्टाम् - से है।
और इसका अर्थ है –सूर्य, चन्द्र तथा
अग्नि स्वरुप तीन बिन्दुओं से बने अधोमुख योनि – त्रिकोण में, इ वर्ण से अभिहित तुम
कुण्डलिनी शक्ति, जिस को वह शव रूप शिव, अपने शीश पर ढो रहा है, वायु-पायी साधक की
(प्राणायाम क्रिया से) चित-शक्ति के जाग्रत होने पर, स्वयं अत्यन्त प्रकाशवान रूप
में, सूर्य नाड़ी पिंगला तथा चन्द्र नाड़ी इडा के मध्य, अग्नि नाडी सुषुम्ना के अति
संकीर्ण द्वार में धूमवत प्रविष्ट हो कर [धूम अर्थात् धुँआँ, कितना भी संकीर्ण
द्वार हो, उसमें प्रविष्ट हो सकता है] सहस्रार तक पहुँच कर उस परम शिव – सायुज्य
की प्राप्ति पर इस विपरीत प्रक्रिया से, नारी हो कर, नर को आक्रान्त करने हेतु
अग्रसर हो कर अपनी सफलता पर प्रसन्न, सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः
– तुम्हारे इस स्वरुप का जो सदा ध्यान करता है, अर्थात्, अपनी कुण्डलिनी जाग्रत कर
के सहस्रार में उसे शिव-सायुज्य का सदा अवसर देता है, ऐसे साधक का, इस, या किसी भी
जन्म में कभी भी किसी भी प्रकार से, कोई पराभव नहीं होता! समझे कुछ?
सत्य कहूँ तो मेरे मन की यह लम्बी-चौड़ी
लंतरानी मेरे समझ में बिलकुल नहीं आयी। किन्तु तभी रवीन्द्र के फोन पर कोई कॉल आयी
और उसका रिंगटोन सुनाई पडा - कोई हसीना कदम, पहले बढ़ाती नहीं! मजबूर दिल से न हो,
तो पास आती नहीं!! खुशी मेरे दिल को हद से जियादा है, तेरे संग जिन्दगी बिताने का
इरादा है।। मन ने कहा – बुढवा रसिक है। लेकिन सुन लो यह भी! रवीन्द्र जैन ने कभी
सोचा भी नहीं होगा कि उनका यह गीत ऐसे स्थान पर उदाहरण रूप में स्वयमेव प्रस्तुत
हो जाएगा।
अब समझ में तो कुछ भी नहीं आया, किन्तु
मेरा एक दोष है! मैं मन की बातों को कभी अनसुना तो नहीं करता किन्तु मन से मेरी
नोंक – झोंक चलती रहती है। अतः मैंने पूछ लिया – ‘इ’ को कुण्डलिनी शक्ति क्यों
कहते हैं?
“इ शक्ति स्वरूपा है यह हजार बार पढ़ा –
सुना, ‘शक्ति हीनं शिवः शवः’ रट लिया, किन्तु यह नहीं जाना कि वास्तव में वह शक्ति
है क्यों? इस ‘इ’ वर्ण की लेखन-प्रक्रिया तनिक ध्यान से देखो तो सही! साढ़े तीन
फेरे लगा कर ही इसे इसका आकार प्राप्त होता है कि नहीं? और कामधेनु तन्त्र के
अनुसार ‘इ’ –
इकारं परमानन्दसुगन्धकुसुमच्छविम् ।
हरिब्रह्ममयं वर्णं सदा रुद्रयुतं प्रिये ॥
सदा शक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा ।
सदाशिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम् ॥
हरिब्रह्मात्मकं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम् ।
इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली
मूर्त्तिमान।।
और उस कुण्डली या कुण्डलिनी
का स्वरुप बताते हुए कहा गया है –
विद्युन्माला विलासा मुनिमनसि
लसत्तन्तुरूपा
सुसूक्ष्मा शुद्धज्ञानप्रबोधा
सकल सुखमयी शुद्धबोधस्वभावा।
ब्रह्मद्वारं तदास्ये
प्रविलसति सुधाधारगम्यप्रदेशम्
ग्रन्थिस्थानम् तदेतद्वदनमिति
सुषुम्णाख्यनाड्या लपन्ति।।
तस्योर्ध्वे बिसतन्तुसोदर
लसत्सूक्ष्मा जगन्मोहिनी।
ब्रह्म्द्वारमुखं मुखें मधुरं
संछादयन्ती स्वयं।।
शङ्खावर्तनिभा नवीनचपलामाला
बिलासास्पदा।
सुप्ता सर्पसमाशिवोपरि
तसत्सार्धत्रिवृत्ताकृतिः।।
चूंकि गुण-स्वभाव में दोनों
एक ही हैं अतः ‘इ’ वर्ण को शक्ति का पर्याय कहा गया।”
मैं अब कुछ निराश सा हो चला था
– “तो ऐसा चित्र तो खींचा ही नहीं जा सकता! ऐसी मूर्ति तो गढ़ी ही नहीं जा सकती!
इसे तो मात्र भावना से ही अनुभव किया जा सकता है।”
“क्यों? तुम तो कह रहे थे कि
अन्धकार को गला लूँगा, पिघला लूँगा, एक टुकड़ा तोड़ लूँगा और अपने मन की मूर्ति
गढ़ूँगा? निकल गयी सारी हेकड़ी? उस आद्या की अविकल स्थूल मूर्ति निर्मित कर सकना या
चित्र खींचना या शब्दों में ही वर्णित कर सकना किसी के भी लिये असंभव है, उस
महाकाल हेतु भी। ‘विद्याबलेन यः कश्चिद् आगमार्थ विचारयेत्। परान् दिशति धर्मार्थं
स पतेन्नरके ध्रुवं।।’ मात्र विद्या-बल से आगम-सूत्रों का अर्थ-विचार पतन का कारण
बनता है। इसी कारण तो वह पराम्बा क्रुद्ध हुई तुमसे!”
“किन्तु मैं उससे क्षमा मांग
तो चुका था! ‘तत्सर्व क्षम्यतां देवि’ कहा तो मैंने!”
“कहा नहीं था! बताया था! कि
क्षमा मिल जाती है! ‘परान् दिशति धर्मार्थं’ था वह! क्षमा-प्रार्थना तो तू अब कर!”
मैंने दुहराना चाहा – ‘अज्ञानाद्विस्मृतेभ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं
कृतम्।’
मन ने तत्क्षण टोका – “ऐसे
नहीं!”
“फिर कैसे?”
“जैसे महाकाल ने कहा! स्तोत्र
का नवम छन्द स्मरण कर!”
वदामस्ते किम् वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो
न धाता नापीशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम्।
तथापि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकममिते!
तदेतत्क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः समुचितः॥९॥
हे माता! मैं तो उत्कृष्ट कोटि का निकृष्ट हूँ! उच्चै जड धियो! हमारी तो जड़ता
भी जड़ता की कोटियों में उत्कृष्ट कोटि की है! तो मैं तुम्हारे सम्बन्ध में क्या
कुछ कहूँ? और कैसे कहूँ? जबकि न धाता – न तो ब्रह्मा, नापि ईशो – न ईश या शंकर ही,
हरिरपि न – विष्णु भी नहीं, न वेत्ति परमं – तुम्हारा यह परम तत्व तो ये भी नहीं
जानते, तो जब जानते ही नहीं तो वर्णन क्या और कैसे करेंगे? तो मुझ मन्द-बुद्धि की
क्या सामर्थ्य? फिर भी! त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकम् अमिते!
अतः हे अमिते!
हे अचिन्त्यामिताकारशक्तिस्वरूपा !
हे प्रतिव्यक्त्यधिष्ठानस्तैकमूर्तिः!
हे गुणातीत निर्द्वंद्व बोधैकगम्या! हे (त्वमेका) परमब्रह्मरूपेण सिद्धा!!
माप तो तुम्हारी कुछ है नहीं! किन्तु तुम्हारे प्रति भक्ति के व्याज से, कि
माता के सम्बन्ध में कुछ तो कहना चाहिये? इस भावना से, मुखरयति च अस्माकम् – जो
कुछ भी मेरे मुख से निकल गया, तुम्हारे स्वरुप कथन में सर्वथा अयोग्य हूँ मैं, अतः
नहीं कहना चाहिये था, किन्तु कह गया मैं, बह गया भावनाओं में, भूल हो गयी, तो
क्षमा करो माँ! मुझ पर तुम्हारा यह पशु-रोष उचित नहीं है।
“रुक! ठहर तनिक! यह पशु-रोष
क्या है रे?”
“मुझ पशु पर उसका रोष! इसमें
क्या गूढ़ है?”
“नहीं! ठीक है! है तो तू पशु
ही! किन्तु पशु क्यों है तू? जानता है?”
“हाँ! येषां न विद्या न तपो न
दानं, ज्ञानं न शीलं गुणो न धर्मः।
“नहीं रे! पशु वह जो पाश-बद्ध
है! पाशबद्धः पशुः प्रोक्तः, पाशमुक्तः सदाशिवः।”
“तो इस दृष्टि से मैं कहाँ
पाश-बद्ध हूँ! मैं तो परम स्वतन्त्र न सर पर कोई!”
“है रे! है तू पाश-बद्ध! घृणा
शङ्का भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पञ्चमी। कुलं शीलं तथा जातिः अष्टौ पाशा इमे
स्मृताः।। घृणा, शङ्का, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति, इन आठ भावनाओं से
अभिभूत रहने वाला जीव ही पशु है। आज की रात्रि ही देख ले! ये आठो तुम्हें लपेट-लपेट
कर कसते हुए निरंतर पीड़ा देते रहे कि नहीं? एक-एक का पुनः स्मरण कराऊँ क्या?”
मैंने एक क्षण सोचा। अनुभव हुआ
कि बात तो सही है। अतः मैंने कहा – “नहीं! रहने दो!”
मन ठठा कर हँस पडा – “क्यों?
लज्जा आती है? यह भी उन अष्ट-पाशों में से एक पाश है! अब?”
“अब क्या?”
“स्तोत्र को ले कर आगे नहीं
बढ़ना? अब अपने मन की मूर्ति नहीं गढ़नी?”
“क्या करूँ? तू ही बता!”
‘देख! शास्त्र कोई भी हो उसके
दो भाग होते हैं। एक है ज्ञानकाण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड। काण्ड का अर्थ वह काण्ड न
समझ लेना जो तू रोज इस पटल पर किया करता है। काण्ड का अर्थ है विभाग! ज्ञानकाण्ड
है सिद्धान्त पक्ष, और कर्मकाण्ड है उसका प्रायोगिक पक्ष! एक है थ्योरी और दूसरा
है प्रेक्टिकल। सिद्धान्त ‘मानना’ सिखाता है। वह बताता है कि ऐसा है, इसे मानो!
किन्तु प्रयोगात्मक संक्रियायें ‘जानना’ सिखाती हैं। जब तक माना है, तब तक संदेह
है क्योंकि जाना नहीं है। किन्तु जब जान लिया तो मानने न मानने की बात ही नहीं
बचती है। और ज्ञानकाण्ड के बिना कर्मकाण्ड सफल या असफल दोनों में कुछ भी हो सकता
है, किन्तु कर्मकाण्ड के बिना ज्ञानकाण्ड सदा अपूर्ण है क्योंकि वह मानने तक ही रह
जाता है, जानने तक नहीं पहुँच पाता। किन्तु आज तन्त्र-शास्त्र जिन परिस्थियों से
हो कर अपना नाम-मात्र अस्तित्व बचाये हुए है उसमें इस शास्त्र का ज्ञानकाण्ड तो
अधिकतर लुप्त हो ही चुका है, कर्मकाण्ड तो सर्वथा लुप्त हो चुका है, और जो
यत्किंचित शेष है वह अपने मूल स्वरुप में नहीं रह गया है अतः सार्थक तो उसे होना
ही नहीं, निरर्थक वह अवश्य हो चुका है। लाखों - करोड़ों में एक कहीं अनूचान
विद्वान् हैं भी, तो आज के परिवेश में वे “भाड़ में जाये दुनिया, हम बजायें
हरमुनिया’ मान कर ‘आत्माराम’ बने संतुष्ट हैं और तुम जैसे, जिन्हें कहीं से एक लोटी,
या एक सोटी या एक लंगोटी भर मिल गयी है वे इसे ‘सजनी हमहूँ राजकुमार’ बन कर और पतन
के गर्त में धकेल रहे हैं। और सर्वाधिक भयङ्कर आपदा इस शास्त्र की यह है कि इस पर
कु-रवयों की भी घनी छाया है। जो कुछ भी उनकी मानसिकता से मेल नहीं खाता उसके
विरुद्ध उनके पास अनेक भोथरे किन्तु भारी शस्त्र हैं और चिपों-चिपों करने वाले तो
हैं ही! अतः व्यक्तियों एवं समूहों के दोष का आरोप शास्त्र पर है, ज्ञान पर है,
विज्ञान पर है।
“अतः रुक जा यहीं! आगे कौलाचार
की प्रक्रिया आयेगी, पञ्च-मकार आयेंगे, बलि-विधान आयेगा! और पाश-बद्ध एक तू ही
नहीं है! यहाँ सब ही तुझ जैसे ही हैं! तेरे पाश तो फिर भी अत्यन्त ढीले-ढाले हैं,
किन्तु कुछ के पाश अत्यंत कसे हुए हैं, अत्यन्त दृढ़, और ये मोटे-मोटे! तो जिसका
पाश जितना बली, वह पशु भी उतना ही बली! रहने दे!”
“किन्तु मैंने वचन दिया है!”
“किसे रे? वचन किसे दे दिया!”
“तुझे ही तो रे मन! तुझे ही
तो! तेरे ही लिये, तन्त्र की तो मुझसे क्या अर्थ-निष्पत्ति हो सकेगी, किन्तु इस
स्तोत्र की अर्थ-निष्पत्ति तो उद्घाटित करनी ही है।”
“तो यदि तेरा मन मरने का ही है
तो मर! किन्तु अब यह रात तो बीत चली! और इस रात की कहानी भी बीत चली! तो आगे के
लिये कोई और कहानी खोज जिसमें इस स्तोत्र के छन्द गूँथे जा सकें! ऐसी कोई और कहानी
है तेरे पास?”
“कहानी की क्या आवश्यकता?”
“क्यों? तन्त्र के आचार्यों का
आदेश ज्ञात नहीं है? अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः सभायां वैष्णवामताः। नानारूपधराः
कौलाः विचरन्ति महीतले।। जो वास्तविक शाक्त होता है वह भीतर से शाक्त होता है,
किन्तु बाहर से वह शैव बना रहता है और सभाओं में, भीड़ में वह वैष्णव के समान रहता
है। इस प्रकार, कौल-मार्गी इस पृथ्वी पर अवसर के अनुसार अनेक रूप धारण कर के विचरण
करता है। अतः मन की बात मन में! बाहर नहीं! तो यदि रुकने का मन नहीं ही है, तो भी
विराम तो ले ही ले! इस लिये कम से कम तब तक एक मध्यांतर, जब तक तेरे पास कोई एक और
कहानी न आ पहुँचे!”
कई बार मन मेरे कथनों के उत्तर
में मौन रह जाता है और कई बार मैं भी उसकी कुछ बातों का कोई उत्तर नहीं देता।
मैंने मौन साध लिया। पूरब की ओर से उजास फूटने लगी थी। एक ललछौंही आभा! मन ने कहा –
उठ! देख! यही वह छटा है जिसने ऋषि को उषस् सूक्त लिखने हेतु प्रेरित किया! पश्य
देवस्य काव्यं!
किन्तु मैंने मन से कहा – “थक
सा गया हूँ! नींद आ रही है! सोने दे!”
और जब नभ पर दिनेश लालिमा की
चादर तान रहा था, मैंने दिनेश की दी हुई हुई काली चादर पैर से सर तक तान ली।
जब मैं जागा,
अरे नहीं!
मैं जागा ही कब? और मैं सोया
भी कब? मेरा तो यह जीवन ही जागृति एवं सुषुप्ति के मध्य की अवस्था है – स्वप्न की
अवस्था!! कब जागूँगा मैं? और कब सो सकूँगा मैं? कब?
-----क्रमशः, किन्तु जाने कब!-------
त्रिलोचन नाथ तिवारी...
* निर्दिष्ट पाद टिप्पणी.. ...
कतिपय स्थानों पर #शिवाभिर्घोराभिः के
स्थान पर #शिवाभिर्घोररावाभिः भी प्राप्त होता है तथा काली के लगभग सभी
ध्यान-मन्त्रों में शिवाभिर्घोररावाभिः का प्रयोग है। यह मुझे किसी एक बार हो चुकी
त्रुटि के पुनः-पुनः दोहराव जैसा प्रतीत होता है। यद्यपि शिवा-रुदन अर्थात
सियारिनों का रोना यदि उतने निकट से देखा-सुना जाय जैसा मैंने देखा, तो वह निश्चित
ही एक घोर अनुभव है किन्तु निहितार्थ पर ध्यान देने पर वहाँ #घोररावाभिः भी सुसंगत
नहीं प्रतीत होता। फिर भी, मैं इसे नकार नहीं रहा क्योंकि हो सकता है कि इसका भी
कोई निगूढ़ अर्थ हो जो उस आद्या ने कम से कम अब तक मेरे समक्ष उद्घाटित नहीं किया
है। वैसे यदि यह सही है तो इसका निहितार्थ यह है कि परमाणु-रूप त्रिविन्दुओं का
द्विभाजन साधक के अन्तःकरण में एक स्फोट उत्पन्न करता है जो अत्यंत भयानक होता है।
मूलाधार-चक्र में स्थित कुण्डलिनी का ध्यान करने वालों को प्रथम चरण में ऐसा अनुभव
होता है और यदि सद्गुरु का कृपापूर्ण निर्देशन न प्राप्त हो तो यह घटना सर्वनाशी
भी सिद्ध हो सकती है अतः हो सकता है कि इसी कारण इसे “शिवाभिः घोर रावाभिः – भयंकर
ध्वनि करने वाली शृगालियाँ” कहा गया हो। वास्तविकता क्या है यह तो वह आद्या ही
जाने।
----एक
निवेदन----
इस शृंखला के किसी भी आलेख को कॉपी-पेस्ट करना प्रतिबंधित
है! साथ ही यह भी निवेदन है कि इस निबन्ध को उस दक्षिणा काली का लालित्य-प्रसाद
मान कर पढ़ें।
इन पंक्तियों का लेखक तन्त्र-ज्ञान में शून्य है अतः
तत्सम्बन्धी टिप्पणियों के उत्तर देना संभव नहीं है।
आलेख के किसी शब्द/वाक्य/कथन से किसी का भी कोई मतभेद हो तो
विद्वतजन अपनी धारणा पर स्थिर रहने हेतु स्वतन्त्र हैं। बुद्धि-विलास का यह उपक्रम
विवाद का प्रक्रम बने इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि यह रस की हाट है!
ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर कोई मार्ग नहीं जाता!
----और
आभार----
इस शृंखला का उद्गम लगभग वर्ष भर पूर्व श्री अविनाश
भारद्वाज शर्मा के साथ फोन पर हुई बीस-बाईस मिनट की वार्ता है। मन तो बना, किन्तु अति-व्यस्तता,
परिवार में समस्यायें, मेरी स्वयं की अस्वास्थ्यकर परिस्थितियाँ, कुछ दुर्घटनायें,
और कुछ इस पटल का अनुभव सहित अन्य घटनाओं के कारण उगी अन्यमनस्कता, सबने मिल कर मुझे
रोक दिया।
फिर वह रात्रि आयी जिसका इस लेख-माला में वर्णन है। उस
रात्रि को मेरे साथ घटी प्रत्येक घटना तथा मेरा स्वयं से वार्तालाप, सत्य है या
असत्य इसका अन्वीक्षण पाठकों हेतु एक व्यर्थ का उपक्रम है। उस रात्रि को मन में जो
चल रहा था उनके वर्णन में न्यूनाधिक्य या तो स्मृति एवं विस्मृति का खेल है या फिर
प्रस्तुतीकरण हेतु प्रयुक्त आभरण एवं अलंकारों का। उस रात्रि मन में उगे अनेक
प्रकरण तथा सन्दर्भ लेख लिखते समय विस्मृत भी हो गये। एक-दो बार प्रयास करने पर भी
जब खिसकी हुई लखौरी ईंटें अपने स्थान पर नहीं लौटीं तो मैंने उन प्रकरणों को शब्दबद्ध
करने का प्रयास छोड़ दिया। जितना उस आद्या को स्वीकार था, उतना ही उसने प्रस्तुत
करने दिया अतः इसमें मेरा कोई दोष नहीं।
उस आद्या ने नाट्य ही कुछ ऐसा रचा था कि मैं अभी दुश्चक्रों
से पूर्णतः उबरा भी नहीं था कि उस #परा के आदेश आने लगे, और संयोग से शारदीय
नवरात्रियाँ भी आ गयीं।
किन्तु इस शृंखला को अब यहाँ एक #मध्यांतर की आवश्यकता है क्योंकि इसके बाद यह स्तोत्र तन्त्र के गहनतम क्षेत्रों में
प्रवेश करता है तथा उसे यथा-रूप उद्घाटित करना समीचीन नहीं है अतः उसके लिए एक कञ्चुक
खोजना होगा – कोई एक नयी कहानी, जिसके साथ स्तोत्र के अगले छन्दों को गूँथा जा सके
अथवा कोई एक भिन्न शैली! साथ ही उस आद्या के इस स्तोत्र को आधार बना कर कुछ भी
लिखना बिना काय-शुद्धि एवं मनःशुद्धि के संभव नहीं है तथा मुझ पातकी से यह सदा
सम्भव नहीं है कि मेरी काया तथा मन सदैव शुद्ध रह सकें। इतना अवश्य है कि वह आद्या
यदि यहाँ तक लायी है तो आगे के लिये भी उसने कुछ सोचा ही होगा।
वैसे भी, मुझ कथा-कहानी लिखने
वाले को तन्त्र पर लिखने का अधिकार कहाँ है? अतः जब तक कोई एक नयी कहानी नहीं मिल
जाती, या कोई नयी शैली नहीं चुन ली जाती तब तक के लिये इस कथा माला को विराम!
प्रदीपज्वालाभिर्दिवसकरनीराजनविधि:
सुधासूतेश्चंद्रो पलजललवैरर्घ्यरचना।
स्वकीयैरम्भोभि:सलिलनिधिसौहित्यकरणं
त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तवजननि वाचां स्तुतिरियम्।।
अपनी
मृण्मय काया में आपूरित स्नेह-सिक्त वर्तिका के बल पर,
गहन
तमिस्रा से सङ्घर्षरत दीप की जिजीविषा,
हम
सभी को,
स्वयं
को जला कर भी
अन्धकार
के समस्त स्वरूपों से
मानवता
को भयमुक्त करने हेतु प्रेरित करे
इस
विनत प्रार्थना के साथ
अखिल
राष्ट्र को
पञ्चदल
कमल की भाँति आगामी पञ्च-दिवसीय उत्सव-स्तबक
तथा
उसके मध्यस्थ-कर्णिका में स्थित ज्योति-पर्व की
हार्दिक
शुभकामनायें,
पढने
का अग्रिम आभार,
और
प्रणाम!
कार्तिक
कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत २०७८
तदनुसार
दिनाङ्क ०२.११.२०२१
गोधूलि
बेलायां
आद्यार्पणमस्तु।
[यदि
टङ्कण की कोई त्रुटि है, तो उस हेतु अलग से क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योंकि अब उन्हें
सुधारने का न कोई अवसर है, न कोई औचित्य!]
शृंखला के प्रारम्भिक प्रेषित्रों हेतु कृपया मुखपुस्तिका पटल का आश्रय लें।