रविवार, 28 अक्टूबर 2018

सुनहु तात यह अकथ कहानी.......(भाग २)

सुनहु तात यह अकथ कहानी.......(भाग २) 
--------------ललित निबंध----------------- हर ओर कोलाहल है। एक व्यर्थ कोलाहल! ध्वनियाँ हैं, ध्वनियों की प्रतिध्वनियाँ हैं! विचारों का ऐसा निरर्थक कोलाहल, जिसमें स्पष्ट कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है, न समझ में आ रहा है कि क्या कहा जा रहा है। सुनने और समझने का प्रयास करना भी एक मूर्खता, एक पागलपन प्रतीत होता है। किन्तु इस कोलाहल के परिणाम स्वरुप व्यग्रता तभी तक है, जब तक यह प्रयास किया जाये कि इस कोलाहल से कुछ सुनें और समझ भी लें। अन्यथा यह कोलाहल एक अनिर्वाच्य शान्ति का प्रतिविम्ब भी उपस्थित कर रहा है। वैसे ही जैसे हम बचपन में ग्राम-सीमान्त पर स्थित खलिहान में सोते समय कुछ देर तक तो जम्बुकों की हुआँ-हुआँ और सारमेयों की भौं - भौं से व्यग्र – व्यथित रहते थे किन्तु कुछ समय पश्चात यह कोलाहल वातावरण से समरस हो कर उसका अंग हो जाता था!
यह कोलाहल है क्यों? क्यों कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को एक वैचारिक क्रांतिदूत सिद्ध करना चाहता है और इसके लिए जो अंधी दौड़ चल रही है उसमें वह वहीं से सम्मिलित हो जा रहा है, जहाँ वह अब तक खड़ा था। प्रारम्भ से प्रारम्भ करने हेतु न उसके पास योग्यता है, न धैर्य। हर व्यक्ति के पास उसके हाथों में उसके आस्थाओं, रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों का एक उल्का-दण्ड (मशाल) है, जिसे वह जाने – अनजाने अब तक जलाये रहा है। इस मशाल से प्रकाश तो कब का समाप्त हो चुका, किन्तु एक कसैला धुआं अब तक निकल रहा है। किन्तु वह मशाल तो है। यही उसे बताया गया है, अतः वह यही जान रहा है। इसे थामे रहना उसकी नियति है। और इसे ले कर यदि वह इस अंधी दौड़ में सम्मिलित नहीं हुआ, तो इसे अब तक थामे रहने का औचित्य क्या? अतः इसे ले कर वह दौड़ पड़ा है। और ऐसी मशालें “मुझ सहित”, सबके पास हैं। धुंधुआती हुई, कसैला धुँआ उगलती प्रकाशहीन मशालें
नदियाँ जब अपना पथ बदलती हैं तो कूलों का संहार कर डालती हैं तथा नदियों से भी अधिक तीव्र-धार वाली विचार-शक्तियां जब अपना पथ त्याग देती हैं तब उनके पीछे चलने वाली मानवता दिग्मूढ़ हो जाती हैं और यह दिग्मूढ़ता युग-ध्वंस का कारण बनती है व्यक्ति स्वयं को जब अकेला पाता है तो उसे एक भावनात्मक संबल की आवश्यकता प्रतीत होती है। यह भावनात्मक संबल वह अपने निकट के व्यक्ति या विचार में खोजता है। और वह निकट का व्यक्ति या विचार या तो समाज से प्राप्त होता है अथवा फिर इतिहास से। आज का समाज तो स्वयं छिन्न-मूल है अतः समाज से यह संबल प्राप्त करना तो दुष्कर है। बचा अतीत, उससे वह जो संबल खोजता है, उसमे उसका प्रयास होता है, कि उसे अपने मानसिकता से मिलता – जुलता कोई पात्र उपलब्ध हो जाय। इस हेतु वह जब पीछे की ओर प्रयाण करता है, तो जहां उसे अपनी आवश्यकताओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियों का प्रतिरूप दीखता है, वह वहीं रुक जाता है सनातन धर्म को एक दो पंक्तियों में व्याख्यायित करने वाले, एक दो सूत्रों की कसौटी पर कसने वाले ऐसे ही लोग हैं, जिन्होंने अपनी मानसिकता का एक अवलंब खोज लिया है, और वहीं से उनका सत्य प्रारम्भ होता है। न वे उसके अतिरिक्त कुछ जानते हैं, न जानना चाहते हैं। अब प्रत्येक के पास ऐसा कोई न कोई अवलम्ब अवश्य है, जिसके आधार पर उनका सत्य टिका है, तो यहाँ प्रत्येक का एक अलग सत्य है। और जब सत्य कई हों तो उनमें संघर्ष अवश्यम्भावी है, क्योंकि सत्य कई नहीं हो सकते! सृष्टि के प्रारम्भ से ही समृद्धि, भूमि और नारी यह तीन ही संघर्षों का मूल रही है। यह वाक्य निश्चित ही कई प्रश्न खड़े करने वाला है, विशेष कर नारी शब्द, किन्तु इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। नारी की कमनीय सुन्दरता और पुरुष की भोग-वृत्ति तथा वर्चस्व की कामना आदिम काल से इसका कारण रही। परन्तु क्यों? इसका उत्तर प्राप्त करना एक अलग विषय है। यह है, तो है। और कीट-पतंगों का कोई इतिहास नहीं होता, यह अलग से कहने की आवश्यकता भी नहीं है। इन तीन पर वर्चस्व - स्थापना की लालसा ही समस्त उद्यम और समस्त संघर्ष की एक मात्र गाथा है सम्पूर्ण स-सागरा धरा में अपने वर्चस्व की लालसा ही वह आदिम मानव – वृत्ति रही है, जिसने इतिहास को जन्म दिया और मनुष्य का विगत इतिहास ही मनुष्य का धर्म है। इस धर्म की धुरी बनाता है इतिहास के किसी विशेष अपराजित काल - खंड, अपराजित वृत्ति, अपराजित धारणा, अपराजित भावना अथवा अपराजित पात्र के प्रति हमारी पक्षधरता। पराजित के प्रति पक्षधरता नहीं हो सकती, चाहे वह वृत्ति हो, धारणा हो, भावना हो अथवा पात्र! पराजित का पक्ष कौन लेता है? धर्म तो “जय हो!” पर ही आश्रित है आप अपने धर्म को वहीं से परख सकते हैं, जितना पीछे तक आप जा सकें, देख सकें! तो कितने पीछे तक जाना चाहेंगे आप? एक ही पिता की दो पत्नियों से उत्पन्न दायाद बांधवों का संघर्ष इस आर्यावर्त का प्रथम इतिहास है। दिति के पुत्र दैत्यों और अदिति के पुत्र आदित्यों का संघर्ष! जब तक हम इतिहास को वहां से देखना प्रारंभ नहीं करते तब तक हम अपने धर्म को भी नहीं जान सकते। इसी कारण इस निबंध-माला की प्रथम कड़ी में स्वर्ग और नरक का कुछ इतिहास आ गया था। किन्तु वह निबंध था, और निबंध अंततः निबंध है। निबंध शब्द ही नि + बंध से बना है, जिसका अर्थ है अच्छी तरह से बँधा हुआ। यद्यपि मैं अपने निबंधों में निर्बंध हो जाया करता हूँ क्योंकि मेरे मतानुसार गद्यलेखन में यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें मुझे बहक सकने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिल पाती है। बस एक शब्द “ललित” जोड़ कर मैं अपने निबंधों में अपनी “बहकाव की प्रवृत्ति” को उचित ठहराने का प्रयास कर सकता हूँ, अतः करता हूँ। फिर भी निबंध की अपनी सीमायें हैं। निबंध कभी इतिहास को पूर्णतः व्यक्त नहीं कर सकता। हाँ, कुछ संकेत अवश्य प्रदान करता है, जिसकी पृष्ठभूमि में कोई अपने इतिहास की झांकी, मात्र झांकी, देख सकता है। वे सीमायें इस निबंध के साथ भी हैं अपनी विभिन्न प्रस्तुतियों में अनेकों बार मैंने यह विचार प्रस्तुत किया है कि वास्तव में हमारा इतिहास ही हमारा धर्म है तथा हमारे पर्व उस इतिहास के विशिष्ट पृष्ठ हैं। हमारा ही नहीं, किसी का भी इतिहास ही वास्तव में उसका धर्म होता है। और इतिहास सदैव भूगोल से संश्लिष्ट रहता है। किसी राष्ट्र को अनुप्राणित करने वाले कारकों में उस राष्ट्र के धर्म तथा इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है। उन कारकों में धर्म सबसे महान है, किन्तु इतिहास तो किसी भी राष्ट्र को अनुप्राणित करने वाला एक मात्र शक्ति-केंद्र है। इतिहास ही प्रत्येक राष्ट्र की वास्तविक अनुप्राणक सत्ता है
भारतीय जनमानस में इतिहास को जिस दृष्टि से देखा गया, वैसा संभवतः विश्व के किसी अन्य राष्ट्र में नहीं देखा गया। भारतीय विद्वानों का विचार यह रहा है कि मनुष्य का जीवन-ध्येय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है तथा इस ध्येय-चतुष्टय की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन हमें इतिहास ही सुलभ कराता है।
धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम, पूर्ववृत्तं कथायुक्तम इतिहासं प्रचक्क्षते। [प्राचीन घटनाओं की कथाओं से युक्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपदेश देने वाले शास्त्र का ही नाम इतिहास है। (विष्णु धर्मोत्तर पुराण, ३/१५/१] इस कथन में घटना, कथा और उपदेश तीनों शब्दों का महत्व ध्यातव्य है। घटनायें इतिहास की मूल भित्ति अवश्य रचती हैं, किन्तु कथा और उपदेश का समावेश न हो तो घटनायें इतिहास कहलाने की अधिकारी नहीं हो पातीं और मात्र एक घटना बन कर रह जाती हैं। इस एक वाक्य पर बहुत सी शंकायें उठ सकती हैं, किन्तु वे शंकायें मात्र इस तथ्य का निदर्शन होंगी कि इस वाक्य का मर्म नहीं समझा गया। इस वाक्य का शाब्दिक अर्थ बहुत उथला है, किन्तु इस वाक्य का मर्म बहुत गूढ़ है। इतिहास को इतिहास की भांति प्रस्तुत करने हेतु इतिहासकार को चाहिये कि वह घटना को कथायुक्त तथा उपदेश-समन्वित बना कर प्रस्तुत करे, अन्यथा उसका प्रस्तुत किया हुआ इतिहास सुकृति के स्थान पर विकृति का अभिलेख बन सकता है। इतिहास लेखन में जितनी दक्षता एवं सतर्कता अपेक्षित है, संभवतया उतनी अन्य विधाओं में नहीं। अतीत एवं वर्तमान का किंचित मात्र भी त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन भविष्य को भ्रांतियों एवं पश्चातापों के हाथ में सौंप देगा तथा प्रगति के पाँव तमसावृत वीथिकाओं में भटकने हेतु बाध्य हो जायेंगे। अतीत में हमारे देश के इतिहास के साथ ऐसा हो चुका है जिसका परिणाम हमारे देश का वर्तमान भोग रहा है तथा भविष्य के लिए भी कोई पथ-प्रदर्शक ज्योति-किरण लक्षित नहीं है कथा-कहानियों के रचयिता प्रत्येक युग में होते रहे हैं, किन्तु वे इतिहास के सम्पादक नहीं होते। काल्पनिक आधार-भूमि पर खड़ी की गयी कहानियां नदी में प्रवाहित जल की सतह पर लोध्र-रेणु से कुछ पलों हेतु बनने वाले चित्र की भांति होती हैं जो मन को कुछ काल हेतु तो प्रभावित कर सकती हैं, कुछ मनों को तो तोष दे सकती हैं, किन्तु सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करने में मानव के अपने अतीत के वे चरित्र, जिनसे सीधा हार्दिक तथा आह्लादकारी सम्बन्ध हो, ही अचल पृष्ठभूमि बनते हैं। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि कहानियाँ भी सत्य हैं और हो सकती हैं किन्तु कहानियाँ “काल्पनिक सत्य” हैं जबकि इतिहास “जीवन का सत्य” है। इतिहास मूर्त जीवन का अमूर्त रूप है जो राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के रस-रक्त में जीवन की स्फूर्ति बन कर प्रवाहित है, और यदि नहीं प्रवाहित है, तो प्रवाहित होनी चाहिये। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति हेतु मानव का अतीत-संघर्ष ही इतिहास बनता है। और यही वह उद्बोधन है, जो इतिहास के पृष्ठ-प्रतिपृष्ठ अभिव्यक्त करते हैं तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना, नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् , महाजनो येन गतः सः पन्थाः। तर्क (Philosophy) का कहीं अंत नहीं है, श्रुतियों (Scriptures) में परस्पर भेद हैं, ऋषियों के अनुशासन (Law) एकान्त प्रमाण हो नहीं पाये, धर्म का मर्म तो गुहा में छिपा है, अर्थात् बहुत गूढ़ है अतः गुप्त है, तो ऐसी दशा में महान पुरुषों का जीवन ही हमारे पथ को प्रशस्त कर सकता है वैदिक वाङ्मय में वरीयता के क्रम में द्वितीय स्थान प्राप्त “ब्राह्मण ग्रन्थ” वेदों की व्याख्या में लिखे गये, और माना तो यही जाता है कि यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई किन्तु इन ग्रन्थों का अधिकाँश भाग इतिहास से भरा पड़ा है। ऐतरेयब्राह्मण, आर्षेयब्राह्मण, तैत्तिरीयब्राह्मण, शतपथब्राह्मण, गोपथब्राह्मण आदि का अधिकाँश भाग इतिहास से ही वेष्ठित है। इससे यह स्पष्ट है कि वेदों को समझने हेतु भी इतिहास की आवश्यता आदिकाल से चली आ रही है। देवराज के वचन हैं- “इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत।”(इतिहास और पुराणों की सहायता से ही वेदों की व्याख्या करनी चाहिये। महाभारत, आदिपर्व) प्राचीन भारतीय विद्वानों ने विद्या को चार कोटियों में रखा है --- (क) आन्वीक्षिकी (ख) त्रयी (ग) वार्ता और (घ) दंडनीति। आन्वीक्षिकी में आता है विज्ञान(Science), त्रयी में धर्म-अधर्म (Ethics), वार्ता में अर्थानर्थ (Exchange/Business) और दंडनीति में नय तथा अनय (Politics)। किन्तु इतिहास एक ऐसा विषय है जिसमें इन चारो का एकत्र समावेश होता है। विज्ञान, धर्म, अर्थशास्त्र एवं राजनीति में से कोई एक या दो मात्र, मानव जीवन की समग्र व्याख्या नहीं कर सकते। मानव जीवन की समग्र व्याख्या हेतु इन चारो की समष्टि आवश्यक है और मानव जीवन की निकष-शिला पर इन चारो विद्याओं का अध्ययन करने हेतु इतिहास से श्रेष्ठ अन्य कोई साधन नहीं। इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य में इतिहास को पंचम वेद की उपाधि मिली है तथा दर्शन शास्त्र भी इतिहास को ‘एतिह्य’ आधार पर तत्व-निर्णय हेतु प्रमाण रूप में स्वीकार करता है। अब हमारे प्राचीन मनीषियों ने इतिहास के भी दो स्थूल भेद बताये हैं – “परकृति” तथा “पुराकल्प”। “परकृति” इतिहास का वह भाग है जिसका नायक एक ही होता है जैसे रामायण, और “पुराकल्प” इतिहास का वह भाग है जिसमें अनेक नायकों का चरित्र-चित्रण समाविष्ट हो जैसे महाभारत। प्राचीन इतिहासवेत्ताओं ने इतना कह कर ही अपनी बात पूरी नहीं कर दी बल्कि उसके विभिन्न भेद-प्रभेदों पर पर भी गहराई तक विचार किया। जैसे, ब्राह्मण ग्रंथों में एक ही विषय को पांच श्रेणियों में विभाजित किया गया है – (क) इतिहास (ख) पुराण (ग) कल्प (घ) गाथा और (ङ) नाराशंसी इतिहास शब्द इति + ह + आस शब्दों के जोड़ से बना है जिसका अर्थ है “यह निश्चित था”।’इति’ का अर्थ है ‘जैसा हुआ वैसा ही’, ‘ह’ का अर्थ है ‘सचमुच’ तथा आस का अर्थ है ‘निरन्तर रहना या बोध होना’! वास्तव मे परम्परा से प्राप्त उपाख्यान समूह ही इतिहास है। इतिहास तो “जो है, सो है”। किन्तु पुराण क्या है? विद्वानों ने पुराण का विवेचन करते हुए लिखा है कि ‘सृष्टि की रचना, प्रलय, वंशानुवंश वर्णन, मन्वंतरों का लेखा, तथा वंशानुवंशों के महापुरुषों के चरित जिस साहित्य में वर्णित हों वह पुराण है
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च, वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चैव, पुराणं पंचधा मतम् ।।
किन्तु इतिहास की मौलिक शर्त यहाँ भी आवश्यक है – “धर्मार्थ काम मोक्षाणाम, उपदेश समन्वितम”। जो साहित्य कृत्य–अकृत्य का बोध कराने में सक्षम न हो वह व्यर्थ है।
विश्व की सम्पूर्ण भाषाओं का अधिकांश साहित्य इतिहास तथा पुराण के आधार पर ही निर्मित होता है। यहाँ इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अन्य देशों तथा भाषाओं में पुराण कहाँ? पुराण की परिभाषा पर जो भी साहित्य खरा उतरे, वह पुराण है। और हर प्राचीन सभ्यता के अपने पुराण हैं। वे पुराण संस्कृत साहित्य की तुलना में अति-निम्न कोटि के अवश्य हैं, किन्तु हैं।
भारतीय साहित्य में भूगोल का भी समावेश इतिहास तथा पुराण में ही है। जो ऊपर “सर्गस्च प्रतिसर्गस्च” का उल्लेख हुआ है, भूगोल का विषय उससे बाहर नहीं है, क्योकि भूगोल तथा इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं।
राजशेखर ने “काव्यार्थ के हेतु” पर विचार करते हुए बारह हेतु गिनाये हैं – “श्रुतिः, स्मृतिः, इतिहासः, पुराणं, प्रमाणविद्या, राजसिद्धान्तत्रयी, लोको, विरचना, प्रकीर्णकं च काव्यार्थानां द्वादश योनयः”, जिनमें इतिहास तथा पुराण को प्रधान माना है तथा विद्वानों की प्राचीन मान्यता को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है --
इतिहासपुराणाभ्यां चक्षुर्भ्यामिव सत्कविः।
विवेकांजनशुद्धाभ्यां सूक्ष्मप्यर्थमीक्षते।।
वेदार्थास्यनिबन्धेन श्लार्घ्यन्ते कवयो यथा।
स्मृतीनामितिहासस्य पुराणस्य तथा तथा।।
[सच्चे कवि हेतु इतिहास और पुराण साहित्य के दो नेत्रों के समान हैं। यदि विवेक का अंजन लगा कर कवि इन नेत्रों से देखे तो कोई सूक्ष्म तत्व छिपा ही नहीं रह सकता। वेदों तथा स्मृतियों के निबंधन से लेखक को जो गौरव प्राप्त होता है, इतिहास एवं पुराणों के निबंधन द्वारा भी उसके लेखों को वही महानता प्राप्त होती है। (काव्य मीमांसा, अध्याय ८)]
पुराण कोई नवीन खोज के रूप में हमारे सम्मुख नहीं आया। यह भारतीय शिक्षा-प्रणाली में उपनिषद् काल से भी पहले विद्यमान था। भारतीय साहित्य में पुराण – शैली का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महर्षि वेदव्यास को माना जाता है तथा यह धारणा है कि वे ही अट्ठारह पुराणों के लेखक हैं, किन्तु पुराण-साहित्य वेदव्यास तो क्या, उनके पूर्व भी क्या, उपनिषत्काल से पूर्व भी विद्यमान था जिसका प्रमाण अथर्ववेद, काण्ड ११, अध्याय ४, सूक्त ७, ऋचा २४ है.....
ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराण यजुषा सह।
उच्चिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः।।
[ऋक्, साम, छन्द, पुराण, यजुर्वेद, आकाश के देवता, ये सभी उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए...]
अब यह कहना कठिन है कि वेदों के समय भी जिन पुराणों का उल्लेख है वे किसके लिखे हुए थे क्यों कि यह जानने का हमारे पास कोई साधन ही नहीं है, अतः अंतिम विद्वान् जिनका नाम हमें ज्ञात है वह वेदव्यास ही हैं। किन्तु वे अंतिम हैं। उनके पहले भी पुराण-शैली के ग्रन्थ अवश्य रहे होंगे अन्यथा अथर्ववेद की इस ऋचा में पुराण के उल्लेख का क्या कारण है? और सम्पूर्ण पुराण-साहित्य यों ही समय काटने के लिये नहीं लिखे गये। इतने मोटे-मोटे पोथे कोई निरुद्देश्य समय काटने हेतु नहीं लिखता। अतः मानना होगा कि पुराणों के लेखन के पीछे एक निश्चित उद्देश्य था और वह उद्देश्य था “कर्म तथा अकर्म का विवेचन”। आधुनिक यथार्थवादी साहित्यकार कुछ भी कहा करें, किन्तु भारतीय विद्वानों की प्राचीन काल से ही यही एक ही धारणा है कि इतिहास के प्रत्येक अंग को “धर्मार्थ काम मोक्षाणामुपदेशसमन्वितम” होना ही चाहिये अन्यथा वह साहित्य इतिहास तो क्या साहित्य कहलाने का ही अधिकारी नहीं है। व्यास ने भी इस सूत्र का विधिवत पालन किया और महाभारत का उपसंहार करते हुए उन्होंने लिखा –
धर्मे, अर्थे च कामे च मोक्षे च भर्तर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वाचित्।।
[हे सम्राट! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के तत्वदर्शन हेतु जो कुछ भी मैंने कहा वही अन्यत्र भी मिलेगा। जो यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।]
वास्तव में यह कथन महाभारत के सन्दर्भ में होते हुए भी, इतिहास के सन्दर्भ में भी उतना ही सत्य है कि यदि इतिहास में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के तत्वदर्शन नहीं हुए तो अन्यत्र एकत्र रूप से उनका मिलना असंभव है।
इतिहास और पुराण के पश्चात तीसरा है “कल्प”। “कल्प” क्या है? “ऐतिहासिक साहित्य” का “प्रारूप” ही “कल्प” है। कल्प साहित्य सूत्रों के रूप में लिखा गया, अतः उसे कल्प-सूत्र कहते हैं। कल्पसूत्र भी दो शाखाओं में हैं – श्रौत सूत्र तथा स्मार्त सूत्र। स्मार्त सूत्र भी दो प्रकार के हैं – गृह्य सूत्र तथा धर्म सूत्र। श्रौत सूत्रों में श्रुति के यज्ञ - यागों का उल्लेख है। इसमें यज्ञशाला, यज्ञकुण्ड, तथा ऐसे ही धार्मिक एवं सामजिक कर्मकाण्डों के उपयुक्त विभिन्न निर्माणों हेतु प्रयुक्त वास्तुकला का उल्लेख है। श्रौत सूत्रों का विकास “शुल्व” सूत्रों से हुआ। “शुल्व” का अर्थ ही होता है “मापन – पट्टिका (Measuring Tape)। इसी शुल्व का विकृत रूप सवुल या सहावुल है जो स्थापत्य कला तथा वास्तुकला हेतु एक अत्यंत उपादेय तथा अत्यावश्यक साधन है जिसे समय तथा जिह्वासुख की प्रवृत्ति ने अब “साहुल” (plumb bob) बना दिया। स्मार्त सूत्रों में से गृह्य सूत्रों में सदाचारों एवं षोडश संस्कारों का वर्णन है। भारतीय आर्य का पारिवारिक जीवन कैसा हो यही गृह्य सूत्रों में चित्रित है। धर्म सूत्रों में राजा, प्रजा, गुरु, शिष्य तथा समाज की मर्यादा स्थिर करने वाले नियम लिखित हैं। इनमे वर्ण तथा आश्रम – वर्णाश्रम - की मर्यादाओं का उल्लेख है। स्मृति-ग्रंथों का विकास इन्हीं से हुआ। तात्पर्य यह, कि कल्प सूत्र लोक संग्रह के प्रश्नों का समाधान है। समाज तथा उसके अंग किस प्रकार मर्यादित, संगठित, प्रफुल्लित, हर्षित तथा स्वस्थ रहें, उन विधियों का निदर्शन ही कल्पशास्त्र का विषय है। इस प्रकार कल्पशास्त्र ने इतिहास हेतु एक दृढ़ पृष्ठभूमि का निर्माण किया। वेदज्ञान के जो छह अंग स्वीकृत हैं “कल्प” उनमे से एक है। वे छह अंग हैं - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इनमें “कल्प” जिस तत्व का विवेचन करता है वही इतिहास की पृष्ठभूमि है। अतः वेदों का ज्ञान चाहिए तो इतिहास की उपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती। अब आज का इतिहासकार जब इतिहास को घटना से जोड़ कर देखता है, तथा इतिहास का प्रयोग जब एक अभियान (Mission) के लिये कर रहा है तब उससे आशा ही कितनी की जा सकती हैं?
जिनके पाँव पराये हैं, जो मन के पास नहीं।
वे घटना लिख-बन सकते हैं, लेकिन इतिहास नहीं।।
इतिहास की चौथी शाखा है “गाथा”। गाथा का प्रतिपाद्य विषय “कथानक” से भिन्न होता है। यदि किसी चरित्र का वर्णन इस हेतु किया जाय कि उसके दृष्टांत किसी उद्दिष्ट विषय का समर्थन करें, तो वह “गाथा” है। जैसे तुलसीदास ने आचार-शास्त्र के भारतीय आदर्शों को संपुष्ट करने हेतु राम-चरित्र का सहारा लिया किन्तु उनका प्रतिपाद्य विषय राम का चरित्र नहीं बल्कि भारतीय अचार-शास्त्र है। उन्होंने भारतीय आचार-शास्त्र के वर्णन हेतु राम के चरित्र को एक प्रतिमान, एक मॉडल, के रूप में प्रयोग किया। अतः रामचरितमानस “गाथा” है। तुलसीदास प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं – “स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, भाषानिबंध मतिमंजुलमातनोति”। तुलसीदास ने यह नहीं कहा कि मैं इतिहास लिख रहा हूँ, प्रत्युत “रघुनाथगाथा” कहा। किन्तु महर्षि वाल्मीकि ने रामचंद्र का इतिहास लिखा। इतिहास का उद्देश्य चरित्रचित्रण होता है और गाथा का उद्देश्य प्रतिपाद्य विषय का समर्थन एवं स्पष्टीकरण होता है। “गाथा” भी इतिहास का ही अंग है, क्योंकि उसमें भी ऐतिहासिकता अक्षुण्ण रहती है, किन्तु उद्देश्य में अंतर है। “गाथा” चरित्र तथा उस चरित्र से सम्बंधित घटनाओं का चित्रण तो होता ही होता है, साथ ही वह अपने प्रतिपाद्य विषय को संपुष्ट भी करता है। तुलसीदास ने अपने प्रतिपाद्य विषय “भारतीय आचार-शास्त्र” के वर्णन हेतु इतिहास से एक पात्र चुना। स्पष्ट है कि दार्शनिक विचारों के स्पष्टीकरण हेतु भी इतिहास ही उपादेय है। गोस्वामी जी ने लिखा –
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
[रघुनाथ जी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी गंगा की चाल की भाँति टेढ़ी है। किन्तु प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता भी सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी क्योंकि श्मशान की अपवित्र राख भी महादेव के अंग के संग लग जाने से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।]
और महर्षि वाल्मीकि ने लिखा-
इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्।
यः पठेद्रामचरितं सर्व पापैर्विमुच्यते।।
[यह रामकथा पवित्र, पापों का नाश करने वाली, पुण्य-प्रदायी, तथा वेदों के समतुल्य है अतः जो इसका पाठ करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।]
एक ही पात्र का आश्रय ले कर लिखी दोनों रचनाओं में मूलभूत अंतर उद्देश्य का है। रामचरितमानस में जो इतिहास साधन है, वाल्मीकि रामायण में वही इतिहास साध्य है।
रामायण तथा महाभारत के आधार पर सैकड़ों महाकाव्य, खंडकाव्य, नाटक, उपन्यास आदि लिखे जाते रहे, लिखे जा रहे हैं, और लिखे जाते रहेंगे, किन्तु उनका उद्देश्य एक सार्वजनिक आदर्श चरित्र का निर्माण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकता। अतः वे “गाथा” ही रहेंगे। किन्तु वाल्मीकि की रामायण तथा वेदव्यास का महाभारत इतिहास है। तुलसी अनायास नहीं लिख देते कि – “राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।” राम के इतिहास में एक अहल्या का ही उद्धार हुआ है, किन्तु रामचरितमानस तथा राम के चरित्र पर आधारित अन्य गाथा साहित्य के माध्यम से अनगिनत लोगों का उद्धार हुआ और हो रहा है।
इतिहास की पांचवीं शाखा है “नाराशंसी”। ‘नराशंस’ शब्‍द ‘नर’ और ‘आशंस’ दो शब्‍दों से मिलकर बना है। ‘नर’ का अर्थ होता है मनुष्‍य और ‘आशंस’ का अर्थ होता है, ‘प्रशंसित’। यह स्‍मरणीय है, कि ‘आशंस’ शब्‍द वैदिक भाषा का शब्‍द है, न कि लौकिक भाषा का। ‘नराशंस’ शब्‍द का कुछ लोग अर्थ करते हैं- ‘मनुष्‍य की प्रशंसा’ तथा कुछ लोगों के अनुसार ‘नराशंस’ शब्‍द का अर्थ होता है- ‘मनुष्‍यों द्वारा प्रशंसित’। प्रथम अर्थ षष्‍ठी तत्पुरुष समास से निकलता है तथा दूसरा अर्थ तृतीया तत्पुरुष समास से निकलता है। विचारणीय यह है, कि वास्‍तव में ‘नराशंस’ शब्‍द का क्‍या अर्थ होगा? मेरा मानना है कि तृतीया तत्पुरुष या षष्‍ठी तत्पुरुष से निष्‍पन्‍न यह दोनों अर्थ संगत नहीं है क्‍योंकि ‘नराशंस’ शब्‍द में कर्मधारय समास है, जिसका विच्‍छेद ‘नरश्‍चासौ आशंसः’ अर्थात ‘प्रशंसित मनुष्‍य’ होगा।
नाराशंसी इतिहास का वह अंग है जो सबसे अधिक ‘लोक-व्यवहार’ में व्याप्त हुआ। देश, काल तथा पात्र की मर्यादाओं में बंधा चरित्र इतिहास की विशुद्ध शैली है, किन्तु यदि कोई चरित्र देश - काल की सीमा से बाहर जा कर वर्णित है, तो वह वर्णन “नाराशंसी” कहा जायेगा, और नाराशंसी में इतिहास के वास्तविक चरित्र ही नहीं, बल्कि कल्पित चरित्र भी स्थान पाते हैं। जीवन के आचार तथा नैतिक सिद्धांतों के स्पष्टीकरण हेतु “नाराशंसी” शैली उपयुक्त भी होती है तथा रोचक भी। जो व्यावहारिक सिद्धांत साधारणतया सामान्यजन हेतु ग्रहण करना कठिन हो, बोधगम्यता का संकट हो, स्पष्ट-कथन में भय हो या स्पष्टीकरण में ही कोई बाधा हो, उसे सरल तथा बोधगम्य बनाने हेतु इस शैली का प्रयोग किया जाता है।
इस विश्व में जो कुछ भी ध्यातव्य है वह स्थूल रूप से दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है – भौतिक तथा आध्यात्मिक। या कहें कि विज्ञान तथा दर्शन। विज्ञान जड जगत का विश्लेषण करता है तथा दर्शन चेतन का। किन्तु इतिहास ही है जो एक साथ जड तथा चेतन दोनों का विश्लेषण करता है। इतिहास में विज्ञान तथा दर्शन दोनों होते हैं। भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विषय समेकित रूप से यदि कहीं प्राप्त हो सकते हैं तो वह इतिहास ही है। इतना ही नहीं, मनुष्य जीवन के उत्थान तथा पतन, उस उत्थान-पतन का कारण और साधन तथा उन कारणों तथा साधनों का परिणाम, इन सबको समेकित रूप से देखना हो तो माध्यम इतिहास ही बनता है। दर्शन तथा मनोविज्ञान का समन्वय इतिहास में ही प्राप्त हो सकता है। महाभारत में वेदव्यास ने कहा – “अर्थाशास्त्रमिदं प्रोक्तं, धर्मशास्त्रमिदम् महत्। कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामित बुद्धिना।।” अतः यदि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का एक ही शास्त्र में अध्ययन करना हो तो इतिहास का अध्ययन करना चाहिए।
दर्शन शास्त्र को आज के विद्वान् पांच भागों में विभक्त करते हैं – प्रमाण शास्त्र (Epistemology), तत्व दर्शन (Ontology), व्यवहार शास्त्र (Ethics), मनोविज्ञान (Psychology) तथा सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics)। भारत के प्राचीन विद्वानों ने उसे ही चार भागों में विभक्त किया – धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष। उद्देश्य एक ही है – “सत्य को जानो!”। किन्तु सत्य कोई नियत वस्तु नहीं। वह आवस्थिक है, अवस्थाजन्य है। अतीत का सत्य आज मिथ्या सिद्ध हो सकता है, आज का सत्य कल मिथ्या हो सकता है। और सत्य ही धर्म है – “सत्यं परम धीमहि”। तो धर्म भी आवस्थिक ही हुआ। अतः धर्म की यही विशेषता है और यही सत्य धर्म है। वचन है कि “जीव ह्त्या पाप है” किन्तु डंसने को तत्पर सर्प को मार डालना धर्म है क्यों कि “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं”। प्रेम करना धर्म है किन्तु विश्व का सर्वश्रेष्ठ उपदेष्टा गीता में अर्जुन से कहता है – “युद्धाय युज्यस्व!” – युद्ध हेतु कटिबद्ध रहो! स्पष्ट है कि धर्म की स्थिति सदा एक सी नहीं रही, और न रह ही सकती है। मनु ने लिखा – “अन्ये कृतयुगे धर्मा, त्रेतायां द्वापरे परे”। सतयुग के धर्म और थे, त्रेता तथा द्वापर के धर्म कुछ और। तब कलियुग का भी धर्म वह नहीं हो सकता जो सतयुग, द्वापर, या त्रेता का था। अतः कोई भी धर्म सनातन नहीं। और हमारा आज का सनातन नाम से जाना जाने वाला धर्म भी इसी अर्थ में सनातन है कि सतयुग से अब तक वह अपने मूल स्वरुप, अर्थात् “उद्देश्य” को बचाये रखते हुए क्रमशः संशोधित होता हुआ आज भी जीवित है। वेदार्थ शैली में एक प्रकरण “अर्थवाद” भी है। किसी की प्रशंसा अथवा निन्दा द्वारा तत्व-प्रतिपादन की शैली ही अर्थवाद है। जिसकी प्रशंसा की गयी वह उपादेय, जिसकी निंदा की गयी वह हेय। इस प्रकरण में अधिकाँश इतिहास ही आता है। ब्राह्मण ग्रंथों का मूल विषय ही अर्थवाद का प्रतिपादन रहा जिसके तीन भेद हैं – “गुणवाद, अनुवाद तथा भूतार्थवाद”। किसी व्यक्ति या कृत्य का विरोध करके अपना मंतव्य स्पष्ट करना गुणवाद है यथा – केवालादो भवति केवलाघी (“अकेले भोजन करने वाला पाप खाता है।” - ऋग्वेद, १०/११७/६)। एकाकी भोजन करने की प्रवृत्ति की निंदा करके यह कहने का प्रयास किया गया कि तेन त्यक्तेन भुन्जीथां – त्याग के साथ भोग ही उचित है। यह गुणवाद है। निश्चित बात का पुनः उल्लेख करना अनुवाद है यथा – “सत्यमेव जयते”। सत्य की विजय होती है, अतः सत्य पर दृढ़ रहो। यह अनुवाद है। किसी निश्चित घटना का उल्लेख भूतार्थवाद है यथा “नव दधीचि हड्डियाँ गलायें। (स्वर्गीय अटल विहारी बाजपेयी की कविता “आओ मिल कर दिया जलायें” की पंक्ति। दधीचि के अस्थिदान का उल्लेख - वृत्र वध के सम्पूर्ण आख्यान का संकेत करते हुए वलिदान हेतु तत्पर रहने का संकेत।) यह भूतार्थवाद है। अतः स्पष्ट है कि अर्थवाद और उसके तीनो भेद इतिहास के द्वारा ही संपुष्ट होते हैं। इस प्रकार इतिहास की उपयोगिता और महत्ता स्पष्ट करने में इतना सब कुछ व्यर्थ में लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि इतिहास का लेखन हो या इतिहास का अध्ययन, इतिहास का मर्म कैसे उकेरा जाता है और इतिहास का मर्म कैसे छुआ जा सकता है इसके लिये वर्णित पात्रता तथा योग्यता अर्जित करना भी आवश्यक है जिसके अभाव में इतिहास लिखना और इतिहास का मर्म समझना दोनों असंभव हैं। उदाहरण रूप में – वैदिक संहिताओं में कोई भी मन्त्र व्यक्ति के लिये नहीं है। कहीं एकवचन का प्रयोग नहीं है। सर्वत्र बहुवचन के प्रयोग का कारण क्या रहा होगा? मात्र यह, कि वे संहितायें समाजवाद की पोषक हैं। त्वंहि नः पिता वसो। स्याम पतयो रयीणाम्। यद्भद्रं तन्न आसुव। संगच्छद्ध्वं संवदध्वं। यहाँ नः, स्याम, गच्छध्वं, वदध्वं आदि प्रयोग वहुवचन हैं। एक-दो नहीं, सम्पूर्ण वेद संहितायें समाजवादी भावना की पोषक रही हैं, यह वहुवचन प्रयोग यही इतिहास ज्ञापित करता है। और समाजवाद की धुरी है “सब में स्वयं को तथा स्वयं में सब को देखना – सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।” (मनु स्मृति)। इस के बिना समाजवाद चल ही नहीं सकता। यह है उस इतिहास का तत्कालीन साधन। स्वर्ग के इतिहास का एक महत्वपूर्ण प्रसंग प्रस्तुत करना असमीचीन नहीं होगा। स्वर्ग यद्यपि हिमालय के सम्पूर्ण क्षेत्र में फैला था, फिर भी उसके प्रदेशों के नाम गिरिशिखरों के नाम पर ही प्रचलित थे। भौगोलिक विचार से वे प्रचलित नाम हिमवान्, कैलास, सुमेरु, त्रिकूट आदि थे। हिमवान –- आज के तिब्बत से असम पर्यंत, कैलास – मानसरोवर तथा कश्मीर, सुमेरु – उत्तरकुरु या सिकियांग, त्रिकूट – पामीर तथा हिन्दुकुश का प्रदेश जिसका विस्तार अल्ताई तक चला गया था, आदि..। उस युग का शासन ऋषियों के हाथ में था अर्थात् जनतंत्र के उस युग में जनता के शासक पर ऋषियों का अनुशासन था। शासन और नियंत्रण भिन्न-भिन्न समितियां करती थीं। विद्वत्सभा नियंत्रण करती थी, राज्यसभा शासन करती थी। पहली सभा के सदस्य प्रजापति कहे जाते थे तथा दूसरी सभा के सदस्य मनु। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ‘ऋष’ से है जिसका अर्थ देखना होता है। ऋषि के शब्दार्थ में ही द्रष्टा अथवा देखरेख का भाव है। मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्। प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च ।। एते मनूंस्तु सप्तान्यानसृजन्भूरितेजसः। देवान्देवनिकायांश्च महर्षींश्चामितौजसः।। (मनुस्मृति १/३५-३६) हिमवान् प्रदेश के शासक दक्ष का विवाह सुमेरु के शासक की एकमात्र पुत्री मेना से हुआ। उस परम सुन्दरी देवी से दक्ष के अट्ठाईस पुत्रियाँ ही पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं, जिनमे सबसे बड़ी पुत्री का नाम गंगा था और उससे छोटी का नाम था गौरी। गंगा ज्यों-ज्यों बड़ी होती गई, राष्ट्र निर्माण तथा जनसेवा के कार्यों में संलग्न होती गयी। उसकी सेवा तथा बुद्धिमत्ता से वह जनता में पूज्य कोटि का आदर पाने लगी थी। युवती हुई तो पिता विवाह हेतु वर खोजने लगे किन्तु जब गंगा को यह ज्ञात हुआ तो उसने विवाह करने से मना कर दिया। उसने अपना जीवन जनसेवा तथा राष्ट्रसेवा में उत्सर्ग करने का प्राण कर लिया। विलास तथा वैभव पर पाद-प्रहार कर जनता-जनार्दन की सेवा में अपना सर्वस्व होम करने वाली वह देवी इतिहास की प्रथम ‘देवता’ बनी। उसने व्यक्ति का नहीं बल्कि राष्ट्र का वरण किया। गौरी का विवाह शंकर से हो गया। गौरी समय के साथ दुर्गा, काली, भवानी, अन्नपूर्णा, सिंहवाहिनी, अरिमर्दिनी सब कुछ बनी, किन्तु शंकर की अर्धांगिनी होने के कारण वह राष्ट्र सेवा का आधा पुण्य ही अर्जित कर सकी तथा अर्धनारीश्वर का अर्धांश रही, किन्तु गंगा उसी पुण्य की सर्वांग-स्वामिनी बनी। राष्ट्र-जीवन में जब – जब गंगा शंकर के सम्मुख आयी शंकर ने उसके आगे शीश झुका दिया। जनमानस के रचे चित्रों, मूर्तियों और संकल्पनाओं में गौरी पत्नी बन कर शिव के गोद में बैठी, गंगा राष्ट्र-सेविका बन कर शिव के शीश पर विराजित हुई क्योंकि नारी पत्नी बन कर अर्धांगिनी होती है अतः पति के पराक्रम का अर्धांश ही उसकी सीमा है किन्तु राष्ट्र की सेवा में सर्वस्व होम कर देने वाली असीम है। गौरी दो पुत्रों की माता हुई, गंगा भारत के प्रत्येक नर-नारी की माँ है। अब हमारे देश में एक नदी भी है जिसका नाम गंगा है। तो क्या दक्ष की वही पुत्री गंगा आज नदी बन कर प्रवाहित हो रही है? विनम्र निवेदन है कि नहीं। हुआ यह, कि सम्पूर्ण राष्ट्र को अभिसिंचित तथा पोषित करने वाली उस जलधारा का नामकरण उसी देवी गंगा के नाम पर किया गया। जनता का जो कल्याण उस देवी ने किया यह नदी भी कुछ वैसा ही कल्याण भारत-भूमि का करती चली आ रही है। नदियाँ वैसे भी मातृ-रूपा है, क्योंकि उनका पय-पान कर के राष्ट्र संपुष्ट होता है। तो मातृत्व के उस निकटतम प्रतीक नदी का नामकरण गंगा के रूप में किया गया जिससे जब तक यह नदी प्रवाहमान रहे तब तक उस देवी का नाम लोगों को उसका स्मरण दिलाता रहे। किन्तु हुआ क्या? दक्ष पुत्री गंगा, नदी हो गई। क्यों? क्योंकि इतिहास का ज्ञान नहीं है। आस्था अप्रतिहत है, किन्तु उस आस्था का कारण क्या है यह विस्मृत है। इतिहास हमें हमारी आस्था का वास्तविक कारण देता है। वही कारण न ज्ञात होने से हम अपनी आस्था को सुसंगत रूप से व्यक्त नहीं कर पाते तथा रूढ़िवादी तथा अन्य अपमानजनक संबोधनों के पात्र बनते हैं। अब प्रश्न यह है कि सात धाराओं में से यही सबसे बड़ी धारा का नाम गंगा क्यों? अन्य का क्यों नहीं? तो इसका कारण भारतीय भूगोल-शास्त्रियों की पारिभाषिक संज्ञायें तथा शब्दावली है। भारत में प्रवाहित नदियों में से जो धारायें पूर्व-समुद्र में गिरती हैं उनके लिये स्त्रीलिंग शब्द ‘नदी’ व्यवहृत होता है तथा पश्चिम-समुद्र में गिरने वाली धाराओं हेतु पुल्लिंग ‘नद’ शब्द व्यवहृत होता है। गंगा जैसी नारी के सम्मान में स्त्रीलिंग नदी का नामकरण ही उसके नाम पर करना उचित था तथा उसके लिये किसी छोटी या क्षीण धारा का चुनाव भी उचित नहीं था अतः पश्चिम समुद्र में गिरने वाली धारा पुल्लिंग ‘नद’ सिन्धु नाम से ख्यात हुई और बंगार्णव में गिरने वाली धारा ‘भागीरथी’ ही गंगा अर्थ में रूढ हो गई जो आज तक भारतीयों को अपने स्नेह से सिंचित करती है तथा इस मान्यता के साथ पूजित होती है कि इसका दर्शन, इसके जल में मज्जन तथा इसके जल का पान त्रिविध-ताप-हारी है। सादृश्य-मूलक गौणीलक्षणा का यह सिद्धांत साहित्यशास्त्र के विद्वान् तो जानते होंगे, किन्तु सामान्य जन हेतु तो गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु से निकली, शिव के शीश पर अटकी और फिर भगीरथ के पीछे चलते हुए गंगा-सागर जा पहुँची। इस आख्यान में कपिल की तथा सगरपुत्रों की भी अपनी विशिष्ट भूमिका रही, किन्तु वह सब पुनः कभी और। गंगा नदी का भी अपना एक अलग इतिहास है। मानसरोवर से निकली सात धाराओं में कभी सातो का नाम गंगा था। बाद में भौगोलिक कारणों से उनका नाम परिवर्तित किया गया। पश्चिम की ओर प्रवाहित तीन धारायें सुचक्षु, सीता तथा सिन्धु कहलाईं तथा पूर्व की ओर प्रवाहित तीन धारायें ह्लादिनी, पावनी तथा नलिनी नाम से विख्यात हुईं। सातवीं सबसे बड़ी धारा को भगीरथ ने व्यवस्थित करके पूर्व की ओर प्रवाहित किया जिसका नाम भागीरथी हुआ और अंत में वही लोक में गंगा नाम से संपूजित हुई। राष्ट्रसेवियों की परम्परा में भगीरथ का नाम भी अमर हो गया। गंगा का एक नाम जाह्नवी भी है, इसका भी एक अलग ही इतिहास है और इस नामकरण के पीछे “जह्नु” का पराक्रम बोलता है तथा भारतीय साहित्य के एक रहस्य की परतें भी खोलता है। एक शब्द है “विनशन”। विनशन महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ था, जो उस स्थान पर बसा था, जहां सरस्वती नदी राजस्थान के मरुस्थल में विनष्ट या विलुप्त हो गई थी- ‘ततो विनशनं राजन् जगामाथ हलायुधः, शूद्राभीरान् प्रति द्वेषाद्यत्र नष्टा सरस्वती।’ महाभारत के वनपर्व में सरस्वती को यहां अंतर्निहित रूप से बहती हुई बताया गया है- ‘ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशन, गच्छत्यन्तहिता यत्र मेरुपृष्ठे सरस्वती।’ महाभारत, वनपर्व में विनशन को निषाद राष्ट्र का द्वार कहा गया है- ‘एतद्विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते, द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती प्रविष्टा पृथिवी वीर मा निषादा हि माँ विदु:।’ और हम सुनते आ रहे हैं कि प्रयाग में तीन नदियों गंगा, यमुना तथा सरस्वती की धाराओं का संगम है इसी कारण वह स्थान त्रिवेणी भी कहा गया। त्रिवेणी और संगम वस्तुत: एक ही स्थान है जहां गंगा, यमुना तथा सरस्वती का संगम होता है और यह दुर्लभ संगम विश्व प्रसिद्ध है। गंगा, यमुना के बाद भारतीय संस्कृति में सरस्वती को ही अधिक महत्व मिला है। यद्यपि गोदावरी, नर्मदा, कावेरी तथा अन्य नदियों का भी सनातन मत में महत्व है, मगर वरिष्ठता के क्रम में धर्मप्रेमी सरस्वती को ही तीसरा स्थान देंगे। किन्तु इस सरस्वती नदी के साथ यह अद्भुत सी ही बात है कि इसका अस्तित्व अदृश्य रूप में बहता हुआ माना गया है। क्यों? क्योंकि सरस्वती के साथ एक ऐसा इतिहास संयुक्त है जिसे भारतीय जनमानस विस्मृत नहीं करना चाहता तथा वह इतिहास जितना सरस्वती के साथ संयुक्त है उतना ही जह्नु तथा जाह्नवी के साथ भी। सरस्वती, जिसके तट पर साधु-संतों के प्रचुर आश्रम थे, बालखिल्य ऋषियों ने जिसके तट पर यज्ञ किया था, जिसके तट पर न्यग्रोध, पुण्य, पांचाल्य, दाल्भ्यघोष तथा दालभ्य, पांच पावन तीर्थ हुआ करते थे, जिसके तट पर महर्षि जमदग्नि की तपस्थली ‘पलाश तीर्थ’ स्थित थी, इंद्र तथा वरुण भी जिसके तट पर यज्ञ तथा तप करने आते थे। परशुराम का नाम नहीं लूँगा। प्रश्न उठता है कि इतनी रम्य तथा पुण्यसलिला नदी का लोप कैसे हो गया? आज उपलब्ध सरस्वती के भौगोलिक स्थिति के सम्बन्ध में विचार करें तो वह यमुना तथा शुतुद्रि (सतलज) के मध्य प्रवाहित थी। हिमालय के ऊपर सरस्वती, यमुना तथा गंगा के उद्भव स्रोत प्रायः एक ही गिरि-शिखर से हैं, बस भूमि की विशिष्ट ढलान ही जल को तीन धाराओं में बाँट कर तीन नदियों के निर्माण का हेतु बनी और उनमें भी गंगा अस्त-व्यस्त रूप में अलकनंदा, मन्दाकिनी आदि के रूप में प्रवाहित थी – “एषा गंगा सप्तविधा राजते भर्त्तर्षभ। स्थानं विरजसं पुण्यं यत्रग्निर्नित्यमिध्यते।। (महाभारत, वनपर्व)। और इधर कोसल के प्रतापी सम्राट सगर की औरस संतान असमंजस बहुत ही दुर्दान्त तथा अत्याचारी था। सगर ने उसे राज्य से निर्वासित कर दिया किन्तु उस समय तक असमंजस को अंशुमान नामक एक पुत्र की प्राप्ति हो चुकी थी। सगर ने अंशुमान की सहायता से अपना अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करके उसी को सत्ता सौंप दी। अंशुमान अत्यंत प्रजावत्सल तथा कर्तव्य-परायण शासक सिद्ध हुआ। अंशुमान का एक ही पुत्र था – भगीरथ, जिसने गंगा की अस्त-व्यस्त धाराओं को एक साथ जोड़ कर गंगा को एक मार्ग पर बहने को विवश किया। आज गंगा की धारा के साथ भगीरथ का यश भी प्रवाहित है, भले ही वह इतिहास एक अन्य रूप में हमारे सामने आता है। भगीरथ तथा उसके स्थपति अपने समय के कितने श्रेष्ठ तथा कुशल अभियन्ता रहे होंगे जिन्होंने मानसरोवर से गंगासागर तक एक उत्श्रृंखल जलधारा को एक निश्चित शयापथ पर बने रहने हेतु विवश कर दिया! भगीरथ का वही श्रमसाध्य कृत्य उसका तप था। उसके इस कार्य में ब्रह्मा तथा शंकर प्राथमिक सहयोगी थे, जिसका संकेत प्रतीकों में संग्रथित कथाओं में भिन्न रूप में अब भी विद्यमान हैं। कल्पना की जा सकती है कि नरक प्रदेश की क्या दशा रही होगी जब यहाँ गंगा नहीं आयी थी। भगीरथ के प्रयास से नरक का क्षेत्र स्वर्ग-सदृश संपन्न हुआ तथा स्वर्ग के क्षेत्रों तक पहुँचने हेतु गंगा की धारा मार्ग बन गयी अतः गंगा स्वर्ग-सोपान भी कहलाई। अतः कृतज्ञ राष्ट्र ने गंगा को एक नया नाम दिया ‘भागीरथी’। यह गंगा के साथ जुड़ा इतिहास इस राष्ट्र को कोसल का अवदान था।
कालान्तर में भरत वंश में भरत के पुत्र भुमन्यु, भुमन्यु के पुत्र सुहोत्र, सुहोत्र के अजमीढ़, तथा अजमीढ़ के पुत्र हुए जह्नु (जन्हु)। जह्नु के पुत्र कुशिक, कुशिक के ऋक्ष, ऋक्ष के संवरण, संवरण के कुरु, कुरु के जन्मेजय (प्रथम) तथा जन्मेजय (प्रथम) के पुत्र धृतराष्ट्र तथा पाण्डु हुए। अजमीढ़ के समय में पश्चिमी भारतवर्ष विद्रोहों की अग्नि में सुलग रहा था। असुरों की शक्ति प्रबल हो चुकी थी और गांधार भी स्वतंत्र होने को छटपटा रहा था। स्वर्ग के पञ्चजन का शासन शिथिल हो चुका था तथा कुरु तथा कोसल समर्थ हो चुके थे। पराक्रमी जह्नु ने विद्रोहियों को परास्त किया तथा अपना साम्राज्य तथा उसकी प्रतिष्ठा, दोनों बढ़ाई। उत्तर में जह्नु का साम्राज्य हिमालय के उन क्षेत्रों तक जा पहुंचा जहां गंगा, यमुना तथा सरस्वती का उद्गम था। इन तीनों में गंगा ही सर्वाधिक उपयोगी नदी थी जो जह्नु के राज्य से होती हुई पूर्व में पांचाल, वत्स, कोसल, काशी तथा अंग और वंग को अभिसिंचित करती पूर्व – सागर में मिलती थी। गंगा की समृद्धि ही सम्पूर्ण उत्तर भारत के समृद्धि का हेतु थी और है। उधर पश्चिम की ओर से असुरों ने अपनी शक्ति पुनः बढ़ानी प्रारम्भ की। असुर लोक, मद्र, वाल्हीक तथा गांधार की सम्मिलित शक्तियों ने भारत के विरुद्ध अभियान प्रारंभ कर दिये तथा आज का जो राजस्थान है, उसे अपने अधिकार में ले लिया। सरस्वती उस क्षेत्र से हो कर प्रवाहित थी तथा शत्रु के अधीन हो चुके क्षेत्र को समृद्ध तथा शस्य-श्यामला कर रही थी। जह्नु को अपने अधिकार क्षेत्र के उद्गम वाली नदी का शत्रु के अधिकार क्षेत्र की भूमि को समृद्ध करना सह्य न हुआ। उसने जड़ पर ही प्रहार कर दिया। जह्नु ने अपने कुशल अभियंताओं के सहयोग से सरस्वती नदी के मूल स्रोत को काट कर गंगा की धारा में मिला दिया और तत्कालीन स्थापत्यवेत्ताओं ने इस दुरूह कार्य को ऐसी कुशलता से संपादित किया कि सरस्वती नदी ही समाप्त हो गयी तथा शत्रुओं के अधीन हो चुका क्षेत्र सरस्वती के जल से वंचित होने के कारण मरुस्थल में परिवर्तित हो गया। शत्रु बिना युद्ध के ही भूख से व्याकुल हो कर पलायित कर गये। भारत भूमि आक्रान्ताओं से मुक्त हो गयी। सरस्वती के जल से वंचित हुआ वही मरुस्थल ‘विनशन’ है। अब गंगा में सरस्वती भी समाहित थी। यद्यपि जन्हु का यह इतिहास कहीं स्पष्ट रूप से लिखा हुआ नहीं है किन्तु महाभारत तथा पुराणों के वर्णन हमें इसी निर्णय पर ले जाते हैं। अपने शासनकाल में जह्नु ने गंगा के जिस स्वरुप को जन्म दिया कृतज्ञ राष्ट्र ने उसे जह्नु की पुत्री जाह्नवी (जान्हवी) कह कर जह्नु का अभिनन्दन किया। गंगा के साथ जुड़ा यह इतिहास इस राष्ट्र को भरतवंश का अवदान है। गंगा की हर लहर मात्र जल ही नहीं है। उसकी प्रत्येक लहर में भगीरथ की दृढ़ता तथा जन्हु का पराक्रम प्रवाहित है जो इतिहास बन कर उसके जल में स्नान करने वाले प्रत्येक भारतीय की शिराओं को उद्वेलित करता है। किन्तु जब हम विनशन की रेणु तथा त्रिवेणी का जल एक साथ मिला कर देखेंगे तब वह इतिहास हमें दिखाई देगा। हमारे पूर्वजों का जो इतिहास गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, आमू (सीता), वंक्षु, तथा सिन्धु की धारायें आज तक सुनाया करती हैं, क्या ह्वांग हो तथा यांग टी सीक्यांग को भी ऐसी कोई कथा स्मरण है? नहीं है, क्योंकि उनकी स्वर्ग के साथ कोई सहभागिता नहीं है! काशी तथा प्रयाग भी मात्र नगरों के नाम नहीं हैं, बल्कि इतिहास के पृष्ठ हैं। क्या उनका इतिहास मात्र इस भूमि से सम्बंधित है? नहीं! उनका इतिहास स्वर्ग के इतिहास से संश्लिष्ट है। काशी तथा प्रयाग स्वर्ग के नगर थे जिन्हें गंगा मृत्युलोक में उतार लाई। उत्तर काशी तथा देव प्रयाग आज भी स्वर्ग की ही कथायें कह रहे हैं किन्तु उत्तर से चल कर काशी दक्षिण में आ गयी तथा देवलोक से चल कर प्रयाग भी मनुष्य-लोक में आ बसा। और मूल गौरव दोनों का अक्षुण्ण रहा क्योंकि मर्त्यलोक में भी काशी राजनीति तथा विद्या का एवं प्रयाग धार्मिक अनुष्ठानों का अद्वितीय केंद्र बन गये। हरिश्चंद्र, शैव्या, धन्वन्तरि, दिवोदास, प्रतर्दन एवं ब्रह्मदत्त जैसी महान विभूतियों ने काशी में जन्म ले कर दिशाओं को जागृत कर दिया तथा भरद्वाज, विश्वामित्र, अत्रि, भागीरथ एवं जन्हु जैसे महापुरुषों ने प्रयाग में यग्य-यागों की वह परम्परा स्थापित की जिसने जन-जीवन को पावन बना कर नरक-तुल्य प्रदेशों को भी स्वर्गिक विभूतियाँ प्रदान कीं। कर्ण-प्रयाग, देव-प्रयाग, विष्णु-प्रयाग, रुद्र-प्रयाग तथा नन्द-प्रयाग – स्वर्ग में पांच प्रयाग थे। न केवल प्रयाग, बल्कि उत्तर-काशी, गुप्त-काशी आदि अनेक काशी भी वहाँ थे। किन्तु यहाँ भी प्रयाग और काशी बने, और ऐसे बने, कि विद्या, चरित्र, अर्थनीति तथा राजनीति से सम्पूर्ण एशिया को प्रकाशित कर दिया तथा योरप और अफ्रीका तक उनकी किरणें पहुँचीं। यूनान, मिस्र, बेबीलोन, जर्मनी तथा रोम में अब तक उनके संस्मरण प्राप्त हो रहे हैं। किसी भी ग्रन्थ के लेखन में शैली तथा तत्व दोनों ही समाविष्ट रहते हैं। शैली विषय की साज-सज्जा है तथा तत्व वास्तविकता। संस्कृत साहित्य के कर्ता निष्णात कवि भी रहे हैं। भारतीय काव्य चिन्तन की केन्द्रीय धुरी ‘शब्दार्थ’ रचना ही है क्योंकि कविता की निष्पत्ति के लिए एकमात्र और अन्तिम मूल सामग्री वही है। “भारतीय काव्य चिन्तन” का समग्र विकास अर्थात् शब्द सौष्ठव से लेकर आस्वादन तक का विवेचन, इसी शब्दार्थ पर ही आधारित रहा है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार वेद सभी विद्याओं की उत्पत्ति के मूल हैं। इसी दृष्टि से काव्यशास्त्र के मूल सिद्धान्तों का वेद में अन्वेषण करने का प्रयत्न करें तो वैदिक कवियों के समक्ष आज के वातुल कवि सर्वतोभावेन हीन सिद्ध होते हैं। छः विद्याओं की गणना में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष की गणना तो होती है किन्तु काव्यशास्त्र की नहीं परन्तु वेद को देव का अमर काव्य कहा गया है - “देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति”। वेदों में अनेक स्थानों पर कवि शब्द का प्रयोग किया गया है। वेद स्वयं काव्यरूप है और उसमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है। ऋग्वेद के सप्तम मण्डल में ‘अरंकृतिः’ शब्द का प्रयोग मिलता है। महर्षि वसिष्ठ इन्द्र से कहते हैं - का ते अस्त्यरंकृति सूक्तैः। काव्यशास्त्र में काव्यसौन्दर्य के आधायक जिन गुण, रीति, अलंकार, ध्वनि आदि तत्वों का विवेचन किया गया है वे सभी तत्व प्रायोगिक अथवा व्यावहारिक रूप से वेद में पाये जाते है। ऋग्वैदिक कवियों ने उपमा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का केवल प्रयोग ही नहीं किया वरन् काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का भी उन्हें ज्ञान था। प्रस्तुत मन्त्र में मन्त्रदृष्टा ऋषि द्वारा किया गया उपमा का प्रयोग देखें - उत त्वः पश्यन न ददर्श वाच उत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येननाम् । उतो त्व स्मै तन्वं विससे जायेव पत्ये उक्ती सुवासा।। (ऋग्वेद १०/७१/४) अर्थात् - कोई व्यक्ति देखते हुए भी वाणी को नहीं देख पाता, सुनते हुए भी नहीं सुन पाता। कुछ ही ऐसे होते हैं, जिनके समक्ष वाणी अपना सौन्दर्य निरावृत करती है, जैसे पत्नी अपने पति के समक्ष ही निरावृत होती है। [कुछ व्यक्ति सरस्वती (विद्या या ज्ञान) को मात्र शब्दों तक ही जान पाते हैं, परन्तु अर्थ या तात्पर्य नहीं समझ पाते, कुछ व्यक्ति समझते तो हैं परन्तु श्रोतस्थ (आत्मस्थ) नहीं कर पाते। वह (सरस्वती/विद्या) किसी विशिष्ट को ही अपने निरावरित सौन्दर्य का वास्तविक ज्ञान-दर्शन कराती है जैसे रूपवती पत्नी अपना निरावरण सौन्दर्य केवल अपने पति को दिखाती है।] इसी प्रकार .... द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्धत्ति अनश्नन्नयो अभिचाकशीति।। (ऋग्वेद १/१६४/२०) इस मंत्र में पीपल के वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों का वर्णन है जिनमें एक तो पीपल के मीठे फल खा रहा है दूसरा बिना फल भक्षण के आनन्दमग्न है। इन पक्षियों के माध्यम से जीवात्मा तथा परमात्मा का चित्रण किया गया है। जीव इन्द्रिय सुखों का भोग करता है तथा परमात्मा फलों का भोग न करता हुआ संसार में चारों ओर अपने सौन्दर्य को प्रकाशित करता है। इस मन्त्र में सुपर्णा – सयुजा – सखाया में ईश्वर-जीव-प्रकृति तीनों अनादि – अनंत – अलौकिक तत्वों को दो पक्षियों के रूप में प्रदर्शित किया गया है अतः रूपक अलंकार है, सुपर्णा – सयुजा – सखाया में वर्ण-साम्य के कारण अनुप्रास भी है, एक साथ काव्य-शास्त्र के दो – दो अलंकार - अर्थालंकार रूपक, शब्दालंकार अनुप्रास, अनश्नन्नन्या अभिचाकशीति में न वर्ण से अनुप्रास, अ वर्ण से भी अनुप्रास, ईश्वर बिना फल खाये भी अपने तेज-सौन्दर्य आदि का प्रकाश करता है इस अर्थ में विभावना अलंकार अर्थात पुनः एक साथ शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों हैं। इसके अतिरिक्त भी वेदों में रूपक, अनुप्रास, विशेषोक्ति आदि के प्रयोग भी पदे-पदे प्राप्त होते हैं। वेदों, अन्य संहिताओं, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में भी, काव्यशास्त्र का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं प्राप्त होता है किन्तु परवर्ती काल में छः वेदांगों का विकास हुआ उनमें काव्यशास्त्र से सम्बद्ध विषयों का न्यूनाधिक प्रतिपादन दृष्टिगत होता है। निरुक्त में यास्क ने उपमा के भेदों - भूतोपमा, सिद्धोपमा, कर्मोपमा तथा लुप्तोपमा का उल्लेख किया है। साथ ही अपने पूर्ववर्ती आचार्य गर्ग के उपमा निरूपक लक्षण को भी उद्धृत किया है। आचार्य यास्क ने ‘अथाप्युपमार्थे भवति’ की व्याख्या करते हुए इव, यथा, न, चित्, नु तथा आ के प्रयोगों की सार्थकता सिद्ध की है। निरुक्त में पारिभाषिक अर्थ में अलंकार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु यास्क ने ‘‘अलंरिष्णु’ शब्द को “अलंकृत करने के स्वभाव वाला” के सामान्य अर्थ में प्रयुक्त किया है। पाणिनि के युग तक उपमा का प्रयोग स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। यथा, वा, इव का प्रयोग “तत्र तस्येव, तेन तुल्यं क्रिया चेद्धति” आदि सूत्रों में व्याख्यायित हुआ है। ‘चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः’ व्याकरणशास्त्र की देन है। अभिधा, लक्षणा शब्दशक्तियों को सर्वप्रथम वैयाकरणों ने परिभाषित किया। व्यंजना शक्ति भी स्फोटसिद्धान्त पर आधारित है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वेदांगों, निरुक्त तथा व्याकरण से काव्यशास्त्र का सम्बन्ध है तथा वेद तथा वेदांगों में काव्यशास्त्र के मौलिक बीज पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अब संस्कृत साहित्य में शैली तथा तत्व का विश्लेषण यदि हम न कर सकें तो तत्व तक कैसे पहुँच सकते हैं? साहित्य में तत्व को नग्न नहीं खड़ा किया जाता। नग्नता को परिधान प्रदान करने का ही नाम तो शैली है! शब्द ही हैं जो काम को समादरित तथा वासना को अनादरित बनाता है। नवेली से परिधान तथा परिधान से नवेली की शोभा बढ़ती है। वस्त्र तथा व्यक्ति का समन्वय हमारा कार्य है। अतः सुकवि कभी भाव-तत्व को नग्न नहीं रहने देता। उसके शब्दों में तत्व खोजना पाठक और श्रोता का दायित्व है। सुश्रुत संहिता में धन्वन्तरि जब यह कहते हैं कि “बुद्धिमान व्यक्ति विधिपूर्वक सोम का सेवन करे तो दस हजार वर्ष जीवित रह सकता है.... दशवर्षसहस्राणि नवां धारयते तनुम्। ”तो उनके कथन में यह ‘दस हजार’ गणित का दस हजार नहीं है, बल्कि यह साहित्य की शैली है और यहाँ इसका तात्पर्य ‘अधिकता’ से है। “कनक-भूधराकार शरीरा – सुवर्ण निर्मित पर्वत के आकार का शरीर” वास्तव में पर्वत जैसा नहीं बल्कि यहाँ तात्पर्य विशालता मात्र से है। चार पहर की यामिनी, कैसी झूठी बात। आली साजन के गये, सौ सौ युग की रात।। अब यहाँ ‘सौ सौ युग की’ रात में कोई गणित खोजने लगे और कहे कि कवि भ्रामक तथ्य प्रस्तुत कर रहा है तो उसका क्या करें? यह गणित है? कि साहित्य है? हमारा इतिहास भी इसी प्रकार साहित्य-शैली में लिखित है। शब्दों की तीन शक्तियाँ होती हैं - अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना। वाच्योर्ऽथोऽभिधया बोध्यो लक्ष्यो लक्षणया मतः। व्यङ्ग्यो व्यञ्जनया ताः स्युस्तिस्त्रः शब्दस्य शक्तयः।। जब किसी शब्द का सामान्य अर्थ में प्रयोग होता है तब वहाँ उसकी अभिधा शक्ति होती है, जैसे ‘सिर पर चढ़ाना’ का अभिधा में अर्थ किसी चीज को किसी स्थान से उठाकर सिर पर रखना होगा। ‘अभिधा’ शब्द का अर्थ ही है – ‘स्पष्ट उक्ति’। जब शब्द का सामान्य अर्थ में प्रयोग न करते हुए किसी विशेष प्रयोजन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो यह जिस शक्ति के द्वारा होता है उसे ‘लक्षणा’ कहते हैं। लक्षणा से 'सिर पर चढ़ाना’ का अर्थ आदर देना होगा। उदाहरण के लिए ‘अँगारों पर लोटना’, ‘आँख मारना’, ‘आँखों में रात काटना’, ‘आग से खेलना’, ‘खून चूसना’, ‘ठहाका लगाना’, ‘शेर बनना’ आदि मुहावरों में लक्षणा शक्ति का प्रयोग हुआ है। जब अभिधा और लक्षणा अपना काम समाप्त कर लेती हैं, तब जिस शक्ति से शब्द समूहों या वाक्यों के किसी अर्थ की सूचना मिलती है, उसे व्यंजना कहते हैं। ‘सिर पर चढ़ाना’ मुहावरे का अर्थ न तो ‘सिर’ पर निर्भर करता है न ‘चढ़ाने’ पर वरन् पूरे वाक्यांश का अर्थ होता है उच्छृंखल, अनुशासनहीन अथवा ढीठ बनाना। एक ही वाक्यांश का अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना में तीन अलग अर्थ होगा। गणित ‘अभिधा’ से आगे नहीं चलता। किन्तु साहित्य अभिधा से आगे लक्षणा, व्यंजना तथा ध्वनि जैसी शक्तियों से अनंत अर्थ उद्घाटित करने में समर्थ है। अभिधा का क्षेत्र बहुत सीमित है। वह एक अर्थ बता कर शांत हो जाती है। काव्यप्रकाश में राजशेखर लिखते हैं –“शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः” अर्थात् शब्द, ज्ञान तथा कर्म एक क्रिया के उपरांत दूसरा व्यापार नहीं करते! स्पष्ट है कि दूसरे अर्थ के लिये दूसरी शब्द-शक्ति चाहिये। अब अभिधा से जो एक अर्थ प्रकट हो रहा हो हम उसी को पकड़ कर बैठ जाँय तो सारा साहित्य ही “गप्प” बन कर रह जायेगा। अतः शब्द जो भिन्न-भिन्न भाव प्रकट करते हैं, वह शब्द की लक्षणा, व्यंजना तथा ध्वनि शक्ति से ही प्रकट कर सकते हैं। साहित्य दर्पण कहता है – “यत्परः शब्दः स शब्दार्थः” --- तात्पर्य ही शब्द का अर्थ होता है। और साहित्य अभिधा से कम, लक्षणा, व्यंजना तथा ध्वनि से ही अधिक अलंकृत होता है। तो भाषा-सौष्ठव की इस कला के ज्ञान के बिना साहित्य का तत्व समझना असंभव ही है। इसी प्रकार शब्दों का एक व्युत्पत्ति-निमित्त होता है और एक प्रवृत्ति-निमित्त। भाषा के हजारों ऐसे शब्द हैं जिनका व्युत्पत्ति-निमित्त कुछ और था किन्तु आज प्रवृत्ति-निमित्त कुछ और है। हमारे देश के एक महान भाषाविद् ने विकलांगों हेतु एक नया शब्द सृजित किया – “दिव्यांग”। अब दिव्यांग का व्युत्पत्ति निमित्त तो है - “जिसके अंग दिव्य हों”। दिव्य का देवता से सम्बन्ध है क्योंकि यह शब्द भी दिवु धातु से ही व्युत्पन्न है। किन्तु प्रचलित अर्थ में अब यह शब्द विकृतांगों, विकलांगों, हीनांगों आदि हेतु प्रयुक्त होने लगा है। कुछ वर्षों में यह शब्द इसी अर्थ में रूढ हो जायेगा। शब्दकोशों में भी इस शब्द को इसी अर्थवाची के रूप में स्थान मिलेगा। और फिर यह शब्द अपना व्युत्पत्ति निमित्त खो बैठेगा तथा इस शब्द का प्रवृत्ति निमित्त हो जायेगा – “जो अंग से हीन हो” अथवा “जिसके अंगों में कोई विकार हो”। अनेक शब्द इसी भांति अपना व्युत्पत्ति निमित्त खो चुके हैं।जैसे “पुत्र” शब्द को ही लें तो पुत्र शब्द ‘पुं’ तथा ‘त्राण’ दो शब्दों से निर्मित है। “पुं नामक नरक से त्राण प्रदान करने वाला = पुत्र”। यह उस काल-खंड का शब्द है जब स्वर्ग से नरक को निर्वासित व्यक्ति एक नर-शिशु उत्पन्न कर दे तो उसे स्वर्ग में पुनः लौट सकने की पात्रता प्राप्त हो जाती थी। “पुं” नामक नरक से “त्राण” करने वाला होने के कारण उत्पन्न नर-संतान को “पुत्र”कहा गया, किन्तु आज प्रत्येक “औरस बालक” पुत्र ही है चाहे वह स्वयं जन्मदाता के जीवन को ही नरक बना दे। इसी प्रकार “गवेषणा” शब्द है। आश्रम की गौवें चराने हेतु वन में छोड़ दी जाती थीं और उनमें से कुछ नहीं भी लौटती थीं तब उन न लौटी हुई गौवों की खोज ही गवेषणा कहलाती थी। गवेषणा का अर्थ था - “खोई हुई गौ ढूँढ़ने निकलना”। आज प्रत्येक खोज, प्रत्येक अनुसंधान ही गवेषणा है। इस प्रकार साहित्य का विशाल शब्दकोष इतिहास की घटनाओं से निर्मित हुआ किन्तु काल-प्रभाव में शब्दों का व्युत्पत्ति-निमित्त पिछड़ता गया। आज वे शब्द इतिहास के गहन अतीत में पुरात्व का विषय बन कर रह गये हैं किन्तु फिर भी वे साहित्य को एक अदृष्ट स्फूर्ति प्रदान करते रहते हैं। उसे सभी नहीं देख पाते। कुछ ही हैं जो उनकी प्रेरणा से अनुप्राणित हो पाते हैं। हमारी भाषा का एक-एक शब्द इतिहास का प्रतिनिधि है। “बेटा” और Son शब्द हमें उस इतिहास तथा राष्ट्रीयता से कभी नहीं जोड़ पायेगा जिस इतिहास तथा राष्ट्रीयता से हमें “पुत्र” शब्द जोड़ता है। भारतीय इतिहास में शब्दों की लीला अपरम्पार है। ईरान, बेबीलोन, मिस्र, यूनान, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका तथा चीन आदि देशों में भी बहुत प्राचीन इतिहास है, किन्तु भारतीय इतिहास की कुछ अपनी ऐसी पारिभाषिक संज्ञायें हैं जो अन्य कहीं नहीं हैं। यही कारण है कि जड़ों-जड़ों तक भारतीयता में पैठा इतिहासकार ही भारतीय इतिहास का स्पष्टीकरण कर सकने में सक्षम हो सकता है। जो रंच मात्र भी इस भारतीयता से विलग हुआ उसके किये भारतीय इतिहास का स्पष्टीकरण कदापि संभव नहीं है। भारत के अतिरिक्त भी अन्य देशों में हमारी कुछ शब्दावली प्रयुक्त होती है तथा उन्होंने भी हमारी पारिभाषिक संज्ञायें हमसे उधार ली हैं किन्तु वे भी इतिहास की उस वास्तविकता को नहीं जानते-समझते। भारतीय इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द है “आर्य”। ऋग्वेद से लेकर उसके पीछे के साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस शब्द का एक ऐतिहासिक अर्थ है और वह है “आस्तिक”। आर्य सदा से स्वयं को अमर मान कर चला तथा साथ ही उसने अपने नियंता को भी अमर ही माना और इस प्रकार उसने अनादि से अनन्त को मिला कर एक कर दिया। छान्दोग्य उपनिषद् कहता है – “यो वै भूमा तदमृतम् अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्।।” अर्थात् जो विशाल है वही अमृत है, जो लघु है वह मर्त्य है। ऋग्वेद कहता है –“उरुज्योतिः पप्रथु: आर्याय” – आर्य में अविच्छिन्न चेतना का प्रवाह है। अतः आर्य कभी मरता नहीं। उसका अंत नहीं होता क्योंकि वह अमृत-पुत्र है – “शृंण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।” (श्वेताश्वतर उपनिषद अध्याय २/५) इसलिये उसका जीवनपथ सदा प्रकाशमान है। गीता के कथन – “नायं हन्ति, न हन्यते” का आदर्श आर्य-आदर्श है। कृति एक अविरल प्रवाह है। मानव-देह जल के बुलबुले की भाँति उसी अविरल प्रवाह में बनता तथा मिटता रहता है किन्तु प्रवाह अविच्छिन्न है। यही कारण है कि कितने ही इन्द्र, ब्रह्मा तथा विष्णु युगों-युगों तक होते चले गये क्यों कि उनमें कृति की धारा अविच्छिन्न थी। यह वाक्य तनिक जटिल प्रतीत हो सकता है किन्तु यह वाक्य अवतारवाद का सत्य है। जैसे – वभूव वल्मीकभवः पूरा कवि, स्ततः प्रपेदे भुवि भर्तृमेष्ठताम्। पुनः स रेजे भवभूति रेखया, स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः।। अब उत्तर प्रदेश के वाल्मीकि, काश्मीर के भर्तृश्रेष्ठ, विदर्भ के भवभूति और अवंति के राजशेखर। युगों का अंतर है और कोई आनुवंशिक सम्बंध भी नहीं, फिर भी कृतिसाम्य इस एकत्व का आधार निश्चित ही है। यह तो उनकी बात थी जिन पर देवत्व का आरोप नहीं है, किन्तु माघ अपने शिशुपाल-वध के प्रथम सर्ग में लिखते हैं – ‘हे द्वारिकानाथ! हिरण्यकशिपु को आपने नृसिंह बन कर मारा। वही हिरण्यकशिपु जब रावण बन कर अवतीर्ण हुआ तो आपने राम बन कर उसका संहार किया। अब वही दुष्ट शिशुपाल बन कर अवतीर्ण हुआ है। क्या आप उसका संहार नहीं करेंगे?” (शिशुपालवधम्, सर्ग प्रथम, श्लोक ४२-६९)। भिन्न काल खण्ड में हिरण्यकशिपु, रावण तथा शिशुपाल एक समान कृतित्व एवं नृसिंह, राम तथा कृष्ण एक अन्य समान कृतित्व के कारण अवतार माने गये क्योंकि कृति ही प्रधान है, व्यक्ति गौण है। आर्य बाहर से आये यह मान्यता मूर्खतापूर्ण है और संतोष इस बात का है कि इस मान्यता का मुखर खंडन प्रारम्भ हो चुका है, किन्तु आर्य कहीं न कहीं से तो अवश्य आये थे। वह भूमि, जहां से आर्य आये, वह आधुनिक दृष्टि वालों हेतु भारतवर्ष के बाहर की हो भी सकती है, क्योंकि आधुनिक भारत है ही कितना सा? और आर्य स्वर्ग से आये थे। अब स्वर्ग शब्द से वह अर्थ ग्रहण करना जो स्वर्गवासी का स्वर्ग है, भ्रम में डाल देगा। वास्तव में स्वर्ग इसी धरा पर था, और हमारे इसी देश का भाग था। (कृपया सुनहु तात यह अकथ कहानी – भाग १ का संदर्भ ग्रहण करें।) वस्तुतः होता यह था कि स्वर्ग में किसी ऐसे अपराध हेतु जिसमें दण्ड के रूप में वहाँ के निवासी निर्वासित कर दिये जाते थे, उन्हें नरक भेज दिया जाता था और वह नरक, वह नीची भूमि यही भारत भूमि ही थी जो हिमालय-क्षेत्र से नीची है। प्रमाण? अरे भाई! कालिदास के मेघदूत से श्रेष्ठ प्रमाण क्या होगा? कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥ यक्ष को कुबेर ने कर्तव्य-प्रमाद का दण्ड निष्कासन ही तो दिया था! कालिदास ने संकेत में एक इतिहास बता दिया, हम-आप उसे मात्र कहानी मानते हैं! पूर्व-मेघ में यक्ष के शब्दों में अलकापुर तक का मार्ग बताते हुए कवि ने उस इतिहास से चिपका भूगोल ही तो लिखा है! तो ऐसे निष्कासित व्यक्ति एक निश्चित अवधि के पश्चात स्वर्ग को लौट सकते थे, अथवा किसी शर्त-विशेष के पूर्ण होने पर लौट सकते थे या नहीं भी लौट सकते थे। यक्ष का अपराध कम था, कुबेर को वैसे भी जितनी चिढ़ इस बात से नहीं थी कि कर्तव्य में प्रमाद हुआ उससे अधिक इस बात से थी कि भार्या-प्रेम के कारण यक्ष से प्रमाद हुआ था, तो निष्कासन की अवधि मात्र एक वर्ष की थी, किन्तु ऐसा सभी के साथ नहीं होता था। और दण्ड का एक निश्चित भाग यह भी होता था कि नरक को बसाओ! इस हेतु वहाँ पुत्र उत्पन्न करो। यज्ञ करो। आर्य संस्कृति का प्रसार करो। क्योंकि आर्य का मूल घोष वाक्य था –“कृण्वन्तो विश्वमार्यम्!” फिर भी, आजीवन निर्वासितों हेतु नरक से स्वर्ग को प्रत्यावर्तन सहज नहीं था। और वे, जो स्वर्ग से निर्वासित नहीं थे, उनका तो उस स्वर्ग से इस नरक में तथा नरक से स्वर्ग में आना - जाना लगा ही रहता था। ऋग्वेद में आर्य तथा दस्यु दो प्रकार के राष्ट्र कहे गये हैं – “विजानीह्यार्यान्ये च दस्यवो वर्हिष्यते, रंध्रयाशासदव्रतान। (ऋग्वेद १/५१/८)”। जो आर्य होकर भी नास्तिक थे उन्हें ही अव्रत कहा गया। किन्तु उनके पुनः आर्य बनने का मार्ग खुला था। किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन आदि अनेकों दस्यु जातियों से आर्यों ने संपर्क किया और उनमें से अधिकाँश को उसने आस्तिकवाद की छाया में संगठित कर लिया (श्रीमद्भागवत पुराण, स्कंध २/४/१८)। यही संगठन ही उसका सामाजिक आदर्श था। देव, नाग, यक्ष, गंधर्व तथा किन्नर के पञ्चजन में विभक्त आर्य वास्तव में एक ही था। इसी कारण वह कह सका – “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः।” जब तक वह इस पर टिका रहा, सर्वजेता रहा। इस मार्ग से विचलित होते ही उसकी पराजय हुई। नाग तथा गंधर्व इस दिशा में जय तथा पराजय के दो किनारों के मध्य इतिहास की जिस धारा का निर्माण करते रहे वही स्वर्ग को बहा ले गई। नागों तथा देवों का कलह इस सीमा तक बढ़ा कि दस्युओं की सेना तक संगठित कर ली गई। दक्षिण भारत की विजय करके सम्पूर्ण आर्यावर्त को एकाकार करने का श्रेय नागों को ही है जिसने अय्यर तथा नैय्यर (आर्य तथा अनार्य) का भेद मिटा दिया किन्तु स्वर्ग की ख्याति को भूलुंठित करने वाले भी नाग ही थे। शंकर की सेना में टेढ़ी-मेंढ़ी मुखाकृतियों वाले भूत-प्रेत वास्तव में यही दस्यु जातियों की सेना ही थी। सती का दक्ष-यज्ञ में आत्माहुति देना स्वर्ग को बहुत भारी पड़ा था। इसी प्रकार एक अन्य विशेष पारिभाषिक शब्द है “देवता”। यह शब्द अत्यंत सारगर्भित तथा गंभीर है। भारतीय इतिहास के ‘देवता’ शब्द में जितने भाव समाहित हैं उतने भाव वाला कोई अन्य शब्द स्यात् है ही नहीं। देवता शब्द दिवु धातु से निष्पन्न है तथा यह शब्द द्युति, कौतुक, क्रीड़ा, विजय-कामना, व्यवहार-पाटव, तेजस्विता, स्तुति योग्य, मोदमय, आत्माभिमान, मोह, मद, निद्रा, सौन्दर्य, तथा प्रगतिशीलता आदि अनेक भावों को अभिव्यक्त करता है। यह शब्द के प्रयोक्ता पर निर्भर है कि वह इस शब्द का पयोग किस अर्थ में करता है। पाणिनि के समय तक तो यह शब्द इन सभी अर्थों में प्रचलित था ही – “दिवु- क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु” (अष्टाध्यायी धातुपाठ)। दिव् धातु का धात्वर्थ अत्यंत व्यापक है किन्तु इस शब्द का प्रयोग इस प्रकार हुआ है कि भ्रम में पड़ जाना स्वाभाविक है। देवताओं की कल्पना तीन प्रकार की है – आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक (Celestial, Material and Spiritual)। वस्तुतः सम्पूर्ण जगत इन्हीं तीन कक्षाओं में विभक्त है। और इन तीनों में देवत्व का साक्षात्कार कैसे हो यही जान लेना सबसे बड़ा तत्वज्ञान है। इसी लिये ऋग्वेद कहता है – “द्यावाभूमीजनयन्देव एकः।”। आधिभौतिक देवता जगत् की नियामक शक्तियों में निहित है। दर्शन की भाषा में कहें तो यह जगत् सूर्य से प्रकाशित होता है किन्तु सूर्य किससे प्रकाशित होता है? वह प्रकाश का देवता ही परमेश्वर है। जिन पञ्चभूतों से इस सृष्टि का निर्माण हुआ उनमें विद्यमान दिव्य भाव ही आधिभौतिक देवता है। इसी कारण पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश को देवता कहा गया। तीसरे देवता आध्यात्मिक देवता हैं जो वास्तव में हमारे भीतर की ही शक्तियां हैं। उन महान शक्तियों का केंद्र होने से मनुष्य भी देवता है, यदि वह उन शक्तियों से परिचित हो कर उन्हें कृति रूप में प्रस्तुत कर सके। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, धन्वन्तरि, दुर्गा, काली आदि ऐसे ही देवता थे। उपनिषदों में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को तैंतीस देवताओं में विभाजित किया गया। सम्पूर्ण विज्ञान (Science) तथा सम्पूर्ण अध्यात्म (Metaphysics) इन्हीं तैंतीस देवताओं में अंतर्भूत है। वे तैंतीस देवता हैं – अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, एक जीवात्मा तथा एक परमात्मा। वैदिक साहित्य में एक शैली सृष्टि को अवयवों में विचार करने की है जैसे - “भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः। - मेघ पृथ्वी को तृप्त करते हैं तथा अग्नि आकाश को।” एक अन्य शैली है जिसमें अवयवी पर विचार किया गया है जैसे – “इन्द्रो विश्वस्य राजति शन्नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे। इस विश्व का शास्ता इंद्र है वह मनुष्यों तथा पशुओं का कल्याण करे।” यहाँ अवयवी रूप से जिसका विचार हुआ है वह देवता है। स्वर्ग में इसी शैली पर जो सम्पूर्ण पञ्चजन गणतंत्र का शासक हुआ उसी को नाम दिया गया – इंद्र। वस्तुतः यह पदनाम है। कालिदास ने लिखा ही कि “पदमैन्द्रमाहु” तथा मान्यता है ही कि सौ अश्वमेध यज्ञ या राजसूय यज्ञ करने वाला उस पद का अधिकारी है। इसी प्रकार त्वष्टा का अर्थ सूर्य भी है तथा अश्विनीकुमारों के पिता का नाम भी त्वष्टा है। विष्णु भी इसी प्रकार “सृष्टि में व्यापक, रचनात्मक तथा सर्वशक्तिमान परमेश्वर” का भी नाम है तथा स्वर्ग के गणतंत्र के एक महत्वपूर्ण चरित्र का भी। भारतीय साहित्य में तंत्र-शास्त्र का भी अपना विशिष्ट स्थान है तथा उसमें भी देवता शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है। किन्तु तंत्र शास्त्र का देवता मात्र अनुकूल एवं प्रतिकूल मानसिक शक्तियों का विशेषण है। जो अनुकूल है वह शुभ जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सरस्वती, लक्ष्मी आदि तथा जो प्रतिकूल है वह अशुभ जैसे पूतना, अन्धपूतना, शीतपूतना आदि। इनके अनुचर तथा मित्र भी मिलते हैं जिन्हें ग्रह कहा गया है। अब तंत्र के ग्रह न तो ज्योतिष के ग्रह हैं न तो तंत्र के देवता ही इतिहास के देवता हैं। अथर्ववेद के रचनाकाल तक आर्यों में भूत-विद्या और तंत्र-शास्त्र के विचार उग चुके थे। अथर्वण मन्त्रों में उनका समावेश है तथा वही तंत्र शास्त्र का उत्स है। मन्त्र, बलि, होम, प्रायश्चित अथवा उपवास का परिणाम किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से परिभाषित नहीं किया जा सकता क्यों कि उनका प्रयोग-आधार ही वैज्ञानिक न होकर मनोवैज्ञानिक है। मनुष्य की क्षमता से परे होने के कारण अमानुष तो वह है ही! और जो अमानुष हो उसे दैवीय शक्तियों का प्रभाव ही कहा जा सकता है। तांत्रिकों ने उन दैवीय शक्तियों का नामकरण उन्हीं देवताओं के नाम पर किया जो उन्हें ज्ञात थे। ज्योतिष में भी ऐसे नाम हैं। किन्तु उन देवताओं का सम्बन्ध इतिहास के देवताओं से जोड़ना भूल है। अतः किसी भी संज्ञा के साथ “देवता” शब्द जुड़े होने से उसके सम्बन्ध में मूल तत्वार्थ का बोध तब तक नहीं हो सकता जब तक यह ध्यान में न रखा जाय कि किस सन्दर्भ में वह उद्धृत है। जैसे “रेवती” शब्द को ही लें, तो इतिहास में वह चन्द्र की पत्नी है, ज्योतिष शास्त्र में वह एक नक्षत्र है और तंत्र शास्त्र में या भूत-विद्या शास्त्र में वह एक रोग है। चन्द्र भी इतिहास में अत्रि के पुत्र हैं, ज्योतिष में एक ग्रह, खगोल में पृथ्वी का उपग्रह! अगस्त्य ज्योतिष में एक नक्षत्र है तथा इतिहास में ऋग्वेद के मन्त्रों का द्रष्टा एक ऋषि जो दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के संस्थापक तथा आयुर्वेद के आचार्य रहे। ज्योतिष के नवग्रह रवि, सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु हैं तो भूत-विद्या में शिशुओं को कष्ट देने वाले नवग्रह स्कंद, स्कंदापरस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, गंधपूतना, शीतपूतना, मुखमंडिका और नैगमेष हैं। वेदों में विश्वा का अर्थ “सम्पूर्णता” से है, लोक में विश्वा का अर्थ “संसार” से है और आयुर्वेद में विश्वा का अर्थ “सोंठ” है। पुराणों में “ऐरावत” का अर्थ पांच सूंड वाला सागर-मंथन से प्राप्त तथा इंद्र को समर्पित “हाथी” है तो आयुर्वेद में “करौंदा”। साहित्य में घन का अर्थ “ठोस” भी है, “बादल” भी, गणित में किसी संख्या का उसी संख्या में तीन बार का गुणनफल, व्यवहार में एक “बड़ा सा हथौड़ा”, किन्तु आयुर्वेद में उसका अर्थ कहीं “नागरमोथा” है तो कहीं “कपूर”। इसी प्रकार सामान्यतः देवता शब्द असामान्य जीवन-क्षमताओं का व्यंजक है। जहां भी इन गुणों का अतिरेक दिखा, वहीं हमारे पूर्वजों ने देवत्व की भावना कर ली। किन्तु तत्व दृष्टि से देवता किसी वस्तु की समष्टि में क्रियाशील शक्ति का नाम है, विज्ञान में यह भावात्मक संज्ञा (एब्स्ट्रैक्ट नाउन) है, इतिहास में यह जातिवाचक संज्ञा (कॉमन नाउन) है, ज्योतिष में यह यह समुदायवाची (कलेक्टिव नाउन) है, आयुर्वेद में जीवन की विभिन्न चेतना के विभिन्न पक्षों को अभिव्यक्त करने करने वाला तत्व (फेनॉमिन नाउन) है तो दर्शनशास्त्र में “अवयवों में अवयवी का आभास”। इसी प्रकार वेद संहिताओं में लाखों मन्त्र हैं तथा प्रत्येक मन्त्र का एक देवता है। वह देवता वस्तुतः उस मन्त्र-विशेष का प्रतिपाद्य तत्व (थीम) है। इसी लिये कहा गया है कि “एकं शास्त्रमधीयानो न विद्याच्छास्त्रनिश्चयाम्। तस्माद् बहुश्रुतः शास्त्रम् विजानीयात्....”। सम्पूर्ण विश्व का देवता एक ही है (एको देवः सर्वभूतेषु गूढः) किन्तु उसके अधीन कार्यशील अनंत देवता हैं जो विभिन्न वस्तुओं की की सत्ता के प्रत्यापक हैं (रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव)। देवता शब्द में लिंग भेद नहीं है (त्वम् स्त्री त्वम् पुमानासि त्वम् कुमार उत वा कुमारी)। लिंग ही क्या, देवता शब्द वचन तथा कारक-भेद से भी रहित है। प्रकृति के भूतों का समन्वय जिस लिंग, वचन तथा कारक में हो उसी रूप में देवता की प्रतीति होती है। ‘अवयवी’ समस्त तत्वों में एक व्यापक तत्व है। अवयवों में जो गति तथा सौन्दर्य है उसका स्रोत अवयवी ही है। पुरुष में इसे जीवात्मा कहा गया अतः अध्यात्मशास्त्र में वह जीवात्मा भी देवता कहा गया। सौन्दर्य किसी भी कला का अंतिम ध्येय है। जो कलाकार सौन्दर्य के जितना ही अधिक निकट है वह उतना ही अधिक महान है। किसी भी रचना के परस्पर छिन्न अवयव सुन्दर नहीं होते, क्योंकि सुन्दरता समग्रता में ही निहित है बल्कि समग्रता में भी नहीं प्रत्युत उस समग्रता से उत्पन्न प्रभाव में निहित है – “प्रतीयमानं पुनरन्यदेववस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यं इवाङ्गनासु॥” अर्थात् महाकवियों की वाणी में वाच्यार्थ से भिन्न अतिशय आह्लादकारी प्रतीयमान अर्थ कुछ अन्य ही होता है। वैसे ही, जैसे सर्वसाधारण के समान ही अंग होने पर भी कुछ अङ्गनाओं में विद्यमान लावण्य तत्व कुछ अलग सा अनिर्वचनीय ही होता है। अतः कला वह - जो सत्य भी हो, शिव भी हो, सुन्दर भी हो। साहित्य भी वही जो सत्य भी हो, शिव भी हो और सुन्दर भी हो। क्योंकि, और इसी कारण भी, ‘सत्य’ देवता है, ‘शिव’ देवता है, ‘सुन्दर’ देवता है। अतः जो ‘देवता’ है वह सत्य है, वह कल्याणप्रद है, वह सुन्दर है। “शुभत्व, शिवत्व तथा सौदर्य का समष्टि” -- ही “देवता” है तथा “शुभत्व, शिवत्व तथा सौदर्य का समष्टि ही” -- “देवता” है । अनेक में एकत्व लाने की इसी अनुभूति को भारतीय दर्शन में एक शब्द दिया गया - “भूमा” – यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा, और कहा गया कि जब मन भूमा तक पहुँच जाय तो दुःख समाप्त हो जाते हैं। यह भूमा ही “अमर” तत्व है, शेष सभी नश्वर हैं। इसी भूमा की खोज ही देवत्व की साधना है तथा “देवता की उपासना का अनुष्ठान” है – परिधि से केंद्र की ओर अग्रसर होना, अनेकत्व में एकत्व खोजना, भेद में अभेद देखना, वैर में प्रेम की संभावना का संधान। अतः प्रसंगानुरूप देवता शब्द की वास्तविक प्रतिपत्ति समझे बिना भारतीय साहित्य तथा भारतीय इतिहास को समझ पाना असंभव है। ऐतिहासिक साहित्य में एक और शब्द बार-बार आता है और वह शब्द है “भगवान्”। भगवान् क्या है? यह भी एक पारिभाषिक संज्ञा है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, शौर्य, यश, लक्ष्मी, ज्ञान तथा वैराग्य, इन छह गुणों को “भग” कहते हैं। “ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, शौर्यस्य, यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैवषण्णाम् भग इतीरणा।।” और यह भग जिसे प्राप्त हो वही भगवान् है। भगवान् इंद्र, भगवान् विष्णु, भगवान् धन्वन्तरि, भगवान् राम, भगवान् कृष्ण आदि में भगवान् का अर्थ उस युग में उन्हें प्राप्त प्रतिष्ठा का परिचायक है जो उन्हें इन छह ‘भगों’ से युक्त होने के कारण प्राप्त थी। यह सभी छह गुण परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। मात्र ऐश्वर्यशाली को भारतीय इतिहास में यह ‘भगवान्’ पद कभी प्राप्त नहीं हुआ। ऐश्वर्य के साथ शौर्य भी होना चाहिये। और शौर्य अत्याचार हेतु नहीं, बल्कि ऐसा शौर्य जो यशकारी हो। ये तीनों गुण हों, किन्तु यदि धन नहीं है तो न आतिथ्य होगा, न दान होगा, न परमार्थ संभव होगा अतः लक्ष्मीपति हो। इतना ज्ञान भी हो कि सन्मार्ग पर चले और अन्यों को भी प्रेरित करे। और इन पांच गुणों के साथ वैराग्य-भावना भी निश्चित हो - लिप्सा न हो। हमारे इतिहास में अनेकों भगवान् हैं। लोगों की समझ में यह बात आती ही नहीं कि भगवान् एकाधिक कैसे हो सकते हैं? किन्तु भारतीय अवधारणा है कि यह छह गुण जिसमें हैं वही भगवान्। इसी प्रकार पाश्चात्य साहित्यकार तथा इतिहासकार एवं पाश्चात्य ऐनक वाले साहित्यकार तथा इतिहासकार हमारी अवतारवाद की धारणा की पहेली भी अब तक नहीं सुलझा सके, क्यों कि अवतारवाद का आधार आचार शास्त्र की वे मर्यादायें हैं जिनके आधार पर भारतीय इतिहास “व्यक्ति को नहीं कृति को” पूजता है। एक और शब्द है – “तीर्थ”। महान व्यक्तियों से सम्बंधित स्थल ही हमारे तीर्थ हैं। तीर्थ का शाब्दिक अर्थ तो “घाट” है, जो नदियों तथा जलाशयों पर बनते हैं तथा जिनका उपयोग हम मलिनता धोने हेतु करते हैं, किन्तु मलिनता बाह्य के साथ आतंरिक भी होती है। अतः तीर्थ शब्द में यह भाव प्रच्छन्न विद्यमान है कि वे स्थल जो बाह्य तथा आंतरिक दोनों प्रकार की मलिनता धो सकें वे ही तीर्थ हैं। बाह्य मलिनता जल से धुली जा सकती है, किन्तु आतंरिक मलिनता हेतु सुविचारों की आवश्यकता होती है। वे जहां प्राप्त हों वही तीर्थ कहा जा सकता है। इस दृष्टि से जिन स्थानों पर “भगवान्” पदवी धारण करने वाले हुए हैं वही स्थल हमारे तीर्थ हैं। किन्तु इन तीर्थों का लाभ मात्र घाट नहा लेने से नहीं प्राप्त होने वाला! उन तीर्थों से प्राप्त होने वाला कल्याण तभी उपलब्ध हो सकता है जब हमें उन तीर्थों का इतिहास ज्ञात हो। नृसिंह अवतार की कथा सभी जानते हैं। जिस स्थान पर नृसिंह ने हिरण्यकशिपु का वध किया था वह स्थान कौन सा है? वह स्थान हमारा तीर्थ है – “उत्तरकुरु अर्थात् आज का सिकियांग”! नृसिंह के इसी पराक्रम की पावन स्मृति में उस स्थल का नामकरण किया गया “हरिवर्ष”। अयोध्या, वृन्दावन, काशी, प्रयाग, बदीनाथ जैसा ही हमारा एक पावन तीर्थ हरिवर्ष भी है जिसके उल्लेख के बिना भारतीय पराक्रम की गाथा अधूरी है। हरिवर्ष की पुण्यस्मृति ही विष्णु के महान लोकनायकत्व के आविर्भाव का मूल है। कृति के आधार पर जिस-जिस में नृसिंह के अनुरूप गुणों की सादृश्यता लक्षित हुई वे सभी क्रमशः अवतार मान लिये गये। नृसिंह वास्तव में तत्कालीन भारत का प्रधान सेनापति था जिसका पराक्रम आर्यावर्त के निर्माण में विशेष उल्लेखनीय है। हिरण्यकशिपु के वध के उपरांत वह कुछ समय तक सम्पूर्ण असुर-राष्ट्र पर भारतीय शासन का प्रतिनिधि भी रहा। बेबिलोनिया तथा मेसोपोटामिया में अब तक अत्यंत श्रद्धा से जिस “नरमसीन” की पूजा की जाती है वह नृसिंह का ही अपभ्रंश है। हिरण्यकशिपु के नाम में भी एक भेद है। हिरण्य का अर्थ है सुवर्ण तथा कशिपु का अर्थ है खान या खदान
“हरिवर्ष” आज भी हमारा तीर्थ है क्योंकि उसकी स्मृति हमारे भीतर आत्माभिमान तथा पराक्रम का संचार करती है। इतिहास के संस्मरण यह स्पष्ट करते हैं कि कभी देशान्तरों से लोग हरिवर्ष की तीर्थयात्रा को जाया करते थे। इसी प्रकार “मानसरोवर” भी एक रमणीक तथा प्रसिद्द तीर्थ था। मात्र इस हेतु नहीं कि वह एक सुन्दर जलाशय था, बल्कि इस हेतु भी, कि उसके निकट बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि, तत्ववेत्ता तथा वैज्ञानिक आवास करते थे। उनका सत्संग जिज्ञासुओं के मानस को सरोवर में विहार करने वाले राजहंसों के समान ही अमल-धवल कर देता था। वही इन्द्रलोक तथा नागलोक की सीमा भी थी। कश्मीर में भी वैसा ही एक सरोवर शोभित रहा है। धन्वन्तरि के काल में उस स्वर्ग के मानसरोवर को वृहन्मानस तथा कश्मीर के सरोवर को लघुमानस या क्षुद्रमानस कहा जाता था। “कश्मीरेषु सरो दिव्यं नाम्ना क्षुद्रक मानसं (सुश्रुत चिकित्साध्याय २९/३०)”। युग बदला, शासक बदले और शासकों ने पुराने नाम बदले। इन्द्रलोक अब त्रिविष्टप या तिब्बत है, ब्रह्मलोक थियानशान हो गया, हरिवर्ष पहले उत्तरकुरु हुआ फिर सिकियांग हो गया और वही क्षुद्रमानस आज डल झील है। चूंकि भूगोल के ये सन्निवेश काल्पनिक नहीं हैं अतः ये हमारे इतिहास की साक्षी हैं, कोई माने या न माने। हमारे घरों में हमारे तीर्थों की कथायें तथा चर्चायें कुछ वर्ष पूर्व तक चला करती थीं तो अकारण नहीं! उनमें इतिहास की वह सत्यता है जिस पर विश्व का इतिहास स्पर्धा करता है। जो लोग हमारे तीर्थों को हमारी रूढ़िवादिता का प्रतीक कहते हैं वे स्वयं भ्रान्ति के घेरे में आबद्ध हैं। इस भ्रान्ति को तोड़ने की बस आवश्यकता है। कालिदास ने कुमारसंभवम् का प्रारम्भ करते हुए दूसरे श्लोक में ही कहा – यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दौग्धरि दोहदक्षे । भास्वन्ति रत्नानि महैषधीश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ।। सभी पर्वतों ने हिमालय को बछड़ा तथा सुमेरु को दोग्धा बनाया। इसी माध्यम से सम्पूर्ण धरित्री के धन-धान्य का दोहन होता रहा है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य यही है कि सुमेरु (आज का थियानशान, तब का ब्रह्मदेश), कैलास तथा हिमवान की समष्टि में ही कभी स्वर्ग का साम्राज्य समृद्ध हुआ जिसके हम नियंता रहे हैं। संसार जिसे इतिहास और भूगोल कहता है हम उसे धर्मशास्त्र कहते रहे हैं। अपने इतिहास तथा भूगोल की संरक्षा में ही हमारे पूर्वजों ने विष्णुसहस्रनाम, शतरुद्री, दत्तात्रेयसहस्रनाम, गंगास्तोत्र, यमुनाष्टक आदि स्तोत्र रचे जो बदलते युगों में भी हमारे प्राचीन इतिहास तथा भूगोल का परिचय देते हैं। शतपथ, गोपथ, कठ, छान्दोग्य तथा वृहदारण्यक, रामायण-महाभारत, गीता और पुराण ये सभी इतिहास तथा भूगोल की अनेकों सूचनाओं से भरे हैं। धर्म भी एक ऐसा ही शब्द है जो आज के समय में एक जटिल ऐसी प्रहेलिका है जिसका सर्वसम्मत उत्तर निकला ही नहीं। धर्म संकट में है। कितने संकट में है? क्यों संकट में हैं? जितना संकट में है वह तो है ही, किन्तु वितण्डा भी कम नहीं है। हम धर्म के धारण तथा त्याग के ऐसे भयंकर परिणामों की कल्पनायें साथ लिये भटक रहे हैं जिनसे भय लगता है। और यह भय मात्र हमारी उन भ्रांत धारणाओं का परिणाम है जो हमारे इतिहास के अज्ञान से उत्पन्न हैं। भारतीय इतिहास में धर्म शब्द “देश, काल, पात्र तथा परिस्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य के निर्धारण” को अभिव्यक्त करता है। साहित्यिक दृष्टि से धर्म की व्याख्या बहुत कठिन है, तथा व्यावहारिक दृष्टि से तो उससे भी हजार गुना कठिन है। किन्तु आज के परिस्थितियों में ‘धर्म’ शब्द तथा “धर्म” की व्याख्या जितनी ही कठिन है, उतनी ही आवश्यक भी है। राम पिता की आज्ञा मान वन को गये, प्रहलाद ने पिता की सदा अवज्ञा की। दिलीप को गुरु का आज्ञाकारी होना प्रतिष्ठित कर गया तो अर्जुन ने गुरु की ह्त्या की। दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये तो मोरध्वज ने अपने पुत्र को आरे से चीर डाला। तब धर्म क्या है? रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों में धर्म को घसीटना भारतीय इतिहास की अवहेलना है तथा यादृच्छ व्याख्यायें भी भारतीय इतिहास के साथ अन्याय हैं। किसी वस्तु का परिचय उसके नाम तथा रूप द्वारा प्राप्त होता है। रूप परिवर्तनशील एवं नाशवान है अतः रूप के परिवर्तित होने से या नष्ट हो जाने से पहचान कठिन हो जाती है। किन्तु नाम चिरस्थायी है अतः अंततः पहचान का हेतु नाम ही बनता है। किन्तु कोई नाम कितना चिरस्थायी है यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। आक्रान्ता अपने विजित प्रदेशों में अनेक स्मारकों, नगरों तथा नदियों आदि के नाम परिवर्तित कर देते हैं जिससे भविष्य में लोग पुराने नामों के संस्मरण भूल जाँय तथा अपने राष्ट्र के जीवंत प्रतीकों से उनका मानसिक विच्छेद हो जाय। सदा से यही होता आया है और यही कारण है कि इतिहास से भूगोल का समन्वय असंभव की सीमा तक दुष्कर हो गया है। किन्तु जीवंत राष्ट्र वही है जो अपने जीवंत प्रतीकों को विस्मृत न करे। इतिहास में उन जीवंत प्रतीकों का नाम है, भूगोल में उन जीवंत प्रतीकों का रूप! इन दोनों का समन्वय आवश्यक है। प्रयाग इलाहाबाद कैसे बना यह तो बहुत निकट की बात है। पुरुषपुर का नाम पेशावर कैसे हुआ? हरिवर्ष का नाम उत्तरकुरु और पुनः सिम् कियांग या सिकियांग कैसे हुआ? तक्षशिला अब तक तक्षशिला है किन्तु पुष्कलावती का नाम चारसद्दा कैसे हो गया? यदि हमारी संताने यह तथा ऐसे ही अनेक प्रश्नों का उत्तर न जान सकीं तो हम अपने घर में भी विदेशी हैं तथा हमारा राष्ट्र एक जीवंत राष्ट्र नहीं है। अनेक नामों के साथ जन-प्रवाद भी जुड़े हैं। यदि उन्हें मात्र जन-प्रवाद कह कर अवहेलित किया गया तथा उन्हें निराधार घोषित किया गया तो यह हमारी भूल होगी क्यों कि जन-प्रवाद अनायास नहीं गढ़ दिये गये होंगे। कुछ तो कारण रहा ही होगा। उन प्रवादों में गाथा तथा नाराशंसी की शैली है जिन्हें समझना अनिवार्य है। जिस दिन यह समझ में आ गया कि उन प्रवादों का वास्तविक अर्थ क्या है तथा उनके प्रसारित-प्रचारित होने का कारण क्या था उसी दिन वे मूल्यवान हो उठेंगे। गंगा स्वर्ग-सोपान क्यों है? काशी शिव के त्रिशूल पर कैसे तथा क्यों सधी है? बद्रीनाथ तथा गंगोत्तरी की तीर्थयात्रा पुण्यप्रद क्यों है? अगस्त्य के दक्षिणापथ से लौटने तक विन्ध्य पर्वत के नतमस्तक रहने के वचन का क्या तात्पर्य है? विदेशी आक्रान्ताओं से पूछो तो वे इन्हें गल्प ही कहेंगे, और इन गल्पों पर आख्यान रचने वाले मुझ जैसे लोग गपोड़ी ही कहे जायेंगे! कहे जा रहे हैं ! आक्रान्ताओं की यह दुरभिसंधि हमारे मनों में बहुत गहरे तक समाई हुई है कि हमारे जन-प्रवाद तथा हमारे पर्व सब अंधविश्वास हैं। शिक्षित तथा प्रगतिशील वह है जो अपने ही तीर्थे, जन-प्रवादों, विश्वासों तथा परम्पराओं की अवहेलना करे! और इसका कारण यह है कि हम ऊपर से स्वतंत्र भले हो चुके हैं, हमारे मन से दासता अब तक गई ही नहीं है। तीर्थयात्रायें इस लिये स्थापित हुई थीं कि हम अपने राष्ट्र को प्रेम की शृंखला से बांधे रहें तथा उसकी सीमाओं की सुरक्षा में तत्पर रहें! जन-प्रवाद कहते हैं कि पूर्वजों के कार्यों को जानो! पर्वों की परम्परा राष्ट्रीय संस्कृति को अमर बनाने का साधन है! शालातुर को जाने बिना शालातुरीय को कैसे जाना जा सकता है? इन्ही तीर्थयात्राओं की देन है कि मानसरोवर तथा गंगोत्री का भूगोल हमें ज्ञात है, भले उसका इतिहास हम भुला चुके हैं और इसी प्रकार हरिवर्ष, निषध, केकय तथा अमरावती का इतिहास तो हमने सुन रखा है किन्तु उसके भूगोल से हम परिचित नहीं हैं। अतः इतिहास तथा भूगोल में समन्वय आवश्यक है। तथा यह समन्वय छह प्रकार से होना आवश्यक है। १. वे नाम जो अनूदित हैं जैसे थियानशान या ल्हासा। (थियान चीनी शब्द है जिसका अर्थ है “देवता” तथा शान का अर्थ है पर्वत। अर्थात् देवता का पर्वत या देव पर्वत! इसी प्रकार ल्हासा में ल्हा का अर्थ देवता और सा का अर्थ पर्वत! वह अमरावती ही हुई।) २. परिवर्तित नाम या नामांतर जैसे पुष्कलावती का नाम चरसद्दा, वंक्षु नदी का नाम ओक्सस, सीता नदी का नाम आमू या प्रयाग का इलाहाबाद। ३. भाषिक विकृति से परिवर्तित नाम जैसे लाहुल का विकृत रूप लाहौल, त्रिपुर का ट्रिपोली, काश्यपीय सर का कैस्पियन सी। ४. प्राकृतिक/भौगोलिक परिवर्तनों के कारण हुए नामान्तर यथा सरस्वती नदी से अभिसिंचित क्षेत्र का विनशन हो जाना, ऋषिपत्तन का मृगदाव वन तथा फिर सारनाथ हो जाना। ५. अपरिवर्तित नाम जैसे मानसरोवर, गंगा, प्रयाग, काशी, वृन्दावन, अयोध्या आदि। ६. एक ही के अनेक नाम जैसे काशी-वाराणसी, गंगा- भागीरथी - जाह्नवी, अवंतिका – उज्जयिनी, स्वर्ग – त्रिदिव – देवलोक – त्रिविष्टप, वाल्हीक – बलख – बैक्ट्रिया, मद्र – मीडिया आदि......। हमारे देश का इतिहास जानना है तो स्वर्ग – आर्यावर्त – भारतवर्ष - हिन्दुस्तान - इण्डिया का लाखों वर्षों का इतिहास तथा भूगोल क्रमिक रूप से जानना-समझना होगा। आज से तीन हजार वर्ष पूर्व भारतीय विद्वानों को यह आभास हो गया था कि एक समय ऐसा भी आयेगा जब वेद तथा वैदिक साहित्य की मौलिक भाषा दुर्बोधगम्य हो जायेगी। इसी कारण उन्होंने निघण्टु तथा निरुक्त जैसा साहित्य सृजित किया। और सत्य यह है कि यदि निरुक्त शास्त्र न होता तो वेद को समझ पाना असंभव था। निरुक्त शास्त्र के रहते भी वेदार्थ तक पहुंचना दुष्कर है, उसके अभाव में तो समझने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था। फिर भी धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, वरदान, अभिशाप, अवतार, अंतर्ध्यान/अंतर्धान, जन्म, मृत्यु, परिग्रह, नियोग, विनियोग, राजा, प्रजा, देश, राष्ट्र, लोक, परलोक, श्रद्धा, भक्ति, यज्ञ, याग आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जो भारतीय इतिहास के सूत्र हैं। वस्तुतः विश्व में अन्यत्र दुर्लभ विशाल भारतीय वांग्मय स्वतः अमर भारतीय संस्कृति का जीवंत इतिहास है जो उसके असंख्य नामहीन कर्ताओं के दिव्य मानसिक उत्कर्ष एवं अद्भुद आध्यात्मिक उपलब्धियों को अनश्वर बनाये हुए है। आधुनिक इतिहासकार का यह दायित्व है कि वह धैर्य, अध्यवसाय, लगन, निष्ठा तथा सतत-जागरूक परख-बुद्धि के प्रयोग द्वारा प्राचीन भारतीय वांग्मय का गहन अध्ययन तथा अनुशीलन कर, उस इतिहास तथा उसके निर्माताओं को भारतीय दृष्टिकोण से व्याख्यायित करे। यह कार्य तब तक संभव नहीं है जब तक भारतीय इतिहास के प्रच्छन्न सूत्रों का मूल अर्थ नहीं समझा जाता, और जब तक उन सूत्रों का मूल अर्थ न समझ लिया जाय, वह दृष्टिकोण न जागृत हो जाय तब तक कम से कम “मुझ जैसे” अर्धपठित व्यक्ति द्वारा “पुरा भारतीय इतिहास” की विवेचना करना या करने का प्रयास करना एक कुटिल दुस्साहस के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। और वह दृष्टिकोण समझने हेतु भी निरुक्त जैसे ही किसी इतिहास-विषयक ग्रन्थ की महती आवश्यकता है जो इतिहास की उन जटिल तथा विस्मृत शब्दावलियों, घटनाओं तथा तत्कालीन भूगोल को एक सूत्र में पिरो सकने में सहायक हो। उस ग्रन्थ-रचना का उत्तरदायित्व किसी विद्वान् तथा समर्पित इतिहासज्ञ को लेना होगा, जिसको भेरी बजा कर अभियान का आडम्बर न करना हो, बल्कि अपनी अनवरत साधना से, अपनी सत्यानुसंधित्सा से तथा अपनी निष्ठा एवं आस्था से, अपने जीवन-रस के मुक्त दान से यह सिद्ध करना होगा कि आज का भारतवर्ष एक सामुदायिक भ्रान्ति में जी रहा है तथा उसे इस सामुदायिक भ्रान्ति से उबरने का मार्ग भी खोजना होगा। भारतीय मनीषा प्रस्तर-खण्डों के हृदय को चीर कर उसके रंध्रों से रस-धार बहाने की पक्षधर रही है क्योंकि उसे विनशन नहीं बनना बल्कि त्रिपथगा का निर्माण करना है तथा अंततः महाभाव के अनन्त महासागर से एकाकार होना है। हमें कल्पित भयों से नहीं जूझना है, बल्कि हमें असत्य तथा बहु-प्रचारित असत्य से जूझना है। हमें मार्ग में बिखरे काँटों से ही मात्र नहीं निपटना है, बल्कि हमें कंटकों में भी कुसुम खिलाना है तथा हमें “ममियों” से नहीं पूछना-जानना है बल्कि हमें तो अपनी जागरूक परम्पराओं से निर्देश लेना है। जब तक ऐसा नहीं होता, हमारा वास्तविक स्वर्णिम इतिहास “कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा” बन कर रहने तथा गल्प के नाम से अभिहित होने हेतु अभिशप्त है, तथा अभिशप्त है वह स्वतंत्र-चेता भी, जो मात्र अपने अतीत के प्रति आस्था के बल पर इस गल्प में इतिहास खोजने का प्रयास करता है।
किसको नमन करूं मैं? सत्य यही है, कि इस निबंध का प्रत्येक शब्द भारतीय – वाङ्मय की मूर्धन्य – मनीषा के ज्ञान से अपहृत है। नामोल्लेख करना हो तो शताधिक विद्वानों का उल्लेख करना होगा। मुझ अज्ञानी में यह क्षमता कहाँ कि इस विषय पर लेखनी चला सकूं? यह सब भारतीय वाङ्मय का ही उधार है, अतः भारतीय वाङ्मय का ही आभार है। विशेष: यह निबंध है, और मात्र एक निबंध है। इस निबंध का उद्देश्य न तो कुछ सिद्ध करना है, न ही इसके द्वारा कुछ सिद्ध कर सकना ही संभव है। अतः इस अटकलबाजी भरे निबंध से ज्ञान की आशा छोड़ कर मात्र रस की अपेक्षा ही उचित होगी। साथ ही पहले भाग की ही भांति यह निबंध भी अपूर्ण है तथा वास्तव में स्वयं में एक अलग निबंध के रूप में स्वतंत्र होते हुए भी एक अन्तःसूत्र द्वारा “सुनहु तात यह अकथ कहानी.......(भाग १)” से तथा आंशिक रूप से “उत्सव-स्तबक” से जुड़ा हुआ भी है। अतः नवीन पाठक यदि चाहें, तो उन निबंधों का सन्दर्भ ग्रहण कर सकते हैं। पुराने पाठकों के लिये भी उनका पुनर्पाठ असमीचीन नहीं होगा। और यदि इसे उन निबंधों की कड़ी मान लें तब तो यह निबंध दो भागों तक पहुंच कर भी, सुदीर्घ होते हुये भी, और भी अपूर्ण सिद्ध होता है जिसका कुछ कारण तो समयाभाव है, कुछ अन्यमनस्कता और कुछ मेरा प्रमाद। क्षमाप्रार्थी हूँ किन्तु इस अन्यमनस्कता का भी अपना कारण है। कभी दुष्यंत कुमार ने लिखा था..... कुलबुलाती चेतना के लिये सारी सृष्टि निर्जन, और कोई जगह ऐसी नहीं, सपने जहां रख दूं! दृष्टि के पथ में तिमिर है और उर में छटपटाहट, जिन्दगी! तुझको उठा कर कहाँ फेंकूं? कहाँ रख दूं? और अंततः, पाठक किसी भी रचना के महत्व का आंकलन उसके प्रतिपाद्य विषय की गंभीरता तथा अपनी रुचि से उसके तादात्म्य के आधार पर करता है किन्तु रचनाकार रचना के महत्व का आंकलन रचना के साकार होने में लगे श्रम तथा भोगी गई कठिनाइयों से करता है। आशा है संकेत समझ गये होंगे।
------------------------------------------ © त्रिलोचन नाथ तिवारी.

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कुछ स्पष्ट हुआ। धन्यवाद।

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  2. प्रणाम त्रिलोचन भैया, इस निर्बंध निबंध को पचाने में समय लगेगा।

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  3. पढ़ने की भूख होने से फेसबुक पोस्ट पर दिए लिंक को ओपन कर ब्लॉग पर आया पढ़ना शुरू किया और फिर करीब 40 मिनट के लिए शेष दुनिया गायब हो गयी । ज्ञान कितना मिला ये तो मेरी व्यक्तिगत ग्राह्य क्षमता पर निर्भर है जो कि पहले से ही निल वटा सन्नाटा मतलब शून्य सी है जिसके लिए लेखक हरगिज उत्तरदायी नहीं है किंतु ध्यान नहीं कि इतने रस के साथ कभी कुछ धार्मिक पढा हो इसके लिए साहेब को धन्यबाद बस इतना ही कह सकता हूँ कि
    न भूतो न भविष्यति
    और साथ ही dr kumar vishwas जी की किसी कविता की ये लाइन भी आपके लिए
    हमसे पूछो इतने अनुभव एक कण्ठ से कैसे गायें

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  4. नमस्कार है || अजमीढ़ जी के विषय में और जानना चाहता हूँ

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  5. दादा आप का ये निबंध पढ़ने में मुझे लगभग एक सप्ताह लग गया समयाभाव के कारण एक बार में कभी पढ़ नहीं पाया और दोबारा पढ़ना शुरू करने पर पुनः शुरुवात से पढ़ना पड़ता था..बहुत सी ऐसी बातें जिनके बारे में कभी सोचा ही नहीं उनके भी उत्तर मिल गए पर अब और भी बहुत कुछ जान लेने की पिपासा जग गयी ..सच ही कहा है कि लालच बुरी बला होती है वो चाहे किसी भी चीज की हो ...जब कुछ नहीं जानता था तो कोई प्रश्न ही नहीं था अब बहुत कुछ जान गया तो प्रश्न ही प्रश्न हो गए । दादा आपने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा कि "किसको नमन करूँ मैं ?? इस मामले में मैं कम से कम आप से अधिक भाग्यशाली हूँ क्योंकि मुझे पता है कि किसको नमन करना है :) दादा साष्टांग चरण स्पर्श स्वीकार करें _/\_ आप वास्तव में सरस्वती पुत्र हो ....माँ की ये कृपा आप पर सदैव बनी रहे यही कामना है और स्वार्थ ये कि प्रसाद स्वरूप हम अकिंचन को भी प्रसाद मिलता रहे । दादा कृपा करके इस निबंध के प्रथम भाग का लिंक उपलब्ध करवाने की कृपा करें बहुत ढूढ़ने पर भी मिल नहीं पाया मुझे । निबंध से संबंधित टिप्पड़ी करने में मैं असमर्थ हूँ और शायद अयोग्य भी फिर भी कुछ लिखना चाहता था तो पता नहीं क्या क्या लिख डाला , कोई धृष्टता हुई हो तो पुत्र समझ कर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है ��

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  6. नमन है आपकी धन्य लेखनी को, जो आज के अँधकार भरे राह में एक दीये का काम कर रहा है। 🙏🙏🙏🙏

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  7. गुरुजी प्रणाम,
    भाग एक, अप्राप्य है।

    सुनहु तात यह अकथ कहानी – भाग १

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