वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः
------------(ललित निबंध)----------------
ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। श्रीमद् भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेत वाराह कल्पै वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरत खण्डे आर्यावर्तान्तर्गतैकदेशे गोरक्षपुर नगरे बौद्धावतारे परिधावी नाम संवत्सरे श्री सूर्ये उत्तरायने शरद ऋतौ महामाँगल्यप्रद मासोत्तमे शुभ कार्तिक मासे शुक्ल पक्षे पूर्णिमायाम् तिथौ भौमवासरे विशाखा नक्षत्र स्थिते सूर्ये, भरणी नक्षत्र स्थिते चन्द्रे, वरीयान् योगे बालव करणे मेष राशि स्थिते चन्द्रे तुला राशि स्थिते सूर्ये बुधे भौमश्च, धनु राशि स्थिते देवगुरौ अर्कजश्च, वृश्चिक राशि स्थिते शुक्रः शेषेषु ग्रहेषु च यथा-यथा राशि स्थान स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह गुणगण विशेषण विशिष्टायाँ देव-दीपावली नामकं पूर्णिमायाम् शुभ पुण्य पर्व तिथौ शांडिल्य गोत्रोत्पन्न त्रिलोचन नाथ तिवारी शर्माऽहं, मम आत्मनः यथा मतिः यथा शक्तिः यथाऽवसरे राष्ट्रे जागृयाम उद्योगार्थ संकल्पंऽहं करिष्ये।
हमारे प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान के प्रारम्भ में पुरोहित द्वारा स्वस्तिवाचनोपरांत उपरोक्त संकल्प वाक्य से मिलता-जुलता एक संकल्प अपने मुख्य यजमान से उच्चारित कराया जाता है। हम सब इसे व्यर्थ न भी समझते हों, किन्तु इसकी वास्तविक उपादेयता क्या और क्यों है इससे अनभिज्ञ हैं। मेरा तो यह भी विश्वास है कि स्वयं पुरोहित भी इस संकल्प वाक्य के महत्व से अनभिज्ञ होता है तथा इस प्रक्रिया को वह मात्र एक आवश्यक आचार मान कर संपादित करता और कराता है और येन-केन-प्रकारेण यह संकल्प वाक्य दुहरा लेने के पश्चात यजमान का दायित्व तो मात्र हाथ में कुशा, अक्षत, जल एवं पुष्प लिये मूक दर्शक की रह जाती है।
किन्तु इस संकल्प वाक्य का उद्देश्य मात्र एक अनुष्ठान हेतु संकल्प दुहराना नहीं है। इस का उद्देश्य तथा महत्व इससे कहीं अधिक, बहुत ही अधिक है। इस संकल्प वाक्य का उद्देश्य पुरोहित द्वारा अपने यजमान को उसके मूल इतिहास से जोड़ते हुये उसके आदि गुणसूत्र की उस तक चली आ रही प्रवहमान धारा का स्मरण कराना, उस आदि क्षण से इस वर्तमान क्षण तक की अवधि का काल-बोधन, इस विराट अखिल ब्रह्माण्ड में उसके अणोरणीयान अस्तित्व की अविकल स्थिति बताना तथा अपने संकल्प की पूर्ति हेतु अपने पूर्वजों के उस उत्साहवर्धक गर्व-गौरव का बोध कराना है जिसके हम उत्तराधिकारी हैं। यह संकल्प वाक्य स्वयं मे एक साथ हमारा इतिहास तथा भूगोल, ग्रहों तथा नक्षत्रों तक पर अंकित हमारा ज्ञान-वैभव, हमारे अतीत से वर्तमान तक के काल-खण्ड का लेखा तथा उत्तराधिकार में प्राप्त गौरव तथा दायित्व, सबका उपदेश करता है किन्तु हम उसे न तो ध्यान से सुनते हैं, न जानते हैं, न ही जानने का प्रयत्न करते हैं।
अनेकों बार कही अपनी बात आज पुनः दुहरा रहा हूँ कि हमारा धर्म इतिहास-धर्म है। अपने इतिहास का ज्ञान हुए बिना अपने धर्म का पालन संभव नहीं है। हमारे धर्म की मौलिक भूमिका हमारे भूगोल तथा इतिहास में सन्निहित है तथा इसकी उपेक्षा कर के जिस धर्म का पालन करने का प्रयास हम करेंगे वह धर्म का निष्प्राण कंकाल मात्र होगा और इसी अर्थ में वह रूढ़िवाद होगा। अतः रूढ़ियों को त्याग कर प्राणवंत धर्म को अपनाना है तो हमें अपने धर्म में व्याख्यायित इतिहास तथा भूगोल को जानना और पहचानना होगा तभी वास्तविक धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की उपलब्धि संभव हो सकेगी। और उस इतिहास तथा भूगोल को अपने धर्म पर सदियों से जम चुकी आधुनिक इतिहासकारों की प्रायोजक मानसिकता वाले दृष्टिकोण की धूल झाड़ कर देखने पर ही देखा जाना संभव है। मात्र घटनाओं से परिचित होना इतिहास नहीं है। इतिहास को उसके उद्देश्य के साथ ग्रहण करने पर ही वह इतिहास है।
मानवशास्त्र-वेत्ताओं ने मनुष्यों को पांच मूलभूत जातियों में विभक्त किया है - काकेशियन, मंगोल या तातार, हब्शी, मलय और अमेरिकन। इनके वर्गीकरण का एक कारक इन जातियों का रंग भी है। क्रमशः इनका रंग गौर, पीत, श्याम, बादामी-भूरा तथा रक्तिम है। गौर वर्णी काकेशियन में आर्यों, सैमेटिक तथा हैमेटिक की गणना है।
आर्य जाति की आदिम एकता की साक्षी है आर्य-भाषा परिवार, जिसकी मुखिया संस्कृत है! संस्कृत, जींद, अंग्रेजी, यूनानी, लैटिन, फारसी तथा अरबी भाषाओं का मूल आर्य-भाषा ही है। संस्कृत, लैटिन तथा यूनानी आदि भाषाओं में सामान्य वार्ता, औजारों, कामों, संबंधो आदि के शब्दों की ही नहीं प्रत्युत व्याकरण की भी समानता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रकाश में आने के पश्चात सम्पूर्ण विश्व का ध्यान भारतीय वैदिक सभ्यता की ओर गया जिसके सम्बन्ध में जानकारी पाने हेतु वेदों के साथ महाभारत, पुराण, रामायण, राजतरंगिणी, जैन ग्रन्थ, जातक तथा अन्य बौद्ध ग्रन्थ तथा श्रीलंका में प्राप्त पालि भाषा के ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि में अचानक मूल्यवान हो उठे। फिर इन ग्रंथों में उल्लिल्खित भारतीय गौरव के समक्ष अपनी हीनता का भान होते ही उन्होंने वैदिक साहित्य को इतिहास की कोटि से बाहर फेंक दिया। पुराणों में वर्णित लाखों वर्षों पूर्व की ऐतिहासिक घटनाओं को उन्होंने “बस बीते हुये कल की और अधिकाँश कल्पित” सिद्ध करने का प्रयास किया तथा भारत का इतिहास ईसा पूर्व छठी शताब्दी से पुरातन मानना उनके लिये असंभव हो गया। वे मान ही नहीं सकते थे कि जब उनके पूर्वज वनों में पशुओं के साथ जीवन का संघर्ष कर रहे थे तब भारतवर्ष की आर्य जाति भवनों में रहती थी, रथों से चलती थी, उन्नत तकनीक का तथा उन्नत अस्त्र-शस्त्र का उपयोग करती थी और सभ्यता के शिखर पर आसीन आर्यों के पुरोधा एक उन्नत सामाजिक परिवेश में नीति और दर्शन के साहित्य रचते थे।
वेदों तथा पुराणों में जो घटनायें वर्णित हैं वे घटा-बढ़ा कर नहीं लिखी गयी है, बल्कि उनका सर्वाधिक महत्व तो विशुद्ध ऐतिहासिक प्रपत्रों (हिस्टोरिकल डॉक्यूमेंट्स) के ही रूप में है। यद्यपि उनमें ऐतिहासिक तथ्य मात्र प्रासंगिक हैं क्योंकि उनमें उपमा, रूपक, उदाहरण, महिमा कथन, आदि के रूप में ऐतिहासिक घटनाओं के संकेत मात्र हैं और यही कारण है उनकी सत्यता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका प्रणयन इतिहास-लेखन के दृष्टिकोण से नहीं किया गया है कि उसमें मिथ्या तथ्यों का समावेश संभव हो सके। वेदों, पुराणों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक पूर्व-पुरुषों के नाम, युद्धों की घटनायें, राज्यों, नदियों, पर्वतों आदि के वर्णन उपलब्ध हैं। पुराणों का ऐतिहासिक महत्व तो इसलिये भी है कि वे अधिक व्यवस्थित ढंग से प्रणीत हैं यद्यपि उनमें गुप्त काल तक संशोधन होता रहा अतः कतिपय स्थानों पर पुराणों में उद्देश्यपरक सन्दर्भों (मिशन ओरिएंटेड कंटेंट) का भी समावेश हो गया है।
हम अपने इतिहास को वहीं से देख सकते हैं जहां तक हम पीछे जा सकें। इस पश्चवर्ती यात्रा में हमारा प्रमुख सहयोगी है हमारी काल-गणना पद्धति और इस पद्धति में सबसे बड़ा योगदान हमारी ज्योतिष विद्या का है। हमारी काल-गणना पद्धति में सतयुग, त्रेता तथा द्वापर को त्रियुगी कहा गया है तथा पुराणों में इनकी गणना हेतु कल्पों तथा मन्वंतरों को आधार माना गया है। कल्प तथा मन्वंतर आधारित गणना पद्धति को त्याग कर इस प्राचीन काल की गणनाओं को जानने तथा अभिव्यक्त करने का हमारे पास कोई अन्य साधन ही नहीं है।
“कल्प” आर्ष भारतीय समय चक्र की एक सुदीर्घ मापन इकाई है। मानव वर्ष प्रमाण गणित के अनुसार ३६० दिन का एक दिव्य अहोरात्र या एक दिव्य दिवस होता है। ऐसे दिव्य अहोरात्रों से बने १२००० वर्ष का एक चतुर्युगी होता है। ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है और १४ मन्वन्तर या १००० चतुर्युगी का एक कल्प होता है। वैदिक ग्रन्थों में इस शब्द का उल्लेख मिलता है। मन्वंतर एक कल्प का चतुर्दश खण्ड है या कहें कि एक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं। मन्वंतर काल गणना पद्धति में समस्त भूत, वर्तमान तथा भविष्य को कल्पों एवं मन्वंतरों में विभाजित कर दिया गया है। कल्प तीस हैं जिनके नाम हमत् या भवोद्भव, हिरण्यगर्भ या तपोभव्य, ब्राह्म या ऋतु, पाद्म, वराह, सावित्र, औसिक, गांधार, कुशिक, ऋषभ, खड्ग, गांधारीय, मध्यम, वैराज, निषाद, मेघवाहन, पंचम, चित्रक, ज्ञान, आकृति, मीन, दंश, वृहक, श्वेत, लोहित, रक्त, पीतवासा, शिव, प्रभु तथा सर्वलोक हैं। अब तक हमत् कल्प, हिरण्यगर्भ कल्प, ब्राह्म कल्प तथा पाद्म कल्प व्यतीत हो चुके हैं तथा श्वेतवराह कल्प चल रहा है जिसमें अब तक वराह कल्प के छः मन्वंतर स्वायम्भु मनु, स्वारोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं व्यतीत हो चुके, सातवाँ वैवस्वत मनु का मन्वंतर चल रहा है तथा सात और मन्वंतर हैं जिन के मनुओं के नाम सावर्णि मनु, दक्ष सावर्णि मनु, ब्रह्म सावर्णि मनु, धर्म सावर्णि मनु, रुद्र सावर्णि मनु, रौच्य या देव सावर्णि मनु तथा भौत या इन्द्र सावर्णि मनु हैं जो भविष्य में आने वाले हैं।
एक मन्वंतर में ७१ चतुर्युगी से भी कुछ अधिक का समय माना गया है तथा एक चतुर्युगी में सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग नाम के चार युग माने गये हैं। सतयुग की अवधि ४००० वर्ष, फिर ४०० वर्ष की संध्या और ४०० वर्ष का संध्यांश, फिर ३००० वर्ष का त्रेता तथा ३०० वर्ष की संध्या और ३०० वर्ष का संध्यांश, द्वापर में २००० वर्ष तथा २०० वर्ष की संध्या तथा २०० वर्ष संध्यांश और कलियुग में १००० वर्ष तथा १०० वर्ष की संध्या तथा १०० वर्ष का संध्यांश इस प्रकार एक चतुर्युगी में १२००० वर्ष होते हैं। यह वर्ष भी सामान्य मानव वर्ष नहीं हैं बल्कि ये देव-वर्ष हैं जिनका एक वर्ष का मान ३६० मानव वर्ष तुल्य है। इस प्रकार एक चतुर्युगी में - सत्युग १७,२८,००० वर्ष; त्रेता १२,९६,००० वर्ष; द्वापर ८,६४,००० वर्ष और कलियुग ४,३२,००० वर्ष। अतएव एक कल्प १००० चतुर्युगों के बराबर यानी चार अरब बत्तीस करोड़ ४,३२,००,००, ००० मानव वर्ष होते हैं। एक मन्वंतर में ७२ चतुर्युगी के आधार पर ७२ गुणे ४३,२०,०००,००० अर्थात ३१,१०,४०,००० वर्ष हुए। और यह एक मन्वंतर की काल-अवधि है। संकल्प वाक्य में उल्लिखित “वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथमचरणे” के आधार पर हम आज सातवें मन्वंतर के अट्ठाईसवें युग अर्थात सातवीं चतुर्युगी के अंतिम युग, कलियुग के प्रथम चरण में हैं। इतने वर्षों की गणना करना और लिखना भी दुष्कर है। यद्यपि इन संख्याओं में कुछ अतिशयोक्ति अवश्य है, किन्तु यह श्रीमद् भागवत, विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण तथा महाभारत वन पर्व के आधार पर है।
युग शब्द एक अन्य काल खण्ड को भी व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त होता है। ज्योतिष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध खगोल से है। ज्योतिष के विकास के साथ काल-मापन की माध्य तथा सूक्ष्म इकाइयों के नामकरण क्रम में पांच मानव-वर्षों को जिन्हें वत्सर कहते हैं और जिनके नाम संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर तथा युगवत्सर हैं, को भी समेकित रूप से एक युग माना गया है तथा इन पाँच वत्सरों से बने क्रमागत द्वादश युग परम्परागत रूप से क्रमशः प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति, तथा क्षय हैं। इस नामकरण का आधार बृहस्पति नामक ग्रह की खमण्डल में सूर्य के चतुर्दिक परिक्रमा अवधि तथा आंशिक गति है जिसका प्रारम्भ कुम्भ राशिस्थ गुरु से होता है। इन बारह युगों के पांचो वत्सर जिन साठ संवत्सरों का समूह बनाते हैं उनके पृथक नाम भी हैं जो क्रमशः प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद आदि हैं। अधिक विस्तार से विषयांतर का संकट है अतः इस विषय तथा प्रकरण में रुचि रखने वाले पाठकों हेतु अंतर्जाल-पत्रिका मघा में प्रकाशित मेरे आलेख “मृग ढूंढे वन मांहि” तथा ऐसे ही कतिपय अन्य ज्योतिष-विषयक आलेखों का अवलोकन उचित होगा।
अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि यह संकल्प वाक्य हमें इस वाक्य-खण्ड के माध्यम से क्या स्मरण कराने का प्रयत्न कर रहा है तथा यह जान कर आपको कुछ गर्वानुभूति अवश्य हुई होगी कि हम वह हैं जिसके गुणसूत्रों की जीवनधारा इतने वर्षों से अविच्छिन्न है।
ठीक है कि हमारे गुणसूत्रों की जीवनधारा इतने वर्षों से अविच्छिन्न है, तो इससे क्या? यह तो समय की एक गणना मात्र है! कीट-पतंगों की जीवनधारा भी तो इतने वर्षों से अविच्छिन्न ही है। किन्तु नहीं! हम कीट-पतंग नहीं! हम अन्य पाश्चात्य नृवंश-संतति भी नहीं! हम भारतीय हैं जिनके पास इतना पुरातन इतिहास है तथा इस इतिहास से संश्लिष्ट एक विशाल भूगोल भी हमारा रहा है। विशेष तथा विस्तृत तो हम आगे देखेंगे किन्तु तत्काल में उदाहरण के लिए इतना ही बताना पर्याप्त है कि जिस सिन्धु घाटी सभ्यता को पुरातत्वविद् ३२५० वर्ष ईसा पूर्व का मानते हैं वह वास्तव में भारतीयों के “मनुर्भरतों” का काल-खंड है जो छठवें मन्वंतर जिसका नाम चाक्षुष मन्वंतर था उसके प्रारम्भिक वर्षों में हुये। सिन्धु घाटी सभ्यता के लेख अब तक पढ़े नहीं जा सके हैं, किन्तु जिस दिन उनका अर्थ उद्घाटित हुआ, उस दिन यही तथ्य सामने आयेगा कि वह सभ्यता मनुर्भरतों से सम्बंधित थी, क्योंकि वह काल-खण्ड ही मनुर्भरतों से सम्बंधित है। कभी - कभी तो यह संदेह भी होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि पढ़ी जा चुकी है किन्तु उसे उद्देश्यपरक ढंग से छिपाया जा रहा है।
छठे मन्वंतर के मनु “महाराज चाक्षुष” के ग्यारह पुत्रों में छह पुत्र अत्यराति जानन्तपति, मन्यु अभिमन्यु, उर, पुर, तपोरत, तथा सुद्युम्न ही “मनुर्भरत” हैं जिनमें से प्रथम पांच क्रमशः आर्मेनिया के अर्राट (अत्यराति), यूनान के मेम्नोन-मैन्यों या आगा मेम्नन (अभिमन्यु), एलाम और बेबीलोनिया के उर, पर्शिया के संस्थापक पुर, तथा तपूरिया के तपोरितेई (तपोरत) हैं। ये मनुर्भरत चाक्षुष मनु के सर्वजयी पुत्रों के रूप में जाने जाते हैं।
अतः हमारे लिये अविच्छिन्न गुणसूत्रों की जीवनधारा इस हेतु महत्वपूर्ण है कि ये गुणसूत्र हमने जिन पूर्वजों से पाये हैं उनका एक तेजपूर्ण तथा गौरवशाली इतिहास रहा है और हमारा पुरोहित हमें उस गौरव का ही स्मरण दिलाता है जिसे विस्मृत कर हम स्वयं को हेय समझते हुए जिये जा रहे हैं तथा यह मान कर संतुष्ट हैं कि पण्डित जी तो व्यर्थ गिटर-पिटर कर के हमें तथा आपको मूर्ख बनाते हैं। तो पुरोहित के मन्त्रों को रूढ़ि मान कर तथा पाश्चात्य इतिहासकारों के लतीफों को ज्ञान कह कर शिरोधार्य करने पर हमें इसके अतिरिक्त और प्राप्त भी क्या हो सकता है?
स्वायम्भुव मनु से पूर्व की ऐतिहासिक घटनाओं तथा पुरुषों का विवरण अनुपलब्ध है अतः हमारा ज्ञात इतिहास स्वायम्भुव मनु से ही प्रारम्भ होता है। स्वयम्भुव मनु की पत्नी का नाम शतरूपा था। इन दोनो के तीन पुत्रियाँ आकूति, प्रकूति एवं देवहूति तथा दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद थे। प्रियव्रत तथा उत्तानपाद वार्धक्य में प्राप्त संतान थे। प्रियव्रत तथा उत्तानपाद के वंशजों ने ही पैंतालिस पीढ़ियों तक तत्कालीन सम्पूर्ण नृवंश का प्रजापत्य भोगा। प्रियव्रत की वंशावली प्रियव्रत – शाखा तथा उत्तानपाद की वंशावली उत्तानपाद-शाखा कहलाई।
स्वायम्भुव मनु की तीन कन्याओं में देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ था जिनका पुत्र “कपिल” विश्वविश्रुत ‘सांख्य दर्शन’ का रचयिता था। कर्दम ऋषि की पुत्री तथा कपिल की बहन से ही प्रियव्रत का विवाह हुआ जिससे उनके दस पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थीं। प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र का नाम अग्नीन्ध्र था। वायुपुराण के “अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम” के आधार पर कुछ लोग यह मानते हैं कि अग्नीन्ध्र प्रियव्रत की पुत्री के पुत्र थे जिन्हें उन्होंने दत्तक पुत्र के रूप में अपना लिया था। किन्तु प्रियव्रत के अन्य पुत्रों के नाम अग्निबाहु, वपुष्मान, द्युतिमान, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन, पुत्र, तथा ज्योतिष्मान भी प्राप्त होते हैं और इसी कारण वायु पुराण के इस “कन्यापुत्रं” पर शंका होती है। किन्तु यह हो भी सकता है, क्योंकि आज लोक-आस्था का पर्व कह कर बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंचलों से निकल कर देश-देशान्तर में जो “छठी मैया का व्रत” प्रचलित है वह “षष्ठी व्रत” महाराज प्रियव्रत ने ही चलाया था। चलाया था, ऐसा कहना बहुत उचित नहीं है, बल्कि यह कहना चाहिये कि सर्वप्रथम उन्होंने ही इस व्रत का, जो मात्र एक व्रत नहीं, एक विशिष्ट अनुष्ठान है, का आयोजन तथा पालन किया और इस व्रत का एक फल पुत्रलाभ भी कहा गया है। निश्चय ही उस काल इस व्रत का स्वरुप आज के स्वरुप से भिन्न था, किन्तु उस पर विमर्श निरर्थक है। इतना अवश्य है कि अपने मूल में यह अनुष्ठान धार्मिक नहीं, बल्कि एक चिकित्सकीय अनुष्ठान था और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का अनुष्ठान था। यह व्रत उस समय प्रारम्भ हुआ जब चिकित्सा की कोई अन्य पद्धति अस्तित्व में ही नहीं थी, आयुर्वेद भी नहीं। उपवास के साथ मृदा, जल, अग्नि, वायु तथा आकाशीय पिण्डों में सूर्य तथा चन्द्रमा की रश्मियाँ ही उपचार हेतु प्रयुक्त हुआ करती थीं। यही कारण है कि इस व्रत की विधियों के पालन करने या कराने में किसी पुरोहित की कोई भूमिका न तब थी न ही अब होती है। तो हो सकता है कि अग्नीन्ध्र को गोद लेने के पश्चात प्रियव्रत ने यह व्रत किया हो और फिर उन्हें अपने औरस पुत्र प्राप्त हुए हों जिससे लोक आस्था को बल भी मिला हो। कालान्तर में इस अनुष्ठान के अधिकतम सफलता प्रतिशत ने इसको आस्था का अनुष्ठान बना दिया तथा लोकमानस ने इस अनुष्ठान में वह सब जोड़ दिया जो उसकी दृष्टि में उसकी अपनी श्रद्धा को व्यक्त करने तथा आस्था को पुष्ट करने में सहायक हो सके। कालान्तर में सूर्य, उषा-प्रत्युषा, स्कन्द, देवसेना आदि भी इस अनुष्ठान से जुड़ते गये। ज्योतिष से इसे सम्बद्ध करने के प्रयास में कृतिका नक्षत्र भी इस अनुष्ठान से आ जुड़ा। इसमें दर्शन-तत्व का समायोजन “प्रकृति के षष्ठांश की उपासना” के रूप में हुआ। किन्तु यह सब हैं बाद के समायोजन-नियोजन ही, क्योंकि ये अवधारणायें, जिस काल में यह व्रत प्रारम्भ हुआ उस काल में स्थापित ही नहीं हुई थीं। और इससे यह भी प्रमाणित होता है कि यह अनुष्ठान उस काल भी कितना लोकप्रिय तथा कितना प्रचलित था कि जिसने भी अवसर पाया, इस व्रत एवं अनुष्ठान की महत्ता की अभिवृद्धि हेतु अपने मन को भाती, अपनी बुद्धि को उचित प्रतीत होती तथा अपनी आस्था को बल प्रदान करती अपनी एक कहानी इस आयोजन के साथ गूंथ दी। इन अवधारणाओं के समायोजन से अनुष्ठान के परिणाम में कोई उल्लेखनीय वृद्धि भले न हुई हो, हानि भी कुछ न था, बल्कि लाभ अवश्य हुआ कि अनुष्ठान का प्राथमिक उद्देश्य भले विस्मृत होता गया, आस्था के नियंत्रण में अनुष्ठान की विधियाँ बची रहीं।
कुछ लोग इस अनुष्ठान को सस्योत्सव (फसल कटने का उत्सव) मानते हैं, किन्तु यह धारणा भी ग्राह्य तथा उचित नहीं है क्योंकि जिस काल का यह व्रत है उस काल कृषि का ही अस्तित्व नहीं था। यह व्रत स्वायम्भुव मन्वंतर के प्रारम्भिक वर्षों में ही प्रारम्भ हुआ जबकि कृषि-कर्म तो चाक्षुष मन्वंतर तक प्रारम्भ ही नहीं हुआ था। उस समय भूमि “अहल्या” तथा उपज “अकृष्टपच्या” थी। स्वाभाविक रूप से धरा पर जो अन्न उग आता था उसी का संग्रह कर लिया जाता था जो अकृष्टपच्या अन्न कहलाता था। घरों में दुधारू पशु भी नहीं पाले जाते थे। स्वच्छंद चरती गौवों को, यदि वे दुधारू होती थीं तो गवेषणा करके, पकड़ कर दूह लिया जाता था और फिर छोड़ दिया जाता था। अश्व अपवाद है क्योंकि अश्व को प्रथम आर्य-पशु माना गया है, जिसका तात्पर्य है कि आर्यों ने जो प्रथम पशु पाला था वह अश्व था।
न सस्यानि न गो रक्षा न कृषिर्नवणिकपथः।
चाक्षुष्यान्तरे पूर्वं मतदासीत पुरा किल।।
(वायुपुराण ६२/१७२)
तैत्तरीय तथा ताण्ड्य आदि ब्राह्मण ग्रंथों तथा महाभारत आदि में ऐसे अकृष्टपच्या अन्न को बहुत पवित्र माना गया है। यही कारण है कि किसी भी व्रत में कृषिकर्म या वाणिज्य द्वारा उपलब्ध कोई भी आहार वर्जित है। अकृष्टपच्या अन्न यदि उपलब्ध हो तो उसे व्रत में ग्रहण किया जा सकता है। जो भी हो, अग्नीन्ध्र प्रियव्रत के औरस पुत्र रहे हों या नहीं, किन्तु उनके प्रथम उत्तराधिकारी वे ही थे। यह निबंध-शृंखला मेरे स्वयं के अपने अटकल-पच्चुओं के समर्थन में कुछ अभिलिखित प्रमाण खोजने का एक प्रयास भी है, किन्तु यदि वे उपलब्ध न हो सकें तो “वेद के स्थान पर लबेद” से भी मुझे कोई विरक्ति नहीं है, यदि वह सटीक हो, क्योंकि मेरा उद्देश्य किसी तथ्य के स्थापन या विस्थापन का नहीं है। खण्डन या मंडन से परे, बुद्धि-विलास के माध्यम से कुछ चिंतन-बिन्दुओं को उकेर देना तथा उनके माध्यम से स्वयं अपने ही भ्रमों के ऊर्णनाभ-जाल से बाहर निकलना मात्र ही इस सब का एकमात्र उद्देश्य है। स्कन्द पुराण में प्रियव्रत के साथ षष्ठी व्रत का उल्लेख तथा वायु पुराण के मन्वंतर संबंधी साक्ष्य कहानियों में छिपे तथ्य-सूत्र का संकेत कर देते हैं जिन्हें समझना, या न समझना, या समझ कर भी न समझना, हम पर निर्भर करता है। अस्तु! उत्तानपाद के दो पुत्र ध्रुव तथा उत्तम हुये।
प्रियव्रत ने ही सर्वप्रथम पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों के नामकरण किये तथा उनकी सीमा निर्धारित की जो देश कहलाये। आज का पर्शिया उस समय चार भागों सुग्द, मर्व, हरिपुर तथा निशा में बंटा था। प्रियव्रत ने इन भागों के साथ ही हरपू, हरितपुर, तथा वक्रित (आज का काबुल) को सम्मिलित रूप से अधिकृत कर अपना साम्राज्य और विशाल कर लिया तथा अपना सम्पूर्ण साम्राज्य तेरह भागों में विभाजित कर अपने तथा उत्तानपाद के पुत्रों में बांट दिया। शतरूपा की संतति होने के कारण उन सभी भागों के स्वामी शत्रप कहलाये जो बाद में अपभ्रंश के रूप में ‘क्षत्रप’ के रूप में प्रचलित रहा जो आजकल के गवर्नर पद का समानार्थी है।
प्रियव्रत ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का आधिपत्य सौंपा था। बंटवारे में मेधातिथि को प्लक्ष द्वीप, वपुष्मान को शाल्मल द्वीप, ज्योतिष्मान को कुश द्वीप, द्युतिमान को क्रौंच द्वीप, भव्य को शाक द्वीप तथा सवन को पुष्कर द्वीप प्राप्त हुआ।
अग्नीन्ध्र के नौ पुत्र नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलाव्रत, रम्यक, हिरष्यकानु या हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल थे। अग्नीन्ध्र ने अपने आधिपत्य के जम्बू द्वीप (आज का एशिया) को नौ भागों में विभाजित कर नाभि को ‘हिमवर्ष (हिमालय से अरब सागर पर्यंत भूमि)’ किम्पुरुष को ‘किम्पुरुषवर्ष (उत्तरी चीन)’, हरि को ‘हरिवर्ष (पूर्वी चीन)’, इलव्रत (या इलावृत) को ‘इलावर्ष (पामीर का क्षेत्र)’, रम्यक को ‘रम्यकवर्ष (चीनी तातार)’, हिरण्मय को ‘हिरण्मयवर्ष (मंगोलिया)’, कुरु को ‘कुरुवर्ष (साइबेरिया)’, भद्राश्व को ‘भद्राश्ववर्ष (दक्षिणी चीन)’, तथा केतुमाल को ‘केतुमालवर्ष (रूसी तुर्किस्तान)’ प्रदान किया। इस प्रकार महाराज नाभि ‘हिमवर्ष’ क्षेत्र के अधिपति हुये तथा उनके अन्य भ्राता अरब से लेकर मंगोलिया, चीन, मंचूरिया आदि तक के शासक हुये।
अग्नीन्ध्र के नौ पुत्र नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलाव्रत, रम्यक, हिरष्यकानु या हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल थे। अग्नीन्ध्र ने अपने आधिपत्य के जम्बू द्वीप (आज का एशिया) को नौ भागों में विभाजित कर नाभि को ‘हिमवर्ष (हिमालय से अरब सागर पर्यंत भूमि)’ किम्पुरुष को ‘किम्पुरुषवर्ष (उत्तरी चीन)’, हरि को ‘हरिवर्ष (पूर्वी चीन)’, इलव्रत (या इलावृत) को ‘इलावर्ष (पामीर का क्षेत्र)’, रम्यक को ‘रम्यकवर्ष (चीनी तातार)’, हिरण्मय को ‘हिरण्मयवर्ष (मंगोलिया)’, कुरु को ‘कुरुवर्ष (साइबेरिया)’, भद्राश्व को ‘भद्राश्ववर्ष (दक्षिणी चीन)’, तथा केतुमाल को ‘केतुमालवर्ष (रूसी तुर्किस्तान)’ प्रदान किया। इस प्रकार महाराज नाभि ‘हिमवर्ष’ क्षेत्र के अधिपति हुये तथा उनके अन्य भ्राता अरब से लेकर मंगोलिया, चीन, मंचूरिया आदि तक के शासक हुये।
प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः ।
तस्याग्नीन्ध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्स्मृतः॥ १५ ॥
तमाहुः वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥ १६ ॥
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
विख्यातं वर्षमेतद्यत् नाम्ना भारतमद्भुतम् ॥ १७ ॥
(श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्ध ११/अध्याय २)
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सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु० ३७, ३८)
इस प्रकार महाराज नाभि भारत के प्रजापति हुए। नाभि के ही एक पुत्र महात्यागी ऋषभ देव हुये जिन्हें जैन-मतावलम्बी अपना आदि तीर्थंकर मानते हैं। ऋषभ देव के पुत्र भरत हुए जिनका एक नाम जड़भरत भी है। इन्हें मनुभरत भी कहते हैं तथा इन्हें ही भरत चक्रवर्ती भी कहा जाता है जिनके नाम पर ‘हिमवर्ष’ खण्ड अर्थात् हिमालय से अरब सागर तक के क्षेत्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। इन्होनें भारतवर्ष सहित अन्य द्वीपों इंद्र द्वीप, कसेरु द्वीप, ताम्रलिप्ति, गोमस्तिमान, नागवर, सौम्य, गंधर्व द्वीप तथा वरुण द्वीप पर अपना आधिपत्य स्थापित किया जो आज के सिंधु, कच्छ, सीलोन, अण्डमान, नीकोबार, सुमात्रा, जावा तथा बोर्नियो हैं। पश्चात्, इन्होने अपने अधिकार-क्षेत्र की भूमि को नौ भागों में विभाजित किया। इस नौ भागों में प्रमुख भारतवर्ष का भाग ही संभवतः भरत-खण्ड था। भरत खण्ड में भी विन्ध्याचल से उत्तर का भाग आर्यावर्त तथा दक्षिण का भाग दक्षिणापथ कहलाया। तभी से भरतों को आठ द्वीप सहित नौ खण्डों का स्वामी माना जाता है। हमारी दादी-नानी की कथा-कहानियों में आठ द्वीप-नौ खण्ड का जो उल्लेख आता है वह इसी की अनुस्मृतियाँ हैं।
स्पष्ट है कि प्रियव्रत का अनुशासन आज की भारतभूमि से बाहर के अन्य क्षेत्रों पर भी था और यह अनुशासन “प्रजापति” के विरुद के साथ था। विभिन्न भागों पर शासन भिन्न-भिन्न लोग करते थे, किन्तु उन शासकों पर अनुशासन प्रियव्रत का था। प्रजापति शब्द का मूलार्थ यही है। जैसा कि मैंने अन्यत्र उल्लेख किया है, कतिपय शब्दों के व्युत्पत्ति निमित्त कुछ और थे जो कालान्तर में परिवर्तित हो गये तथा उनके प्रवृत्ति-निमित्त आज कुछ और हैं। प्रजापति तथा ब्रह्मा का आदि उत्स-तात्पर्य नितान्त भिन्न है।
प्रियव्रत के पुत्रों में अग्नीन्ध्र के पुत्र नाभि तो हिमवर्ष खण्ड अर्थात् आज के भारतवर्ष के शासक रहे किन्तु नाभि के अन्य भ्राता भारतवर्ष से बाहर के क्षेत्रों के शासक हुये।
मनु तथा प्रजापति शब्द भी स्वयं में प्रागैतिहासिक काल के इतिहास के पारिभाषिक शब्द हैं। मनु वे कहे गये जिनके नाम पर मन्वंतर नामक काल-खण्ड का नामकरण किया गया। निश्चित ही उन्होंने अपने जीवनकाल में प्रजापत्य का निर्वाह भी किया, किन्तु उनका व्यक्तित्व तथा कृतित्व इतना महान था कि वे किसी एक काल-खण्ड के नामकरण का हेतु भी बन गये। वे मनु हो गये। अन्य प्रजापति, अपनी समस्त शासकीय क्षमताओं के बाद भी, अपनी समस्त महानताओं के बाद भी, किसी मन्वंतर के नामकरण का हेतु न बन सके, सत्ता के शीर्ष पर अवश्य रहे किन्तु काल-शीर्ष पर स्थापित न हो सके, वे मात्र प्रजापति कहे गये। प्रजापति सत्ता के शीर्षस्थानीय पद का बोधक है।
प्रियव्रत की यथा-ज्ञात वंशावली इस प्रकार है ....
प्रियव्रत > अग्नीन्ध्र > नाभि > ऋषभदेव > भरत या जड़भरत > सुमति > इन्द्रद्युम्न > परमेष्ठि > प्रतिहार > प्रतिहर्ता > भुव > उद्रगीम्य > प्रस्तार > प्रथु > नक्त > गय > नर > विराट् > महावीर्य > धीमान > महान् > मनुस्थ > त्वेष्टा > विरज > रज > विषग्ज्योति।
ये छब्बीस नाम वंशावली में क्रमागत ज्येष्ठ पुत्रों के नाम हैं जो ज्ञात या उपलब्ध हैं। वंशावली के प्रत्येक सदस्य का नाम वंशवृक्ष की भांति न लिख पाने की मेरी असमर्थता मेरी अपनी तथा विषयगत विवशता भी है।
स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत की संततियों में सताइसवीं पीढ़ी के पश्चात् चार मनु हुये – स्वारोचितष, उत्तम, तामस, तथा रैवत। मनु तामस मनु उत्तम के पुत्र थे। प्रश्न उठ सकता है कि दो क्रमशः पिता-पुत्र मनु की उपाधि कैसे पा सकते हैं जबकि एक मन्वंतर का काल-खण्ड इतना विस्तृत है? उत्तर यह है कि नामकरण हेतु यह आवश्यक नहीं कि किसी मन्वंतर का नाम उसी व्यक्ति के नाम पर हो जो उस काल-खण्ड में जीवित हो। यदि ऐसा होना आवश्यक होता तो आज के अनगिन सुभाषनगर तथा विवेकानन्दपुरी आदि का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। नामकरण हेतु किसी व्यक्ति के नाम के चुनाव में उसकी नहीं, उसके व्यक्तित्व तथा कृतित्व की शाश्वतता प्रमाण होती है।
स्वारोचितष मन्वंतर की महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय घटना चैत्र वंशीय ‘सुरथ’ से सम्बंधित है जो ‘कोला’ नगर का अधिपति था तथा जिसे उसके शत्रुओं ने अपदस्थ कर दिया था। बाद में उसके सहयोगी क्षत्रियों ने उसे पुनर्प्रतिष्ठित किया। इसी काल-खण्ड की एक घटना दक्षिण-क्षेत्र के महिष जाति का भरतों पर आक्रमण था जिससे त्रस्त भरतों ने देवी नाम की महिला योद्धा के सेनापतित्व के अधीन रह कर उनका प्रतिकार किया। स्कन्दपुराण, देवी-भागवत तथा दुर्गा-शप्तशती आदि उसी काल-खण्ड का इतिहास व्यक्त करते हैं।
उत्तम मन्वंतर तथा तामस मन्वंतर का मात्र नामोल्लेख उपलब्ध है। इस काल-खण्ड की कोई उल्लेखनीय घटना संज्ञान में नहीं है किन्तु अध्येता-जन उनका अन्वेषण करने को स्वतंत्र हैं।
रैवत मन्वंतर की महत्वपूर्ण घटना है बैकुण्ठ की स्थापना। तपसी बिकुण्ठा के पुत्र बैकुण्ठ ने बैकुण्ठ नामक नगरी बसायी जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में प्राप्त होता है। यह नगरी आगे चल कर महाराज अत्यराति जानन्तपति की राजधानी बनी।
धरा के प्रजापत्य का अधिकार पैंतीस पीढ़ी तक प्रियव्रत की संततियों में रहा किन्तु काल के प्रहसन अचिन्त्य होते हैं। वंश-लोप के कारण छत्तीसवीं पीढी में यह अधिकार प्रियव्रत के भ्राता उत्तानपाद के संततियों के हाथ आया। उत्तानपाद की दो पत्नियों सुनीति तथा सुरुचि से उनके दो पुत्र ध्रुव तथा उत्तम थे जिनमें ध्रुव ने अपने पिता तथा विमाता से रुष्ट हो गृह त्याग वन चले गये थे किन्तु एक युद्ध में उत्तम की मृत्यु हो जाने पर उन्हें वापस बुलाया गया तथा वंशबेलि आगे बढ़ी। यह “वन” शब्द भी हमारे पुरा-आख्यानों में एक विचित्र ही भ्रमोत्पादक शब्द रहा है, किन्तु यहाँ मुझे मात्र इतना संकेत करना है कि इसका तात्पर्य “जांगल-प्रदेश” न हो कर कुछ अन्य ही है। यही ध्रुव अपने धीर-वीर स्वभाव तथा दृढ़-चित्त के कारण पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के सापेक्ष स्थिर रहने वाले तारे के नामकरण का आधार बने जिसे हम ध्रुव-तारा कहते हैं। ध्रुव के पुत्र श्लिष्ट भव्य, तथा श्लिष्ट भव्य के पुत्र आय हुए। आय के आगे की वंशावली अप्राप्त है किन्तु प्रियव्रत शाखा के वंश-लोप के कारण प्रजापत्य उत्तानपाद के वंश के तत्कालीन प्रतिनिधि चाक्षुष को प्राप्त हुआ तथा उनके नाम से चाक्षुष मन्वंतर भी चला, अतः वहाँ से आगे की वंशावली उपलब्ध है। इस प्रकार चाक्षुष छत्तीसवें प्रजापति तथा छठवें मनु हुए।
चाक्षुष के छह पुत्रों अत्यराति जानन्तपति, अभिमन्यु, उर, पुर, तपोरत, तथा सुद्युम्न जो “मनुर्भरत” के नाम से विख्यात हुए उनका उल्लेख किया जा चुका है। अत्यराति जानन्तपति की गणना प्राचीन बारह चक्रवर्ती व्यक्तित्वों में प्रथम स्थान पर होती है। उन्हें आसमुद्र क्षितीश भी कहा गया है। उनके राज्य की सीमा पश्चिम में आर्द्रपुर तक थी जो आर्द्र सागर के तट पर था। वर्तमान भारत को स्पर्श करता पर्शिया का पूर्वी भाग जो आज सत्यागिदी के नाम से जाना जाता है वही उस काल में सत्यलोक कहलाता था। उसी के निकट सुमेरु के अंचल में बैकुण्ठ धाम था जो आज देमावंद पर्वत या ऐलबुर्ज के पास का आज का ईरानियों का पैराडाइज है। अत्यराति ने इसी बैकुण्ठ को अपनी राजधानी बनाई। ईरान का अर्रात पर्वत अत्यराति के नाम को आज तक सहेजे हुए है।
पाश्चात्य कवियों की तुलना भारतीय संस्कृत साहित्य के प्रणेताओं के साथ करना नितांत असंगत है। कोई इसे मेरी संकीर्ण मानसिकता समझे, या पाश्चात्य भाषाओं में मेरी गति का अभाव, किन्तु मेरे मतानुसार भारतीय संस्कृत साहित्य प्रत्येक दृष्टि से विश्व का श्रेष्ठतम है। फिर भी यदि किसी पाश्चात्य शास्त्रीय काव्य-प्रणेता का नाम लेना ही हो तो यूनानी साहित्य की मुकुट-मणि इलियड, तथा ओडेसी के रचयिता ऋषि-कल्प ‘होमर’ का नाम निर्विवाद रूप से उनमें प्रथम स्थानीय है। होमर ने अपने इलियड महाकाव्य में एकीलीज के क्रोध का गान किया। गान किया, लेखन नहीं, क्योंकि वे जन्मांध थे।
इलियड का वास्तविक रस मुझे प्राप्त नहीं हो सका क्योंकि मूल ग्रन्थ को मूल भाषा में न पढ़ सकने की असमर्थता थी, किन्तु अनूदित रूप में उसकी रुचिकर कथावस्तु के साथ डूबने – उतराने में कोई बाधा न थी। फिर भी एक शंका अवश्य उग आयी थी।
इलियड के मंगलाचरण में ही होमर अपने विषय का मूल बीज व्यक्त कर देता है – “ओ देवी! तू एकिलीज के महान क्रोध का गान कर!” और ट्रॉय युद्ध के अंतिम चरण के मात्र पचास दिनों का घटनाक्रम चौबीस सर्गों में फैले सम्पूर्ण इलियड महाकाव्य के रूप में मात्र क्रोध का ही गान है। कथानक का यहाँ उल्लेख निरर्थक है क्योंकि उसे सभी जानते हैं। वही, ट्रॉय का युद्ध, ट्रॉय पर विजय और ट्रॉय का ध्वंस! जिसका कारण था इलियन के राजा प्रियम के पुत्र हृदिकातर या हृत्कातर (हेक्टर) द्वारा स्पार्टा की परम सुन्दरी रानी हेलेन का उसके पति की अनुपस्थिति में अपहरण। हेलेन को पुनः प्राप्त करने हेतु मेनेलाउस की सहायता के उद्देश्य से आगामेम्नन ने अपने माण्डलिक शासकों के साथ इलियन पर आक्रमण किया था। इलियन ट्रॉय का ही तात्कालिक नाम था। एकिलीज आगामेम्नन का माण्डलिक था। एक सामान्य सामन्त! और यही मेरी शंका का कारण था। शंका यह थी कि होमर ने घटना-क्रम के मूल तथा नायकत्व के गुणों से ओत-प्रोत चरित्रों तथा पात्रों के स्थान पर एक सहायक पात्र को अपने आख्यान का नायक क्यों चुना? बाद में मन को समझा लिया। कवि की अपनी रुचि, अपनी पक्षधरता, अपनी धारणायें, और पात्र तथा कथानक से उसका अपना जुड़ाव कथानकों तथा नायकों के चयन का कारण हुआ ही करती हैं। और जितना इलियड से ज्ञात होता है, उसके अनुसार एकिलीज का पद एक साधारण सामन्त का भले रहा हो, उसमें नायकत्व के समस्त गुण विद्यमान थे।
यह एकिलीज तो स्पष्टतः “अखिल्लेश” या “अखिलेश” शब्द का यूनानी संस्करण है किन्तु ‘आगामेम्नन’ कौन था?
यह आगामेम्नन या मेम्नोन मन्यो या ऐन्ग्रा मैन्यो, महाराज चाक्षुष का द्वितीय पुत्र, महाराज अत्यराति का भाई मन्यु अभिमन्यु था। इसी ने अर्जनम (Arzanem) में अभिमन्यु दुर्ग (Aphumon) बनवाया था। इसकी राजधानी ‘सुषा’ थी। सुषा को संसार की प्राचीन नगरियों में से एक माना जाता है तथा पर्शिया की खाड़ी के निकट, सुमेर प्रांत में यह अब तक विद्यमान है। मत्स्य पुराण अध्याय २३ श्लोक २२ में इस नगरी का उल्लेख है - ‘सुषा नाम पुरी रम्या, वरुस्याम्पिधीमतः’। पुरातात्विक उत्खनन में वहाँ ८००० वर्ष पुरानी सभ्यता के संकेत तथा उस काल के वस्तुओं के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया के अनुसार - Memnon, who came to the aid of Troy leading an army of Susians (Susa). -History of Persia, Vol. 1 Pg. 55, तथा Susa or Shush or City of Memnon, the ancient capital of Elam and the oldest known site of world. – History of Persia Vol. 1 pg. 59, से भी यह तथ्य स्थापित होता है।
ट्रॉय के युद्ध का परिणाम भी सर्वज्ञात है। अखिलेश ने प्रारम्भ में तो स्वयं तथा अपनी ‘पिपीलिका’ सैन्य, जो किसी शत्रु को चींटियों की भांति झुण्ड में घेर कर मार देती थी, को युद्ध से विरत रखा था, किन्तु युद्ध मे हृत्कातर के हाथों छल पूर्वक अपने मित्र पात्रोक्लस (प्रतिकुलिश) के वीरगति पाने के पश्चात उपजे अमर्ष तथा प्रतिशोध की भावना से भरा वह युद्ध में सम्मिलित हुआ तथा इलियन के राजकुमार हृत्कातर का वध कर के उसके शव के पैर रथ के पिछले भाग से बाँध कर सारे युद्धक्षेत्र में तब तक घसीटता रहा जब तक उस दिन का युद्ध समाप्त नहीं हो गया। उसने अपने मित्र की अंत्येष्टि भी तब तक नहीं की जब तक उसने हृत्कातर का वध नहीं कर दिया। किन्तु हृत्कातर की मृत्यु के पश्चात भी इलियन के शासक प्रियम ने पराजय स्वीकार नहीं की और न ही हेलेन को लौटाया। और तब अभिमन्यु की ही मेधा ने उस काष्ठ-सैन्धव, उस काठ के घोड़े की कूट-रचना रची थी। ट्रॉय को धू-धू कर जलता छोड़, अपहृत रानी को ले कर वापस लौटने वाले वे वीर मूलतः भारतीय थे और उनका नायकत्व किया था महाराज चाक्षुष के पुत्र मन्यु अभिमन्यु ने!
किसी की भी प्राचीन गरिमा पर अविश्वास तथा उसे गल्प कह कर अवहेलित करना पाश्चात्यों की एक विशिष्ट नीति है और यदि वह गरिमा भारत से सम्बन्ध रखती हो तब तो यह उनका ध्येय तथा धर्म ही हो जाता है। ट्रॉय के उस युद्ध को भी कल्पित सिद्ध करने के समस्त प्रयास किये जा चुके, विशेषतः इस तथ्य के उदघाटन के उपरान्त कि उस घटना के विजयी पात्र भारतवर्ष से सम्बन्ध रखते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि होमर का काल मनुर्भरत काल नहीं है। होमर ने अपने महाकाव्य हेतु ज्ञात तथा अनुश्रुत इतिहास से अपनी रुचि के पात्र तथा घटना का चुनाव भर किया था। वह मनुर्भरतों का समकालीन नहीं था, इस कारण इलियड की कथावस्तु शब्दशः इतिहास तो निश्चित ही नहीं है, किन्तु वह जिस घटना पर आधृत है वह घटना ऐतिहासिक अवश्य है। होमर ने उस घटना के वर्णन में अनेक कल्पित दैवी तथा अर्धदैवी पात्रों तथा घटनाओं का भी सहारा लिया है जो उस समय के यूनानी समाज में विभिन्न कथा-कहानियों के माध्यम से स्थान पा चुके थे। होमर ने पात्रों के नाम भी अपने समसामयिक तत्कालीन परिवेश तथा भाषा के आधार पर ही रखे हैं तथा घटनाओं के संयोजन में अपनी कल्पना को भी खुल कर खेलने का अवसर भी प्रदान किया है। किसी भी कवि के समक्ष यह विवशता होती ही है। उसे उन्हीं शब्दों और प्रतीकों से काम लेना होता है जो उसके अपने जाने-सुने हैं। फिर भी, एक विस्मृत होती जा रही शौर्य-गाथा को “इलियड” के माध्यम से पुनर्जीवित कर के होमर ने इतिहास के विलुप्त हो रहे एक अध्याय को बचा अवश्य लिया।
एक छोटे से तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण हेतु एक बार पुनः होमर के उस मंगलाचरण में व्यक्त कथन की ओर लौटते हैं – “हे देवी! तू एकिलीज के महान क्रोध का गान कर!”। वेदों में मन्यु शब्द का प्रयोग बहुत हुआ है। वैदिक ऋषि अपनी प्रार्थना में गाता है – “मन्युरसि मन्यु मयि धेहि! मन्यु शब्द का अर्थ होता है – क्रोध! सामान्य क्रोध नहीं, उत्तेजना जन्य क्रोध नहीं, सात्विक क्रोध, बोध संपृक्त क्रोध, उचित तथा आवश्यक क्रोध, महान क्रोध। यदि होमर के इस कथन का मुझे संस्कृत अनुवाद करना हो तो मैं “एकिलीज के महान क्रोध” का अनुवाद “मन्युः अखिलेशस्य” करूँगा। कुछ खुलता सा प्रतीत हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं, कि होमर के कथन का तात्पर्य ‘क्रोध’ का गान न हो कर ‘मन्यु’ का गान हो? कहीं हम होमर के मंगलाचरण का अविकल अर्थ ग्रहण करने में चूक तो नहीं कर रहे? कहीं उस कथन में मन्यु संज्ञा का अर्थ क्रोध के रूप में ग्रहण करना व्यक्तिवाचक तथा भाववाचक संज्ञाओं का घालमेल तो नहीं है?
अत्यराति के तीसरे भ्राता ‘उर’ भी अपने भ्राता अभिमन्यु के साथ ही रहते थे किन्तु उन्होंने एलाम से ही सेना ले कर अफ्रीका, सीरिया, बेबीलोन आदि देशों को जय किया तथा बेबीलोन में उर नामक नगर से इब्राहीम को भगा कर नगर को व्यवस्थित ढंग से तथा भव्य रूप में बसा कर अपनी राजधानी बनाया जिसके चिह्न आज भी विद्यमान हैं। उरल पर्वत जिसे अब यूराल पर्वत कहा जाता है तथा उरुक प्रांत तथा उरुमिया प्रांत जहां जोरास्टर का जन्म हुआ था, आदि आज भी चाक्षुष के तीसरे पुत्र ‘उर’ की कीर्ति-कथा का अभिलेख बने हुए हैं। ब्रिटिश म्यूजियम में उर के उत्खनन में प्राप्त कई वस्तुयें रखी हुई हैं। उस स्थल पर खुदाई में एक पूरा नगर ही दबा हुआ मिला है जिसमें प्रवेश के कई द्वार मिले हैं। यहाँ विश्व का सबसे प्राचीन “भू देवी” का मंदिर मिला है जिसमे तांबे से निर्मित एक बैल की तथा एक विचित्र पक्षी की मूर्ति प्राप्त हुई है और अनुमान है कि ये दोनों मूर्तियाँ ईसा से ४३०० वर्ष पूर्व की निर्मित हैं। कुश द्वीप (अफ्रीका) के विजय में उर के पुत्र अंगिरा का भी पराक्रम सम्मिलित था और उसका अभिलेख अफ्रीका के दक्षिणी-पश्चिमी तट अंगरा पिक्यूना (Angra-Pequenna) के नाम के रूप में अब तक संरक्षित है। किन्तु ये अंगिरा, बृहस्पति के पिता अंगिरा से भिन्न हैं और इनका पूरा नाम मन्यु अंगिरा था।
देमावंद पर्वत के निकट ही पुरुसिया नामक एक स्थल है। यह स्थान चाक्षुष के चतुर्थ पुत्र ‘पुर’ से सम्बंधित है और आजकल जो मजदिरन नामक स्थान है वह कभी तपूरिया के नाम से जाना जाने वाला स्थल चाक्षुष के पांचवें पुत्र तपोरत (तपोरितेई) के अधिकार – क्षेत्र की भूमि रही है।
ईरान के इतिहासकार एक मत से स्वीकार करते थे तथा करते हैं कि वे छः महान विजेता विदेशी आक्रमणकारी थे (From the tablets just referred to, we learn the names of the several of the Paresis of Elam, none of whom is native of country. History of Persia, Vol. 1 Pg. 73), किन्तु कदाचित वे यह नहीं जानते कि वे छः विजेता महाराज चाक्षुष के यही छः पुत्र थे जिनका सम्मिलित विरुद “मनुर्भरत” था। भारतीय पुराणों में इनका उल्लेख अधिक नहीं है क्योंकि ये विदेशों में ही बस गये किन्तु ईरान में चाक्षुष के ये छह सर्वजेता पुत्र कालांतर में छह अमर उपास्य देव हो गये (In the later Avesta, Ahura Mazda is still supreme, but he is no longer the sole object of worship. By this time the six attributes had become the ‘Six Immortal Holy ones’ and were worshiped as such. - History of Persia Vol. 1, Pg. 111)। इन्हीं को बाइबिल “शैतान” कहती है क्योंकि इनके आक्रमण सर्वग्रासी तथा असह्य थे। अवेस्ता में जिन्हें खल-चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है वे वर्णित छह अहिरमन भी यही हैं।
यहाँ अब इतिहास के उस विशेष तत्व की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है कि जो पराक्रमी अयुध्य जन हमारे लिये आदरणीय तथा स्मरणीय हैं अवेस्ता उन्हें अहिरमन, द स्पिरिट ऑफ़ एविल कहती है तथा बाइबिल उन्हें शैतान कहती है। क्यों? जो किसी एक वर्ग हेतु नायक है वही किसी अन्य हेतु खलनायक क्यों है? इसका कारण है पक्षधरता। पराजित बुद्धिजीवी समुदाय हेतु विजेता कभी नायक नहीं होता, जेता बुद्धिजीवी समुदाय हेतु विजेता नायक होता है। किन्तु सामान्य जनता हेतु नायक वह है जो उसके हेतु कल्याणकारी रहा हो और यही कारण है कि उन मनुर्भरतों के विरोधी अपने इतिहास और धर्मशास्त्र में उन्हें जो भी नाम देना था देते रहे किन्तु वे प्रजा हेतु पूज्य छः अमर उपास्य देव हो गये। (The chief deity whose name was sacred and secret and who were referred to as Shushinak or the Susian dwelt in a forest sanctuary which was sacred and to which only the priests and the kings were admitted. Associated with Shushinak were six other deities of the first rank grouped in two trades. Of these, Amman Kashibar may possibly be the Memnon. History of Persia Vol. 1 Pg. 58)। अतः नायक तथा खलनायक पक्षधरता के प्रतिफलन मात्र हैं। इतिहास का नायक मात्र समय होता है।
मनु भरतों के कुल के इन सर्वजयी पुत्रों ने भारत से बाहर अपने प्रबल राज्य स्थापित किये किन्तु महाराज उर के अंगिरा के अतिरिक्त एक और पुत्र अङ्ग भी थे। भारत में अङ्ग के पुत्र वेन, वेन के प्रथुवैन्य, प्रथुवैन्य के अन्तर्द्धान, अन्तर्द्धान के हविर्द्धान, हविर्द्धान के प्राचीन वर्हिर्षि, वर्हिर्षि के पुत्र प्रचेतस तथा प्रचेतस के पुत्र दक्ष प्रजापति हुए। दक्ष इस वंश के अंतिम प्रजापति थे। दक्ष के उनकी एक पत्नी असिक्नी से उत्पन्न पुत्र हर्यश्व एवं सरलाश्व (या शबलाश्व) नारद के बहकावे में आ कर विरागी हो गये थे, तथा एक पुत्र पृषध संभवतः निकृष्ट कर्मों में लिप्त हो रहने के कारण प्रजापत्य का अधिकारी नहीं रहा, अतः उनका वंश उनकी अन्य दो पत्नियों प्रसूति तथा वीरणी से उत्पन्न पुत्रियों के माध्यम से चला किन्तु ऋषभदेव के पुत्र भरत के वंशज भरतवंशियों का राज्य अन्य प्रजापतियों के माध्यम से फिर भी स्थापित रहा।
ऋग्वेद में किसी भरतवंशी प्रजापति का उल्लेख नहीं है किन्तु ‘भरताः’ नाम बार – बार आया है। विशेषतः तृतीय तथा चतुर्थ मण्डल में सुदास के विशेषण के रूप में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। वशिष्ठ तथा विश्वामित्र के सूक्तों में भी यह शब्द अनेक बार प्रयुक्त है। निरुक्त का आदेश है – “भरतः आदित्यः, तस्य भा भारती।” भरण-पोषण का कार्य सूर्य का है अतः सूर्य ही भरत है तथा उसकी संतानें भारती हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में यह शब्द क्षत्रिय तथा ब्राह्मण के लिये प्रयुक्त है। महाभारत में कुरुकुल के समस्त जन भरताः हैं किन्तु वेदों के भरताः तथा महाभारत के भरताः में स्पष्ट अंतर है। वेद व्यास ने इसे स्पष्ट भी कर दिया है –
भरताद् भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलं।
अपरे ये च पूर्वे च भारताः इति ते स्मृता।।
(महाभारत आदि पर्व, अध्याय ९३, श्लोक १२, १३)
तब ऋग्वेद में वर्णित ये भरताः अर्थात भारत के जन, भारत-संतति या भरतवंशी कौन थे? निश्चय ही वे ऋषभदेव पुत्र भरत या जड़भरत या मनु भरत के वंशज थे और उन्हीं के नाम पर चाक्षुष के पुत्र भी मनुर्भरत कहे गये।
उधर महाराज अत्यराति ने अपने पाँच भ्राताओं तथा भ्रातृज अंगिरा सहित हिमवर्ष खण्ड अर्थात भारत से बाहर विभिन्न विजयों के माध्यम से प्रथम चक्रवर्ती जानन्तपति पद प्राप्त किया तथा इधर भारत में वेन ने प्रथम राजा का विरुद ग्रहण किया किन्तु प्रजापति और राजा शब्द में ही भावनात्मक अंतर है। प्रजापति शब्द में जो करुणा, दया एवं सर्वभूतहित की भावना निहित है वह राजा शब्द में अनुपस्थित है। वेन निरंकुश हो गया। उसकी निरंकुशता के कारण उपजे विद्रोह में वह मारा गया। पुराण कहते हैं कि तब वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया गया जिससे पृथु और उसकी पत्नी अर्चि उत्पन्न हुये। वेन के ही अंग से उत्पन्न होने के कारण पृथु का नाम पृथुवैन्य हुआ तथा उसने राज-परिच्छद ग्रहण किया। यह कथा भी रहस्य-कथा ही प्रतीत होती है। दाहिनी भुजा भ्राता-कुल की प्रतीक है। निश्चित ही वेन के भ्राताओं या भ्रातृजों में से किसी योग्य को ढूंढ कर उसे राज-परिच्छद सौंपा गया होगा जिसका नाम पृथु तथा उसकी पत्नी का नाम अर्चि था तथा वेन का उत्तराधिकारी होने के कारण उसे पृथुवैन्य कहा गया। पृथुवैन्य ने ही विधिवत कृषि का आरम्भ किया और उसके ही नाम पर भूमि का एक नाम पृथ्वी भी हुआ।
यह सम्पूर्ण काल-खण्ड समेकित रूप से कृतयुग या सतयुग कहा जाता है। इस काल तक वेदोदय हो चुका था। वेदों की ऋचायें रची जाने लगी थीं। पृथुवैन्य भी द्रष्टा राजर्षि था। ऋग्वेद का १०/१४८ वां सूक्त उसी द्वारा रचित है।
इस युग की अनेकानेक ऐतिहासिक घटनाओं के साथ एक महत्वपूर्ण घटना और घटित हुई जिसमें नियति तथा प्रकृति का मुख्य हाथ रहा और वह घटना थी प्रलय की। विश्व की हर सभ्यता के प्राचीन ग्रंथों में एक महान जल-प्रलय का वर्णन है। इस घटना को मिस्री, यहूदी, बाबुल, सुमेर, चीन, दक्षिण अमेरिका आदि की सभ्यतायें भी अपने आख्यानों में संजोये चली आ रही हैं। बाइबिल तथा जिन्दावेस्ता भी इस घटना को प्रमुखता से उल्लिखित करते हैं। भारतीय वाङ्मय तो इसे दुहराता ही है -
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावायनमहीम्।
वर्धमानो महामेघिर्वर्षद्भिः समदृश्यत।।
(श्रीमद्भागवत स्क० ८/२४/४१)
तम आसीत्तमसा गूढ़मग्रे प्रकेतं सलिलम् सर्वमा इदं।।
(ऋग्वेद १०/१२९/३)
ऋग्वेद कहता है कि प्रलय से पूर्व भी ऐसी ही व्यवस्था थी। ऐसे ही सूर्य तथा चन्द्र थे, ऐसे ही अंतरिक्ष तथा पृथ्वी। सूर्याचन्द्रमसौधाता यथा पूर्वमकल्पयत् दिवञ्चपृथ्वीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।। (ऋग्वेद १०/१९०/३)। मनुस्मृति कहती है – आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणं। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिवसर्वतः।। (मनुस्मृति १/५)। उपनिषद कहता है – तम आसीत्तमसा गूढ़मग्रे। तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत। सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकेमेवाद्वितीयम्। (छान्दोग्य)। और सूर्य सिद्धांत कहता है – युगानां सप्ततिः सैका मन्वन्तरं इहोच्यते। कृताब्दसंख्यास्तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः॥ (इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वंतर होता है तथा सतयुग के वर्षों के तुल्य सत्रह लाख अठाईस हजार वर्ष संधिकाल में जल-प्लावन होता है।)
प्रत्येक मन्वंतर के अंत में एक ऐसा जल-प्लावन या हिम-प्लावन संभावित है क्योंकि पृथ्वी की याम्योत्तर परिवृत्ति (दक्षिण से उत्तर को परिवर्तन) के कारण क्रांतिवृत्त पर पृथ्वी की स्थिति इस प्रलय का कारण बनती है। किन्तु यह जल-प्लावन कल्पांत या महाप्रलय नहीं है। चाक्षुष मन्वंतर के अंत तथा वैवस्वत मन्वंतर के प्रारम्भ में ऐसा ही एक खण्ड – प्रलय हुआ था और यद्यपि इस प्रलय का प्रभाव पूरी पृथ्वी पर पड़ा था, समुद्र-तल से लगभग ६००० फुट ऊँचाई तक की समस्त भूमि जल-मग्न हो गई थी, किन्तु इस प्रलय का प्रारम्भ वर्तमान मेसोपोटामिया तथा एशिया के उत्तर-पश्चिम भाग से हुआ - पर्शिया का वह भाग जो दक्षिण में फारस की खाड़ी तथा उत्तर में कश्यप सागर के बीच स्थित है। पर्शिया के पश्चिमोत्तर कोण में आर्मीनिया के प्रदेश के हिमाच्छादित पर्वतों से निकलने वाली फरात नदी मेसोपोटामिया की एक विशिष्ट नदी है, जो बहुत बड़ी है तथा इसका विस्तार भी बहुत है। हिम-शैलों के अचानक पिघल उठने से इसी नदी में सबसे पहले बाढ़ आयी थी। दजला और फरात का निचला दोआबा उस खण्ड-प्रलय का उद्गम स्थल था इसे श्री ल्योनार्ड वूली ने तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया है। दजला का उद्गम, कश्यप सागर तथा फारस की खाड़ी ने मिल कर सब कुछ नष्ट कर दिया। और फिर तो विश्व के हर पर्वत से, हर नदियों में इसी कारण आने वाली बाढ़ की एक शृंखला सी प्रारंभ हो गयी। ज्वालामुखियों के विस्फोट, निरंतर अतिवृष्टि, भूमि-कम्प, क्या हुआ था, और क्या-क्या हुआ था, हम नहीं जानते। जान भी लें तो अनुभव नहीं कर सकते और अनुभव भी कर लें तो भोग तो नहीं ही सकते! हम उस स्थिति-परिस्थिति का, उस पीड़ा और त्रास का, उस विवशता का मात्र अनुमान लगा सकते हैं। मात्र निस्पृह अनुमान!
फारस की खाड़ी तथा कश्यप सागर के बीच का समूचा भूभाग जल-मग्न हो गया। इस क्षेत्र में रहने वाली अत्यराति की प्रजा, पूरी अर्रात (अर्राट) जाति, नष्ट हो गई। मन्यु की सुषा नगरी पूर्णतः नष्ट तो नहीं हुई, किन्तु उजड़ अवश्य गई। चतुर्दिक मृत्यु का ताण्डव था। सारी धरा ही मृत्यु का साम्राज्य – मृत्यु का नगर – मृत्युलोक प्रतीत होती थी। किन्तु मन्यु, अभिमन्यु या आगामेम्नोन बच गये। ध्यातव्य है कि अभिमन्यु मनु पद पर नहीं थे। मनु पद उनके पिता चाक्षुष को प्राप्त था। किन्तु मनु शब्द से साम्य के कारण मन्यु पर मनु का आरोप हो गया।
प्राकृतिक आपदाओं के समय मनुष्य ही नहीं, सभी प्राणियों में एक अतार्किक सी एकता का प्रादुर्भाव हो जाता है। बेबीलोन में उर के राज्य के स्थापित होने से पूर्व से ही वहाँ बसने वाली मत्स्य जाति जो मूलतः नौकायन से आजीविका प्राप्त करती थी तथा अब उर की समर्पित प्रजा थी, उसके मुख्य पुरुषों तथा नेताओं ने इस जल-प्रलय के समय जो कुछ भी बच सका या बचाया जा सका उसे बचा कर ऊँचे स्थानों तक ले जाने में सहयोग कर के मानवता की अभूतपूर्व सेवा की। ऐसा नहीं है कि मात्र बेबीलोन के नाविकों ने ही अपने निकट के लोगों का जल-प्लावन से बचाव किया। सम्पूर्ण विश्व में यह कार्य उन्हीं लोगों ने किया जो नौ-चालन में दक्ष एवं प्रवीण रहे, क्योंकि यह कार्य वे ही कर ही सकते थे।
अथाह जल-राशि में महा-मत्स्य सी तैरती स्वरित्रा, सुप्रणीता, अस्रवन्ती नौकायें भयातुर मानवता के गिने चुने किन्तु विशिष्ट अवशेष बीजों को खे कर एक अज्ञात भविष्य की ओर लिये जा रही थीं। ऊँचे! और ऊँचे!! और और ऊँचे!! जिन पर्वतों के शिखर से पिघला हिम इस महाविनाश का कारण बना था उन्हीं पर्वतों के शिखर अब आशा की अंतिम शरण-स्थली थे। आधुनिक रूस का आर्यवीर्यान या आइजरबेजान हो अथवा भारत के उत्तर का हिमालय, प्राणी मात्र के जीवन संघर्षों की एक महागाथा पुनः लिखने के लिये आर्यत्व ने अपनी मुठ्ठी में अपने भविष्य का बीज छिपाये उस प्रत्येक गिरि-कन्दरा का आश्रय लिया जो उसे इस विभीषिका से त्राण दे सके। एक समुन्नत सभ्यता देखते ही देखते शिखर से गिर कर शून्य में समा, लगभग समाप्त हो चुकी थी और मनुष्य के पास बच रहा था एक बार पुनः शून्य से शिखर की यात्रा का स्वप्न, जो जल-प्रलय की अथाह जल-राशि के सतह के साथ – साथ बचे हुए मनुष्यों के नेत्रों में झिलमिलाते अश्रु-कणों मे भी तैर रहा था।
उस प्रलय-काल में विगत अतीत का या उस प्रलय का ही विवरण कौन रखता? और कैसे रखता? न साधन शेष रह गये थे, न समय उपयुक्त था। और मानसिकता? वह तो अवसन्न थी! किन्तु वैदिक ऋषि कहता है – “जब सूर्य अस्त हो, चन्द्र अस्त हो, अग्नि शान्त हो जाय तब ऐसे नैराश्यपूर्ण भटकाव के काल में वाणी ही पुरुष का सहारा है।” वाणी ही सहारा बनी भी! जाना हुआ इतिहास जिस रूप में तथा जितना स्मरण रहा था उसे अपनी संततियों को मौखिक रूप से बताते हुए मनुष्य एक बार पुनः शून्य से शिखर की यात्रा पर निकल पड़ा किन्तु इस यात्रा में उसके भोगे गये इतिहास की कुछ कड़ियाँ विस्मृत भी हो गईं और पूर्वापर आख्यानों में व्यतिक्रम आने लगा। उन विस्मृत कड़ियों को खोज कर स्मृति में अवशेष कड़ियों के साथ जोड़ना आवश्यक था, और यह कार्य अब “मात्र कल्पना” ही कर सकती थी। अतः काल्पनिक कथानकों की सहायता से विस्मृति द्वारा उत्पन्न रिक्त स्थान को भरा जाने लगा।
विद्वानों ने अपनी कथायें गढ़ीं जो भग्न इतिहास की कड़ियाँ जोड़ सके, किन्तु सामान्य जनता भी कम भाव-प्रवण तो थी नहीं! उसने अपने स्तर पर अपनी कहानियां गढ़ीं। अब हर प्रश्न का उत्तर पाने विद्वानों के पास जाना सदा संभव और उचित भी तो नहीं रहा होगा! और विद्वतजन भी कहीं से आयातित तो थे नहीं! वे भी उस सामान्य प्रजा से ही उगे थे। इस कारण कल्पित कहानियों में से कुछ कल्पनायें नितांत अतार्किक भी थीं। जैसे - जम्बू द्वीप पर एक विशाल जामुन का पेड़ था जिससे हाथी बराबर फल लटकते थे, और निकट बहती जम्बू-नदी में जब वे फल टपकते थे तो उनके सड़ने से निकला रस जामुनी रंग का सोना बन जाता था, या प्लक्ष द्वीप पर भी ऐसा ही एक पाकड़ का वृक्ष था, या फिर, सारे द्वीप एक संकेन्द्रीय वृत्त के रूप में भीतर से बाहर की ओर स्थित थे आदि, आदि, इत्यादि। इतना ही नहीं, कुछ कहानियों में कहीं घटनाओं के साथ उनसे सम्बंधित स्थल, तो कहीं स्थलों के साथ वहाँ घटी घटनाओं का परस्पर सामंजस्य भग्न हो चुका था तथा जिन घटनाओं के इतिहास तथा भूगोल परस्पर सम्बद्ध भी थे उनके घटित होने का समय काल-विपर्यय का आखेट हो चुका था। घटनाओं से सम्बंधित कालखण्ड, भूगोल और इतिहास परस्पर अलग-थलग जा पड़े थे। और यह किसी एक दिन की या किसी एक घटना से सम्बंधित बात न थी, न है। मनुष्य कहानियाँ गढ़ता ही है। कुछ झूठी और कुछ सच्ची कहानियाँ रोज गढ़ी जाती हैं, रोज गढ़ी जायेंगी। किसी भी कथन से सत्य या मृषा में क्या चुनना है और कैसे चुनना है यह उसका दायित्व है जिन्हें कथन की सत्यता, सार्थकता तथा उपादेयता से प्रयोजन हो! और कुछ कहानियाँ झूठी होने पर भी सार्थक तथा उपयोगी होती हैं। सत्य का हठी आग्रह भी उन्हें नकार नहीं सकता, नकार नहीं पाता।
भावजन्य कल्पना ने नये शब्द गढ़े, नये प्रतीक गढ़े, नये पात्र गढ़े, और उन अनेकानेक कथाओं में एक कथा मत्स्यावतार की भी थी। मनुष्यता की इतनी बड़ी सहायता करने वाला कोई सर्वशक्तिमान ही हमारे अहोभाव का आश्रय हो सकता है अतः हमारी सनातन सभ्यता प्रलय से निस्तार के उस भुक्त इतिहास को एक महा-मत्स्य के रूप में अपनी स्मृति में अब तक संजोये है, उसका आभार मानती है, उसे पूजती है, और उसे दशावतार की संकल्पना में प्रथम स्थान देती है। उस महा-मत्स्य के श्रृंग से कोई नौका बंधी थी या नहीं बंधी थी, किन्तु उससे हमारा इतिहास अवश्य अब तक बंधा है, और इसी कारण अब तक सुरक्षित है।
अन्य सभ्यताओं ने भी हमारी अवधारणा को उधार ले कर कुछ ऐसा ही किया। उन्होंने उसी कथा को अपने अनुसार बुना। गिलगमेश, नूह, आदम-हव्वा या ऐसी ही अन्य कथायें मात्र कथायें एवं काव्य हैं – स्वयं को समझाने के प्रहसन।
उस प्रलय ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया किन्तु सब कुछ नष्ट नहीं हुआ था। प्रकृति पुनर्सृजन हेतु सदैव अपने सर्वोत्तम बीज बचा कर रखती है, और उसने ऐसा किया। और उन सर्वोत्तम बीजों को पुनः उगाने के लिये उसने चुना भी तो हिमवर्ष खण्ड तथा इसकी समीपवर्ती भूमि को, भारतवर्ष को, जहां से उग कर एक बार पुनः मानव-बेलि पूरी धरा पर लहलहाई। इस प्रलय से बचने वालों में दसो प्रजापति ही नहीं, सप्तर्षि ही नहीं, और कई अन्य लोग भी थे। इस प्रलय से पूर्व भौगोलिक रूप में विद्यमान हो कर भी शब्द तथा संकल्पना के रूप में स्वर्ग का अस्तित्व नहीं था। इन्द्र भी नहीं था। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी नहीं थे। किन्तु इस प्रलय के बाद मानव ने जो समाज-संस्था बनाई उसमें स्वर्ग भी था और वह स्वर्गिक भी थी, उसमें नरक भी था और वह नारकीय भी थी। वह हमारे इतिहास का अगला चरण है।
जो भाषिक चमत्कार काव्य में कथ्यार्थ को विशिष्टता तथा रोचकता प्रदान करते हैं, उन्ही के आधार पर कथन के सत्यार्थ को लेकर विवाद खड़े किये जाने में सुविधा भी होती है। और यही कारण है कि शुद्धतावादी-जन काव्यात्मकता की कटु नहीं बल्कि तिक्त आलोचना करते हैं। वे अपने स्थान पर पूर्णतः उचित करते हैं क्योंकि काव्यात्मकता इतिहास के तथ्यों को अबूझ बना देती है, किन्तु उन्हें यह भी अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि कथा-कहानियों के स्थाणुओं ने अपनी उपस्थिति से सनातन इतिहास की तड़की हुई भित्ति को भहरा कर गिर जाने से बचाने में कम सहयोग नहीं किया है। काव्य-तत्व मनोमय कोष की अभितृप्ति का माध्यम है अतः काव्य से काव्य-तत्व का ग्रहण ही उचित है, किन्तु यदि सत्य की अनुसंधित्सा ही अभिप्रेत हो तो भी तथ्यों की प्राप्ति हेतु कथा-कहानियों का निर्मम अन्त्य-परीक्षण जुगुप्सा को ही जन्म देगा। काव्यार्थ से निहितार्थ निकालने हेतु निर्मम शल्य-क्रिया की नहीं, स्नेहिल मृदु-मंथन की आवश्यकता होती है।
पौरस्त्य का विलोम जो ‘पाश्चात्य’ शब्द है न? उसका तात्पर्य ‘पश्चिमी’ नहीं है। पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य इतिहास, पाश्चात्य साहित्य या पाश्चात्य धर्म का अर्थ पश्चिमी सभ्यता, पश्चिमी इतिहास, पश्चिमी साहित्य या पश्चिमी धर्म - वेस्टर्न कल्चर, हिस्ट्री, लिटरेचर या रिलिजन नहीं है। पाश्चात्य का अर्थ है परवर्ती, बाद का, पीछे का, और भोजपुरिया या काशिकी लबेद ठोंकें तो कहो कि पिछड़ा। उनका धर्म, उनकी सभ्यता, उनका इतिहास और दर्शन, सब बस कुछ गिने-चुने दिन पुराना है, कुछ हजार वर्षों का। वे तो अपने निहित स्वार्थ्य, लालसा, मूढ़ता, और हठधर्मिता के कारण सनातन से ही टूट कर अलग हुई शाखों के प्रतिरोपण से उगे ऐसे पौधे हैं जिनकी अब तक की सम्पूर्ण आयु भी हमारे उपरामता वश आये जृम्भण-अवधि से भी कम है। उनके पास तो इतना भी नहीं जिसे स्मरण रखने की आवश्यकता हो, तो वे विस्मृत क्या करेंगे? नाबदान भी उन्हीं के घरों का बड़ा होता है जिनके घर बड़े होते हैं।
संसृति प्रति क्षण परिवर्तनशील है। बीता क्षण पुनः नहीं लौटता। उन बीते क्षणों के साक्षी भी शाश्वत नहीं हैं। तो उन व्यतीत अनंत क्षणों की साक्षियां संकलित कर सकना कितना असंभव रहा होगा? पृथ्वी के अक्ष परिभ्रमण, क्रान्ति परिभ्रमण, अयन तथा याम्योत्तर परिवृत्ति आदि के रूप में जो निरंतर परिवर्तन हो रहा है उनका लेखा कौन रख सकता है? फिर भी इन सब के आधार पर परिवर्तनों को सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की चतुर्युगी तथा मन्वंतरों के काल विभाग में प्रस्तुत करते हुए भारतीय तत्व-वेत्ताओं ने जो लेखा संजोया है, विश्व में वह अन्यत्र कहीं नहीं है। किन्तु गणित की उन वैज्ञानिक गंभीरताओं को भुला कर हम कुछ सांस्कृतिक तथा सामरिक आक्रान्ताओं के सुझाये वर्षगांठों का उत्सव मनाने में लिप्त हो गये हैं, कथाओं एवं परम्पराओं से छान कर सत्य निकाल लेने के स्थान पर या तो उनका मूढ़ समर्थन करने अथवा उनकी घोर निंदा मे रत हो गये हैं और इस विचारधारा तथा दृष्टिकोण ने हमारे महान इतिहास को हमसे अपरिचित बना दिया है। हम उस मौलिक काल-गणना से दूर होते होते अपने वास्तविक इतिहास से भी दूर हो चुके हैं। इतिहास की घटनायें, उनके घटना-स्थल, तथा उनका कालखण्ड, जब तक तीनों परपर समंजित नहीं होंगे, हमारे अतीत के सत्य के हिरण्यमय मुखमंडल पर भ्रम की झिलमिली पड़ी रहेगी तथा जब तक यह झिलमिली रहेगी, जब तक हमें स्वयं ही अपना इतिहास नहीं ज्ञात होगा, जब तक स्वयं हम ही उस इतिहास की घटनाओं तथा कालक्रम की व्याख्या करने में असमर्थ रहेंगे, जब तक हम स्वयं ही उन पर अविश्वास करेंगे, तब तक अन्य लोग हमारे इतिहास को काल्पनिक, गल्प, या मिथ्या कहते रहेंगे और जब तक हम अपने काल-मापन की प्राचीन पद्धति तथा प्राचीन संवत्सर “सप्तर्षि संवत” की गुत्थी नहीं सुलझा लेते, तब तक हमारे इतिहास के वास्तविक कालक्रम का उन घटनाओं से समायोजन संभव नहीं है। ईसवी सन का नपना बहुत छोटा है। उससे हमारे इतिहास का अवधि-निर्धारण संभव नहीं है।
आस्था का कोई वृक्ष जितना ही विशाल होता है, उसकी जड़ इतिहास के उतने ही पुराने परत का भेदन करती है तथा उसे इतिहास से अपने लिये उतना ही अधिक जीवन-सत्व ग्रहण करने की आवश्यकता भी पड़ती है। कभी-कभी उस आस्था के वृक्ष की जड़ इतिहास में इतनी गहराई तक धंसी होती है कि साधारणतया उसका मूलगोप इतिहास के किस स्तर पर टिका है यह जान सकना दुष्कर हो जाता है और ऐसे में यदि इतिहास, भूगोल तथा कालगणना की विसंगति भी बाधक हो तब तो असंभव ही हो जाता है। फिर भी उस पुरातन परत का उद्घाटन हमारा ही दायित्व है और वह भी इस रीति से कि आस्था के वृक्ष का मूलगोप क्षतिग्रस्त न होने पाये।
हमारे प्रत्येक शुभ कर्म के पूर्व संकल्प-वाक्य के रूप में दुहराये जाने वाला वाक्य हमारे इतिहास के महापुरुषों के नाम के साथ संग्रथित वही काल-गणना तथा उस काल का इतिहास है, जिसे दुहराने का मूलभूत उद्देश्य यह है कि हम अपना इतिहास कहीं भूल न जाँय! प्रतिदिन न सही, किन्तु व्रत-उत्सवादि के अवसरों पर तो एक बार उसे स्मरण कर ही लिया जाय। वैसे विधान तो इसे प्रतिदिन तीन बार दुहराने का है, त्रिकाल-संध्या के समय। संकल्प-वाक्य की भाषा वास्तव में हमारे व्यतीत अतीत के सिंहावलोकन की भाषा है और यह भारतीय इतिहास-दृष्टि का वह उदाहरण है जो इस सम्पूर्ण विश्व में अपनी संततियों को मात्र हम दे सकते हैं। हम! अर्थात हम भारतीय! किन्तु हा हन्त! दाता तो आज स्वयं भिक्षुक है।
हमारे पर्व, हमारी परम्परायें, हमारी आस्थायें, हमारे लोकाचार, हमारे शास्त्र, हमारी कथा-कहानियाँ, सभी हमारे भोगे गये इतिहास की अनुस्मृतियाँ हैं। उन अनुस्मृतियों में कुछ विकृत भी हैं, कुछ खण्डित भी हैं। किन्तु उनकी विकृति को दूर करना तथा खण्डित को पुनः अखण्ड करना भी हमारा ही दायित्व है और इस दायित्व का ग्रहण तथा उसकी पूर्ति अपने अतीत में आस्था तथा उस आस्था के मूल के अन्वेषण के माध्यम से ही संभव है।
अतः, यदि भविष्य में आपका पुरोहित आपसे संकल्प वाक्य दुहराने को कहे तो उसे आप पूरी आस्था, सजगता एवं चैतन्यता के साथ दुहरायें तथा यदि संभव हो तो उस ‘व्यतीत अतीत’ की इस ‘अकथ कहानी’ के सन्दर्भों में दुहरायें। विश्वास रखें! आपके व्यतीत अतीत से जुड़ कर आपका कर्मठ वर्तमान निश्चित ही एक अनिर्वचनीय आनन्द तथा एक उत्सवधर्मी उल्लास से परिपूर्ण हो उठेगा।
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किसको नमन करूं मैं?
पिछली कड़ियों की ही भांति इस बार भी यह सत्य स्वीकार करना है, कि इस निबंध का प्रत्येक शब्द भारतीय – वाङ्मय की मूर्धन्य – मनीषा के ज्ञान से अपहृत है तथा यदि नामोल्लेख करना हो तो शताधिक विद्वानों का उल्लेख करना होगा। मुझ अज्ञानी में यह क्षमता नहीं कि ऐसे विषय पर लेखनी चला सकूं। यह सब भारतीय वाङ्मय का ही उधार है, अतः भारतीय वाङ्मय का ही आभार है।
और यह भी, कि यह निबंध है, और मात्र एक निबंध है। इस निबंध का उद्देश्य न तो कुछ सिद्ध करना है, न ही इसके द्वारा कुछ सिद्ध कर सकना संभव ही है। अतः इस निबंध से ज्ञान की आशा छोड़ कर मात्र रस एवं बुद्धि-विलास की अपेक्षा ही उचित होगी। साथ ही यह भी, कि इसके पूर्व के भागों की ही भांति यह निबंध भी अपूर्ण है तथा वास्तव में स्वयं में एक अलग निबंध के रूप में स्वतंत्र होते हुए भी एक अन्तःसूत्र द्वारा “सुनहु तात यह अकथ कहानी..... (भाग १)”, “सुनहु तात यह अकथ कहानी..... (भाग २)” तथा आंशिक रूप से “उत्सव-स्तबक” शीर्षक से पूर्व-प्रस्तुत निबंधों से जुड़ा है। अतः पाठक यदि चाहें, तो उन निबंधों का सन्दर्भ ग्रहण कर सकते हैं।
एक बात और! समझ सकता हूँ कि कुछ भ्रांतियाँ शेष रह गई होंगी और कुछ नई भ्रांतियों का उदय भी हुआ होगा। यदि शृंखला की अगली कड़ियाँ लिखी गईं तो उन भ्रांतियों का स्वयं ही निरसन हो जाना संभावित है। अन्यथा, विमर्श हेतु न तो अवकाश है, न ही आवश्यकता! वैसे भी यह सब एक बहके मन का चकल्लस भर है।
अब शेष रहा यह प्रश्न कि यदि यह निबंध अपूर्ण है तो इसका अगला भाग कब? तो यह मुझे भी ज्ञात नहीं। नियमित न लिखना मेरे प्रमादी होने का प्रमाण है, और कभी – कभी कुछ लिख देना भी मेरे प्रमाद का ही परिणाम है।
वाणी-हिरण्यगर्भाभ्यां अर्पणमस्तु।
© त्रिलोचन नाथ तिवारी.
❤️ अद्भुत
जवाब देंहटाएंअद्भुत भइया❤️❤️
जवाब देंहटाएंइस अद्भुत ज्ञान सरिता का एक अंश भी यदि ग्रहण कर सकने में सक्षम होता तो स्वयं को धन्य समझता।
जवाब देंहटाएंबेहद सारगर्भित लेख।
साधुवाद।
निखिल श्रीवास्तव
हटाएंसुरक्षित कर लिया है कई बार पढ़ने के बाद कुछ समझ आएगा
जवाब देंहटाएंकुछ भ्रांतियाँ शेष रह गई और कुछ नई भ्रांतियां उत्पन्न भी हो गई हैं जैसा कि आपने अपने लेख के अंत में बताया भी था। इस अद्भुत लेख के लिए प्रणाम करता हूं आपको और यदि आपकी अनुमति हो तो इसमें दिए गए कुछ उद्धरण को अपने पास नोट करना भी चाहूंगा।
जवाब देंहटाएंहृदय से नमन करता हूं। 🙏🙏
आज पहली बार आपका कोई लेख पूरा पढ़ा। मैं तो नतमस्तक हूँ आपकी प्रज्ञा के समक्ष। मेरा प्रणाम स्वीकार हो।
जवाब देंहटाएंवाह 💞
जवाब देंहटाएंमहोदय जी सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएं17 पुराण कहता है विष्णु ने शिव को उतपन्न किया
1 शिव पुराण लिंग पुराण कहता है शिव ने विष्णु को जन्म दिया ! क्या है गूढ़ रहस्य कृपया स्पष्ट करें । सादर धन्यवाद
कृपया उत्तर अवश्य देवें
@janardeepak@gmail.com
दद्दा रोचक और जानकारी भरा लेख।
जवाब देंहटाएंसर ये भाग 1 मुजे कहां से प्राप्त होगा क्यों की पहेले से पढ़ना चाहते हैं ����
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंभैया ❤️
कृण्वन्तो विश्वमार्यम!!
जवाब देंहटाएंये घोष अभी इस परम सारगर्भित लेख को पढ़ कर कुछ और स्पष्ट, कुछ और समीप से सुनाई दिया है।
शोध और मेधा के इस सुंदर सम्मिश्रण के लिए अनेकों धन्यवाद। गर्वित करता निबंध।��
नमन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद भैया 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत अन्वेषणीय लेखनी 🙏❤️🙏
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ना सौभाग्य है 🙏
🙏
जवाब देंहटाएं