क्षितिस्त्वम्
विधाता जगत्सृष्टिकर्त्री, त्वमापोऽपि विष्णुर्जगत्पालिका च।
त्वमग्निस्तु रुद्रो जगत्क्षोभकर्त्री,
त्वमैश्वर्यरूपा वियद्वायुरूपा।।
-----तन्त्रपरक ललित निबन्ध (भाग १०)-----
‘भज कलदारम्, भज कलदारम्, भज कलदारम् मूढ़मते!’ नामक आप्त-वाक्य के अनुपालन में दिन बीता। वर्षा कभी मद्धिम तो कभी तीव्र गति से होती रही। कई वर्षों पूर्व इस प्रकार की वृष्टि श्रावण या भाद्रपद में हुआ करती थी कि दो-दो, तीन-तीन दिन सूर्य न दिखे और वर्षा की झड़ी लगी ही रहे किन्तु इधर कुछ वर्षों से ऐसा देखने में नहीं आया था। किन्तु कार्यालय अवधि समाप्त होने से कुछ समय पूर्व वर्षा रुक गयी, यद्यपि मेघ परस्पर एक दूसरे में घुसे जाते थे। यह वर्षा कितने समय के लिये रुकी है, कहना कठिन था। एक सहकर्मी कर्मचारी ने प्रस्ताव दिया कि यदि मैं चाहूँ तो वह मुझे स्टेशन तक छोड़ सकता है। अन्य कोई परिस्थिति होती तो मुझे प्रस्ताव स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होती किन्तु यदि निकलने के पश्चात वर्षा प्रारम्भ हुई तो हम दोनों भीगेंगे, यह सोच कर कहा – ‘अरे नहीं! मैं ई-रिक्शा से चला जाऊँगा।’
उसने पुनः कहा – ‘मैं छोड़ देता हूँ सर!’
यह प्रस्ताव नेह का था। इसकी अवहेलना कठिन थी। किन्तु इसे स्वीकार करना भी कठिन था। असमञ्जस की परिस्थियों में मैं बौद्ध हो जाया करता हूँ - ‘मज्झिम मार्ग’ का अनुयायी! मैंने बीच का मार्ग पकड़ा – ‘चलिये, केवल मुख्य सड़क तक छोड़ दीजिये! फिर आप भी निकल जाइयेगा। वर्षा शीघ्र ही पुनः होगी और जोर की होगी।’
उभय-पक्ष की सहमति से यही निश्चित हुआ। कार्यालय से निकलते ही, अभी अभी बाइक स्टार्ट तक नहीं हुई थी कि अनायास मेरी दृष्टि वर्षा में भीगती तीन गायों पर पड़ी जो एक दूसरे के कण्ठ से कण्ठ जोड़े खड़ी थीं। सत्यानाश! यात्रा शुभ प्रतीत नहीं होती। ‘पाँच भँइंसि, और छह-छह श्वान। एक बैल, एक बकरा जान।। तीनि धेनु, गज सात प्रमाण। चलत मिले जनि करहु प्रयाण।’ ये नगरीय पशुपालक अपनी गौवों के प्रति इतने निष्ठुर और अनुदार क्यों हैं? कातर दृष्टि से इतस्ततः देखती गौवों के मन में एक करुणा उत्पन्न हुई और अपशकुन देख एक खीझ भी, किन्तु सोचा कि अपने घर लौटते समय यात्रा का मुहूर्त नहीं देखा जाता तथा दैनिक यात्राओं में शकुन – अपशकुन का भी इतना महत्व नहीं! तो चलते हैं। वैसे भी साइत की तुलना में सुतार देखना अधिक व्यवहारिक है।
सड़क पर दस मिनट तक खड़े रहने पर भी कोई रिक्शा नहीं मिला। झींसी प्रारम्भ हो गयी। ‘फिर सुबह होगी तो सोचेंगे सफर कितना है, आज की रात इसी शहर में कयाम करो।’ मैंने स्वयं से कहा, और विभागीय ‘अधिकारी अतिथि-गृह’ की ओर कुछ तीव्र गति से प्रस्थान किया।
अतिथि-गृह के परिचारक श्री तिलकधारी जी महोदय कक्ष खोल कर अदृश्य हो चुके थे। लगभग पौन-एक घण्टे पश्चात् सुस्थीभूत हो कर मैंने घर पर सूचना देने को फोन निकाला तो देखा बैटरी अन्तिम साँसें ले रही है। यह सत्यानाश के ऊपर सवा-सत्यानाश था क्योंकि प्रातः शीघ्रता में मैं चार्जर और पॉवर- बैंक दोनों साथ लेना भूल गया था। ‘एक, समय काटने का जरिया था, वो भी गायब? तो अब कपास भी न ओटो, तो फिर क्या काम करो?’ फोन डिस्चार्ज न होता तो गज़ल तो चार पाँच मिनट में हो ही जानी थी, बट, लेकिन, किन्तु, परन्तु! पहले घर पर सूचित कर दो महाशय! अगर बैटरी बैठ गयी तो वह भी नहीं हो पायेगा। अस्तु! माबदौलत ने यह आवश्यक कार्य फटाफट निबटाया। बैटरी की पोजीशन भी बता दी और बात के बीच में ही ‘हेलो...! हेलो....!’ अबे काहे का हेलो? बैटरी गयी!
मन विषण्ण हो चुका था। उसने पूछा – ‘अब?’
‘अब क्या? पेट में कुछ जाने का जुगाड़ हो और तिलकधारी महोदय आयें तो सम्भवतः फोन चार्ज करने का भी जुगाड़ हो ही जाये।’
‘तुम और तुम्हारी लालसायें! इस वर्षा में दोनों में से कोई सम्भव नहीं!’
‘देखते हैं कि क्या होता है और क्या हो सकता है।’
‘जानते हो इसे क्या कहते हैं? एषणा!’
‘हाँ! जानता हूँ! लालसा, कामना, एषणा।’
‘कितनी छोटी-छोटी लालसाओं के साथ, छोटी-छोटी एषणाओं के साथ, और उनके पूर्ण होने की आशाओं के साथ जीते हुए हम अपना जीवन व्यतीत कर देने हैं न?’
‘छोटी-छोटी नहीं, छोटी-बड़ी एषणाओं के साथ!’
‘हाँ! छोटी-बड़ी ही सही। जानते हो शास्त्रोक्त एषणायें कितनी हैं?’
‘हाँ! तीन! वित्तैषणा, पुत्रैषणा एवं लोकैषणा। धन-सम्पत्ति की लालसा, सन्तान की की लालसा एवं इस जीवन में मान, यश, तथा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की लालसा।’
‘और वित्तैषणा का मूल कहाँ है?’
‘आज यह प्रश्नोत्तरी क्यों?’
‘कहो तो सही! वैसे भी, कुछ और कर सकने की सुविधा तुम्हारे पास उपलब्ध नहीं है, तो बैठे – ठाले क्या करें?’
‘अर्थ नामक पुरुषार्थ चतुष्टय में।’
-----तन्त्रपरक ललित निबन्ध (भाग १०)-----
‘भज कलदारम्, भज कलदारम्, भज कलदारम् मूढ़मते!’ नामक आप्त-वाक्य के अनुपालन में दिन बीता। वर्षा कभी मद्धिम तो कभी तीव्र गति से होती रही। कई वर्षों पूर्व इस प्रकार की वृष्टि श्रावण या भाद्रपद में हुआ करती थी कि दो-दो, तीन-तीन दिन सूर्य न दिखे और वर्षा की झड़ी लगी ही रहे किन्तु इधर कुछ वर्षों से ऐसा देखने में नहीं आया था। किन्तु कार्यालय अवधि समाप्त होने से कुछ समय पूर्व वर्षा रुक गयी, यद्यपि मेघ परस्पर एक दूसरे में घुसे जाते थे। यह वर्षा कितने समय के लिये रुकी है, कहना कठिन था। एक सहकर्मी कर्मचारी ने प्रस्ताव दिया कि यदि मैं चाहूँ तो वह मुझे स्टेशन तक छोड़ सकता है। अन्य कोई परिस्थिति होती तो मुझे प्रस्ताव स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होती किन्तु यदि निकलने के पश्चात वर्षा प्रारम्भ हुई तो हम दोनों भीगेंगे, यह सोच कर कहा – ‘अरे नहीं! मैं ई-रिक्शा से चला जाऊँगा।’
उसने पुनः कहा – ‘मैं छोड़ देता हूँ सर!’
यह प्रस्ताव नेह का था। इसकी अवहेलना कठिन थी। किन्तु इसे स्वीकार करना भी कठिन था। असमञ्जस की परिस्थियों में मैं बौद्ध हो जाया करता हूँ - ‘मज्झिम मार्ग’ का अनुयायी! मैंने बीच का मार्ग पकड़ा – ‘चलिये, केवल मुख्य सड़क तक छोड़ दीजिये! फिर आप भी निकल जाइयेगा। वर्षा शीघ्र ही पुनः होगी और जोर की होगी।’
उभय-पक्ष की सहमति से यही निश्चित हुआ। कार्यालय से निकलते ही, अभी अभी बाइक स्टार्ट तक नहीं हुई थी कि अनायास मेरी दृष्टि वर्षा में भीगती तीन गायों पर पड़ी जो एक दूसरे के कण्ठ से कण्ठ जोड़े खड़ी थीं। सत्यानाश! यात्रा शुभ प्रतीत नहीं होती। ‘पाँच भँइंसि, और छह-छह श्वान। एक बैल, एक बकरा जान।। तीनि धेनु, गज सात प्रमाण। चलत मिले जनि करहु प्रयाण।’ ये नगरीय पशुपालक अपनी गौवों के प्रति इतने निष्ठुर और अनुदार क्यों हैं? कातर दृष्टि से इतस्ततः देखती गौवों के मन में एक करुणा उत्पन्न हुई और अपशकुन देख एक खीझ भी, किन्तु सोचा कि अपने घर लौटते समय यात्रा का मुहूर्त नहीं देखा जाता तथा दैनिक यात्राओं में शकुन – अपशकुन का भी इतना महत्व नहीं! तो चलते हैं। वैसे भी साइत की तुलना में सुतार देखना अधिक व्यवहारिक है।
सड़क पर दस मिनट तक खड़े रहने पर भी कोई रिक्शा नहीं मिला। झींसी प्रारम्भ हो गयी। ‘फिर सुबह होगी तो सोचेंगे सफर कितना है, आज की रात इसी शहर में कयाम करो।’ मैंने स्वयं से कहा, और विभागीय ‘अधिकारी अतिथि-गृह’ की ओर कुछ तीव्र गति से प्रस्थान किया।
अतिथि-गृह के परिचारक श्री तिलकधारी जी महोदय कक्ष खोल कर अदृश्य हो चुके थे। लगभग पौन-एक घण्टे पश्चात् सुस्थीभूत हो कर मैंने घर पर सूचना देने को फोन निकाला तो देखा बैटरी अन्तिम साँसें ले रही है। यह सत्यानाश के ऊपर सवा-सत्यानाश था क्योंकि प्रातः शीघ्रता में मैं चार्जर और पॉवर- बैंक दोनों साथ लेना भूल गया था। ‘एक, समय काटने का जरिया था, वो भी गायब? तो अब कपास भी न ओटो, तो फिर क्या काम करो?’ फोन डिस्चार्ज न होता तो गज़ल तो चार पाँच मिनट में हो ही जानी थी, बट, लेकिन, किन्तु, परन्तु! पहले घर पर सूचित कर दो महाशय! अगर बैटरी बैठ गयी तो वह भी नहीं हो पायेगा। अस्तु! माबदौलत ने यह आवश्यक कार्य फटाफट निबटाया। बैटरी की पोजीशन भी बता दी और बात के बीच में ही ‘हेलो...! हेलो....!’ अबे काहे का हेलो? बैटरी गयी!
मन विषण्ण हो चुका था। उसने पूछा – ‘अब?’
‘अब क्या? पेट में कुछ जाने का जुगाड़ हो और तिलकधारी महोदय आयें तो सम्भवतः फोन चार्ज करने का भी जुगाड़ हो ही जाये।’
‘तुम और तुम्हारी लालसायें! इस वर्षा में दोनों में से कोई सम्भव नहीं!’
‘देखते हैं कि क्या होता है और क्या हो सकता है।’
‘जानते हो इसे क्या कहते हैं? एषणा!’
‘हाँ! जानता हूँ! लालसा, कामना, एषणा।’
‘कितनी छोटी-छोटी लालसाओं के साथ, छोटी-छोटी एषणाओं के साथ, और उनके पूर्ण होने की आशाओं के साथ जीते हुए हम अपना जीवन व्यतीत कर देने हैं न?’
‘छोटी-छोटी नहीं, छोटी-बड़ी एषणाओं के साथ!’
‘हाँ! छोटी-बड़ी ही सही। जानते हो शास्त्रोक्त एषणायें कितनी हैं?’
‘हाँ! तीन! वित्तैषणा, पुत्रैषणा एवं लोकैषणा। धन-सम्पत्ति की लालसा, सन्तान की की लालसा एवं इस जीवन में मान, यश, तथा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की लालसा।’
‘और वित्तैषणा का मूल कहाँ है?’
‘आज यह प्रश्नोत्तरी क्यों?’
‘कहो तो सही! वैसे भी, कुछ और कर सकने की सुविधा तुम्हारे पास उपलब्ध नहीं है, तो बैठे – ठाले क्या करें?’
‘अर्थ नामक पुरुषार्थ चतुष्टय में।’
‘अपनी त्रुटियों को एक सजा-सँवरा रूप देने में तुम सिद्धहस्त हो। चलो मान लिया। अब यह कहो कि पुत्रैषणा का मूल कहाँ है?’
‘निस्संदेह
काम नामक पुरुषार्थ चतुष्टय में!’
‘सुन्दर! अब लोकैषणा का मूल कहो!’
मैं चुप! एक चुप, हजार चुप! धर्म में कहूँ तो भी अनुचित है, मोक्ष में कहूँ तो भी अनुचित है। सत्य तो है! लोकैषणा का मूल कहाँ है? माना कि धर्म आज लोकैषणा हेतु ही पालित हो रहा है, किन्तु यह शाश्वत मूल्यों एवं शाश्वत मूल को अनुपालित तो नहीं करता! तो कहाँ है लोकैषणा का मूल? कहाँ?
मन ने टोका – ‘चुप क्यों हो? कहाँ है लोकैषणा का मूल?’
‘नहीं कह सकता! नहीं ज्ञात है।’
‘यह एक अच्छी बात है कि तुम अपने अज्ञान को अवगुण्ठन में नहीं रखते। चलो मैं बताता हूँ। वृहदारण्यकोपनिषद की उस सूक्ति को स्मरण करो जो कहती है – या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा, या वित्तैषणा सा लोकैषणा, उभे ह्येते एषणे एव भवतः। (बृहदारण्यकोपनिषत् ३-५-१) - पुत्रैषणा नाम पुत्रं प्राप्तुम् इच्छा। वित्तैषणा नाम धनंप्राप्तुम् आशा। लोकैषणा नाम स्वर्गलोकं जेतुं कामः। सर्वथापि तिस्रोऽपि एषणाः कामा एव। एषणा, कामः, आशा इति पर्यायपदानि। समझे कुछ?’
‘नहीं!’
‘तीनों एक ही हैं भई! वास्तविक रूप से तीनों एक ही पद - कामना या उसी के पर्याय आशा - के तीन रूप मात्र हैं। और यह तीन तो वर्गीकरण मात्र है। हर छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी कामना, और उसके पूर्ण होने की आशा कहीं न कहीं से इन्ही तीन वर्गों में से किसी एक में आ जाती है। कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने लिखा - सबके पीछे लगी हुई हैं कोई व्याकुल नई एषणा। और बच्चन ने लिखा – कामना मेरी बड़ी मुझसे या उससे मैं बड़ा, यह जानना था। आदमी के तन नहीं, मन, हौसले का कद मुझे पहचानना था। शिश्नोदर तृप्ति की कामना से प्रारम्भ हो कर मान-सम्मान से होते हुए स्वर्ग की प्राप्ति तक ही मनुष्य की चिन्ता जाती है। मुक्ति की कामना बिरलों को होती है। है तो मुक्ति की एषणा भी एषणा ही, किन्तु यह एषणा अन्य एषणाओं से इस अर्थ में भिन्न है कि इस एषणा के जागते ही अन्य एषणायें शमित हो जाया करती हैं। क्या है किसी का दिया हुआ सम्मान? तुम्हारे अहं की तुष्टि ही तो? वह किसी दिन तुम्हारा सम्मान करना बन्द भी कर सकता है। तुम डर गये, कि सम्मान चला जायेगा! और क्या है स्वर्ग की लालसा? उस स्वर्ग की, जिससे न जाने कितने धकिया कर निकाले गये, उसकी एषणा का क्या औचित्य? और तुम डर गये कि स्वर्ग तो गया हाथ से! मुक्तिकाम नहीं डरता! क्योंकि अर्थ का, काम का, सम्मान का उसके समक्ष कोई महत्व नहीं! स्वर्ग का उसके समक्ष कोई महत्व नहीं! उसके समक्ष किसी भी एषणा का कोई महत्व नहीं! जीवन है, तो जीवन के कुछ पूर्वबन्ध भी है, कुछ ऋणानुबन्ध भी हैं, जिनसे वह विवश अवश्य है, अतः उसे वह सब करना पड़ता है जो अन्य किया करते हैं, किन्तु निर्लिप्त है वह! असम्पृक्त है वह! वह मात्र पूर्वबन्धों का सम्मान करता है, ऋणानुबन्ध के अनुसार ऋणों का भुगतान करता है, क्योंकि उसके समक्ष तो प्रतिपल वह महाश्मशान है जिसमें समस्त भूतात्मक जगत लय हो चुका है, शिव भी जहाँ शव हो चुका है और उस शवीभूत शिव के वक्ष पर वह आद्या मधूक-पुष्पों से खचित मदिरा का पान कर नर्तन कर रही है। उसी महाश्मशान में कहीं तुम भी हो कङ्काल बना हुआ पड़ा, और अन्य भी हैं कङ्काल ही हुए पड़े। रश्मिरथी में दिनकर ने कृष्ण के विराट स्वरुप में कौरव-सभा में दिये कृष्ण के उद्बोधन में उनके मुख से कहलवाया – मृतकों से पटी हुई भू है। पहचान! कहाँ उसमें तू है! अब दिनकर के शब्दों में कृष्ण का द्वारा दुर्योधन की यह घर्षणा भले आसन्न युद्ध की विभीषिका का वर्णन हो, किन्तु यह तो तुझे ज्ञात ही है कि कृष्ण कौन थे! काली के पुरुषावतार! वे अवतरित ही हुए थे एक महाविनाश की भूमिका रचने हेतु जिसे मानवोचित शब्दावली में महाविनाश भले कहा जाये, वह था आद्या का लीला-विलास ही! विनाश नहीं, विलास! ययेदं धार्यते विश्वं योगिभिर्या विचिन्त्यते। ययेदं भासते विश्वं सैका काली जगन्मयी।। जिसके द्वारा यह समस्त जगत् धारित है, और जिसकी चिन्तना में समस्त योगिजन रत हैं, जिसके द्वारा यह समस्त जगती प्रकाशित है, वह एक ही है! मात्र जगन्मयी कालिका! विश्वोऽसि वैश्वानरो विश्वरूपं त्वया धार्यते जायमानम्। विश्वं त्वाहुतयः सर्वा यत्र ब्रह्माऽमृतोऽसि।। हे मुक्तप्राण! तुम विश्वस्वरूप हो। तुम्हीं विश्व में वैश्वानर रूप में विराट् होकर समस्त विश्व को अपने स्वरूप में धारण करते हो। वह वैश्वानर, जो सम्पूर्ण भूत-प्राणियों की देह में स्थित है। तुम ब्रह्मामृत स्वरूप हो तथा तुमसे प्रादुर्भूत यह विश्व जैसे तुरीयाग्नि में आहुतियाँ विलीन होती हैं, वैसे ही विलीन हो जाता है। प्राणाग्निहोत्रोपनिषद का यह वाक्य हो अथवा तन्त्रोक्त रात्रि-सूक्त का श्लोक त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्। त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।।, सभी एक स्वर से उस आद्या को सृजन, पालन एवं संहार का आदिभूत कारण उद्घोषित करते हैं। कृष्ण की गीता में शक्ति-तत्व विमर्श खोजने की चेष्टा तो करो! पदे-पदे साम्य मिलेंगे! गीता कहती है बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि, और सप्तशती कहती है सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। गीता कहती है भूतानामस्मि चेतना और शप्तशती कहती है चेतनेत्यभिधीयते। गीता कहती है स्मृतिर्मेधाधृतिः क्षमा और सप्तशती कहती है स्मृतिरूपेण संस्थिता और महामेधा महास्मृतिः।
शास्त्रों में शक्ति शब्द के प्रसंगानुसार अलग अलग अर्थ किये गए हैं। शाक्त जिसे पराशक्ति कहते हैं तो वेद, उपनिषद, पुराण उसी शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूलप्रकृति आदि नामों से करते हैं और कहते हैं कि यह ब्रह्म-सूचक है। यह निर्गुण स्वरूप देवी ही जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भावों को प्राप्त होकर ब्रह्मा विष्णु और महेश रूप से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करती है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्वयं भगवान् कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है - त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी, त्वमेवाद्या सृष्टिविधोस्वेच्छया त्रिगुणात्मिका। कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयं, परब्रहमस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी।। तेजःस्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा, सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा।। सर्वबीजरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया, सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगला।। अर्थात्, तुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आद्याशक्ति के रूप में विराजमान रहती हो तथा स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो। यद्यपि तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण बन जाती हो। तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो, तुम परम तेजस्वरूप हो तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये शरीर (भी) धारण करती हो, तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधार और परात्पर हो, तुम बीजस्वरूपा, सर्वपूज्या तथा आश्रयरहित हो, तुम सर्वज्ञ, सब प्रकार से मंगल करने वाली तथा समस्त मंगलों की भी मंगल हो। और देवी सूक्त में स्वयं देवी कहती है कि अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि, अहमादित्यैरुतविश्वदेवै । अहं मित्रावरुणोभौ विभर्मि अहमिन्द्राग्नि अहमश्विनोभौ।। अर्थात् मैं ही एकादशरुद्र रूप से विचरण करती हूँ, मैं ही समस्त देवताओं के रूप में अवस्थान करती हूँ, मैं ही आत्मा के रूप में अवस्थान करके मित्र और वरुण को धारण करती हूँ, मैं ही इन्द्र एवम् अग्नि को धारण करती हूँ, मैंने ही दोनों अश्विनीकुमारों को धारण कर रखा है, इसी प्रकार अहं सुवे पितरमस्य मूर्द्धानममयोनिरप्स्वन्तः समुद्रे। ततो वितिष्ठे भुवनानि विश्वा उतामुन्द्याम् वर्ष्मणोपस्पृशामि।। अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिमा सम्बभूव।। अर्थात्, सब भूतों के मूल कारण आकाश को मैं ही उत्पन्न करती हूँ, अपने परमात्मरूप से आकाशादि को प्रकाशित करती हूँ, मैं चैतन्यरूप से इस भुवन में व्याप्त हूँ, मैं ही प्रकृतिरूप से सबमें प्रविष्ट हूँ। मैं स्वयम् इस त्रिभुवन की सृष्टि करके इसके अन्दर और बाहर वायु की भाँति विराजमान हूँ। पृथिवी आदि सब स्थानों में मैं ही अपनी महिमा सहित अधिष्ठान करती हूँ।
उपनिषदों में इसी को पराशक्ति के नाम से जानते हैं – “तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजीजनत्। रुद्रोऽजीजनत्। मरुद्गणा अजीजनन्। गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनन्। भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत्। सर्व शाक्तमजीजनत्! अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जम् जरायुजम् यात्किन्चित्प्राणि स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत्। सैषा पराशक्तिः | – अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सराएँ, किन्नर, समस्त भोग्य पदार्थ और अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज जो कुछ भी स्थावर, जंगम, मनुष्यादि प्राणिमात्र हैं सब उसी पराशक्ति से उत्पन्न हुए हैं।
शक्ति का सिद्धान्त ही यह है कि वह सर्वस्याद्या अर्थात् सबकी आदिरूपा है। वही एक शक्ति है! अन्य किसी प्रकार की शक्ति है ही नहीं! सप्तशती में वही कहती है कि एकैवाहं जगत्यत्र द्वीतीया का ममापरा। वही सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार करती है – त्वमीश्वरी देवी त्वं देवी जननी परा। त्व्यैतद्धार्यते विश्वं त्व्यैतत्सृज्यते जगत्।। त्वैत्पाल्यते देवी त्वमस्यन्ते च सर्वदा। विसृष्टो सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने, तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मयी।। – तुम ही ईश्वरी हो, तुम ही सब विश्व को धारण करती हो, उत्पन्न करती हो, पालन करती हो, तथा अन्त में इसका संहार भी करती हो।
गीता उसी स्त्रीलिंग शक्ति का पुरुष-रूपोद्भव में कथित काव्य है किन्तु कृष्ण अपनी शक्तिम्भवा प्रतिकृति को या तो छिपा न सके, या वे छिपाना ही नहीं चाहते थे, इसी कारण तो जब तब वे सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्तिं मामिकाम्, कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृज्याम्यहम्, प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः, भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् आदि कहते हैं तो शक्ति-तत्व की उद्घोषणा ही तो दुहरा रहे होते है।’
मैं मन के इस भाषण के प्रति उपराम होता जा रहा था। मुझे जम्हाई आने लगी थी। मन ने टोका – ‘जम्हाई मत लो। जानते हो यह भाषण क्यों दिया जा रहा है?’
‘नहीं!’
‘इस लिये कि अब तुमसे स्तोत्र का अगला छन्द पढ़वाया जा सके।’
‘जब तुम मुझसे सम्बोधित हुए थे मैंने उसी समय समझ लिया था कि तुम्हारा उद्देश्य यही है।’
‘तो पढ़ो!’
‘या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।।’
‘यह क्या मजाक है? सप्तशती का श्लोक नहीं, कर्पूर-स्तव का अगला छन्द पढ़ो।’
‘मजाक नहीं है। मेरा तात्पर्य है कि मुझे भूख लगी है और भोजन की आशा नहीं दिखती। एषणा है तो है, किन्तु भूखे भजन मुझसे सम्भव नहीं।’
‘अरे भाई! वह आद्या अन्नपूर्णा रूप में कहीं न कहीं तुम्हारे लिये खेचरान्न रांध रही होगी। वर्षा रुकेगी। किन्तु जब तक नहीं रुकती तबतक क्या करोगे?’
बात तो सत्य थी। अतः मैंने पढ़ा –
अनेके सेवन्ते भवदधिकगीवार्णनिवहान्
विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ।
समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः
प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरससमहानन्दनिरताम् ।।१३।।
और मन अर्थ बताने को कहे उससे पहले ही बता कर उससे छुट्टी पा ली जाये इस उद्देश्य से अर्थ भी कह दिया – जो तुमको छोड़ कर अनेक अन्य देवताओं की सेवा किया करते हैं वे मूढ़ हैं, मूढ़ ही नहीं, विमूढ़ हैं क्योंकि वे तुझ परम तत्व को जानते ही नहीं किन्तु हे देवि! मैं तो मात्र तेरी, हरि, हर एवं विरंचि द्वारा भी, विष्णु, शिव एवं ब्रह्मा से भी, आराधित तथा रतिरसमहानन्द में निरत, परम स्वतन्त्र एवं मात्र स्वेच्छा से जो करना चाहे करे ऐसी, बस तुझ देवी की ही, शरण हूँ! अब रति-रस महानन्द निरत का अर्थ न पूछना।’
‘इस पूरे छन्द में दो ही तो विशेष शब्द हैं। एक स्वैरं एवं दूसरा रति-रसमहानन्दनिरताम्। शेष की व्याख्या तो कई बार हो चुकी है और छन्द भी अति सरल है। अब यही दोनों छोड़ दोगे? तो मेरे और तुम्हारे मध्य की इस वार्ता का लाभ ही क्या?’
‘स्वैरं का तात्पर्य तो यही है कि कवि उस आद्या को स्वैराचारी कहना चाहता है और उचित ही कहना चाहता है क्योंकि सिद्ध है कि वह जब जो चाहे करती है और अपने कृत्य में न तो उसे किसी के सहायता की अपेक्षा है, न किसी मार्गदर्शन की। बल्कि उसकी सहायता एवं मार्गदर्शन की अपेक्षा ही अन्य सभी को है। तो मनमौजी कहें, स्वेच्छाचारिणी कहें, स्वैराचारिणी कहें, जो कहें, अब वह है, तो है। और रति-रस को कौन नहीं जानता?’
‘नहीं भाई! यहाँ जिस रति का उल्लेख है वह लौकिक रति नहीं! यद्यपि आनन्द इसका भी कुछ वैसा ही होता है जैसा रतिजन्य आनन्द! अन्तर यह है कि लौकिक रति का आनन्द क्षणिक हुआ करता है और यहाँ जिस रति का उल्लेख हुआ है उस रति का आनन्द नित्य है। कुण्डलिनी का मूलाधार से निकल कर समस्त चक्रों को वेधते हुए, ग्रंथियों को खोलते हुए अन्ततः परम शिव से सायुज्य को भी तान्त्रिक – वाङ्मय मे रति ही कहा गया है और इसकी तुलना महाश्मशान में जड़ीभूत सोये शिव को संसृति-लीला हेतु जगा कर सृजन में संलग्न आद्या से की गयी है। सृजन का आनन्द भी एक आनन्द है यह तो तुम जानते ही हो। कुछ भी नया रच सकना कितने आनन्द का विषय है न? यह सृजन का आनन्द ही रति-रस आनन्द है। इसी कारण कहा गया है कि रचनाकार एवं योगी रमण-तृषा का दास नहीं हुआ करते। लौकिक रमण भी सृजन कर्म ही है, अतः उसमें भी एक आनन्द है अवश्य! किन्तु एक जीव की उत्पत्ति का हेतु बन कर जो क्षणिक आनन्द प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ आनन्द उस सृजन का आनन्द है जिसे रचनाकार कुछ नया रच कर प्राप्त कर लेता है और जैसे ही एक रचना पूर्ण होती है, उसका आनन्द भग्न होता है, वैसे ही वह कुछ नया रचने लगता है। और जो आनन्द स्वाभाविक रचनाकार नित्य कुछ नया रच-रच कर प्राप्त करता है, योगी उसे ही कुण्डलिनी को परमशिव से सायुज्य करा कर प्राप्त कर लेता है। अतः सृजन का आनन्द ही रति-रस आनन्द है जो परमानन्द है। इस समय बहुत स्पष्ट स्मरण नहीं हो रहा किन्तु सम्भवतः मातृकाभेद तन्त्र में उल्लिखित है - यद् रूपम् परमानन्दम् तन् नास्ति भुवनत्रये। और यह परमानन्द स्थूल के मिलन से नहीं दिव्य के मिलन से ही प्राप्त हो सकता है। तो वह आद्या तो नित्य सृजन में संलग्न है। उसके रतिरसमहानन्दनिरताम् होने में क्या शङ्का? किन्तु तनिक और सुनो! यह दो अक्षरों का जो रस शब्द है न? इसकी सम्पूर्ण व्याख्या अत्यन्त कठिन है। इस एक शब्द के अनेक क्षेत्र में अनेक अर्थ हैं। किन्तु यदि संक्षेप में कहें न? तो तैत्तिरीयोपनिषत् के अनुसार रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति । अब सः कौन है? सः है हंसः का उत्तरार्ध जिसमें हंकार है शिव वाच्य एवं सः है शक्ति वाच्य किन्तु जब शिववाच्य हंकार को निकाल भी दें तब भी जो सः बचा वह है वर्ण स के साथ लगा विसर्ग और स का अर्थ है सदाशिव एवं विसर्ग का अर्थ है आद्या शक्ति। एक है पुरुष और एक प्रकृति। अतः वह हर हाल में होती शिव के साथ ही है। बस शिव जड़ीभूत है तो शिव शक्तिमान नहीं, जाग गया तो शक्तिमान हो गया किन्तु है वह सदा संयुक्त! मूलाधार में स्वयम्भू लिंग को घेर कर सोयी हो अथवा सहस्रार से भी ऊपर उसकी कर्णिका में परमशिव को घेर कर नृत्यरत हो, वह सदा स्वयं ही रस है। रसो वै सः। एक और रहस्य है यहाँ, किन्तु उसे उपसंहार हेतु छोडो! देखो! वर्षा रुक गयी है। चलो कुछ खा लिया जाये।’
निकलने ही वाला था कि तिलकधारी महाशय आ गये। ये पूर्वपरिचित हैं मेरे। मैंने उनके हाथ में एक पात्र देखा। सम्भवतः वे अपना भोजन ले आये थे। रात को तो उन्हें भी यहीं रहना था। मैंने कहा – ‘आप खाना खा लीजिये पण्डित! तब तक मैं भी कहीं से कुछ खा आता हूँ।’ तिलकधारी पण्डित ने हाथ जोड़ लिये – अब हे बुन्नी बरखा में कहाँ जायेंगे बाबू जी? थोड़ी कृपा मुझ पर भी हो जाय। क्वाटर का किचन टपकता है। पानी भर गया था तो भागवान ने आज खिचड़ी ही बना दी। और खुदई बोली कि बाबू जी के लिये भी लेत जा। मैंने कहा कि आज मौका भी लगा था तो दुर्भाग्य कि दो रोटी तक न बन सकी। किन्तु ले आया हूँ। गर्म है अभी और मेरी घरवाली खिचड़ी बहुत स्वाद का बनाती है। बड़े प्रेम से भेजी है। मना मत करियेगा।’
मन ने कहा – देखा! मैं न कहता था कि वह आद्या अन्नपूर्णा रूप में कहीं न कहीं तुम्हारे लिये खेचरान्न रांध रही होगी। खिचड़ी खेचरान्न का ही बिगड़ा रूप तो है। अब क्या है? उसने प्रेम से भेजा है। तुम भी प्रेम से पाओ!’
खिचड़ी, चोखा, और भरुआ मिर्चा। भूख तो थी ही, किन्तु भोजन सच में स्वादिष्ट था। और खिचड़ी में घी भले नहीं था किन्तु सारा भोजन ही नेह के घृत से परिप्लुत था। जिह्वा भी तृप्त हुई, उदर भी और मन भी। आधे से अधिक बच भी गया। भूख गयी, तो साथ में थकान भी ले गयी। भोजन के बाद कुछ बातें तिलकधारी पण्डित से भी हुईं। बात-बात में पण्डित ने कहा – जब आपके रुके का होवा करे तो हमें फोन कइ दिहा जाय। तब याद आया, अरे! चार्जर! मैं तो भूल ही गया था।
‘क्या यार पण्डित? बिना बताये निकल लिये। पानी भी नहीं रख गये। जाते समय बताया होता तो चार्जर मँगवाना था तुमसे। लड़के-बाले तुम्हारे ये वाला फोन तो चलाते होंगे?’ मैंने अपना फोन दिखा कर कहा।
‘का कहते हैं बाबूजी? चलाते? अरे दिना भर ओही में घुसे रहते हैं सबरे। एक ठो धियरी है, ऊहो काने में ठेंठी खोंस के दिना भर ठुमका करति है। रुका जाय अभिये मँगवा दीत है।’ तिलकधारी पण्डित ने फोन किया तो उनका ज्येष्ठ सुपुत्र एक साथ तीन चार्जर ले कर आ गया – ‘मैंने सोचा कि पता नहीं कौन लगे, कौन न लगे, और बाऊ जी बता नहीं पाते रहे।’
इस बार मैंने अपने मन से कहा – ‘देखा?’ और पिता-पुत्र दोनों भोजन वाला डिब्बा समेट कर यह कहते हुए निकल लिये – ‘अब आप आराम कीन जाय।’
मन ने पूछा – ‘अब सोया जाये?’
मैंने कहा – ‘गधे के पीठ पर जैसे सात मन वैसे साढ़े सात मन। अगला छन्द मैं स्वयं सुनाता हूँ –
धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं
त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम्।
स्तुतिः का ते मातर्निजकरुणया मामगतिकम्
प्रसन्नां त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः।।१४।।
धरित्री, कीलाल कहते हैं जल को, शुचि अग्नि है, समीर अर्थात् वायु, और गगन भी, ये पञ्च तत्व तुम्हीं हो। हे गिरिश – रमणी। हे काली! सकल चराचर और स क ल अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश सब तो एक मात्र तुम ही हो! तो तुम्हारी क्या स्तुति की जाय? कैसे की जाय? अतः हे माता! तुम मुझ अगतिक पर, जिसकी कहीं कोई गति नहीं है ऐसे मुझ पर, तुम अपनी करुणा से, अर्थात् मुझपर दया करके, बिना किसी स्तुति के ही प्रसन्न हो जाओ जिससे अब इस संसार में पुनः मेरा जन्म न हो। और यह छन्द तो भगवत्पाद के सौन्दर्य-लहरी वाले उसी पूर्व कथित छन्द की अविकल प्रस्तुति है जिस पर चर्चा हो चुकी है। भगवत्पाद आज्ञाचक्र से मूलाधार की ओर चले थे, और यह महाकाल नाम्नी कवि मूलाधार से आज्ञाचक्र की ओर चला। बात ख़त्म!’
‘बड़े चतुर हो भाई! मैं भी कहूँ कि गधा इतनी जल्दी आधा मन बोझ और लादने को तत्पर क्यों हो गया? लेकिन इतनी शीघ्रता में हो क्यों तुम? क्यों निपटाना चाहते हो जैसे-तैसे? चलो! तुम्हारी मर्जी! लेकिन गिरिश–रमणी है अथवा गिरीश – रमणी?’
‘लगता तो यही है कि कुछ गलत है। गिरिश तो नहीं होता है। गिरीश ही होना चाहिये!’
‘तो बात कैसे ख़त्म? किन्तु तुम गलत हो! महाकाल ठीक कहता है! गिरीश होगा तो इसका अर्थ हिमालय हुआ और वह आद्या पार्वती रूप में हिमालय की पुत्री मानी जाती है अतः गिरीश-रमणी से तो अनर्थ हो जायेगा। अतः गिरिश–रमणी ही है वह! गिरिश अर्थात् गिरि + श - गिरौ कूटे शेते इति गिरिशः। कूट शब्द के वैसे तो अनेक अर्थ हैं, किन्तु उनमें से इसका एक अर्थ शिखर भी होता है। गिरि शिखर पर जो सोता है वह गिरिश है। तो कौन है गिरिश?’
‘वह तो कैलास वासी शिव ही हुए!’
‘निस्संदेह! किन्तु यहाँ श्लेष भी है! कैलास छहों चक्रों के ऊपर वाले उच्चतम भाग को भी कहा जाता है और उसके भी ऊपर, एकदम शिखर पर सोता है वह परम शिव जिससे जा कर मिलती है कुण्डलिनी! उस कूटस्थ ब्रह्म के साथ रमण करने वाली है गिरिश-रमणी! वह कैलास पर्वत भौगोलिक कैलास है, यह कैलास आध्यात्मिक कैलास है। और बात अभी भी ख़त्म नहीं हुई। समस्त साधना के बाद भी, सारे उपायों के बाद भी, कवि यह क्यों कहता है कि स्तुति नहीं कर सकूँगा मैं! तुम दया करके, करुणा करके, मुझपर प्रसन्न हो जाओ!’
‘क्योंकि है वह करुणामयी, तो लाभ लिया जा सकता है उसकी करुणा का।’
‘नहीं! देखो! ये समस्त साधनायें भी तभी सध सकेंगी, जब वह प्रसन्न हो! अन्यथा माया मार्ग में इतनी बाधायें, इतने प्रलोभन खड़े कर देगी, कि बहकना पड़े ही पड़े! धन दे देगी, काम-सुख दे देगी, मान-सम्मान दे देगी, स्वर्ग भी दे देगी! यही है एषणा! तो पूर्ण कर देगी! भुलवा देगी मार्ग से! और इस भुलावे में जो भूला, वह जहाँ भुलाया वहीं रुक जायेगा। और फिर माया उसे पतन के मार्ग पर धकेल देगी। चल निकल! किन्तु न तो किसी भुलावे में भूलना है, न ही उस आद्या को! और यह न भूलना इतना सरल नहीं! क्योंकि शक्तिवाद का ही सिद्धान्त है कि माया बड़ी बलवान है। अहंकारी व्यक्ति तो उस पर कदापि विजय नहीं प्राप्त कर सकता। गीता के सप्तम अध्याय का चौदहवाँ श्लोक है – दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। प्रकृति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं। अब यह मान कर चलो कि जो वह श्याम कहता है वही श्यामा कहती है। त्रिभंगीलाल है वह, तीन जगह से टेढ़ा! और कुण्डलिनी के फेरे कितने? साढ़े तीन! तो मोड़ के, सन्धि के स्थान कितने हुए? तीन! उसी आद्या का पुरुषावतार है कृष्ण! और उसकी योगमाया भी वही है! वही आद्या! और त्रिगुणात्मिका है वह! गुणों का सारा जड़ एवं दृश्यमान यह प्रपंच इस माया में ही समाया है। इसीलिये इसे गुणमयी कहा गया। किन्तु गुण का अर्थ रस्सी भी होता है। तो जो रस्सी है वह तो बाँधेगी ही! यह माया अत्यन्त असाधारण तथा विचित्र शक्ति है इसी कारण इसे भी देवी कहा गया। अतः कार्य और कारणरूपा इस माया के रहस्य को पूर्ण रूप से तो जाना ही नहीं जा सकता और जब जानोगे नहीं, पहचानोगे नहीं, तो बचोगे कैसे? घेर ही लेगी कभी न कभी! तो यदि माया से बचना है तो आद्या की शरण में जाए बिना कार्य नहीं सधने वाला! देवी की कठिन माया से पार पाने का एक ही मार्ग है – उसी की शरणागति! शेष सभी जप-तप, साधना, मन्त्र, यन्त्र, न्यास, सब इसके बाद के कार्य हैं। पहले चाहिये उसके प्रति अनन्य एवं विनम्र शरणागति! क्योंकि उस सर्व-स्वरूपा की स्तुति का कोई ठीक-ठाक सा ढंग है कहाँ किसी के पास? तो जो सम्भव ही नहीं, वह करने का प्रयास करने की आवश्यकता ही क्या है? सप्तशती के एकादश अध्याय में उस आद्या की स्तुति करते समय सारे देवता एक साथ कहते हैं कि – विद्या: समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः।। (छठवाँ श्लोक) देवि ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। हे जगदम्बा! जब एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है तो तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं स्वयं परा वाणी हो! और स्तुति करते – करते थक जाते हैं। फिर कहते हैं - विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या। ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।। (इकतीसवां श्लोक) विद्याओं में, ज्ञान को प्रकाशित करनेवाले शास्त्रों में तथा आदिवाक्यों में अर्थात् वेदों में, तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है? तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्व को अज्ञानमय घोर अन्धकार से परिपूर्ण ममतारूपी गर्त में निरन्तर भटका सकता हो?* यही कारण था कि तेरहवें छन्द में उस कौल कवि महाकाल ने आद्या को छोड़ कर अन्य की उपासना करने वालों को विमूढ़ तक कह दिया। मूढ़ नहीं, विमूढ़! विशेषतया मूढ़! क्यों कि जब सभी देवता उसी की स्तुति करते हैं तो उन देवों की स्तुति करने वाला विमूढ़ नहीं तो और क्या कहा जायेगा? दाता भी जिसके समक्ष भिक्षुक है, जिससे माँग रहा है, तुम भी सीधे उसी से क्यों नमाँग लो ? और देवताओं ने भी कह दिया कि का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः? कैसी की जा सके तुम्हारी स्तुति? और च का त्वदन्या? तुम्हारे अतिरिक्त अन्य है ही कौन? तो देवता जिसकी स्तुति करने में असमर्थ रहे, उसकी स्तुति क्या तुम करोगे और क्या कोई अन्य करेगा? सम्भव ही नहीं!
अब बात तुम्हारी भी सही है। इतनी बात हो चुकी है कि बहुत सी बातें तो हम कर चुके हैं, अतः उनको दुहराने से, पिष्ट-पेषण से, चर्वित-चर्वण से कोई लाभ तो है नहीं। किन्तु हर जगह कुछ नया भी तो है? उसे न छोड़ो। चलो! सो जायें!’
‘नहीं! वह आधा मन बोझ तुमने पकड़ लिया। तो आधा मन और! अगला छन्द!’
‘क्या करते हो यार? दूसरी रात भी जागते ही काटनी है?’
‘अब जो भी समझो किन्तु अगला छन्द –
श्मशानस्थः सुस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः
सहस्रं त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम्।
जपंस्त्वत्प्रत्येकं मनुमपि तव ध्याननिरतो
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः।।१५।।
सुस्थ हो कर, शमशान में अपने केश खोले हुए, नग्न हो कर, तुम्हारा ध्यान करते हुए, तुम्हारे मन्त्रों को जपता हुआ, चिता में अपने स्खलित वीर्य से अभिसिंचित एक सहस्र मंदार-पुष्पों की जो आहुति देता है वह समस्त धरती का राजा हो जाता है।
मन कसमसा उठा - ‘देखो! मैं कहता हूँ कि चलो अब सो जायें! तुम्हारा मस्तिष्क कार्य नहीं कर रहा है अब।’
‘क्यों? चिता साधना की विधि बता रहा है महाकाल! काली के किसी भी पूर्व निर्दिष्ट मन्त्र से चिता में उपरोक्त विधि से आहुति देने का विधान है।’
‘अच्छा! सो जाओ! कल बात करेंगे!’
‘नहीं! आज! अभी!’
‘देख भाई! श्मशान क्या है यह बहुत पहले समझाया जा चुका। दिग्पट-धर अर्थात् दिशाओं को वस्त्र बनाना क्या है, कैसा नंगापन है, यह भी बहुत पहले समझाया जा चुका। गलित-चिकुर के सम्बन्ध में भी बताया जा चुका है। फिर भी ऐसा अर्थ?’
‘किन्तु वह तो देवी के सम्बन्ध में था! यहाँ तो साधक के सम्बन्ध में ये तीनों हैं। चलो! साधक के सम्बन्ध में विगलित-चिकुर को अचञ्चल-चित्त हो कर, ऐसा मान लिया। शेष तो ठीक ही है।’
‘नहीं! नहीं ठीक है! समस्या यह है तुम्हारी कि जो साधक से सम्बंधित है, उसे तुम देवी से सम्बंधित मान लेते हो और जो देवी से सम्बंधित है उसे तुम साधक से सम्बंधित मान लेते हो। यहाँ इन तीनों पदों का सम्बन्ध साधक से नहीं देवी से है। अर्थात् देवी का जो स्वरूप पिछली कड़ियों में व्याख्यायित किया गया उस स्वरुप का, महा-श्मशान में, दिगम्बरा, मुक्त-केशा आदि का जो तात्पर्य बताया गया उस स्वरुप का ध्यान करते हुए।’
‘नहीं! तन्त्रान्तरों में भी यह प्रयोग बताया गया है। विश्वसारतन्त्र में भी है, कालीतन्त्र में भी है। श्मशानस्थो भवेत्स्वस्थो गलितं चिकुरं चरेत्, दिगम्बरः सहस्रं च सूर्य पुष्पं समानयेत्। स्ववीर्य प्लुतं कृत्वा प्रत्येकं प्रजपन स च, पूज्य ध्यात्वा महाभक्त्या क्षमापालो नरः भवेत्।।’
‘अरे यार! पहले यहाँ का समझ लो! वहाँ का भी समझ में आ जायेगा। पहले इसका अन्वय देखो – हे महाकालि! श्मशानस्थः गलितचिकुरो दिक्पटधरः स्वैरं (च), तव ध्यान निरतो सुस्थो जपंस्त्वत्प्रत्येकं मनुमपि, सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण स भवति धरित्रीपरिवृढः। कहाँ है इसमें चिता और कहाँ है उसमें होम? कहाँ है वीर्य-सिंचित आक का पुष्प?’
‘क्यों? स्पष्ट तो है - सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण! तुमने अन्वय करके स्वयं और भी स्पष्ट कर दिया। त्वकार्णां कुसुमम् – आक का पुष्प और निज गलित वीर्येण, ये तो है ही। श्मशान है तो चिता होगी ही! फिर क्या करना है उन सहस्र पुष्पों का होम के अतिरिक्त?’
‘यह त्वर्काणां नहीं, तुम्हारा कुतर्काणां है। चलो! त्वर्काणां को भी तोड़ दो। कौन सी सन्धि है इसमें?’
‘स्वर सन्धि!’
‘वह तो है ही! कौन सी स्वर सन्धि?’
‘त्व + अर्काणां – दीर्घ सन्धि!’
अचानक एक कड़कती सी ध्वनि आयी – ‘एक्के तमाचा मारब कनपटी लाल हो जाई तोहार!’ मैंने चारो ओर देखा! यहाँ यह ध्वनि कैसे? मन ने कहा – ‘अब निपट लो इनसे पहले! मैं बाद में मिलता हूँ!’
‘ई दीर्घ सन्धि है? अ + अ = आ। तो त्वर्काणां होई कि त्वार्काणां? बन्द कर सब ई कुल! दादा दादा कहि के कुल तोर दिमाग खराब कइ देहले हवें सो। बन्द कर! आ बिहने जा के घरे, फेर से खोजि के पढ़ु! बन्द कर!’
मस्तिष्क सांय – सांय करने लगा! ये तो पिताश्री की आवाज है। सब भूल गया! आँखें बन्द कर लीं! प्रतीत हुआ कि कक्ष घूम रहा है। सम्हाल कर उठा और पानी की बोतल सीधे मुँह से लगा ली। भर पेट पी कर कुछ स्वस्थ होने लगा था तब तक मन ने टहोका दिया – कह रहा था सो जाओ! लेकिन नहीं! आज! अभी! मिल गया खाने भर का?’
‘उनसे कुछ कहने भर की तो औकात नहीं मेरी! लेकिन यार! कल तुमने कहा था कि एक अवग्रह लुप्त था दसवे छन्द में तो हो सकता है यहाँ भी हो! त्वऽअर्काणां हो!’
‘अभी भी लगता है कि कुछ बाकी है तुम्हारा! एक जगह लुप्त है तो क्या हर जगह होगा? यण् सन्धि है यह! ‘तु + अर्काणां’! उ या ऊ से पूर्व किसी विजातीय स्वर के आने पर उ अथवा ऊ, व में परिवर्तित हो जाता है। अब कुतर्क छोडो और इस छन्द का वास्तविक अर्थ सुनो! अर्क भी बहु-विकल्पी शब्द है तथा इसका एक अर्थ रश्मि या किरण भी होता है। तो सहस्रं तु अर्काणां कुसुमम् का अर्थ हुआ सहस्र रश्मियों वाला कुसुम! सहस्रार दल की बात है यह! आक के पुष्प की नहीं! और निज गलित वीर्येण का भी तात्पर्य उसी सहस्रार के निज गलित वीर्य से है, तुम्हारे या साधक के वीर्य से नहीं! सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण का अर्थ है सहस्र-दल कुसुम से झरते उसके रस से! सहस्रार से झरता वही रस! जिसका योगी पान करता है और अमृत कहता है! वही रस, जिसका कुण्डलिनी पान करती है। अतः अर्थ हुआ कि
हे महाकालिके! जो साधक सुस्थीभूत हो कर तुम्हारे श्मशानस्थ, दिगम्बरा, मुक्तकेशा और स्वैरं च, स्वेच्छया विहार करती हुई तुम्हारे पूर्व व्याख्यायित स्वरुप का ध्यान करते हुए पूर्व कथित मन्त्रों में से किसी एक का भी जप करता है वह सहस्र रश्मियों वाले कुसुम अर्थात् सहस्रार से झरते हुए उसके मकरन्द – रस के प्रभाव से इस धरित्री का राजा हो जाता है। तात्पर्य है कि बहुत हठ करके योग आदि करने की भी उतनी आवश्यकता ही नहीं! सुस्थीभूत हो कर उस आद्या का वास्तविक स्वरूप जानते हुए उस स्वरुप के ध्यान एवं उसके मन्त्रों में से किसी एक का भी रहस्य जानते हुए उस आद्या का जप करने मात्र से ही कुण्डलिनी का जागरण, चक्रों का एवं ग्रंथियों का भेदन आदि हो कर कुण्डलिनी का सहस्रार तक पहुँच जाना सम्भव हो जाता है! डायरेक्ट रिजल्ट! और फिर, जाको कछू न चाहिये वो ही शाहनशाह! तो ऐसा होने पर साधक को और क्या चाहिये? हो तो गया वह पृथ्वी का राजा! कितना स्पष्ट कहा उस महाकाल नामक कवि ने, और कितनी सहज विधि बता दी किन्तु तन्त्र है तो चिता – साधना तो जबरन ठोंक - ठूँस कर घुसानी ही है। चिता साधना इस प्रकार नहीं होती! उसकी विधि अन्य है! अब भी सोना है या नहीं! तुम जाग सकते हो तो मैं तो हूँ ही तुम्हारे साथ!
नहीं! अब और जागने की क्षमता नहीं थी! अडतालीस घण्टों से अधिक हो चुके थे। मैंने विराम देना उचित समझा। और सोने का प्रयास करने लगा। जाने कब नींद आयी। सम्भवतः तत्काल ही आ गयी थी। मैंने एक स्वप्न देखा! विचित्र स्वप्न! देखा कि एक बहुत ऊँची इमारत है। कई मंजिल की! उसमें रंगाई-पुताई चल रही है। और मैं उसे देखते हुए सबसे ऊपर वाली मंजिल पर पहुँच जाता हूँ! यह मंजिल अभी बहुत गन्दी सी है और सीढ़ी के पास ही बाहर, दीवार पर एक बिना पल्लों वाली आलमारी है जिसमें पुस्तकें बेतरतीब सी भरी है। किन्तु वह आलमारी इतने ऊपर टँगी है कि देखने को किसी स्टूल या सीढ़ी पर चढ़ना आवश्यक है। इधर-उधर देखता हूँ तो कोई साधन नहीं चढ़ कर पुस्तकों को देखने का। मैं प्रयास करके उस मंजिल की रेलिंग पर जो आलमारी के पास ही है, एक पाँव उस पर और एक आलमारी के एक खाने में टिका कर पुस्तकें देखने लगता हूँ। एक से बढ़ कर एक पुस्तकें! एक एक कर जो भी अच्छी या उपयोगी समझता हूँ उसे फर्श पर गिराने लगता हूँ। निश्चित मकानमालिक इसे कबाड़ के भाव बेचेगा! तो कुछ दे दिला कर उन पुस्तकों को मैं अपने साथ ले जाना चाहता हूँ और तभी मेरा पैर रेलिंग से फिसल जाता है। मैं गिरने लगता हूँ। गिरता ही जा रहा हूँ! धरती पर नहीं आ पा रहा, बस गिर रहा हूँ। मुझे मेरे बच्चे याद आते हैं, मेरी पत्नी याद आती है, और भी कुछ लोग याद आते हैं। मुझे प्रतीत होता है कि आज मैं मर जाऊँगा। क्या होगा उनका? मृत्यु निश्चित है। कातर हो कर मैं अपनी आराध्या को पुकारता हूँ। पुकारता जाता हूँ! जितने मन्त्र याद हैं, जितने स्तोत्र याद हैं सब पढ़ता जाता हूँ और फिर भी गिरता ही जा रहा हूँ।
नींद खुली! देखा तिलकधारी पण्डित झकझोर कर जगा रहे हैं – ‘बाबू जी! बाबू जी! उठा जाय! क्या हो गया? का का बोल रहे हैं नींद में?’
मैं हड़बड़ा कर उठा। बचा लिया तिलकधारी पण्डित ने आज, अन्यथा हो सकता था कि सोते में ही हृदयाघात हो जाता! किन्तु मैं कुछ बड़बड़ा भी रहा था? क्या? लज्जित सा पूछा – ‘क्या बोल रहा था मैं पण्डित?’
‘पता नहीं बाबूजी! कुछ समझ तो नहीं आवा लेकिन कुछ आवताम जावताम कह रहे थे आप। छोड़ा जाय ऊ सब! कौनो सपना देखत रहा होइहें आप! बहुत घबराये रहे आप! जाये दीन जाय ससुर को! चाय लायेन हैं। मुँह धो के कुल्ला कइ लीन जाय आ पी लीन जाय ना त सेरा जाई। उठा जाय!’
मैंने सोचा - ‘आवताम जावताम? ओह! और एक फीकी हँसी के साथ हाथ जोड़ उस आद्या को प्रणाम करते हुए मैं बुदबुदा उठा -
उमेश्वरे उमामयी, रमेश्वरे रमामयी,
गिरीश्वरे प्रमामयी, क्षमामयी क्षमावताम्।
सुधाकरे सुधामयी, चराचरे द्विधामयी,
क्रियासु संविधामयी, स्वधामयी स्वधावताम्।।
जगत्सु चेतनामयी, मनःसु वासनामयी,
कविशु भावनामयी, प्रभामयी प्रभावताम्।
धनेषु चंचलामयी, कलावतां कलामयी,
शरीरिणाम इलामयी, शिलामयी सदावताम्।।
‘इहे! इहे बोलत रहे आप!’ तिलकधारी पण्डित ने कहा। मैंने हाथ मुँह धोया, और चाय की एक घूँट भरी। चाय अच्छी थी। चीनी कम, दूध ज्यादा और पत्ती कड़क!
[यदि आपने इस शृंखला के पिछले भाग नहीं पढ़े हैं तो यह भाग पढ़ने से कोई लाभ नहीं, अतः निवेदन है कि इस शृंखला के सभी आलेख एक नैरन्तर्य में पढ़ें।]
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-----क्रमशः, और शीघ्र!-------
त्रिलोचन नाथ तिवारी...
निर्दिष्ट पाद
टिप्पणी.. ...
* इस स्थल पर सप्तशती के सम्पूर्ण एकादश अध्याय तथा तन्त्रोक्त रात्रि-सूक्त को सन्निहित जानें तथा उसका पारायण वहीं से कर लेवें। वैसे भी देवी की उपासना का पर्व चल ही रहा है।
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----एक निवेदन----
इस शृंखला के किसी भी आलेख को कॉपी-पेस्ट करना प्रतिबन्धित है। साथ ही यह भी निवेदन है कि इस निबन्ध को उस दक्षिणा काली का लालित्य-प्रसाद मान कर पढ़ें।
इन पङ्क्तियों का लेखक तन्त्र-ज्ञान में शून्य है अतः तत्सम्बन्धी टिप्पणियों के उत्तर देना सम्भव नहीं है।
आलेख के किसी शब्द/वाक्य/कथन से किसी का भी कोई मतभेद हो तो विद्वज्जन अपनी धारणा पर स्थिर रहने हेतु स्वतन्त्र हैं। बुद्धि-विलास का यह उपक्रम विवाद का प्रक्रम बने इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि यह रस की हाट है! ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर कोई मार्ग नहीं जाता!
आश्विन शुक्ल चतुर्थी,
विक्रम संवत २०७९
तदनुसार दिनाङ्क २९.०९.२०२२
प्रात बेलायां,
आद्यार्पणमस्तु।
[यदि टङ्कण की
कोई त्रुटि है, तो उस हेतु अलग से क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योंकि अब उन्हें सुधारने
का न कोई अवसर है, न कोई औचित्य!]
‘सुन्दर! अब लोकैषणा का मूल कहो!’
मैं चुप! एक चुप, हजार चुप! धर्म में कहूँ तो भी अनुचित है, मोक्ष में कहूँ तो भी अनुचित है। सत्य तो है! लोकैषणा का मूल कहाँ है? माना कि धर्म आज लोकैषणा हेतु ही पालित हो रहा है, किन्तु यह शाश्वत मूल्यों एवं शाश्वत मूल को अनुपालित तो नहीं करता! तो कहाँ है लोकैषणा का मूल? कहाँ?
मन ने टोका – ‘चुप क्यों हो? कहाँ है लोकैषणा का मूल?’
‘नहीं कह सकता! नहीं ज्ञात है।’
‘यह एक अच्छी बात है कि तुम अपने अज्ञान को अवगुण्ठन में नहीं रखते। चलो मैं बताता हूँ। वृहदारण्यकोपनिषद की उस सूक्ति को स्मरण करो जो कहती है – या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा, या वित्तैषणा सा लोकैषणा, उभे ह्येते एषणे एव भवतः। (बृहदारण्यकोपनिषत् ३-५-१) - पुत्रैषणा नाम पुत्रं प्राप्तुम् इच्छा। वित्तैषणा नाम धनंप्राप्तुम् आशा। लोकैषणा नाम स्वर्गलोकं जेतुं कामः। सर्वथापि तिस्रोऽपि एषणाः कामा एव। एषणा, कामः, आशा इति पर्यायपदानि। समझे कुछ?’
‘नहीं!’
‘तीनों एक ही हैं भई! वास्तविक रूप से तीनों एक ही पद - कामना या उसी के पर्याय आशा - के तीन रूप मात्र हैं। और यह तीन तो वर्गीकरण मात्र है। हर छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी कामना, और उसके पूर्ण होने की आशा कहीं न कहीं से इन्ही तीन वर्गों में से किसी एक में आ जाती है। कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने लिखा - सबके पीछे लगी हुई हैं कोई व्याकुल नई एषणा। और बच्चन ने लिखा – कामना मेरी बड़ी मुझसे या उससे मैं बड़ा, यह जानना था। आदमी के तन नहीं, मन, हौसले का कद मुझे पहचानना था। शिश्नोदर तृप्ति की कामना से प्रारम्भ हो कर मान-सम्मान से होते हुए स्वर्ग की प्राप्ति तक ही मनुष्य की चिन्ता जाती है। मुक्ति की कामना बिरलों को होती है। है तो मुक्ति की एषणा भी एषणा ही, किन्तु यह एषणा अन्य एषणाओं से इस अर्थ में भिन्न है कि इस एषणा के जागते ही अन्य एषणायें शमित हो जाया करती हैं। क्या है किसी का दिया हुआ सम्मान? तुम्हारे अहं की तुष्टि ही तो? वह किसी दिन तुम्हारा सम्मान करना बन्द भी कर सकता है। तुम डर गये, कि सम्मान चला जायेगा! और क्या है स्वर्ग की लालसा? उस स्वर्ग की, जिससे न जाने कितने धकिया कर निकाले गये, उसकी एषणा का क्या औचित्य? और तुम डर गये कि स्वर्ग तो गया हाथ से! मुक्तिकाम नहीं डरता! क्योंकि अर्थ का, काम का, सम्मान का उसके समक्ष कोई महत्व नहीं! स्वर्ग का उसके समक्ष कोई महत्व नहीं! उसके समक्ष किसी भी एषणा का कोई महत्व नहीं! जीवन है, तो जीवन के कुछ पूर्वबन्ध भी है, कुछ ऋणानुबन्ध भी हैं, जिनसे वह विवश अवश्य है, अतः उसे वह सब करना पड़ता है जो अन्य किया करते हैं, किन्तु निर्लिप्त है वह! असम्पृक्त है वह! वह मात्र पूर्वबन्धों का सम्मान करता है, ऋणानुबन्ध के अनुसार ऋणों का भुगतान करता है, क्योंकि उसके समक्ष तो प्रतिपल वह महाश्मशान है जिसमें समस्त भूतात्मक जगत लय हो चुका है, शिव भी जहाँ शव हो चुका है और उस शवीभूत शिव के वक्ष पर वह आद्या मधूक-पुष्पों से खचित मदिरा का पान कर नर्तन कर रही है। उसी महाश्मशान में कहीं तुम भी हो कङ्काल बना हुआ पड़ा, और अन्य भी हैं कङ्काल ही हुए पड़े। रश्मिरथी में दिनकर ने कृष्ण के विराट स्वरुप में कौरव-सभा में दिये कृष्ण के उद्बोधन में उनके मुख से कहलवाया – मृतकों से पटी हुई भू है। पहचान! कहाँ उसमें तू है! अब दिनकर के शब्दों में कृष्ण का द्वारा दुर्योधन की यह घर्षणा भले आसन्न युद्ध की विभीषिका का वर्णन हो, किन्तु यह तो तुझे ज्ञात ही है कि कृष्ण कौन थे! काली के पुरुषावतार! वे अवतरित ही हुए थे एक महाविनाश की भूमिका रचने हेतु जिसे मानवोचित शब्दावली में महाविनाश भले कहा जाये, वह था आद्या का लीला-विलास ही! विनाश नहीं, विलास! ययेदं धार्यते विश्वं योगिभिर्या विचिन्त्यते। ययेदं भासते विश्वं सैका काली जगन्मयी।। जिसके द्वारा यह समस्त जगत् धारित है, और जिसकी चिन्तना में समस्त योगिजन रत हैं, जिसके द्वारा यह समस्त जगती प्रकाशित है, वह एक ही है! मात्र जगन्मयी कालिका! विश्वोऽसि वैश्वानरो विश्वरूपं त्वया धार्यते जायमानम्। विश्वं त्वाहुतयः सर्वा यत्र ब्रह्माऽमृतोऽसि।। हे मुक्तप्राण! तुम विश्वस्वरूप हो। तुम्हीं विश्व में वैश्वानर रूप में विराट् होकर समस्त विश्व को अपने स्वरूप में धारण करते हो। वह वैश्वानर, जो सम्पूर्ण भूत-प्राणियों की देह में स्थित है। तुम ब्रह्मामृत स्वरूप हो तथा तुमसे प्रादुर्भूत यह विश्व जैसे तुरीयाग्नि में आहुतियाँ विलीन होती हैं, वैसे ही विलीन हो जाता है। प्राणाग्निहोत्रोपनिषद का यह वाक्य हो अथवा तन्त्रोक्त रात्रि-सूक्त का श्लोक त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्। त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।।, सभी एक स्वर से उस आद्या को सृजन, पालन एवं संहार का आदिभूत कारण उद्घोषित करते हैं। कृष्ण की गीता में शक्ति-तत्व विमर्श खोजने की चेष्टा तो करो! पदे-पदे साम्य मिलेंगे! गीता कहती है बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि, और सप्तशती कहती है सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। गीता कहती है भूतानामस्मि चेतना और शप्तशती कहती है चेतनेत्यभिधीयते। गीता कहती है स्मृतिर्मेधाधृतिः क्षमा और सप्तशती कहती है स्मृतिरूपेण संस्थिता और महामेधा महास्मृतिः।
शास्त्रों में शक्ति शब्द के प्रसंगानुसार अलग अलग अर्थ किये गए हैं। शाक्त जिसे पराशक्ति कहते हैं तो वेद, उपनिषद, पुराण उसी शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूलप्रकृति आदि नामों से करते हैं और कहते हैं कि यह ब्रह्म-सूचक है। यह निर्गुण स्वरूप देवी ही जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भावों को प्राप्त होकर ब्रह्मा विष्णु और महेश रूप से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करती है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्वयं भगवान् कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है - त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी, त्वमेवाद्या सृष्टिविधोस्वेच्छया त्रिगुणात्मिका। कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयं, परब्रहमस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी।। तेजःस्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा, सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा।। सर्वबीजरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया, सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगला।। अर्थात्, तुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो, तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आद्याशक्ति के रूप में विराजमान रहती हो तथा स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो। यद्यपि तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण बन जाती हो। तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो, तुम परम तेजस्वरूप हो तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये शरीर (भी) धारण करती हो, तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधार और परात्पर हो, तुम बीजस्वरूपा, सर्वपूज्या तथा आश्रयरहित हो, तुम सर्वज्ञ, सब प्रकार से मंगल करने वाली तथा समस्त मंगलों की भी मंगल हो। और देवी सूक्त में स्वयं देवी कहती है कि अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि, अहमादित्यैरुतविश्वदेवै । अहं मित्रावरुणोभौ विभर्मि अहमिन्द्राग्नि अहमश्विनोभौ।। अर्थात् मैं ही एकादशरुद्र रूप से विचरण करती हूँ, मैं ही समस्त देवताओं के रूप में अवस्थान करती हूँ, मैं ही आत्मा के रूप में अवस्थान करके मित्र और वरुण को धारण करती हूँ, मैं ही इन्द्र एवम् अग्नि को धारण करती हूँ, मैंने ही दोनों अश्विनीकुमारों को धारण कर रखा है, इसी प्रकार अहं सुवे पितरमस्य मूर्द्धानममयोनिरप्स्वन्तः समुद्रे। ततो वितिष्ठे भुवनानि विश्वा उतामुन्द्याम् वर्ष्मणोपस्पृशामि।। अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिमा सम्बभूव।। अर्थात्, सब भूतों के मूल कारण आकाश को मैं ही उत्पन्न करती हूँ, अपने परमात्मरूप से आकाशादि को प्रकाशित करती हूँ, मैं चैतन्यरूप से इस भुवन में व्याप्त हूँ, मैं ही प्रकृतिरूप से सबमें प्रविष्ट हूँ। मैं स्वयम् इस त्रिभुवन की सृष्टि करके इसके अन्दर और बाहर वायु की भाँति विराजमान हूँ। पृथिवी आदि सब स्थानों में मैं ही अपनी महिमा सहित अधिष्ठान करती हूँ।
उपनिषदों में इसी को पराशक्ति के नाम से जानते हैं – “तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजीजनत्। रुद्रोऽजीजनत्। मरुद्गणा अजीजनन्। गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनन्। भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत्। सर्व शाक्तमजीजनत्! अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जम् जरायुजम् यात्किन्चित्प्राणि स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत्। सैषा पराशक्तिः | – अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सराएँ, किन्नर, समस्त भोग्य पदार्थ और अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज जो कुछ भी स्थावर, जंगम, मनुष्यादि प्राणिमात्र हैं सब उसी पराशक्ति से उत्पन्न हुए हैं।
शक्ति का सिद्धान्त ही यह है कि वह सर्वस्याद्या अर्थात् सबकी आदिरूपा है। वही एक शक्ति है! अन्य किसी प्रकार की शक्ति है ही नहीं! सप्तशती में वही कहती है कि एकैवाहं जगत्यत्र द्वीतीया का ममापरा। वही सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार करती है – त्वमीश्वरी देवी त्वं देवी जननी परा। त्व्यैतद्धार्यते विश्वं त्व्यैतत्सृज्यते जगत्।। त्वैत्पाल्यते देवी त्वमस्यन्ते च सर्वदा। विसृष्टो सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने, तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मयी।। – तुम ही ईश्वरी हो, तुम ही सब विश्व को धारण करती हो, उत्पन्न करती हो, पालन करती हो, तथा अन्त में इसका संहार भी करती हो।
गीता उसी स्त्रीलिंग शक्ति का पुरुष-रूपोद्भव में कथित काव्य है किन्तु कृष्ण अपनी शक्तिम्भवा प्रतिकृति को या तो छिपा न सके, या वे छिपाना ही नहीं चाहते थे, इसी कारण तो जब तब वे सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्तिं मामिकाम्, कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृज्याम्यहम्, प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः, भूतग्रामिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् आदि कहते हैं तो शक्ति-तत्व की उद्घोषणा ही तो दुहरा रहे होते है।’
मैं मन के इस भाषण के प्रति उपराम होता जा रहा था। मुझे जम्हाई आने लगी थी। मन ने टोका – ‘जम्हाई मत लो। जानते हो यह भाषण क्यों दिया जा रहा है?’
‘नहीं!’
‘इस लिये कि अब तुमसे स्तोत्र का अगला छन्द पढ़वाया जा सके।’
‘जब तुम मुझसे सम्बोधित हुए थे मैंने उसी समय समझ लिया था कि तुम्हारा उद्देश्य यही है।’
‘तो पढ़ो!’
‘या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।।’
‘यह क्या मजाक है? सप्तशती का श्लोक नहीं, कर्पूर-स्तव का अगला छन्द पढ़ो।’
‘मजाक नहीं है। मेरा तात्पर्य है कि मुझे भूख लगी है और भोजन की आशा नहीं दिखती। एषणा है तो है, किन्तु भूखे भजन मुझसे सम्भव नहीं।’
‘अरे भाई! वह आद्या अन्नपूर्णा रूप में कहीं न कहीं तुम्हारे लिये खेचरान्न रांध रही होगी। वर्षा रुकेगी। किन्तु जब तक नहीं रुकती तबतक क्या करोगे?’
बात तो सत्य थी। अतः मैंने पढ़ा –
अनेके सेवन्ते भवदधिकगीवार्णनिवहान्
विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ।
समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः
प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरससमहानन्दनिरताम् ।।१३।।
और मन अर्थ बताने को कहे उससे पहले ही बता कर उससे छुट्टी पा ली जाये इस उद्देश्य से अर्थ भी कह दिया – जो तुमको छोड़ कर अनेक अन्य देवताओं की सेवा किया करते हैं वे मूढ़ हैं, मूढ़ ही नहीं, विमूढ़ हैं क्योंकि वे तुझ परम तत्व को जानते ही नहीं किन्तु हे देवि! मैं तो मात्र तेरी, हरि, हर एवं विरंचि द्वारा भी, विष्णु, शिव एवं ब्रह्मा से भी, आराधित तथा रतिरसमहानन्द में निरत, परम स्वतन्त्र एवं मात्र स्वेच्छा से जो करना चाहे करे ऐसी, बस तुझ देवी की ही, शरण हूँ! अब रति-रस महानन्द निरत का अर्थ न पूछना।’
‘इस पूरे छन्द में दो ही तो विशेष शब्द हैं। एक स्वैरं एवं दूसरा रति-रसमहानन्दनिरताम्। शेष की व्याख्या तो कई बार हो चुकी है और छन्द भी अति सरल है। अब यही दोनों छोड़ दोगे? तो मेरे और तुम्हारे मध्य की इस वार्ता का लाभ ही क्या?’
‘स्वैरं का तात्पर्य तो यही है कि कवि उस आद्या को स्वैराचारी कहना चाहता है और उचित ही कहना चाहता है क्योंकि सिद्ध है कि वह जब जो चाहे करती है और अपने कृत्य में न तो उसे किसी के सहायता की अपेक्षा है, न किसी मार्गदर्शन की। बल्कि उसकी सहायता एवं मार्गदर्शन की अपेक्षा ही अन्य सभी को है। तो मनमौजी कहें, स्वेच्छाचारिणी कहें, स्वैराचारिणी कहें, जो कहें, अब वह है, तो है। और रति-रस को कौन नहीं जानता?’
‘नहीं भाई! यहाँ जिस रति का उल्लेख है वह लौकिक रति नहीं! यद्यपि आनन्द इसका भी कुछ वैसा ही होता है जैसा रतिजन्य आनन्द! अन्तर यह है कि लौकिक रति का आनन्द क्षणिक हुआ करता है और यहाँ जिस रति का उल्लेख हुआ है उस रति का आनन्द नित्य है। कुण्डलिनी का मूलाधार से निकल कर समस्त चक्रों को वेधते हुए, ग्रंथियों को खोलते हुए अन्ततः परम शिव से सायुज्य को भी तान्त्रिक – वाङ्मय मे रति ही कहा गया है और इसकी तुलना महाश्मशान में जड़ीभूत सोये शिव को संसृति-लीला हेतु जगा कर सृजन में संलग्न आद्या से की गयी है। सृजन का आनन्द भी एक आनन्द है यह तो तुम जानते ही हो। कुछ भी नया रच सकना कितने आनन्द का विषय है न? यह सृजन का आनन्द ही रति-रस आनन्द है। इसी कारण कहा गया है कि रचनाकार एवं योगी रमण-तृषा का दास नहीं हुआ करते। लौकिक रमण भी सृजन कर्म ही है, अतः उसमें भी एक आनन्द है अवश्य! किन्तु एक जीव की उत्पत्ति का हेतु बन कर जो क्षणिक आनन्द प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ आनन्द उस सृजन का आनन्द है जिसे रचनाकार कुछ नया रच कर प्राप्त कर लेता है और जैसे ही एक रचना पूर्ण होती है, उसका आनन्द भग्न होता है, वैसे ही वह कुछ नया रचने लगता है। और जो आनन्द स्वाभाविक रचनाकार नित्य कुछ नया रच-रच कर प्राप्त करता है, योगी उसे ही कुण्डलिनी को परमशिव से सायुज्य करा कर प्राप्त कर लेता है। अतः सृजन का आनन्द ही रति-रस आनन्द है जो परमानन्द है। इस समय बहुत स्पष्ट स्मरण नहीं हो रहा किन्तु सम्भवतः मातृकाभेद तन्त्र में उल्लिखित है - यद् रूपम् परमानन्दम् तन् नास्ति भुवनत्रये। और यह परमानन्द स्थूल के मिलन से नहीं दिव्य के मिलन से ही प्राप्त हो सकता है। तो वह आद्या तो नित्य सृजन में संलग्न है। उसके रतिरसमहानन्दनिरताम् होने में क्या शङ्का? किन्तु तनिक और सुनो! यह दो अक्षरों का जो रस शब्द है न? इसकी सम्पूर्ण व्याख्या अत्यन्त कठिन है। इस एक शब्द के अनेक क्षेत्र में अनेक अर्थ हैं। किन्तु यदि संक्षेप में कहें न? तो तैत्तिरीयोपनिषत् के अनुसार रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति । अब सः कौन है? सः है हंसः का उत्तरार्ध जिसमें हंकार है शिव वाच्य एवं सः है शक्ति वाच्य किन्तु जब शिववाच्य हंकार को निकाल भी दें तब भी जो सः बचा वह है वर्ण स के साथ लगा विसर्ग और स का अर्थ है सदाशिव एवं विसर्ग का अर्थ है आद्या शक्ति। एक है पुरुष और एक प्रकृति। अतः वह हर हाल में होती शिव के साथ ही है। बस शिव जड़ीभूत है तो शिव शक्तिमान नहीं, जाग गया तो शक्तिमान हो गया किन्तु है वह सदा संयुक्त! मूलाधार में स्वयम्भू लिंग को घेर कर सोयी हो अथवा सहस्रार से भी ऊपर उसकी कर्णिका में परमशिव को घेर कर नृत्यरत हो, वह सदा स्वयं ही रस है। रसो वै सः। एक और रहस्य है यहाँ, किन्तु उसे उपसंहार हेतु छोडो! देखो! वर्षा रुक गयी है। चलो कुछ खा लिया जाये।’
निकलने ही वाला था कि तिलकधारी महाशय आ गये। ये पूर्वपरिचित हैं मेरे। मैंने उनके हाथ में एक पात्र देखा। सम्भवतः वे अपना भोजन ले आये थे। रात को तो उन्हें भी यहीं रहना था। मैंने कहा – ‘आप खाना खा लीजिये पण्डित! तब तक मैं भी कहीं से कुछ खा आता हूँ।’ तिलकधारी पण्डित ने हाथ जोड़ लिये – अब हे बुन्नी बरखा में कहाँ जायेंगे बाबू जी? थोड़ी कृपा मुझ पर भी हो जाय। क्वाटर का किचन टपकता है। पानी भर गया था तो भागवान ने आज खिचड़ी ही बना दी। और खुदई बोली कि बाबू जी के लिये भी लेत जा। मैंने कहा कि आज मौका भी लगा था तो दुर्भाग्य कि दो रोटी तक न बन सकी। किन्तु ले आया हूँ। गर्म है अभी और मेरी घरवाली खिचड़ी बहुत स्वाद का बनाती है। बड़े प्रेम से भेजी है। मना मत करियेगा।’
मन ने कहा – देखा! मैं न कहता था कि वह आद्या अन्नपूर्णा रूप में कहीं न कहीं तुम्हारे लिये खेचरान्न रांध रही होगी। खिचड़ी खेचरान्न का ही बिगड़ा रूप तो है। अब क्या है? उसने प्रेम से भेजा है। तुम भी प्रेम से पाओ!’
खिचड़ी, चोखा, और भरुआ मिर्चा। भूख तो थी ही, किन्तु भोजन सच में स्वादिष्ट था। और खिचड़ी में घी भले नहीं था किन्तु सारा भोजन ही नेह के घृत से परिप्लुत था। जिह्वा भी तृप्त हुई, उदर भी और मन भी। आधे से अधिक बच भी गया। भूख गयी, तो साथ में थकान भी ले गयी। भोजन के बाद कुछ बातें तिलकधारी पण्डित से भी हुईं। बात-बात में पण्डित ने कहा – जब आपके रुके का होवा करे तो हमें फोन कइ दिहा जाय। तब याद आया, अरे! चार्जर! मैं तो भूल ही गया था।
‘क्या यार पण्डित? बिना बताये निकल लिये। पानी भी नहीं रख गये। जाते समय बताया होता तो चार्जर मँगवाना था तुमसे। लड़के-बाले तुम्हारे ये वाला फोन तो चलाते होंगे?’ मैंने अपना फोन दिखा कर कहा।
‘का कहते हैं बाबूजी? चलाते? अरे दिना भर ओही में घुसे रहते हैं सबरे। एक ठो धियरी है, ऊहो काने में ठेंठी खोंस के दिना भर ठुमका करति है। रुका जाय अभिये मँगवा दीत है।’ तिलकधारी पण्डित ने फोन किया तो उनका ज्येष्ठ सुपुत्र एक साथ तीन चार्जर ले कर आ गया – ‘मैंने सोचा कि पता नहीं कौन लगे, कौन न लगे, और बाऊ जी बता नहीं पाते रहे।’
इस बार मैंने अपने मन से कहा – ‘देखा?’ और पिता-पुत्र दोनों भोजन वाला डिब्बा समेट कर यह कहते हुए निकल लिये – ‘अब आप आराम कीन जाय।’
मन ने पूछा – ‘अब सोया जाये?’
मैंने कहा – ‘गधे के पीठ पर जैसे सात मन वैसे साढ़े सात मन। अगला छन्द मैं स्वयं सुनाता हूँ –
धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं
त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम्।
स्तुतिः का ते मातर्निजकरुणया मामगतिकम्
प्रसन्नां त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः।।१४।।
धरित्री, कीलाल कहते हैं जल को, शुचि अग्नि है, समीर अर्थात् वायु, और गगन भी, ये पञ्च तत्व तुम्हीं हो। हे गिरिश – रमणी। हे काली! सकल चराचर और स क ल अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश सब तो एक मात्र तुम ही हो! तो तुम्हारी क्या स्तुति की जाय? कैसे की जाय? अतः हे माता! तुम मुझ अगतिक पर, जिसकी कहीं कोई गति नहीं है ऐसे मुझ पर, तुम अपनी करुणा से, अर्थात् मुझपर दया करके, बिना किसी स्तुति के ही प्रसन्न हो जाओ जिससे अब इस संसार में पुनः मेरा जन्म न हो। और यह छन्द तो भगवत्पाद के सौन्दर्य-लहरी वाले उसी पूर्व कथित छन्द की अविकल प्रस्तुति है जिस पर चर्चा हो चुकी है। भगवत्पाद आज्ञाचक्र से मूलाधार की ओर चले थे, और यह महाकाल नाम्नी कवि मूलाधार से आज्ञाचक्र की ओर चला। बात ख़त्म!’
‘बड़े चतुर हो भाई! मैं भी कहूँ कि गधा इतनी जल्दी आधा मन बोझ और लादने को तत्पर क्यों हो गया? लेकिन इतनी शीघ्रता में हो क्यों तुम? क्यों निपटाना चाहते हो जैसे-तैसे? चलो! तुम्हारी मर्जी! लेकिन गिरिश–रमणी है अथवा गिरीश – रमणी?’
‘लगता तो यही है कि कुछ गलत है। गिरिश तो नहीं होता है। गिरीश ही होना चाहिये!’
‘तो बात कैसे ख़त्म? किन्तु तुम गलत हो! महाकाल ठीक कहता है! गिरीश होगा तो इसका अर्थ हिमालय हुआ और वह आद्या पार्वती रूप में हिमालय की पुत्री मानी जाती है अतः गिरीश-रमणी से तो अनर्थ हो जायेगा। अतः गिरिश–रमणी ही है वह! गिरिश अर्थात् गिरि + श - गिरौ कूटे शेते इति गिरिशः। कूट शब्द के वैसे तो अनेक अर्थ हैं, किन्तु उनमें से इसका एक अर्थ शिखर भी होता है। गिरि शिखर पर जो सोता है वह गिरिश है। तो कौन है गिरिश?’
‘वह तो कैलास वासी शिव ही हुए!’
‘निस्संदेह! किन्तु यहाँ श्लेष भी है! कैलास छहों चक्रों के ऊपर वाले उच्चतम भाग को भी कहा जाता है और उसके भी ऊपर, एकदम शिखर पर सोता है वह परम शिव जिससे जा कर मिलती है कुण्डलिनी! उस कूटस्थ ब्रह्म के साथ रमण करने वाली है गिरिश-रमणी! वह कैलास पर्वत भौगोलिक कैलास है, यह कैलास आध्यात्मिक कैलास है। और बात अभी भी ख़त्म नहीं हुई। समस्त साधना के बाद भी, सारे उपायों के बाद भी, कवि यह क्यों कहता है कि स्तुति नहीं कर सकूँगा मैं! तुम दया करके, करुणा करके, मुझपर प्रसन्न हो जाओ!’
‘क्योंकि है वह करुणामयी, तो लाभ लिया जा सकता है उसकी करुणा का।’
‘नहीं! देखो! ये समस्त साधनायें भी तभी सध सकेंगी, जब वह प्रसन्न हो! अन्यथा माया मार्ग में इतनी बाधायें, इतने प्रलोभन खड़े कर देगी, कि बहकना पड़े ही पड़े! धन दे देगी, काम-सुख दे देगी, मान-सम्मान दे देगी, स्वर्ग भी दे देगी! यही है एषणा! तो पूर्ण कर देगी! भुलवा देगी मार्ग से! और इस भुलावे में जो भूला, वह जहाँ भुलाया वहीं रुक जायेगा। और फिर माया उसे पतन के मार्ग पर धकेल देगी। चल निकल! किन्तु न तो किसी भुलावे में भूलना है, न ही उस आद्या को! और यह न भूलना इतना सरल नहीं! क्योंकि शक्तिवाद का ही सिद्धान्त है कि माया बड़ी बलवान है। अहंकारी व्यक्ति तो उस पर कदापि विजय नहीं प्राप्त कर सकता। गीता के सप्तम अध्याय का चौदहवाँ श्लोक है – दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। प्रकृति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं। अब यह मान कर चलो कि जो वह श्याम कहता है वही श्यामा कहती है। त्रिभंगीलाल है वह, तीन जगह से टेढ़ा! और कुण्डलिनी के फेरे कितने? साढ़े तीन! तो मोड़ के, सन्धि के स्थान कितने हुए? तीन! उसी आद्या का पुरुषावतार है कृष्ण! और उसकी योगमाया भी वही है! वही आद्या! और त्रिगुणात्मिका है वह! गुणों का सारा जड़ एवं दृश्यमान यह प्रपंच इस माया में ही समाया है। इसीलिये इसे गुणमयी कहा गया। किन्तु गुण का अर्थ रस्सी भी होता है। तो जो रस्सी है वह तो बाँधेगी ही! यह माया अत्यन्त असाधारण तथा विचित्र शक्ति है इसी कारण इसे भी देवी कहा गया। अतः कार्य और कारणरूपा इस माया के रहस्य को पूर्ण रूप से तो जाना ही नहीं जा सकता और जब जानोगे नहीं, पहचानोगे नहीं, तो बचोगे कैसे? घेर ही लेगी कभी न कभी! तो यदि माया से बचना है तो आद्या की शरण में जाए बिना कार्य नहीं सधने वाला! देवी की कठिन माया से पार पाने का एक ही मार्ग है – उसी की शरणागति! शेष सभी जप-तप, साधना, मन्त्र, यन्त्र, न्यास, सब इसके बाद के कार्य हैं। पहले चाहिये उसके प्रति अनन्य एवं विनम्र शरणागति! क्योंकि उस सर्व-स्वरूपा की स्तुति का कोई ठीक-ठाक सा ढंग है कहाँ किसी के पास? तो जो सम्भव ही नहीं, वह करने का प्रयास करने की आवश्यकता ही क्या है? सप्तशती के एकादश अध्याय में उस आद्या की स्तुति करते समय सारे देवता एक साथ कहते हैं कि – विद्या: समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः।। (छठवाँ श्लोक) देवि ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। हे जगदम्बा! जब एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है तो तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं स्वयं परा वाणी हो! और स्तुति करते – करते थक जाते हैं। फिर कहते हैं - विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या। ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।। (इकतीसवां श्लोक) विद्याओं में, ज्ञान को प्रकाशित करनेवाले शास्त्रों में तथा आदिवाक्यों में अर्थात् वेदों में, तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है? तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्व को अज्ञानमय घोर अन्धकार से परिपूर्ण ममतारूपी गर्त में निरन्तर भटका सकता हो?* यही कारण था कि तेरहवें छन्द में उस कौल कवि महाकाल ने आद्या को छोड़ कर अन्य की उपासना करने वालों को विमूढ़ तक कह दिया। मूढ़ नहीं, विमूढ़! विशेषतया मूढ़! क्यों कि जब सभी देवता उसी की स्तुति करते हैं तो उन देवों की स्तुति करने वाला विमूढ़ नहीं तो और क्या कहा जायेगा? दाता भी जिसके समक्ष भिक्षुक है, जिससे माँग रहा है, तुम भी सीधे उसी से क्यों नमाँग लो ? और देवताओं ने भी कह दिया कि का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः? कैसी की जा सके तुम्हारी स्तुति? और च का त्वदन्या? तुम्हारे अतिरिक्त अन्य है ही कौन? तो देवता जिसकी स्तुति करने में असमर्थ रहे, उसकी स्तुति क्या तुम करोगे और क्या कोई अन्य करेगा? सम्भव ही नहीं!
अब बात तुम्हारी भी सही है। इतनी बात हो चुकी है कि बहुत सी बातें तो हम कर चुके हैं, अतः उनको दुहराने से, पिष्ट-पेषण से, चर्वित-चर्वण से कोई लाभ तो है नहीं। किन्तु हर जगह कुछ नया भी तो है? उसे न छोड़ो। चलो! सो जायें!’
‘नहीं! वह आधा मन बोझ तुमने पकड़ लिया। तो आधा मन और! अगला छन्द!’
‘क्या करते हो यार? दूसरी रात भी जागते ही काटनी है?’
‘अब जो भी समझो किन्तु अगला छन्द –
श्मशानस्थः सुस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः
सहस्रं त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम्।
जपंस्त्वत्प्रत्येकं मनुमपि तव ध्याननिरतो
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः।।१५।।
सुस्थ हो कर, शमशान में अपने केश खोले हुए, नग्न हो कर, तुम्हारा ध्यान करते हुए, तुम्हारे मन्त्रों को जपता हुआ, चिता में अपने स्खलित वीर्य से अभिसिंचित एक सहस्र मंदार-पुष्पों की जो आहुति देता है वह समस्त धरती का राजा हो जाता है।
मन कसमसा उठा - ‘देखो! मैं कहता हूँ कि चलो अब सो जायें! तुम्हारा मस्तिष्क कार्य नहीं कर रहा है अब।’
‘क्यों? चिता साधना की विधि बता रहा है महाकाल! काली के किसी भी पूर्व निर्दिष्ट मन्त्र से चिता में उपरोक्त विधि से आहुति देने का विधान है।’
‘अच्छा! सो जाओ! कल बात करेंगे!’
‘नहीं! आज! अभी!’
‘देख भाई! श्मशान क्या है यह बहुत पहले समझाया जा चुका। दिग्पट-धर अर्थात् दिशाओं को वस्त्र बनाना क्या है, कैसा नंगापन है, यह भी बहुत पहले समझाया जा चुका। गलित-चिकुर के सम्बन्ध में भी बताया जा चुका है। फिर भी ऐसा अर्थ?’
‘किन्तु वह तो देवी के सम्बन्ध में था! यहाँ तो साधक के सम्बन्ध में ये तीनों हैं। चलो! साधक के सम्बन्ध में विगलित-चिकुर को अचञ्चल-चित्त हो कर, ऐसा मान लिया। शेष तो ठीक ही है।’
‘नहीं! नहीं ठीक है! समस्या यह है तुम्हारी कि जो साधक से सम्बंधित है, उसे तुम देवी से सम्बंधित मान लेते हो और जो देवी से सम्बंधित है उसे तुम साधक से सम्बंधित मान लेते हो। यहाँ इन तीनों पदों का सम्बन्ध साधक से नहीं देवी से है। अर्थात् देवी का जो स्वरूप पिछली कड़ियों में व्याख्यायित किया गया उस स्वरुप का, महा-श्मशान में, दिगम्बरा, मुक्त-केशा आदि का जो तात्पर्य बताया गया उस स्वरुप का ध्यान करते हुए।’
‘नहीं! तन्त्रान्तरों में भी यह प्रयोग बताया गया है। विश्वसारतन्त्र में भी है, कालीतन्त्र में भी है। श्मशानस्थो भवेत्स्वस्थो गलितं चिकुरं चरेत्, दिगम्बरः सहस्रं च सूर्य पुष्पं समानयेत्। स्ववीर्य प्लुतं कृत्वा प्रत्येकं प्रजपन स च, पूज्य ध्यात्वा महाभक्त्या क्षमापालो नरः भवेत्।।’
‘अरे यार! पहले यहाँ का समझ लो! वहाँ का भी समझ में आ जायेगा। पहले इसका अन्वय देखो – हे महाकालि! श्मशानस्थः गलितचिकुरो दिक्पटधरः स्वैरं (च), तव ध्यान निरतो सुस्थो जपंस्त्वत्प्रत्येकं मनुमपि, सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण स भवति धरित्रीपरिवृढः। कहाँ है इसमें चिता और कहाँ है उसमें होम? कहाँ है वीर्य-सिंचित आक का पुष्प?’
‘क्यों? स्पष्ट तो है - सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण! तुमने अन्वय करके स्वयं और भी स्पष्ट कर दिया। त्वकार्णां कुसुमम् – आक का पुष्प और निज गलित वीर्येण, ये तो है ही। श्मशान है तो चिता होगी ही! फिर क्या करना है उन सहस्र पुष्पों का होम के अतिरिक्त?’
‘यह त्वर्काणां नहीं, तुम्हारा कुतर्काणां है। चलो! त्वर्काणां को भी तोड़ दो। कौन सी सन्धि है इसमें?’
‘स्वर सन्धि!’
‘वह तो है ही! कौन सी स्वर सन्धि?’
‘त्व + अर्काणां – दीर्घ सन्धि!’
अचानक एक कड़कती सी ध्वनि आयी – ‘एक्के तमाचा मारब कनपटी लाल हो जाई तोहार!’ मैंने चारो ओर देखा! यहाँ यह ध्वनि कैसे? मन ने कहा – ‘अब निपट लो इनसे पहले! मैं बाद में मिलता हूँ!’
‘ई दीर्घ सन्धि है? अ + अ = आ। तो त्वर्काणां होई कि त्वार्काणां? बन्द कर सब ई कुल! दादा दादा कहि के कुल तोर दिमाग खराब कइ देहले हवें सो। बन्द कर! आ बिहने जा के घरे, फेर से खोजि के पढ़ु! बन्द कर!’
मस्तिष्क सांय – सांय करने लगा! ये तो पिताश्री की आवाज है। सब भूल गया! आँखें बन्द कर लीं! प्रतीत हुआ कि कक्ष घूम रहा है। सम्हाल कर उठा और पानी की बोतल सीधे मुँह से लगा ली। भर पेट पी कर कुछ स्वस्थ होने लगा था तब तक मन ने टहोका दिया – कह रहा था सो जाओ! लेकिन नहीं! आज! अभी! मिल गया खाने भर का?’
‘उनसे कुछ कहने भर की तो औकात नहीं मेरी! लेकिन यार! कल तुमने कहा था कि एक अवग्रह लुप्त था दसवे छन्द में तो हो सकता है यहाँ भी हो! त्वऽअर्काणां हो!’
‘अभी भी लगता है कि कुछ बाकी है तुम्हारा! एक जगह लुप्त है तो क्या हर जगह होगा? यण् सन्धि है यह! ‘तु + अर्काणां’! उ या ऊ से पूर्व किसी विजातीय स्वर के आने पर उ अथवा ऊ, व में परिवर्तित हो जाता है। अब कुतर्क छोडो और इस छन्द का वास्तविक अर्थ सुनो! अर्क भी बहु-विकल्पी शब्द है तथा इसका एक अर्थ रश्मि या किरण भी होता है। तो सहस्रं तु अर्काणां कुसुमम् का अर्थ हुआ सहस्र रश्मियों वाला कुसुम! सहस्रार दल की बात है यह! आक के पुष्प की नहीं! और निज गलित वीर्येण का भी तात्पर्य उसी सहस्रार के निज गलित वीर्य से है, तुम्हारे या साधक के वीर्य से नहीं! सहस्रं त्वर्काणां कुसुमम् निजगलितवीर्येण का अर्थ है सहस्र-दल कुसुम से झरते उसके रस से! सहस्रार से झरता वही रस! जिसका योगी पान करता है और अमृत कहता है! वही रस, जिसका कुण्डलिनी पान करती है। अतः अर्थ हुआ कि
हे महाकालिके! जो साधक सुस्थीभूत हो कर तुम्हारे श्मशानस्थ, दिगम्बरा, मुक्तकेशा और स्वैरं च, स्वेच्छया विहार करती हुई तुम्हारे पूर्व व्याख्यायित स्वरुप का ध्यान करते हुए पूर्व कथित मन्त्रों में से किसी एक का भी जप करता है वह सहस्र रश्मियों वाले कुसुम अर्थात् सहस्रार से झरते हुए उसके मकरन्द – रस के प्रभाव से इस धरित्री का राजा हो जाता है। तात्पर्य है कि बहुत हठ करके योग आदि करने की भी उतनी आवश्यकता ही नहीं! सुस्थीभूत हो कर उस आद्या का वास्तविक स्वरूप जानते हुए उस स्वरुप के ध्यान एवं उसके मन्त्रों में से किसी एक का भी रहस्य जानते हुए उस आद्या का जप करने मात्र से ही कुण्डलिनी का जागरण, चक्रों का एवं ग्रंथियों का भेदन आदि हो कर कुण्डलिनी का सहस्रार तक पहुँच जाना सम्भव हो जाता है! डायरेक्ट रिजल्ट! और फिर, जाको कछू न चाहिये वो ही शाहनशाह! तो ऐसा होने पर साधक को और क्या चाहिये? हो तो गया वह पृथ्वी का राजा! कितना स्पष्ट कहा उस महाकाल नामक कवि ने, और कितनी सहज विधि बता दी किन्तु तन्त्र है तो चिता – साधना तो जबरन ठोंक - ठूँस कर घुसानी ही है। चिता साधना इस प्रकार नहीं होती! उसकी विधि अन्य है! अब भी सोना है या नहीं! तुम जाग सकते हो तो मैं तो हूँ ही तुम्हारे साथ!
नहीं! अब और जागने की क्षमता नहीं थी! अडतालीस घण्टों से अधिक हो चुके थे। मैंने विराम देना उचित समझा। और सोने का प्रयास करने लगा। जाने कब नींद आयी। सम्भवतः तत्काल ही आ गयी थी। मैंने एक स्वप्न देखा! विचित्र स्वप्न! देखा कि एक बहुत ऊँची इमारत है। कई मंजिल की! उसमें रंगाई-पुताई चल रही है। और मैं उसे देखते हुए सबसे ऊपर वाली मंजिल पर पहुँच जाता हूँ! यह मंजिल अभी बहुत गन्दी सी है और सीढ़ी के पास ही बाहर, दीवार पर एक बिना पल्लों वाली आलमारी है जिसमें पुस्तकें बेतरतीब सी भरी है। किन्तु वह आलमारी इतने ऊपर टँगी है कि देखने को किसी स्टूल या सीढ़ी पर चढ़ना आवश्यक है। इधर-उधर देखता हूँ तो कोई साधन नहीं चढ़ कर पुस्तकों को देखने का। मैं प्रयास करके उस मंजिल की रेलिंग पर जो आलमारी के पास ही है, एक पाँव उस पर और एक आलमारी के एक खाने में टिका कर पुस्तकें देखने लगता हूँ। एक से बढ़ कर एक पुस्तकें! एक एक कर जो भी अच्छी या उपयोगी समझता हूँ उसे फर्श पर गिराने लगता हूँ। निश्चित मकानमालिक इसे कबाड़ के भाव बेचेगा! तो कुछ दे दिला कर उन पुस्तकों को मैं अपने साथ ले जाना चाहता हूँ और तभी मेरा पैर रेलिंग से फिसल जाता है। मैं गिरने लगता हूँ। गिरता ही जा रहा हूँ! धरती पर नहीं आ पा रहा, बस गिर रहा हूँ। मुझे मेरे बच्चे याद आते हैं, मेरी पत्नी याद आती है, और भी कुछ लोग याद आते हैं। मुझे प्रतीत होता है कि आज मैं मर जाऊँगा। क्या होगा उनका? मृत्यु निश्चित है। कातर हो कर मैं अपनी आराध्या को पुकारता हूँ। पुकारता जाता हूँ! जितने मन्त्र याद हैं, जितने स्तोत्र याद हैं सब पढ़ता जाता हूँ और फिर भी गिरता ही जा रहा हूँ।
नींद खुली! देखा तिलकधारी पण्डित झकझोर कर जगा रहे हैं – ‘बाबू जी! बाबू जी! उठा जाय! क्या हो गया? का का बोल रहे हैं नींद में?’
मैं हड़बड़ा कर उठा। बचा लिया तिलकधारी पण्डित ने आज, अन्यथा हो सकता था कि सोते में ही हृदयाघात हो जाता! किन्तु मैं कुछ बड़बड़ा भी रहा था? क्या? लज्जित सा पूछा – ‘क्या बोल रहा था मैं पण्डित?’
‘पता नहीं बाबूजी! कुछ समझ तो नहीं आवा लेकिन कुछ आवताम जावताम कह रहे थे आप। छोड़ा जाय ऊ सब! कौनो सपना देखत रहा होइहें आप! बहुत घबराये रहे आप! जाये दीन जाय ससुर को! चाय लायेन हैं। मुँह धो के कुल्ला कइ लीन जाय आ पी लीन जाय ना त सेरा जाई। उठा जाय!’
मैंने सोचा - ‘आवताम जावताम? ओह! और एक फीकी हँसी के साथ हाथ जोड़ उस आद्या को प्रणाम करते हुए मैं बुदबुदा उठा -
उमेश्वरे उमामयी, रमेश्वरे रमामयी,
गिरीश्वरे प्रमामयी, क्षमामयी क्षमावताम्।
सुधाकरे सुधामयी, चराचरे द्विधामयी,
क्रियासु संविधामयी, स्वधामयी स्वधावताम्।।
जगत्सु चेतनामयी, मनःसु वासनामयी,
कविशु भावनामयी, प्रभामयी प्रभावताम्।
धनेषु चंचलामयी, कलावतां कलामयी,
शरीरिणाम इलामयी, शिलामयी सदावताम्।।
‘इहे! इहे बोलत रहे आप!’ तिलकधारी पण्डित ने कहा। मैंने हाथ मुँह धोया, और चाय की एक घूँट भरी। चाय अच्छी थी। चीनी कम, दूध ज्यादा और पत्ती कड़क!
[यदि आपने इस शृंखला के पिछले भाग नहीं पढ़े हैं तो यह भाग पढ़ने से कोई लाभ नहीं, अतः निवेदन है कि इस शृंखला के सभी आलेख एक नैरन्तर्य में पढ़ें।]
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-----क्रमशः, और शीघ्र!-------
त्रिलोचन नाथ तिवारी...
* इस स्थल पर सप्तशती के सम्पूर्ण एकादश अध्याय तथा तन्त्रोक्त रात्रि-सूक्त को सन्निहित जानें तथा उसका पारायण वहीं से कर लेवें। वैसे भी देवी की उपासना का पर्व चल ही रहा है।
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----एक निवेदन----
इस शृंखला के किसी भी आलेख को कॉपी-पेस्ट करना प्रतिबन्धित है। साथ ही यह भी निवेदन है कि इस निबन्ध को उस दक्षिणा काली का लालित्य-प्रसाद मान कर पढ़ें।
इन पङ्क्तियों का लेखक तन्त्र-ज्ञान में शून्य है अतः तत्सम्बन्धी टिप्पणियों के उत्तर देना सम्भव नहीं है।
आलेख के किसी शब्द/वाक्य/कथन से किसी का भी कोई मतभेद हो तो विद्वज्जन अपनी धारणा पर स्थिर रहने हेतु स्वतन्त्र हैं। बुद्धि-विलास का यह उपक्रम विवाद का प्रक्रम बने इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि यह रस की हाट है! ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर कोई मार्ग नहीं जाता!
तदनुसार दिनाङ्क २९.०९.२०२२
प्रात बेलायां,
आद्यार्पणमस्तु।