रविवार, 25 सितंबर 2022

महामेघकाली सुरक्तापिशुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया। न बाला न वृद्धा न कामातुराऽपि स्वरूपंत्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।

-----तन्त्रपरक ललित निबन्ध (भाग ९)-----

 

[यदि आपने इस शृंखला के पिछले भाग नहीं पढ़े हैं तो यह भाग पढ़ने से कोई लाभ नहीं, अतः निवेदन है कि इस शृंखला के सभी आलेख एक नैरन्तर्य में पढ़ें।]

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        जीवन संघर्ष के सतत प्रवाह में कहीं लड़ते हुए, तो कहीं से भागते हुए, अनवरत, अविराम, बिना थके जागते हुए, कहीं पर युद्धरत, कहीं पर तटस्थ और कहीं अनचाहे, अनजाने मध्यस्थ मैं!

        जो भी समय ने मेरी अस्मिता के साथ गूँथ दिया, जो भी मेरे व्यतीत अतीत ने मेरे साथ टाँक दिया, जो कुछ भी परिस्थितियों ने मेरी चेतना के साथ बाँध दिया, वह सब कुछ अधूरा है, आधा है। अन्तस् का यह अधूरापन कुछ नये स्वप्नों को देखने हेतु विवश करता है। जाने कितने स्वप्न देखे! कुछ पूरे भी हुए! किन्तु अधूरे अन्तस की तिक्तता तथा रिक्तता दूर कर सकें, इतने परिपूर्ण वे नहीं थे! इस अधूरेपन में देखे कुछ स्वप्न ऐसे भी हैं जिन्हें विस्मृत करने के अनन्त प्रयासों बाद भी वे स्मृतियों में अमिट हैं, और कुछ ऐसे भी,  जो विस्मृत हो गये किन्तु रह-रह कर यह स्मरण होता रहता है कि एक सपना था, जो सुन्दर भी था, टूट भी गया, किन्तु यह स्मरण नहीं हो पाता कि वह क्या था? भग्न स्वप्नों के शोक से उबरना उतना कठिन नहीं, जितना उनके ध्वंसावशेष पर खड़े हो कर पुनः नये स्वप्न देखना, और देखे गये भग्न स्वप्नों की टूटी हुई शृंखलाओं को जोड़ने का उपक्रम जितना कठिन नहीं, उससे कहीं अधिक कठिन है देर तक उन टूटी शृंखलाओं के छोरों को थामे रखना। किन्तु स्वप्न देखे जाने हेतु ही होते हैं और भग्न स्वप्नों के ध्वंसावशेष पर खड़े हो कर पुनः नये स्वप्न देखना, तथा भग्न स्वप्नों की टूटी शृंखलाओं के छोरों को थामे भी रखना, उन्हें पुनः जोड़ने का प्रयास करते रहना ही मेरी नियति है। स्वप्नों की टूटी शृंखलाओं के छोरों को थामे रखना तथा उन्हें पुनः जोड़ने का प्रयास सुषुप्ति में सम्भव नहीं और नये स्वप्नों के देखना जागृति में सम्भव नहीं। इस सुषुप्ति एवं जागृति के द्वंद्व में मेरा जीवन जैसे ‘नींद का टहलना’ बन चुका है। मेरी निद्रा एक समाधि बन चुकी है जिसमें मेरी जागृति ही स्वप्न है तथा मेरी सुषुप्ति एक ‘मिथ्या’ है, एक ‘छलना’ है। जिसे यश कहते हैं, जिसे ऐश्वर्य कहते हैं, जिसे वैभव कहते हैं, वह सब एक भ्रान्ति है। जन्म तथा मृत्यु के दो पाटों के बीच, यह जीवन आद्यान्त ‘अशान्ति’ है। इसी कारण मैंने पिछली कड़ी का समापन इन शब्दों के साथ किया था -  

        “मैं जागा ही कब? और मैं सोया भी कब? मेरा तो यह जीवन ही जागृति एवं सुषुप्ति के मध्य की अवस्था है – स्वप्न की अवस्था!! कब जागूँगा मैं? और कब सो सकूँगा मैं? कब?”

        दिन पर दिन व्यतीत होते गये। एक प्रवहमान चिन्तना, जिसे विवशतावश बलात् विराम देना पड़ा था, वह जिस स्थान पर थमी थी, वही की वहीं थमी रह गयी, जमी रह गयी। कोई ऐसी परिस्थितिजन्य शक्ति नहीं आयी जो उस प्रवहमान धारा के सम्मुख आयी बाधाओं को एक छिगुनी से टरका – टसका दे जिससे रुकी चिन्तना को गति मिल सके।

        तन्त्र की दृष्टि से शक्तियाँ दो हैं। एक परा, एक अपरा! परा और अपरा का निहितार्थ विवेचन सम्भवतः इसी शृंखलाबद्ध आलेख में कभी कहीं अन्यत्र हो, किन्तु  तात्कालिक निराकरण हेतु इतना ही कहना है कि अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं – पञ्च महाभूत, तथा मन, बुद्धि एवं अहङ्कार। पराप्रकृति ही वह शक्ति है जिससे अपरा प्रकृति के विभिन्न परिवर्तित रूप, देह आदि धारण किए जाते हैं। नवीनतम शब्दावली में पराप्रकृति को ईश्वरीय तत्व कहा जा सकता है। पराप्रकृति एक चेतन तत्त्व है जिसके माध्यम से समस्त जीवन की अभिव्यक्ति होती है तथा अपरा प्रकृति में स्थूल एवं सूक्ष्म पदार्थ यथा मन, बुद्धि, अहङ्कार आदि सम्मिलित हैं। जीव पराप्रकृति अर्थात् ईश्वर तत्त्व के माध्यम से ही अपरा प्रकृति को धारण करता है। चूँकि जीव ईश्वर का अंश है तथा ईश्वर परा एवं अपरा दोनों प्रकृतियों का योग है अतः जीव को भी एक पराई तथा एक स्वकीय शक्ति का सम्मिश्र समुच्चय माना जाना चाहिये।  उदाहरण स्वरुप, कृष्ण की स्वकीया, अ-परा शक्ति का समुच्चय थीं उनकी रुक्मिणी सहित आठ पत्नियाँ –  रुक्मिणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा (मित्रवृन्दा), सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा! ईश्वर के मानव रूप में पञ्च महाभूत, मन, बुद्धि, एवं अहंकार के प्रतीक! तथा उनकी पराशक्ति थी ‘राधा’। राधा के बिना तो कृष्ण जैसा परात्पर पुरुष भी आधा है। पराशक्ति के अभाव में कोई भी अपरा को सर्वथा धारण नहीं कर सकता! हर उछल-कूद के लिये बछड़े को एक स्थाणु, एक खूँटा चाहिये और एक छोटा ही सही किन्तु दृढ़ रज्जु, एक पगहा! मन ने मुझे अनायास नहीं कहा था कि तुम पशु हो!

        राधा कोई व्यक्ति नहीं है। जो राधा को एक व्यक्तिवाचक संज्ञा मान कर उसके अन्वेषण में निरत रहते हैं उनकी नियति मृगमरीचिका के आकर्षण में धावमान हरिण के अतिरिक्त कुछ नहीं, क्यों कि राधा संज्ञा नहीं है! राधा एक भाव-वाचक शब्द है। भाववाचक भी नहीं, यह महाभाववाचक शब्द है। राधा श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है। और ‘राधा’ एकल शब्द नहीं है। यह शब्द-युग्म है। ‘रा’ और ‘धा’! ‘रा’ का अर्थ है ‘प्राप्त हो’ तथा ‘धा’ का अर्थ है ‘मुक्ति’ अतः राधा शब्द-युग्म का अर्थ है “मुझे मुक्ति प्राप्त हो”! यह मुक्ति पुरुषार्थ चतुष्टय का अन्तिम पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ, काम. एवं मोक्ष में धर्मतः अर्थ का अर्जन एवं काम का सेवन करने के उपरान्त जीव-मात्र की लालसा, जीव मात्र का अन्तः-भाव, यही होता है कि उसे उसे मुक्ति की प्राप्ति हो। सनातन स्वर्ग की उपलब्धि को गौण समझता है क्योंकि स्वर्ग से निष्कासन भी सम्भव है! सनातन का परम पुरुषार्थ तो ‘मोक्ष’ है, ‘मुक्ति’ है! और यही मुक्ति कामना ‘राधा’ शब्द-युग्म से अभिव्यक्त होती है। नारद-पाञ्चरात्र का एक श्लोक है –

‘रा’ शब्दं कुर्वतस्तस्मैः ददामि भक्तिम् उत्तमाम्।
‘धा’ शब्दं कुर्वतः पश्चाद् यामि श्रवणलोभतः ।।
 
‘रा’ सुनते ही चल देता हूँ पैदल उस मानव के पीछे,
संभवतः कुछ पल बाद अभी इस के मुख से ‘धा’ भी निकले!

        क्यों? क्यों चल देते हैं कृष्ण पदाति ही उस व्यक्ति के पीछे? कि वह ‘राधा’ शब्द-युग्म मात्र सुनना चाहते हैं? नहीं! ‘रा’ कह कर व्यक्ति ने एक अभिलाषा व्यक्त की कि ‘मुझे प्राप्त हो!’ किन्तु क्या? क्या प्राप्त हो? हो सकता है वह ‘म’ कहे! और ‘म’ का अर्थ है – शिव भी, चन्द्रमा भी, ब्रह्मा भी, यम भी, समय भी, जल भी, क्षमा भी, यहाँ तक कि विष भी! तो राम – राम रटने का एक अर्थ तो यह भी हुआ कि मुझे विष प्राप्त हो, जबकि ‘राम’ शब्द स्वयं में एक महामन्त्र है! तो ‘म’ का आशय क्या? यही कारण है कि मन्त्रों के निहितार्थ जाने बिना उनका जप फलप्रद नहीं होता। किन्तु राधा – राधा रटने का एक ही अर्थ है- मुझे मुक्ति प्राप्त हो, मुझे मुक्ति प्राप्त हो, मुझे मुक्ति प्राप्त हो! तो कृष्ण यह जानना चाहते हैं कि इस व्यक्ति की अभिलाषा क्या है? मुक्ति, अथवा कुछ और! इस कारण चल देते हैं वे उस व्यक्ति के पीछे!

        यह मुक्ति की अभिलाषा यदि प्राणों की पुकार बन जाये, तो मार्ग खुलते हैं! अतः ‘राधा’ को पुस्तकों में या कहीं भी अन्यत्र खोजना, मूर्खता है! हाँ, सोते-जागते, उठते-बैठते, इसे अपने प्राणों की पुकार बना लेना मुक्ति के द्वार खोलने में सहायक अवश्य हो सकता है। ‘हो सकता है’। हो ही जाये, यह आवश्यक नहीं, क्योंकि यह ‘द्वार का खुलना’ मात्र कामना से फलित नहीं हो सकता! कुछ उद्यम भी चाहिये! कुछ प्रयास, कोई खटखटाहट, और यदि द्वार भीतर से न खुले तो प्रतिबन्धों को, साँकलों को तोड़ सकने का दुस्साहस!

        राधा का सन्निवेश वैष्णवी दर्शन में शाक्त-दर्शन का सन्निवेश है क्योंकि ‘आगम’ की कोई भी धारा ‘शक्ति’ को अवहेलित कर न आगे बढ़ सकती है, न सफल हो सकती है। चिकित्सा के क्षेत्र में एक शब्द है – coma! इसे सामान्य भाषा में कहें तो यह एक प्रगाढ़-निद्रा है जिसमें चेतना नष्ट हो जाती है तथा किसी भी बाह्य उद्दीपन से यह निश्चेतनता दूर नहीं होती! जीव है! जीवित भी है! किन्तु चेतन नहीं, कुछ कर सकने में समर्थ नहीं, शक्ति-हीन, निश्चेष्ट! ‘शक्ति’ के ‘अभाव’ में शिव भी शव हो जाता है इसकी इससे अधिक समीचीन कोई व्याख्या है? तो, यह राधा जो है, वह ‘आगम’ की वैष्णव-शाखा में शक्ति का संयोजन है! राधा को पुस्तकों में या इतिहास में खोजना बुद्धि-भ्रष्टों का कार्य है। जो मुक्तिकामी नहीं, वह राधा-तत्व को क्या समझेगा?

        शाक्त-दर्शन की प्रत्येक धारा यह उद्घोषित करती है कि वह आद्या ही सर्वोपरि है! अन्यों की तो कोई बात ही नहीं, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्रादि भी उसकी चरण-वन्दना करते नहीं थकते! सौन्दर्य-लहरी में पचीसवें श्लोक में आचार्य भगवत्पाद श्रीमद्शंकराचार्य लिखते हैं –

त्रयाणां देवानां त्रिगुणतनितां तव शिवे
भवेत्पूजा पूजा तव चरणयोर्याम् विरचिता ।
तथाहि त्वत्पादोद्वहनमणिपीठस्य निकटे
स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलितकरोत्तंसमकुटाः॥

हे शिवे! तुम्हारे चरणों की पूजा करने के कारण ही, तुम्हारे ही तीनों गुणों सत्, रज, एवं तम से उत्पन्न इन तीनों देवों ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की भी पूजा हो रही है! अतः उचित ही है कि ये तीनों देवता तुम्हारे चरणों को धारण करने वाले मणि-निर्मित पादपीठ के निकट, अपने मुकुटों की शोभा-वृद्धि हेतु करबद्ध खड़े रहा करते हैं।

 पुनरपि च, उन्तीसवें श्लोक में वे कहते हैं –

किरीटं वैरिञ्चं परिहर पुरः कैटभभिदः
कठोरे कोटीरे स्खलसि जहि जम्भारिमुकुटम् ।
प्रणम्रेष्वेतेषु प्रसभमुपयातस्य भवनं
भवस्याभ्युत्थाने तव परिजनोक्तिर्विजयते ॥ २९ ॥

तुम्हारे भवन में आते हुए शिव को देख कर तुम्हारी परिचारिकायें उनके स्वागतार्थ खड़ी हो कर उनका ‘जयघोष’ करते हुए कहती हैं – कि सम्मुख पड़े ब्रह्मा के मुकुट से बचिये, कैटभ का संहार करने वाले विष्णु के कठोर मुकुट से बचिये, जम्भारि इन्द्र के मुकुट से बचिये, कहीं टक्कर न लग जाये, कहीं चोट न लग जाये!

        जिस आद्या के पादपीठ के निकट ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव नतशीश करबद्ध खड़े रहते हो, जिसके मणि-महालय में ब्रह्मा, विष्णु एवं इन्द्र आदि के मुकुट ऐसे ही भूमि पर पड़े रहते हों जिससे चलने वाले को चोट लगने की आशङ्का हो, उस आद्या के बिना कोई आगम, कोई तन्त्र, सध सकता है भला? आगम की वैष्णव-धारा में वही आद्या राधा है! हर ‘धारा’ गिरिश्रृंगों से उतर, निम्नतर भाग में स्थित विशाल सागर को उपलब्ध होने की लालसा में अपनी यात्रा करती है, किन्तु यदि कभी सागर की कोई विच्छुरित धारा गिरिश्रृंगों की लालसा में उछल पड़े तो? तो यह विपरीत धारा ही राधा है! संसार की प्रत्येक धारा अधोगामी है किन्तु यदि कोई धारा उन्नयन की ओर प्रवाहित होती है तो धारा उलट जाती है! तब वह धारा का व्युत्क्रम राधा बन जाती है!*  

        परा है! किन्तु बोलती नहीं! वह मूक रहती है! क्योंकि वह ‘स्वाधिकारात्प्रमत्तः – अपने अधिकार की भावना से प्रमत्त’ है। अपरा है! किन्तु बोलती वह भी नहीं! वह भी मूक रहती है क्योंकि उसे अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं! ज्ञान क्या? भान तक नहीं! और इधर मैं हूँ! मेरा अहंभाव है! किन्तु मैं एवं मेरा अहंभाव भी मूक रहता है क्योंकि अहं प्रत्यक्ष शिवतत्त्व है जो शक्तितत्त्व के अभाव में निस्पंद है, निश्चेष्ट है! अहं, अर्थात् मैं! और अहङ्कार अर्थात् स्वयं के होने का भान!

        दिन पर दिन व्यतीत होते गये। परा मूक थी, अपरा भी मूक थी, मैं भी मूक था। और मैं मूक मात्र नहीं था! मैं था नितान्त निश्चेष्ट, नितान्त जड़! जड़ीभूत शिव की भाँति!! और इस मौन का प्रतिफल था कि चिन्तन की एक धारा अवरुद्ध थी। वह राधा नहीं बन पा रही थी।

        ज्योतिष के नियम बदले, ऋतुओं में विपर्यय आया। आषाढ़, श्रावण एवं भाद्रपद सूखे गये। एक आढ़क जल भी नहीं बरसा। प्रतीत होता था कि सूर्य के हृदय में किसी वृत्तासुर द्वारा प्रक्षिप्त शूल आ धँसा हो जिसकी वेदना सूर्य ने अपने रश्मियों में भर, धरा पर भेज दी हो। आकुल तन, आकुल मन, आकुल जन-जीवन। खेतों में जीभ निकाले श्वान सम हाँफते धान, और किसी अनिष्ट की आशङ्का लिये आकाश निहारते किसान, दोनों की आशालता सूख चली थी। किन्तु आश्विन में, जब आकाश निरभ्र होना चाहिये, नारद आये और धरा के प्रति अम्बर के नेह की लड़ी सी, मेह की झड़ी सी लग गयी। अपराह्न से झुक-झुक आते वारिद मध्य रात्रि तक भी झूम-झूम बरस रहे थे। और इन्हीं नारदों की छाया में मैं घर आया! आपादमस्तक वारिप्लुत!

        वर्षा का अपना ही एक संगीत होता है जो बाहर को रव-पूरित करता हुआ भी अन्तर को नीरव कर देता है। ऐसे में जिन्हें खुली आँखों सोने की आदत हो वह क्या करे?

        रात्रि गहराती जा रही थी। शयन-कक्ष निरा रवहीन था किन्तु बाहर एक मेघराग था। बाहर के मेघ-राग का सङ्गीत एवं भीतर की नीरवता, बाहर के शोर एवं भीतर के सन्नाटे, दोनों को तोड़ती एक मधुरिम झङ्कार उभरी – ‘क्या सोच रहे हैं?’ 

        ‘ऊँ?’

        ‘मैंने पूछा कि क्या सोच रहे हैं?’ 

        ‘कुछ नहीं।’

        ‘कुछ तो अवश्य!’

        ‘नहीं! कुछ नहीं!’

        ‘मुझे ज्ञात है कि जिस क्षण में आप निश्चेष्ट हो अदृष्ट को निहारते होते हैं वह क्षण आपकी व्यग्रता का चरम होता है।’

        ‘ऐसा कुछ नहीं है।’

        ‘है! इस प्रकार व्यग्र रहने से तो उत्तम है कि व्यर्थ ही व्यस्त रहिये!’

        ‘सोचेंगे। तुम सो जाओ!’

        ‘जब मन का बोझ इतना भारी हो कि किसी एक के ढोने की सामर्थ्य से बाहर हो तो उनका बँटवारा कर लेना चाहिये।’

        ‘हूँ।’

        ‘बस हूँ! या हाँ! या ना! सो जाइये! कल प्रातः ही पुनः निकलना है।’

        और अपरा का एक वितृष्ण करवट।

        उस करवट के साथ मेरा मन भी करवटा गया – यह व्यर्थ व्यस्त रहना कैसे हो?

        और तभी, बहुत दिनों से मूक मेरा मन भी फुसफुसाया – ‘तुम वह मूर्ति क्यों नहीं पूरी करते?’

        ‘कौन सी?’

        ‘भूल गये? अन्धकार को गला-पिघला कर, उसका एक टुकड़ा तोड़, अपने मन की एक मूर्ति गढ़ने का सङ्कल्प था न तुम्हारा? वह मूर्ति अब भी प्रतीक्षा कर रही है।’

        ‘ओह! वह? किन्तु तुम्हीं ने तो मना किया था!’

        ‘मुझसे तुम्हारा छल नहीं चलेगा। मैं तुम्हारा मन हूँ। सत्य यह है कि तुम थक गये थे, ऊब चुके थे, निराश हो चुके थे, अतः मैं भी थक गया, ऊब गया, निराश हो गया। मन वही करता है जो व्यक्ति चाहता है।’

        ‘यह कैसी बात? व्यक्ति वह करता है जो उसका मन चाहता है!’

        ‘नहीं! वह स्वैराचार है! मैं स्वैराचार की नहीं व्यक्ति एवं मन के सामञ्जस्य की बात कर रहा हूँ। मैं और तुम कोई भिन्न थोड़े न हैं? जो मैं चाहता हूँ वह तुम करते हो, जो तुम चाहते हो वह मैं करता हूँ! किन्तु सुनो न! तुमने उर्वशी पढी है?’

        ‘बकवास मत करो! मैंने उर्वशी नहीं पढी?’

        ‘तब तो तुम्हें स्मरण ही होगा! अपने गीति-काव्य ‘उर्वशी’ के पञ्चम अंक में अपने कृतित्व का समाहार करते हुए राष्ट्रकवि ‘श्री रामधारी सिंह दिनकर’ ने ‘सुकन्या’ के मुख से ‘उर्वशी’ को सम्बोधित करते हुए लिखा –

बरस गया पीयूष! देवि!

यह भी है धर्म त्रिया का।

अटक गयी हो तरी मनुज की किसी घाट अवघट में,
तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;
और लुप्त हो जाय पुनः आतप, प्रकाश, हलचल से।


सो वह चलने लगी;
आइये, वापस लौट चलें हम!
मैं अपने घर, देवि!

आप अपने प्रार्थना भवन में!

त्यागमयी हम, कभी नहीं रुकती हैं अधिक समय तक,
इतिहासों की आग बुझाकर भी उनके पृष्ठों में।।

कुछ समझे?

         ‘खेद है कि नहीं!’ - मैं सत्य ही कुछ नहीं समझ सका था।

        ‘जानते हो छिगुनी क्या है? छिगुनी कहते हैं कानी उँगली को, कनिष्ठा को! अपनी कनिष्ठा से जो रुकी हुई धारा को गति दे सके वह शक्ति किसमें है? निश्चय ही, यदि ‘शक्ति’ शब्द स्त्रीलिंग है तो, तो यह शक्ति किसी नारी में ही हो सकना सम्भव है। परा मूक थी, अपरा मूक थी, तुम मूक थे अतः मैं भी मूक था! किन्तु चुप्पी टूटी! अपरा ने कहा न? कि व्यर्थ ही व्यस्त रहो! यह उसकी छिगुनी की शक्ति ही थी जो रुकी धारा को प्रवहमान करने को उद्द्यत हुई! देखो! धारा को अवरुद्ध करते खर-पतवार हट गये! व्यर्थ की ही व्यस्तता सही, किन्तु यह उचित समय है कि तुम अपना मनःसङ्कल्प पूर्ण करो! उस मूर्ति को पूर्ण करो!’

        अभ्यन्तर में सत्य ही एक पीयूष बरस गया।

        और तभी एक सङ्कट की ओर ध्यान गया। मैंने कहा - ‘किन्तु कहानी कहाँ है? बिना किसी कहानी की सहायता के उस मूर्ति का निर्माण पुनः प्रारम्भ करने की कोई युक्ति ही नहीं! और कहानी कोई है नहीं! इत्यलम्!’

        ‘कहानियाँ बैठे-बिठाये नहीं मिलतीं! उन्हें खोजना पड़ता है। और कहानी की आवश्यकता ही क्यों? कथानक को वार्ता का स्वरूप भी तो दिया जा सकता है?’

        ‘वार्ता द्वयोरपि! वार्ता हेतु दो का होना आवश्यक है! मैं असंग! मुझे दूसरा कहाँ मिले?’

        ‘मैं हूँ न!!’

        ‘किन्तु तुम जो हो, वह भी तो मैं ही हूँ! दो कहाँ हुए?’

        ‘हम एक भी हैं, तथा दो भी! अब तक की इस वार्ता में तुम्हें यह आभास नहीं हुआ?’ 

        मन सत्य ही कह रहा था। यह मन से मेरी वार्ता ही तो थी! किन्तु मन को उत्तर देते रहो तो वह बोलता ही रहता है। इस वार्ता को विराम देने का एकमात्र उपाय था मन के साथ सम्वाद को अपनी ओर से रोक देना। मैंने वही किया। मैंने एक करवट और ली जैसे अपने ही मन से मैंने अपना मुँह फेर लिया हो।

        मन ने सम्वाद हेतु पुनः प्रयास किया किन्तु अब मुझे न ही उसकी सुननी थी, न ही उससे कुछ कहना था। मैंने निःशब्द उठ कर कक्ष के कपाट उन्मुक्त कर दिये। देखा, कि मेघ अब भी धारासार बरस रहे थे तथा धरा अपने रोम-रोम से अम्बर से झरते इस इस नेह-पीयूष का पान कर रही थी। मैं मेघों का बरसना और धरा का भीगना देखता रहा।

        किन्तु हठी मन पुनः बोल उठा – ‘क्या सोच रहे हो?’

        मैंने सोच लिया था कि मन को उत्तर नहीं देना, तो नहीं देना! किन्तु मन तो मन है!

         ‘यदि कुछ सोच ही रहे हो, तो इस दिशा में भी सोचो। और अब सोने का प्रयत्न भी करो। यह वृष्टि शीघ्र रुकती नहीं दिखती। और प्रातः निकलना भी तो है?’

        अब मन को उत्तर देना अनिवार्य था क्योंकि वह ठीक ही कह रहा था। प्रातः निकलना भी तो है!

        ‘हूँ!’

        इस सूक्ष्म उत्तर द्वारा मन ने मेरा हठ पहचान लिया। कुछ क्षणों हेतु वह मौन हो गया। तभी मानों दौड़ – दौड़ कर बरसते संवर्तक मेघों के रथ के धुरे परस्पर टकरा गये। एक भयानक गड़गड़ ध्वनि अम्बर से अवनि तक व्याप्त हो गयी और इस व्यवधान से क्रुद्ध सम्वर्तकों ने अपने बाहु-सञ्चालन तीव्र कर दिये। मन ने ठीक ही कहा था कि यह वृष्टि शीघ्र रुकती नहीं दिखती। मैं शय्या पर वापस लौट आया।

        कोलाहल से असम्पृक्त उनींदे जीवन की एक विवशता होती है। कोलाहल के प्रति उसमें आसक्ति नहीं एवं निद्रा-सुख उसे उपलब्ध नहीं! और मन? वह सदा सन्निकट है! और सन्निकट ही नहीं, उसे जब भी जी चाहे, जो भी जी चाहे, कह सकने की स्वतन्त्रता भी है। और मेरा मन, अन्ततः मेरा मन है! मुझ सा ही हठी, मुझ सा ही निर्लज्ज, मुझ सा ही असभ्य!

        मन ने फिर टहोका दिया – ‘सोना नहीं है?’

        ‘अब सोया, तो ट्रेन छूट जायेगी! सोने के सम्बन्ध में अब कल सोचेंगे!’

        ‘तो क्यों न कुछ बातें ही करें?’

        ‘तुम और तुम्हारी बातें! आज इतना हठ क्यों है? जो बीत गयी, सो बात गयी! और जो करने को तुम कह रहे हो, उसमें बड़े सङ्कट हैं! मैं किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता! मेरे सांसारिक जीवन के अपने कष्ट कम हैं क्या जो एक नवीन आपदा को आमन्त्रण दूँ? रहने दो उस मूर्ति को अर्द्ध-निर्मित, अर्द्ध-व्याख्यायित! मेरे पास ज्ञान है नहीं, अध्ययन एवं अध्यवसाय भी नहीं, और सर्वोपरि है समय! वह तो रंच-मात्र भी नहीं। तो क्यों एक नये जाल में घसीटना चाते हो तुम मुझे? मेरे प्रति अब तक पसरे प्रवाद क्या कम हैं?’ निश्चित ही यह कुतर्क था, किन्तु मन से जीतने का मेरे पास कोई मार्ग न था।

        किन्तु मेरा मन, अन्ततः मेरा मन है! उसके पास मेरे प्रत्येक कुतर्क का उत्तर विद्यमान है। मन ने तत्क्षण कहा - 

   निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
   लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
   अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
   न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।
        ‘निन्दन्तु’ अर्थात् निंदा करें, ‘नीति निपुणाः’ नीति में चतुर लोग, जो लोग व्यवहार कुशल हैं, ‘स्तुवन्तु’ अर्थात् स्तुति करें, गुणगान करें, ‘लक्ष्मी’ अर्थात धन-दौलत रुपया-पैसा, ‘समाविशतु’ प्राप्त हो, कितना? ‘यथेष्टम्’ जितनी इच्छा हो, जितना चाहें उतना, ‘वा गच्छतु’ या चली जाय, धन की हानि हो जाये,  ‘अद्यैव वा मरणमस्तु’ चाहे आज ही मरना पड़े, ‘युगान्तरे वा’ या कई युगों के पश्चात मृत्यु हो, ‘न्यायात् पथः’ - न्याय मार्ग से, सही रास्ते से, उचित कार्य से ‘प्रविचलन्ति पदं न धीराः’  धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, उत्तम पुरुष, धर्म पर चलने वाले लोग, एक पग भी नहीं हटा करते!

        देखो! नीति में निपुण लोग, व्यवहार कुशल लोग, चतुर लोग क्या करते है? वे स्वकार्य-सिद्धि को देखते हुए व्यवहार करते हैं। जिस व्यवहार से अपना पक्ष सिद्ध हो, अपना काम निकले वैसा व्यवहार करते हैं। उचित और अनुचित का विचार किये बिना अपने स्वार्थ्य की सिद्धि हेतु अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहते हैं। बड़ी चतुराई से सही को गलत और गलत को सही प्रमाणित कर देते हैं। साधारण लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और उनकी गलत बातों को भी सही मानने लगते हैं। ये नीति-निपुण एवं  व्यवहारकुशल लोग अपने स्वार्थ्यवश ही किसी की स्तुति करते हैं तथा जिससे अपना स्वार्थ्य पूर्ण न हो सके उसकी निन्दा करते हैं। अतः ऐसे पुरुषों की निन्दा और स्तुति, दोनों का कोई महत्व नहीं होता। जब उनका काम पड़ेगा तब स्तुति करेंगे और जब काम निकल जायेगा तब निन्दा करेंगे। ऐसे व्यक्ति धर्म और अधर्म का, उचित अथवा अनुचित का विचार नहीं करते! वे मात्र अपने स्वार्थ्य का विचार करते हैं! अतः ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की निन्दा से क्या घबराना? और ऐसे व्यक्तियों की स्तुति का भी क्या लाभ?
        दुष्ट विचार के व्यक्ति भी अपनी ओछी विचारधारा के कारण किसी सज्जन पुरुष की निन्दा बड़ी चतुराई से करने लगते हैं। ऐसे चतुर लोग चाहे निन्दा करें चाहे स्तुति करें, न्याय पथ पर चलने वाले लोग, धर्म पर स्थिर रहने वाले लोग, उनके द्वारा निन्दा की बातें सुन कर या स्तुति गुणगान सुन कर न विचलित होते हैं न संयम ही खोते है। वे पूर्ववत्, न्याय पथ पर, धर्म-मार्ग पर चलते रहते हैं। व्यक्ति को निन्दा और स्तुति से परे हो कर इनपर ध्यान नहीं देना चाहिये!    

        मेरे पास मन के इस तर्क का कोई उत्तर न था। विवश मैंने पूछा – ‘क्या चाहते हो? क्या करूँ?’

        ‘टूटी शृंखलाओं के थामे हुए छोरों को जोड़ने का प्रयास! गन्तव्य एक छलना है! सत्य है यात्रा! अतः वहीं से प्रारम्भ करो जहाँ से छोड़ा था! पढो तो कालीकर्पूर स्तोत्र का दशम छन्द!’

        अब मैं विवश था! पढ़ना ही पड़ा –

समन्तादापीनस्तनजघनधृग् यौवनवती
रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम्।
विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य
वशगाः समस्ताः सिद्धौघाः भुवि चिरतरं जीवति कविः।।१०।।

        ‘उत्तम! अब इसका अर्थ कहो!’

        ‘नक्तं’ अर्थात् रात्रि में, ‘विवासा’ अर्थात् वस्त्र-रहित, नग्न! गलित अर्थात् विगलित – खुले हुए! चिकुर अर्थात् केश, बाल, अतः ‘गलित-चिकुर’ अर्थात् खुले केशों वाली! ‘समन्तादापीनस्तनजघनधृग्’ – भली प्रकार से स्थूल स्तनों तथा जंघाओं को धारण करने वाली! ‘यौवनवती’ – यौवन से परिपूर्ण, तारुण्यवती युवती, के साथ, विवासा – नग्न हो कर, ‘रतासक्त’ – रति क्रिया में आसक्त, सम्भोग-रत! ‘नक्तं’ – रात्रि में, ‘भक्तस्तव’ – तुम्हारा कोई भक्त, ‘ध्यायन्’ -तुम्हारा ध्यान करता हुआ, ‘यदि जपति मनुम्’ यदि तुम्हारे पूर्व कथित मन्त्रों का जप करता है, तो, ‘वशगाः समस्ताः सिद्धौघाः’ वह समस्त सिद्धौघों को, समस्त सिद्धियों को अपने वश में कर लेता है तथा ‘भुवि कविः चिरतरं जीवति’ – कवि हो कर चिरकाल तक जीवित रहता है।

        ‘अब इतना भी मत समझा मुझे मेरे भाई! सीधे-सीधे कह! क्या तात्पर्य है इस छन्द का?’

        ‘हे देवि! खुले केशों वाली, नग्न, परिपुष्ट स्तनों एवं जंघाओं वाली युवती से, रात्रि में, नग्न हो कर, सम्भोग करते हुए यदि तुम्हारा कोई भक्त तुम्हारा ध्यान करते हुए, तुम्हारे मन्त्रों का जप करता है तो समस्त सिद्धियाँ उसके वशीभूत हो जाती हैं तथा वह कवि हो जाता है तथा चिरकाल तक जीवित रहता है। पहले भी बताया, अब भी बता रहा हूँ! कुछ परिवर्तित तो हो नहीं जायेगा।’

        ‘यह अर्थ सही है? उचित है?’

        ‘तो क्या? सभी तन्त्र-मार्तण्ड इस छन्द का यही अर्थ बताते हैं! वे कहते हैं कि यह लता-साधना है। कोई-कोई इसे रता-साधना भी कहते हैं अर्थात् रतिकर्म के समय भी साधना! जैसे कोई लता किसी वृक्ष का आश्रय लेती है उसी प्रकार स्वकीया अथवा परकीया, अपरा या परा नारी-शक्ति के साथ सम्भोग-रत हो कर विद्याराज्ञी मन्त्र अथवा समुपदेष्ट अन्य दक्षिण-काली के मन्त्रों का ध्यान एवं जप करना सिद्धि-प्रदाता है, जो कवित्व एवं दीर्घ-जीवन भी प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त और क्या है इसका अर्थ?’

        ‘तन्त्र-मार्तण्ड क्या कहते हैं यह मैं नहीं पूछ रहा! तुम क्या समझते हो, यह पूछ रहा हूँ!’

        ‘तो मैं क्या उनसे अधिक विद्वान् हूँ? इस छन्द का यही अर्थ है। फेत्कारिणी तन्त्र में भी उल्लिखित है – रात्रौ नग्नः शयानश्चऽ मैथुने सुव्यवस्थितः। अथ वा मुक्त केशंश्चऽ तस्य सर्वार्थ सिद्धयः।।’

        ‘ऐसा करो! तुम सो जाओ! मैं तो यह समझता था कि तुम्हारे पास प्रातिभ विचार शक्ति है किन्तु तुम तो पोथी-पाठक निकले! रहने दो! तुमसे नहीं होगा! मुझसे भूल हुई जो अब तक तुम्हारा मनुहार करता रहा! किन्तु तुम भी निरे पशु हो! वरन् पशुओं से भी अधम! छोडो! सो जाओ! प्रातः उठना! दिन भर रोटी की लालसा में भटकना और रात में अपने शून्य वैचारिक आकाश में अमुक्त प्रेतों की भाँति जागते हुए भटकना! और इन सबसे यदि समय मिले तो संसार को अपनी थोथी विद्वता का प्रमाण देने हेतु शब्द-जाल रचना! रहने दो! तुमसे नहीं होगा!’

        मेरा मन भी मुझ जैसा ही कटुवाक् है! किसी के प्रति उसे कोई सङ्कोच नहीं! मेरे प्रति भी नहीं! मेरा अंश होते हुए भी, वह मेरे प्रति भी अपना तृतीय नेत्र खोल दिया करता है। मुझसे त्रुटि हुई नहीं कि उसका क्रोधानल भभका!

        किन्तु मुझे भस्म करके वह मेरा मन कहाँ अनङ्ग रह सकेगा? और वह भभका तो मुझे भी भभकना ही था!

        ‘सुनो! बहुत पिङ्गल न ढकचो! यदि तुम्हें कुछ अन्यथा एवं अतिरिक्त ज्ञात हो तो बताओ, अन्यथा भाड़ में जाओ! मैं तो प्रारम्भ से ही इस कार्य में उद्द्यत नहीं होना चाहता था! जिसके लिये चोरी की वही चोर कहे?’

        ‘अरे मूढ़! पिता द्वारा दिये शब्द-ज्ञान, भाषा-ज्ञान, व्याकरण, तू तो सबको ही  बेच कर उससे प्राप्त मूल्य से मदिरा क्रय कर पी गया! अब तुझसे क्या कहा जाये? तू स्वयं बता! सम्भोग एवं साधना साथ – साथ चल सकते हैं क्या? जब इन्द्रियों में वासना की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है तो विवेक का दीप तत्काल बुझ जाता है! कभी सुना है किसी कर्मकाण्ड, किसी अनुष्ठान में काम एवं रति का आवाहन? काम एवं रति का आवाहन सुरत-काल में होता है। और यदि एक बार काम एवं रति का आवाहन हो गया तो उस आवाहित स्थल से उन दोनों के अतिरिक्त समस्त देवता तिरोहित हो जाते हैं क्योंकि काम एवं रति का सायुज्य उसी आद्या के सृष्टि-मूलक कृत्य का प्रक्रम है! वह काम, जो जब अनङ्ग नहीं था, तब शिव जैसे योगी की समाधि भङ्ग करने में समर्थ हुआ जिससे सृष्टि के नियम सुचारु रूप से परिचालित हो सकें, तो अब तो वह अनङ्ग है! एक बार उसका आवाहन हो जाने के पश्चात् कैसा मन्त्र? कैसा जप? कैसी साधना? फिर तो कुछ अन्य ही  कर्मकाण्ड तथा कोई और ही मन्त्र! काम एवं रति के आवाहन के पश्चात् यह समस्त सृष्टि निर्जन-शून्य हो जाती है, अन्य समस्त ध्वनियाँ मूक हो जाती हैं, अन्य समस्त व्यापार स्तम्भित हो जाते हैं! तो क्या ‘महाकाल’ नाम्नी वह उद्भट कौलाचार्य इस रहस्य से अपरिचित रहा होगा? और काम तो स्वयं आद्या का उद्भट सिद्ध साधक है! श्री विद्या का प्रथम उपासक कामदेव ही है। कामदेव के अतिरिक्त श्री विद्या के उपासक हैं  मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य,  इन्द्र, स्कन्द, शिव, तथा क्रोधभट्टारक दुर्वासा! बिना उस आद्या की कृपा से आप्यायित हुए वह कामदेव शिव की समाधि भङ्ग करने की सोच भी सकता था? बिना आद्या की अनुकम्पा के वह अनङ्ग हो कर भी इतना समर्थ हो सकता है जितना वह है? तो जहाँ आद्या के अनङ्ग साधक की सत्ता स्थापित हो जाय, वहाँ किसी और की सत्ता का कोई प्रभाव हो सकता है?’

        ‘नहीं हो सकता! इसी कारण तो तन्त्र के विद्वानों ने कहा है कि यह साधना-विधि सर्व-साधारण हेतु नहीं है। इसे वही श्रेष्ठ साधक निष्पादित कर सकता है जो उर्ध्वरेता एवं पूर्ण योगी हो! रतासक्त हो कर भी जिसके मन में इन्द्रिय-सुख की कामना न हो एवं निश्चित संख्या में मन्त्र-जप से पूर्व उसका वीर्य स्खलित न हो! काम-कला के स्वरुप को विधिवत जान कर ही साधक को इस रता-साधना अथवा लता-साधना में प्रवृत्त होना चाहिये अन्यथा साधक का पतन अवश्यम्भावी है! उन अनूचान विद्वानों की इस व्याख्या का निरसन मैं कैसे कर सकता हूँ?’

        ‘अरे तुझे ज्ञात भी तो हो! इस छन्द का अर्थ वह नहीं जो लोग पढ़ते-सुनते हैं। इसका अर्थ कुछ और ही है। और यह  छन्द भी अपने मूल-रूप में वह नहीं जो पुस्तकों में मिलता है। बस एक छोटी सी ईंट खिसकी हुई है इसमें से! वह कौलाचार्य जिसे इस स्तोत्र के रचयिता महाकाल नाम से अभिहित किया गया है वह सबको रहस्य की कुञ्जिका थमा देता, यह उपयुक्त नहीं था! अतः साधना सम्बन्धित छन्दों में उसने एक रहस्यमयी गाँठ लगा दी है। तुम्हें उन्हीं गांठों को खोलना है!’

        ‘किन्तु क्यों? साधना के क्षेत्र में ये गाँठें क्यों?’

        ‘राजा के राज्य का उत्तराधिकारी कौन? उसका ज्येष्ठ पुत्र! श्रेष्ठी की सम्पदा का उत्तराधिकारी कौन? उसके कुटुम्बी! तो ज्ञानी के ज्ञान का उत्तराधिकारी कौन? उसका पुत्रवत पट्टशिष्य! ज्ञान का अधिकार सर्वसाधारण को नहीं होता!’

        ‘किन्तु ज्ञान तो सर्व-साधारण के अधिकार की वस्तु है!’

        ‘मूर्ख हो तुम! ज्ञान सर्व-साधारण के अधिकार की वस्तु नहीं! सर्वसाधारण के अधिकार की वस्तु शिक्षा है! ज्ञान एवं दान तो मात्र सुपात्र को देय हैं! सुपात्रे दीयते दानं, सुपात्रे दीयते ज्ञानं! और सुपात्र कौन हैं इसके निर्धारण का अधिकार मात्र उसे है, जो दाता है। यही कारण है कि आगम-शास्त्र पदे – पदे निर्देश करते हैं – गोपनीयं प्रयत्नेन!’

        ‘किन्तु यह तो अनुचित है!’

        ‘यही उचित है! अनधिकृत व्यक्ति के हाथ पड़े शस्त्र, मन्त्र एवं मदिरा अनिष्टकारी हुआ करते हैं! अनधिकृत व्यक्ति उनका अनुचित उपयोग एवं उपभोग कर सकता है! अतः वह महाकाल नाम्नी कवि, योग्य साधकों हेतु सब बताता भी चलता है किन्तु रहस्योन्मीलन से बच कर। सत्य है कि कौलाचार्यों पर कोई विधि-निषेध आयत्त नहीं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि कौलाचार्य विधि-निषेधों की अवहेलना करता चले! गोपनीयं प्रयत्नेन का अनुपालन करते हुए उसने जो गाँठें लगाईं है, उन्हें कोई योग्य गुरु अपने योग्य शिष्य के समक्ष ही खोलता है। किन्तु तुम तो निगुरे हो! तुम्हें इस रहस्य का ज्ञान हो भी कैसे? उन्हें ही तो खोलना है तुम्हें!’

        ‘किन्तु यह गोपनीयं प्रयत्नेन का आदेश मुझ पर भी तो आयत्त है? यदि वे गाँठें खुलीं तो उनके खोलने का अपराध मुझ पर भी आयत्त होगा?’

        ‘तुझे ये गाँठें किसी अन्य हेतु नहीं खोलनी मूर्ख! स्वयं हेतु खोलनी हैं! गुरु जब अपने सुपात्र शिष्य को अपना सञ्चित ज्ञान देता है तो गठरी की गाँठें खोल कर देता है। तुम्हारा तो कोई गुरु ही नहीं! एक तुम हो, और एक मैं हूँ!  स्व-प्रयास से रहस्योन्मीलन दोषावह नहीं होता! अतः प्रयास करो! गाँठें खोलो!’

        ‘कैसे? मुझे कुछ नहीं सूझता!’

        ‘चलो! मैं तुम्हारी थोड़ी सहायता करता हूँ! छन्द एक बार पुनः पढ़ो तो सही!’

और मैंने पढ़ा -

समन्तादापीनस्तनजघनधृग् यौवनवती
रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम्।
विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य
वशगाः समस्ताः सिद्धौघाः भुवि चिरतरं जीवति कविः।।

        ‘अब इस छन्द के शब्द प्रयोग एवं अन्वय पर ध्यान दो!’

        अपने ही मन के प्रति एक वितृष्ण भाव से ‘क्या ध्यान दूँ?’ यह कहने ही वाला था कि मुझ पर आपाद-मस्तक बरसती पूज्य पिताश्री के हाथ में थमी पादुका स्मृति में कौंध गयी। मन ने सत्य ही कहा था कि मैं अपने पिता द्वारा दिये शब्द-ज्ञान, भाषा-ज्ञान, व्याकरण, सबको तो बेच कर उससे प्राप्त मूल्य से मदिरा क्रय कर पी गया।

        और पिताश्री के उपानहों की स्मृति ने छन्द की गाँठें खोल दीं और फिर तो सम्मुख कुछ और ही पसरा था -

        समन्तादापीनस्तनजघनधृग् – समन्तात् + आपीनः + तन + जग् + हन + धृग् !  समन्तात् + आपीनः से बना समन्तादापीनः,  आपीनः + तन से बना आपीनस्तन, जग् + हन से बना जघन, और धृग्! समन्तात् आपीनः तन ज घन धृक् – समन्तात् - चतुर्दिक अभिव्याप्त, आपीनः – स्थूल रूप वाला, तन – विस्तरति तन्यते वा – समस्त विस्तार , जग् – जन्मदात्री, हन – संहार करने वाली, धृग् – धारण करने वाली,  - जो चतुर्दिक अभिव्याप्त इस स्थूल जगत का समस्त विस्तार करती है, जन्म देती है, संहार करती है एवं धारण करती है!

        यौवनवती – जन्म देने का कार्य कोई षोडशी से महाषोडशी वयस् की नारी ही कर सकती है अतः वह यौवन – सम्पना ही हो सकती है! षोडशी अर्थात् सोलह वर्ष की, महाषोडशी अर्थात् अठाईस वर्ष की!**

        अब आता है रतासक्तो! वास्तविक खेल यहीं है! यहीं पर खिसकी है वह छोटी सी ईंट! यहाँ अवग्रह की अवहेलना कर दी गयी है। वास्तविक शब्द है ‘ऽरतासक्तो’! ‘यौवनवतीऽरतासक्तो’! विश्वास नहीं होता? तो श्रीमद्शंकराचार्य विरचित कालिकाष्टक के इस श्लोक पर ध्यान देना उचित होगा -  

महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया ।
न बाला न वृद्धा न कामातुराऽपि स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।

        कभी महामेघ सम काली, तो कभी रक्तिम वर्ण वाली, या कभी शुभ्र गौर वर्ण की, आप विचित्र आकृति वाली एवं योगमायास्वरूप है! आप न बाला हैं, न वृद्धा! और (इस प्रकार आप युवती तो हैं किन्तु) न कामातुरा ही! आपके स्वरुप को तो देवता भी नहीं जानते!

        यह श्रीमद्शंकराचार्य का ‘न बाला न वृद्धा न कामातुराऽपि’ ही उस महाकाल नाम्नी कौल-कवि रचित कालीकर्पूर स्तोत्र के इस छन्द में ‘यौवनवतीऽरतासक्तो’ द्वारा अभिव्यक्त है – ‘यौवनवती अरतासक्तो!’ यौवनवती तो है, किन्तु रतासक्त नहीं! उसे क्या पड़ी है भई? स्वयं चीरवासा भैरव जिसके कृपा-कटाक्ष हेतु लालायित रहता हो, वह रतिक्रिया हेतु आसक्त होगी? अब चूँकि सृजन का दायित्व उसका है और यह सृष्टि मैथुनी है तो कर्तव्य-निर्वहन हेतु वह जीव को रतिक्रिया में प्रेरित करती है यह और बात है, किन्तु उस क्रिया में उसकी आसक्ति नहीं! जो समस्त आसक्तियों से परे है उसे कोई उद्भट कौलाचार्य रतासक्त कह भी कैसे सकता है? अतः उसने कहा तो नहीं, किन्तु गाँठ जो लगानी थी सो अवग्रह को लुप्त कर दिया! यह विलुप्ति लिपिकार का दोष भी दोष सकता है जिसे चलने दिया गया तथा इसे किसी सक्षम गुरु द्वारा किसी अधिकारी शिष्य के कर्ण-गुहा में उद्घाटित किया जाता है। शेष, जो पुस्तकों से, या गुरु के नाम पर गोरुओं से दीक्षा ले लेते हैं वे लता-साधना में प्रवृत्त हो पतन को प्राप्त होते हैं, तो हों!

        अब एक पद है ‘गलितचिकुरः’ – खुले केशों वाली! भाई मेरे! चिकुर का अर्थ केश होता है! सही! किन्तु चिकुर का अर्थ चञ्चलता भी होता है! चिकुरः, त्रि, (चि + कुर + कः ।) चपलः । स तु दोषमनिश्चित्य वधबन्धनादेः कर्त्ता। इत्यमरः। अमरकोश के अनुसार चिकुर का एक अर्थ चपलता, चञ्चलता है, और यह पद देवी से सम्बन्धित नहीं, साधक से सम्बन्धित है।

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्‌ ॥

 (कठोपनिषद अध्याय 2, वल्ली ३, श्लोक १०)

जब पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ मन सहित स्थिर हो जाती हैं, बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती है, उस अवस्था को परमगति कहते हैं। और उस आद्या का जप-ध्यान परम-गति अवस्था प्राप्त हुए बिना सम्भव नहीं! अतः यहाँ गलितचिकुरः का अर्थ है साधक द्वारा अपनी समस्त चञ्चलताओं का त्याग! और चञ्चलता विशेषतः मन की ही होती है। मन की एकाग्रता के बाधक नौ प्रकार के विक्षेप तथा पाँच प्रकार के विघ्न है। योग-दर्शन में उनका उल्लेख है –   

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः। व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति-दर्शन, अलब्ध-भूमिकत्व तथा अनवस्थितत्व मन के ये नौ विक्षेप हैं। व्याधि अर्थात् रोग, शिथिलता, भ्रम आदि, स्त्यान अर्थात् असमर्थता तथा अकर्मण्यता , संशय अर्थात् सन्देह, क्रिया के प्रति, सफलता के प्रति सन्देह, प्रमाद अर्थात् करणीय को नियमित न करने, कभी करने और कभी छोड़ देने की प्रवृत्ति, आलस्य तो आलस्य है ही, अविरति अर्थात् विषयों के प्रति आकर्षण, भ्रान्ति-दर्शन अर्थात् यथार्थ ज्ञान का अभाव, अलब्ध-भूमिकत्व अर्थात् प्रयत्न करने पर भी परिणाम न मिलने से मन का उचट जाना तथा अनवस्थितत्व अर्थात् दृढ़ सङ्कल्प का अभाव।

और पाँच विघ्न हैं – दुःख, दौर्मनस्य, अङ्ग-अजयत्व, श्वांस तथा प्रश्वांस। पहला - किसी दुःख के कारण कार्य में मन का न लगना, दूसरा दौर्मनस्य है इच्छाओं की पूर्ति न होने के कारण उपरति, ऊब, तीसरा अपने ही अङ्गों पर अपना ही नियन्त्रण न होना, जैसे कुछ लोग कर कुछ रहे होते हैं किन्तु पैर हिलता रहता है उनका, अनजाने ही, यह अङ्ग-अजयत्व है, और श्वांस एवं प्रश्वांस पर नियन्त्रण न होना! ये सभी नौ विक्षेप एवं पाँच विघ्न उन्हीं को आक्रान्त करते हैं जिसका मन चञ्चल हो। अतः गलित-चिकुरः कहा कवि ने! मन की चञ्चलता त्याग देना ही साधक का गलितचिकुर होना है।

शेष रहा ‘विवासा’! निश्चित ही इसका अर्थ वसन-रहित अर्थात् नग्न है! किन्तु क्या यह वसन लौकिक अर्थ में है? नहीं!

जीव के ऊपर माया के पाँच आवरण सदा पड़े रहते हैं जिन्हें दार्शनिक भाषा में पञ्च-कंचुक कहा गया है। माया अहम् को इदम् से पृथक कर देती है और भेद-बुद्धि का सृजन करती है। इसी भेद-बुद्धि से अहम् पुरुष एवं इदम् प्रकृति के रूप में परिभाषित होने लगते हैं अन्यथा अहम् एवं इदम् – पुरुष एवं प्रकृति अभिन्न हैं! जीव पर माया द्वारा डाले गये वे पाँच आवरण, वे पञ्च-कंचुक, कला, विद्या, राग, काल एवं नियति हैं। कला सर्वकर्तृत्व को संकुचित कर के अनित्यत्व को प्रतिस्थापित करती है। यही कारण है कि सच्चे लेखक, सच्चे कलाकार, सच्चे गायक, कुछ नया सृजित करने की अभीप्सा में सदैव अतृप्त रहते हैं, अन्यथा वे जीव रूप में उसी परमात्मा के अंश हैं जो सब कुछ कर सकता है, तो अल्प सा कुछ कर के उससे संतुष्टि लाभ की आशा कला नामक प्रथम कंचुक है। वैसे ही विद्या सर्वज्ञत्व को संकुचित कर, अल्पज्ञत्व को भासित करती है। लौकिक विद्या से कितना जान सकता है कोई? सागर तट पर पसरी बालुका-राशि में से किसी एक बालुका-कण जितना मात्र! यह दूसरा कंचुक है। तीसरा कंचुक है राग! प्रेम! यह नित्य-तृप्तित्व को संकुचित कर क्षणिक तृप्ति, बहुधा तो, अतृप्ति का सृजन करती है और जीव का जियरा जीवन भर छछनाता ही रह जाता है। चौथा कंचुक है काल! यह नित्यत्व को संकुचित कर अनित्यत्व को प्रतिस्थापित करता है! सभी डरे हैं कि क्या जाने कल क्या हो? हम परमात्म-अंश जीव जो परमात्मा की ही भाँति अनित्य हैं, प्रति पल मृत्यु की आहट को ले कर सशङ्कित हैं। और पञ्चम कंचुक है नियति! यह जीव की स्वतन्त्रता का अपहरण कर लेती है तथा उसे कार्य-कारण सम्बन्ध से बाँध देती है। हमने कभी कुछ अच्छा किया होगा तो आज हमारे साथ अच्छा हो रहा है, हमने कभी कुछ बुरा किया होगा तो आज हमारे साथ बुरा हो रहा है, यह नियतिवाद जीव पर माया द्वारा डाला गया पञ्चम आवरण है। और ‘विवासा’ का, नग्न होने का अर्थ है माया के द्वारा जीव पर डाले गये इन आवरणों को, इन पञ्च-कंचुकों को उतार फेंकना! कला, विद्या, राग, काल एवं नियति से निर्लिप्त हो जाना और तब, ऐसी अवस्था में उस आद्या का ध्यान एवं जप करना! अतः इस छन्द का अर्थ है –

चतुर्दिक अभिव्याप्त इस स्थूल सृष्टि विस्तार का प्रसार करने वाली, जन्मदात्री, धारणकर्त्री तथा संहारकर्त्री, नित्य यौवनमयी, किन्तु रतिकामना की आसक्ति से रहित, तुझ आद्या का, यदि तुम्हारा कोई भक्त, माया के समस्त कञ्चुकों से मुक्त हो कर, अचञ्चल हो कर, तुम्हारा ध्यान करते हुए, तुम्हारे विद्याराज्ञी अथवा अन्य पूर्व कथित मन्त्रों का जप करता है, तो समस्त सिधौघ उसके वशीभूत हो जाते हैं तथा वह कवि हो जाता है तथा चिरकाल तक जीवित रहता है।

‘मन’ धीमे से हँस पड़ा – ‘पिताश्री के पादुकाओं की स्मृति ही कार्य कर कर गयी लगती है। किन्तु समस्त सिधौघ क्या?’

‘औघ तीन हैं – दिव्यौघ, सिद्धौघ एवं मानवौघ! इन्हें तन्त्र की भाषा में औघ-त्रय कहा जाता है तथा वर्णमाला के लृ, लृृ (ल + ॠ, ल + दीर्घ ॠ, इसे टंकित कर सकने की सुविधा मुझे उपलब्ध नहीं है) तथा ए से अभिव्यक्त किया जाता है। इनकी उत्पत्ति शाम्भव-षडन्वय से है। कामो योनिः कामकला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाऽभ्रामिन्द्रः। पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्येषा विश्वमाताऽऽदिविद्या।। त्रिपुरोपनिषद का यह आदेश, जिसका रहस्य कहीं प्रकट नहीं किया जाता, मात्र आगमोक्त उर्ध्वाम्नाय द्वारा गुरु-शिष्य परम्परा में ही प्रकट किया जाता है। समस्त सिद्धौघा का तात्पर्य है सिद्धौघ प्रवृति समस्त औघ अर्थात् ओघ-त्रय।’***

‘हूँ! किन्तु नक्तं क्यों? रात्रि में ही क्यों? दिन में क्यों नहीं? इस समय-विशेष की स्पष्ट देशना क्यों?’

‘दो कारण हैं! पहला तो सम्प्रदाय का अनुशासन! पश्वाचार या समयाचार में रात्रि का यही समय-विशेष वर्जित है, जबकि दिव्याचार से, वीराचार से अथवा कौलाचार से कालिका उपासना में रात्रि का समय ही प्रशस्त माना गया है। कुञ्जिका-तन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि ‘पशुभाव रता ये च, केवलम् पशुरूपिणः। रात्रौ मन्त्रं च मालाम् च न स्पृशेतु कदाचन।। पश्वाचार में तो रात्रिकाल में मन्त्र का जप क्या? माला तक का स्पर्श निषिद्ध है। और कालीक्रम में कहा है कि – स्वाचारनिरतो नित्यं दिवा लक्षं जपेत् पशुः। दिव्यो वापि अथवा वीरो रात्रौ लक्षजपं चरेत्।। अतः रात्रि-कालीन साधना काली-उपासना के नियमों के अनुसार ही है किन्तु मात्र दिव्य, वीर एवं कौल साधक हेतु! अन्यों हेतु रात्रि-कालीन उपासना का निषेध है। दूसरा कारण एक और है – ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ जो समस्त भूतों, समस्त प्राणियों हेतु निशा है, उनके मनोरंजन का, उनके भोग का, उनके विश्राम का समय, उस समय प्रपा निर्जन शून्य होती है, चतुर्दिक एक शान्ति का साम्राज्य होता है अतः साधक के चित्त-विक्षेप की आशङ्का कम हो जाती है। यही कारण है कि संयमी साधक रात्रि में जागता है और जब सारा जगत सो रहा होता है, तब वह अपना समय साधना में लगाता है।’

‘ठीक है! अब?’

‘अब एक प्रश्न मेरा! यदि इस छन्द का मेरा बताया अर्थ ही सही है तो इस छन्द में वर्णित साधना-पद्धति को लता साधना क्यों कहते हैं?’

‘क्यों? रोटी कमाने नहीं जाना क्या? भोर होने वाली है।’

‘वह तो जाना ही जाना है! किन्तु बहलाओ मत! क्या कारण है?’

‘तुम लता-साधना से समझते क्या हो?’

‘साधक एवं साधिका परस्पर लतावत आबद्ध हो साधना करें तो उसे लता-साधना कहते हैं।’

‘मूर्ख हो तुम! जब शिव एवं शिवानी का सम्वाद चल रहा था तब शिवानी को तुम जैसे ही धर्म-मार्ग विलोपकों का ध्यान आया रहा होगा जिसके कारण उसने शिव को टोक दिया-



अकार्य्यकारिणः क्रूरा, धर्म्ममार्ग विलोपकाः।

हिताय यानि कर्माणि कथितानि त्वया प्रभो ।।६४।।

मन्ये तानि महादेव विपरीतानि मानवे ।

के वा योगं करिष्यन्ति न्यासजातानि केऽपि वा।।६५।।

हे देव! ये जो मानव-मात्र के कल्याण हेतु उचित कार्य आप बता रहे हैं, मुझे भय है वे सभी कार्य, कहीं अमंगल-अकार्यकारी, क्रूर, धर्ममार्ग विलोपकों द्वारा मानवों के अहित का कारण न बन जाये! यह सब जो आप बता रहे हैं ऐसा योग कौन करेगा?

मुख्य बात यह नहीं कि कौन करेगा? मुख्य यह है कि कौन समझेगा? कारण है वही! तन्त्र-शास्त्र की गोपनीयता! तन्त्र की पूरी शब्दावली ही ऐसी रची गयी है जो किसी तिलिस्म से कहीं अधिक रहस्यमय है। जो इस तिलिस्म को तोड़ सके, या उस तिलिस्म का कोई ज्ञाता उसे उन रहस्यों से परिचित करा दे, वही इस तिलिस्म में प्रवेश कर सकता है अन्यथा अनभिज्ञों हेतु यहाँ पदे-पदे सङ्कट ही सङ्कट हैं। यहाँ प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक शब्द, प्रत्येक पद के बड़े गूढ़ अर्थ हैं।

देखो! उस आद्या के साधना की पद्धति कोई भी हो, उसका लक्ष्य एक ही है - मुक्ति! और उसका मार्ग भी अन्ततः जा कर उसी एक मार्ग से जुड़ता है जो है – कुण्डलिनी जागरण तथा उसे चक्रों का भेदन कराते हुए सहस्रार तक पहुँचा कर सहस्रार से झरते अमृत का कुण्डलिनी को पान कराना। जब कुण्डलिनी पुनः मूलाधार की ओर लौटती है तब वह साधक की समस्त नाड़ियों को अमृत से सींचते हुए लौटती है अतः पृथ्वी-तत्व से उठ कर अमृत-तत्व की लब्धि ही तन्त्र की समस्त धाराओं का प्राथमिक लक्ष्य है तथा मुक्ति का मार्ग भी मात्र यही है। अब कुण्डलिनी सोती रहती है मूलाधार में! स्वयम्भू-लिङ्ग रूपी कन्द को साढ़े तीन फेरों में लपेट कर! और मूलाधार पृथ्वी-तत्व वाला है जिसका प्रतिपाद्य वर्ण है ‘ल’। ‘ल’ वर्ण का एकाक्षरी कोष में अर्थ है पृथ्वी।

तथा ‘त’ वर्ण का अर्थ है अमृत! ‘त’ वर्ण ‘अमृत’ का प्रतिपाद्य वर्ण है। तन्त्र में जिसे अमृत कहा गया वह कहाँ है? सहस्रार में! और कुण्डलिनी की यात्रा मूलाधार से सहस्रार की ही तो यात्रा है? तन्त्र में इन्ही ‘ल’ और ‘त’ को जोड़ कर कूट-शब्द बना लता। और कुण्डलिनी की गति भी सीधी नहीं, विसर्पी है। लता की ही भाँति दायें-बायें, टेढ़े-मेढ़े चलती सी! और उसका आधार-मार्ग है दृढ़ मेरुदण्ड के भीतर सुषुम्ना! तो कुण्डलिनी की उन्नयन-यात्रा लता की ही भाँति है कि नहीं? मेरुदण्ड के सहारे, सुषुम्ना में, चक्र-प्रति-चक्र भेदन करती? एक एक स्तर आगे बढ़ती? कुण्डलिनी के आरोहण को प्रभव तथा प्रत्यावर्तन को अप्यय कहा जाता है और इन दोनों का सफलता पूर्वक संपन्न हो जाना ही योग-सिद्धि है। अतः कुण्डलिनी को मूलाधार से जाग्रत कर सहस्रार तक पहुँचाना तथा वापस लौटा कर पुनः मूलाधार में अवस्थित कर देना ही लता साधना है। इस प्रकार इस पद्धति का नाम लता-साधना हो, तो कोई त्रुटि नहीं इसके इस नामकरण में, किन्तु इसका तात्पर्य स्त्री एवं पुरुष का सुरत हेतु लतावत युगनद्ध होना नहीं, कुण्डलिनी की मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा से है। सत्य है कि तन्त्र एवं आगम में नारी का एक महत्वपूर्ण स्थान है, तथा ‘लता-साधना’, ‘मुण्ड-साधना’, ‘शव-साधना’ एवं ‘चिता-साधना’ जैसी विशिष्ट साधनायें भी हैं, जिनकी विधियाँ विभिन्न आगम-ग्रन्थों में सङ्कलित हैं किन्तु कम से कम इस छन्द से उस लता-साधना का कोई सम्बन्ध नहीं।’

‘फिर अनूचान विद्वान् व्याख्याकार इस रहस्य को क्यों नहीं बताते?’

‘इसके दो संभावित कारण हो सकते हैं। प्रथम कारण, जिसकी सम्भावना अधिक प्रतीत होती है, कि हो सकता है व्याख्याकार स्वयं भी सिद्ध साधक हो अतः सामान्यजनों हेतु गोपनीयता तो उसे भी बरतनी ही होगी! यह रहस्य वह मात्र अपने योग्य शिष्य के समक्ष ही खोल सकता है, जो उसकी कुलागत विवशता है। वैसे, सिद्ध साधक इस व्याख्या इत्यादि के चक्कर में पड़ते ही नहीं। जिसे उस अमृत का स्वाद एक बार मिल गया वह उपदेश देता फिरेगा? अतः दूसरा कारण महत्वपूर्ण हो जाता है। और वह कारण क्या है यह तुम भी जानते हो तथा मैं भी, तो कहने-सुनने की क्या आवश्यकता है? किन्तु तुम क्यों चिन्ता करते हो? तुम तो निगुरे ठहरे! अब उठो! विलम्ब हो रहा है।’

‘हाँ! अब उठना ही होगा! किन्तु भविष्य में मुझे कभी निगुरा न कहना अन्यथा ठीक न होगा! मेरी गुरु स्वयं वह आद्या है! इतना अवश्य है कि वह परम स्वतन्त्र है और मैं परम मनमौजी! साथ ही चित्त के समस्त विक्षेपों से तथा विघ्नों से ग्रस्त! अतः यदा-कदा वह कुछ बता देती है वह भी तब, जब उसका मन भी बताने का हो तथा मेरा भी मन जानने का हो! किन्तु निगुरा नहीं मैं!’

मन ठहाके लगा कर हँस पड़ा – ‘वह आद्या तो समस्त सृष्टि की गुरु है भाई! किन्तु इस लौकिक जगत में भी एक गुरु तो होना ही चाहिये! किन्तु तुम करो भी क्या? तुम क्या जानो कि कौन है वास्तविक गुरु? अतः यदि तुम्हारे भाग्य में होगा तो, यदि तुममे पात्रता होगी तो, एवं उसी आद्या की कृपा भी हो गयी तो, कभी कोई गुरु ही तुम्हें खोजेगा! तुम कहाँ खोजोगे?’

मेरे पास अब अपने मन से झगड़ने भर का भी समय नहीं था। देर हो नहीं रही थी, हो चुकी थी! बाहर निकल कर देखा तो वर्षा अब भी अनवरत हो रही थी, उसका वेग अवश्य कम था। किन्तु इस वर्षा में स्टेशन तक जाना? फिर भी यह सोच कर कि हो सकता है निकलते-निकलते वर्षा रुक ही जाये, कंकड़ी-स्नान, थोड़ा सा ध्यान, और देवी को एक मूक प्रणाम कर, शीघ्रता से आज के सामाजिक स्तर का सभ्य वेष धारण कर, घर से निकला। वर्षा को न रुकना था, न वह रुकी। भीगते हुए मुख्य सड़क तक गया, एक ई-रिक्शा मुँह-माँगे किराये पर पकड़ा और शीघ्र चलने को कह कर माथे से टपकते जल-कणों को पोछने लगा। पूर्ण आशङ्का थी कि ट्रेन छूट सकती है। उतरा, भीगते हुए, और भागते हुए स्टेशन परिसर में गया, टिकट लिया – ‘जल्दी! जल्दी भाई! फलां गाड़ी पकड़नी है।’ उत्तर मिला – ‘आराम से जाइये! पचपन मिनट विलम्ब से चल रही है।’

रेलयात्रा मुझे तनिक भी रुचिकर नहीं लगती! मैं एक मिनट विलम्ब से पहुँचूं तो वह मुझे छोड़ कर चली जायेगी और मैं समय से पहुँच गया तो स्वयं देर से, कभी-कभी बहुत देर से आयेगी। मन ही मन ‘स’कार – ‘ब’कार का उच्चारण कर के अपने मन को सांत्वना देता हुआ प्लेटफॉर्म पर पहुँचा। प्रतीक्षा के ये पचपन मिनट मुझ पर भारी पड़ रहे थे। मुझे सर्वाधिक घृणा यदि किसी से है तो प्रतीक्षा से! और वर्षा थी, जो कह रही थी कि आज नहीं बरस लिया, तो फिर पता नहीं पुनः अवसर मिले, न मिले!

स्टेशन के परिसर को देख कर यह लग रहा था कि जीवन किसी भी व्यवधान से नहीं रुकता! एक-एक कर लोग आते जा रहे थे। बहुतों के मन में यह संतोष था कि ट्रेन विलम्ब से आने वाली है। वे निर्धारित समय से विलम्ब से पहुँचने वालों में से थे। और मैं यह अनुभव कर रहा था कि न जाने क्यों, चतुर्दिक सड़ी हुई मछलियों के गन्ध व्याप्त है।

वर्षा यदि कुछ समय अनवरत होती रहे तो धरा की ऊपरी सतह में दब गये जीवाश्मों को भिगो कर उनकी गन्ध सतह तक ला देती है और गन्धवती धरा मत्स्यगंधा बन जाती है। ‘लं पृथिव्यात्मकः गन्धं कल्पयामि नमः।’ तो क्या यह सड़ी मछली सी गन्ध भी? मैंने मन से पूछना चाहा किन्तु इस समय मेरा मन न जाने कहाँ था। इससे पूर्व स्वयं को इतना असंग मैंने कभी अनुभव नहीं किया। यह असंगता एवं यह प्रतीक्षा अत्यन्त त्रासद थी तथा विगत रात्रि का चिन्तन-प्रवाह मुझे सर्वतोभावेन घेरे हुए था। इस वर्षा, व्यक्तियों का निष्प्रयोज्य वार्तालाप, रेलवे के ध्वनि-विस्तारक यन्त्र से आती ध्वनियाँ, अचानक यह समस्त कोलाहल तिरोहित हो गया तथा अनजाने ही मेरे होंठ बुदबुदा उठे –
समाः सुस्थीभूतो जपति विपरीतां यदि सदा
विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशय महाकालसुरताम्।
तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः,
कराम्भोजे वश्या पुरहरवधू महासिद्धिनिवहाः॥११॥

हे पुरहरवधू! हे शिवप्रिये! हे कालिके! समाः – बहुत कालपर्यन्त, अतिशय विपरीताम् महाकाल सुरताम् – महाकाल के साथ अतिशय रूप से विपरीत सुरत- संलग्न एवं तत्पश्चात् सुस्थीभूतो – सु-स्थीभूतो, सुन्दर प्रकार से, स्थित हो चुकी, तृप्ति का अनुभव करते विश्रांति की अवस्था में, ऐसे स्वरुप का, यदि सदा विचिन्त्य, ध्यायन (च), यदि सदैव चिन्तन करते हुए, (तथा इस स्वरुप का) ध्यान करते हुए जो साधक, जपति त्वां - तुम्हारे मन्त्र को जपता है, क्षोणी – पृथ्वी, क्षोणीतल – पृथ्वीतल, विहरमाण – विद्यमान, विदुषः – विद्वान्, अतएव, क्षोणीतल विहरमाणस्य विदुषः – इस पृथ्वीतल पर विद्यमान समस्त विद्वान्, महासिद्धिनिवहाः – श्रीविद्यादिक दश महाविद्याओं की साधनाओं द्वारा इच्छा-सिद्धि आदि प्राप्त समस्त सिद्ध-साधक आदि, कराम्भोजे वश्या, करकमलों के वशीभूत, हथेली के नीचे आये जैसे वशीभूत हो जाते हैं।

ये पुरहरवधू भी बड़ा रहस्यमय शब्द है। अपने अनेक आलेखों में मैं यह कहता रहा हूँ कि शिव शब्द के तीन अर्थ हैं – एक ऐतिहासिक, एक पौराणिक एवं एक आगमोक्त! प्रथम शिव हैं एक सर्वविद्याविशारद एवं महान योद्धा ‘ऐतिहासिक शिव’, दूसरे हैं उसी प्रथम शिव की अतिरञ्जित अतीन्द्रिय शक्तियों के आरोप से आकार पाये ‘पौराणिक शिव’ तथा इन दोनों से नितान्त भिन्न तीसरे शिव है ‘निराकार शिव’! ‘निराकार शिव’ तन्त्र एवं दर्शन के विषय हैं किन्तु काल-क्रम में, एवं अभिव्यक्ति हेतु आधार ग्रहण करने की विवशता के क्रम में इन तीनों का समाहार हो गया। ऐतिहासिक आख्यान है कि चन्द्र वृहस्पति की पत्नी तारा को लेकर दैत्यों के पास भाग गया। तारा की पुनर्प्राप्ति हेतु देवों तथा दैत्यों में जो सर्वप्रथम संग्राम हुआ वही ‘तारकामय संग्राम’ है। उस समय देवों ने  दैत्यों को परास्त कर दिया। दैत्यों के परास्त होने के उपरान्त ताराकासुर के तीन पुत्र ताराक्ष, कमलाक्ष तथा विद्युन्माली ने तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया तथा वर प्राप्त किया कि वे तीनों आकाश में तीन वृहत् नगराकार विमानों में तीन पुरों की स्थापना करेंगे। तीनों पुरों में से एक सुवर्ण निर्मित पुर स्वर्गलोक में स्थित हुआ जिसका अधिपति तारकाक्ष था। दूसरा पुर रजत का, चाँदी का था वह अन्तरिक्ष लोक में स्थित हुआ जिसका अधिपति कमलाक्ष बना तथा तीसरा पुर जो लौह का था तथा जिसकी स्थापना भूलोक में हुई, उसका अधिपति विद्युन्माली बना। इन तीनों पुरों का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था। सुवर्ण समृद्धि का, रजत शक्ति का तथा लौह सत्ता का, राजदण्ड का प्रतीक है। इस प्रकार ये तीनों नगर क्रमशः समृद्धि, शक्ति तथा सत्ता के केन्द्र थे तथा ये तीनों पुर वैसे ही भ्रमणशील थे जैसे सूर्य के चतुर्दिक ग्रहों का भ्रमण हुआ करता है। ब्रह्मा ने यह भी वचन दिया था कि जबतक ये तीनों पुर, ये तीनों नगर, एक सीध में न आयें तथा उसी समय एक ही बाण से तीनों का वेधन न हो, तब तक उन पुरों को कोई सङ्कट नहीं! आज तो ये तीनों एक सीध में क्या, एक पुर में ही केन्द्रित हैं किन्तु उस समय भी, उनकी चक्राकार गति से, सहस्र वर्षों में एक बार उन तीनों पुरों का एक सीध में आना निश्चित था। होता ही है! ग्रह भी सीध में आते हैं जिन्हें ज्योतिष में ग्रहों का सायुज्य ही कहा जाता है। समृद्धि, शक्ति एवं सत्ता भी जब विकेन्द्रित रहती हैं तब उनका नाश सम्भव नहीं! कोई एक नष्ट हुआ तो अन्य दो की सहायता से वह पुनर्स्थापित हो जायेगा। किन्तु ये तीनों भी कभी न कभी एक साथ एक सीध में आते ही आते हैं, इनका भी सायुज्य होता ही होता है तथा जब ये तीनों किसी एक केन्द्र में समाहित हो जाते हैं तब अनीति एवं अत्य की पराकाष्ठा भी हो जाती है और ऐसे समय में यदि उनका एक साथ विनाश हो जाय तो उनके पुनर्स्थापित होने की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है।

वह समय भी आया जब ताराक्ष, कमलाक्ष तथा विद्युन्माली के तीनो नगर एक साथ एक सीध में आ गये। तीनों लोकों के तेज से शिव के लिए एक तेज़स्वी रथ का निर्माण किया गया। निर्माणकर्ता विश्वकर्मा ही थे। विश्वकर्मा ने ही एक दिव्य बाण का निर्माण किया, जिसकी गाँठ में अग्नि, फल में चन्द्रमा तथा नोंक वाले अग्रभाग में विष्णु का निवास था। जगत् के विविध उपकरणों से बने उस दिव्य रथ में सूर्य तथा चन्द्रमा रथ-चक्र बन कर स्थापित हुए, अपनी जटाएँ समेट, कमण्डलु को अलग रखकर तथा मृगचर्म कसकर स्वयं ब्रह्मा ने अपने दाहिने हाथ में कशा तथा बायें हाथ में रथ के अश्वों की वल्गायें थामीं तथा उस रथ के सारथी बने। धनुष के क्षोभ से जब रथ शिथिल होने लगा, तो बाण के नोंक से बाहर निकलकर विष्णु ने वृषभ का रूप धारण किया तथा शिव के विशाल रथ को ऊपर उठाया। शिव ने वृषभ तथा घोड़े की पीठ पर खड़े होकर एक सीध में आये उस त्रिपुर को देखा तथा उस दिव्य बाण का सन्धान कर, एक सीध में आ चुके एकरूप हुए त्रिपुर का नाश कर दिया। तभी से शिव का एक नाम त्रिपुरहर भी हुआ।

ऐतिहासिक शिव ने संभवतः किसी युद्ध में एक सीध में आये ताराक्ष, कमलाक्ष तथा विद्युन्माली का एक ही बाण से वध किया था किन्तु यह कोई असम्भव घटना नहीं है। मौर्य काल में भी इस प्रकार की एक घटना का उल्लेख प्राप्त होता है।

कुशीनारा का बन्धुल मल्ल अपने मातृस्थल पर स्वयं के प्रति हुए अन्याय से खिन्न, अपने मित्र कोसलाधिप प्रसेनजित् के पास चला गया। प्रसेनजित् ने उसे सेनापति के पद पर अभिषिक्त कर दिया। प्रसेनजित् जैसे नम्र तथा उत्साहहीन राजा के लिए एक ऐसे योग्य सेनापति की बड़ी आवश्यकता थी।

श्रावस्ती पहुँचने के कुछ समय बाद उसकी पत्नी मल्लिका को गर्भ-लक्षण दिखा। बन्धुल मल्ल ने एक दिन पूछा- “प्रिये ! कोई दोहद हो तो कहना।”

मल्लिका ने कहा - "हाँ! दोहद तो है प्रिय! किन्तु अत्यन्त दुष्कर!”

‘’बन्धुल मल्ल के लिए वह दुष्कर नहीं हो सकता मल्लिके ! कह मुझसे! क्या दोहद है?’’

“अभिषेक-पुष्करिणी में स्नान!”

“मल्लों की अभिषेक-पुष्करिणी में? वह क्या कठिन है?”

“नहीं! वैशाली में लिच्छवियों की अभिषेक-पुष्करिणी में!”

“ठीक कहा, मल्लिके ! तेरा दोहद दुष्कर है। किन्तु बन्धुल मल्ल उसे पूरा करेगा। कल प्रातः चलते हैं वैशाली! प्रस्तुत रहना! रथ पर मात्र हम दोनों चलेंगे।"

अभिषेक-पुष्करिणी के घाटों पर पहरा था क्योंकि वहाँ जीवन में मात्र एक बार किसी लिच्छवि को ही अभिषेक का सौभाग्य प्राप्त होता था, वह भी तब, जब वह लिच्छवि, गण के नौ सौ निन्यानबे सदस्यों मे से किसी के रिक्त हुए स्थान पर चुना जाता था। रक्षी पुरुषों ने बाधा डाली, तो बन्धुल ने रथ की कशा से ही मार – मार कर उन्हें भगा दिया, और मल्लिका को स्नान करा रथ पर चढ़ तत्काल वैशाली से श्रावस्ती को चल पड़ा। रक्षी पुरुषों से समाचार पा कर पाँच सौ लिच्छवि प्रतिशोध हेतु रथी बन्धुल के पीछे दौड़े। महालि जो बन्धुल का सहपाठी रह चुका था, ने सुना तो उसने मना किया – ‘जो हो गया सो हो गया! अब बन्धुल का पीछा मत करो!’, किन्तु गर्वीले लिच्छवि नहीं माने।

पीछे से बहुत से रथों के चक्रों की घर्घर ध्वनि सुन पीछे की ओर देख मल्लिका ने कहा- “प्रिय ! पीछे से बहुत से रथ आ रहे हैं।”

“कोई हानि नहीं प्रिये ! जिस समय समस्त रथ एक रेखा में दीख पड़ें, उस समय मुझसे कहना।”

सटीक समय पर मल्लिका ने बन्धुल को सूचित किया और कहते हैं कि बन्धुल ने साध कर मात्र एक बाण मारा जो पाँच सौ लिच्छवियों के कटिपट्ट को वेधता हुआ निकल गया। लिच्छवियों ने जब निकट पहुँच कर बन्धुल को युद्ध हेतु आवाहित किया तो बन्धुल ने सहज भाव से कहा- ‘मैं तुम्हारे जैसे मृतकों से युद्ध नहीं किया करता।’

लिच्छिवियों ने पुनः चुनौती दी तो बन्धुल ने कहा - “मैं एक लक्ष्य पर दूसरा बाण व्यर्थ व्यय नहीं करता लिच्छिवियों! घर लौट जाओ! पहले अपने प्रियों-बन्धुओं से भेंट कर लेना, फिर अपना कटिबन्ध खोलना।” कह कर बन्धुल ने मल्लिका के हाथ से रथ की अभीशु अपने हाथ में ले ली और रथ को तीव्रता से चलाते हुए उनकी दृष्टि से ओझल हो गया।

और!

घर लौट कर कटिबन्ध खोलते ही सचमुच ही वे पाँचों सौ लिच्छवि गिरे और मर गये।

अब यहाँ एक प्रवाद उठ सकता है कि कहाँ शिव और कहाँ बन्धुल मल्ल? मैंने दोनों की तुलना करने का साहस कैसे कर लिया? किन्तु यह प्रवाद अनुचित होगा क्योंकि उदाहरण मात्र उदाहरण होते हैं। बन्धुल के समक्ष पाँच सौ गतिमान रथ पर पाँच सौ योद्धा उसके शत्रुरूप में उपस्थित थे, उसने उन सबका एक बाण से बेध कर दिया, शिव के समक्ष अपने गतिमान पुरों पर मात्र तीन ही शत्रु थे तो उन्होंने मात्र तीन का वेध किया। बन्धुल के समक्ष रथ थे, और शिव के समक्ष उपग्रहों की भाँति परिक्रमा करते नगर, और उनके लिये पाँच सौ नहीं पाँच सहस्र शत्रुओं का एक बाण से वेध सम्भव था किन्तु आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उस युद्ध में उनके एवं समस्त देव-जाति के शत्रु ही मात्र तीन थे।

किन्तु उन तीन पुरों के भेदन की कथा तथा कथा में प्रयुक्त प्रतीक कोई तो रहस्य रखते ही होंगे? किन्तु क्या? प्रतीकों की व्याख्या का यहाँ अवसर नहीं है, किन्तु कथा का सार यही है कि यदि समृद्धि, शक्ति एवं सत्ता के केन्द्र एकत्र न हों तो वे बहुत अधिक त्रासद नहीं होते किन्तु जब वे एक एकत्र हो जाते हैं तो अनीति एवं अत्य की पराकाष्ठा का वह समय ही उनके विनाश हेतु उपयुक्त भी होता है। उनको एक बार में एक ही बाण से वेधना होता है अन्यथा एक-एक कर उनका विनाश सम्भव नहीं! जो दो शेष रहेंगे वे तीसरे की पुनः प्रतिष्ठा कर लेंगे।

किन्तु तन्त्र की भाषा में इस त्रिपुर-हरण का उसकी इस ऐतिहासिकता अथवा इसकी पौराणिक व्याख्या से कोई सम्बन्ध नहीं! प्रतीक अवश्य अपना विशिष्ट निहितार्थ रखते हैं, तन्त्र में भी, किन्तु उनके सम्बन्ध में कभी और, जब उचित सन्दर्भ होगा, उचित अवसर होगा। फिर भी यह अवश्य है कि तन्त्र की भाषा में त्रिपुर एवं त्रिपुरहर के निहितार्थ कुछ और ही हैं –

तिस्त्रः पुरस्त्रिपथा विश्वचर्षणा अत्राकथा अक्षराः संनिविष्टाः।
अधिष्ठायैना अजरा पुराणी महत्तरा महिमा देवतानाम्॥ (त्रिपुरोपनिषद्)

तीन पुर, तीन पथ एवं इस में संनिविष्ट ‘अ’ ‘क’ एव ‘थ’, इन सभी से अधीष्ठित एवं सभी को समान रूप से देखने वाली जो अजर एवं आद्य, चैतन्य शक्ति है वह अपनी महिमा से भी अधिक महिमामय है।

यहाँ तीन पुरों का तात्पर्य स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर से है, तीन पथ का तात्पर्य ज्ञान, कर्म एवं उपासना अथवा ज्ञान, विज्ञान एवं सम्यक् ज्ञान से है। (अकथ का विवेचन प्रसङ्गानुसार भविष्य में सम्भावित है।) तन्त्र की भाषा में जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति की तीन अवस्थायें भी इस त्रिपुर शब्द से ही अभिव्यञ्जित हुआ करती हैं। इन पुरों, इन मार्गों, इन अवस्थाओं, इन अक्षरों को जीवेश परमात्मा से अधिष्ठित करने वाली, परमात्मा में लय कर देने वाली जो महिमामयी, इन तीन से विलग, इन तीन से विलक्षण, महती चिरन्तन चित्-शक्ति रूप में विद्यमान है, वही सर्वोत्कृष्ट शक्ति पुर-हर-वधू है।
ध्यायन् विचिन्त्य जपति! – कौलावली के अनुसार मानसिक जप वाचिक जप से शतगुणा अधिक फलप्रद है अतः यहाँ उस कौलाचार्य कवि का अभिप्राय मानसिक जप से ही है। मननात् त्रायते इति मन्त्रः – जिसके मनन से त्राण हो, वही तो मन्त्र है! अतः मन्त्र जप की वास्तविक विधि उसका मनन ही है। और मनन क्या है? वही! मुक्ति की अभिलाषा को अपने प्राणों की पुकार बना लेना – ‘राधा! राधा! राधा!’

इस छन्द का ‘सुस्थीभूतो’ शब्द पुनः उस आद्या हेतु नहीं, बल्कि साधक हेतु प्रयुक्त हुआ है जिसकी विवेचना दशम छन्द की व्याख्या करते हुए ‘विगलित-चिकुर’ पद के निहितार्थ का स्पष्टीकरण करते हुए कहा जा चुका है। वही नौ विक्षेपों एवं पाँच विघ्नों से बच कर जप में संलग्न होना! कुलार्णव-तन्त्र कहता है –

शान्तः शुचिर्मिताहारो भूशायी भक्तिमान् वशी । 
निर्द्वन्द्वः स्थिरधीर्मौनी संयतात्मा जपेत् प्रिये।।

शान्त, पवित्र, अत्यल्प आहार करने वाला, भू-शायी – भूमि पर सोने वाला, निर्द्वंद्व, स्थिर, धी-मान् अर्थात् बुद्धिमान एवं संयतात्मा हो कर जप करे!

और महा-प्रलय के पश्चात सृष्टि रचना के समय जड़ीभूत शिव को उद्द्यत एवं उत्प्रेरित करना विपरीत-रति न कहा जाय तो फिर उसे और क्या कहा जा सकता है? नारी-शक्ति ग्राह्यिका है! वह स्वयं अपनी ओर से पहल नहीं करती! किन्तु विवशता है! उस प्रलयकाल में पुं-शक्ति तो जड़ीभूत है! शिव तो शव है! तो जो जागता होगा वही तो जगायेगा? किन्तु यह सामान्य प्रक्रिया के विपरीत है अतः सृष्टि के उद्गम एवं उन्मेष की यह प्रक्रिया विपरीत रति का प्रतिफल है! अतः विपरीताम् ध्यायन का तात्पर्य है उस आदि-शक्ति का ध्यान, जो प्रलयकाल के महाश्मशान में अकेली संसर्ग-रचना हेतु जाग्रत एवं सक्रिय है तथा आदि-शिव को, आदि ‘शुभ’ को इस कार्य हेतु प्रेरित एवं सक्रिय करती है। विपरीत-रति का तात्पर्य यहाँ काम-शास्त्र के विपरीत-रति से नहीं है। अतः इस छन्द का अर्थ हुआ -

हे स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर नामक तीनों पुरों, ज्ञान, कर्म, तथा उपासना या ज्ञान, विज्ञान एवं सम्यक ज्ञान नामक तीनों मार्गों, जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं का हरण करने वाले, नाश करने वाले शिव की अर्धांगिनी! हे पुरहरवधू! हे शिवप्रिये! हे कालिके! प्रलयकाल के महाश्मशान में अकेली संसर्ग-रचना हेतु जाग्रत एवं सक्रिय, तथा शुभ को, शिव को, भी जाग्रत एवं सक्रिय करने वाली! तुम्हारे ऐसे स्वरुप का, अधिक कालपर्यन्त, सुस्थीभूत हो कर, अविचलित रह कर यदि सदैव ध्यान एवं चिन्तन करते हुए, जो साधक तुम्हारे (पूर्व-उपदिष्ट) मन्त्र का मानसिक जप करता है, इस पृथ्वीतल पर विद्यमान समस्त विद्वान्, श्रीविद्यादिक दशमहाविद्याओं की साधनाओं द्वारा इच्छा-सिद्धि आदि प्राप्त समस्त सिद्ध-साधक, उसके करकमलों के वशीभूत, ‘उसके मुष्टिगत हुए के समान’ वशीभूत हो जाते हैं।

जब सिलसिले टूटते हैं तो उनके टूटने का भी एक सिलसिला सा निकल पड़ता है और जब सिलसिले जुड़ने लगते हैं तो उनके जुड़ाव के भी अपने ही बहाने बनने लगते हैं। मैं सोचता जा रहा था और सम्भवतः सोचता ही जाता क्योकि एक सिलसिला था जो अब चल निकला था किन्तु तभी पार्श्व में बैठे सज्जन ने टोका – ‘क्या हुआ भाई? कहाँ खोये हो? स्टेशन पर ही दिन बिताना है क्या?’

विचार-सरणि अवरुद्ध हुई और मैं जैसे किसी गहरी तन्द्रा से जागा। सामने मेरी वह प्रतीक्षित ट्रेन जिससे मैं अपने गन्तव्य पर जाने वाला था, आ कर खड़ी हो चुकी थी और इतने हलचल में भी मुझे कुछ पता नहीं चला था। ‘धन्यवाद भाई!’ कहता मैं झपट कर जो डिब्बा सामने था उसी में चढ़ गया। आशा के विपरीत ट्रेन का वह डिब्बा कुछ खाली-खाली सा था। वे सज्जन भी साथ ही चढ़े थे और निकट ही बैठ भी गये। ट्रेन सरके इसके पहले ही उन्होंने पूछ लिया – ‘कोई परेशानी है? इतनी भीड़ में इस प्रकार का स्वयं में खोया इंसान मैंने नहीं देखा!’

‘नहीं! कुछ नहीं! बस ऐसे ही! कुछ सोच रहा था!’

बहुत देर से कहीं जा कर छुप गया मेरा मन पुनः लौट आया था। वर्षा अपनी गति से हो रही थी, ट्रेन अपनी गति से भाग रही थी और मैं? मैं बस यही सोच रहा था – “इतने पहले पहुँच कर भी यदि ट्रेन छूट जाती तो?”

मन ने ठीक ही कहा था – “तुम पशु हो! बल्कि पशुओं से भी अधम!” यह ध्यान में आते ही मैं इस यात्रा में ही पुनः अपनी विचार-यात्रा को प्रारम्भ करने की सोचने लगा किन्तु ‘भाई साब’ थे कि मुझे खोद-खोद कर बकबकाए जा रहे थे। मैं खीझ उठा। उस व्यक्ति का मैं आभारी था। यदि उसने टोका न होता तो मेरी ट्रेन तो छूट ही चुकी थी अतः मैं उससे कुछ ‘कडा सा’ नहीं कहना चाहता था और वह व्यक्ति चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

मन भी मनमौजी है। अब तक जाने कहाँ था और अब अचानक आ धमका – ‘इस समस्या से छुटकारा तो नितान्त सरल है। उठो यहाँ से और कहीं और जा बैठो। किन्तु वहाँ भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा यह निश्चित तो नहीं न? तो अभी जिस यात्रा में हो, उसी यात्रा में रहो! और जिस यात्रा की सोच रहे हो उसके हेतु और भी अवसर आयेंगे।’

मैंने मन की बात मान ली। वर्षा में भीगते हुए धान, धुले-धुले से पेड़ों के नहाये हुए पात, एक जंगल हो चुके किन्तु कभी के दर्शनीय रहे एक बाग की ईंटों की बनी टूटी चहारदीवारी के टूटे भाग के सामने नाचता मोर, दूर खेत में भीगते दो जोड़े बड़े-बड़े सारस, और जाने क्या-क्या देखते मैंने सोचा – ‘सत्य कहता है मन! जिस यात्रा में हो, उसी में रहो! यह चतुर्दिक पसरी वर्षा की झड़ी, यह हर्षित-मन भीगती प्रकृति, ये धान, ये पेड़-पात, ये मयूर-सारस, वह आतंरिक तथा यह बाह्य यात्रा, ये सब भी तो उसी आद्या की क्रीड़ा हैं! उसी की लीला! सब कुछ उसी का तो उपजाया है! तो वह यात्रा क्या और यह यात्रा क्या? भगवत्पाद आचार्य शङ्कर ने सौन्दर्य-लहरी में अनायास थोड़े न कहा था –

मनस्त्वं व्योमस्त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि,
त्वमापस्त्वंभूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ।
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा
चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे।।

हे शिव-युवति! तुम ही मन हो, तुम्हीं आकाश हो, तुम्ही वायु हो, तुम्हीं अग्नि भी हो, तुम्हीं जल हो, भूमि भी तुम्हीं हो, तुम्हारी परिणति के बाहर तो कुछ भी नहीं है! तुमने ही स्वयं को परिणत करने हेतु इस चिदानन्दाकार विश्व-वपु को विराट् शरीर के रूप में अभिव्यक्त कर रखा है।

इस श्लोक के स्मृति में आते ही मैं तनिक अचकचा गया। मनस्त्वं? मन भी तुम्हीं हो? तो क्या मेरा मन भी?

मन पुनः एक बार ठहाके लगा कर हँस पड़ा। जब उसकी हँसी तनिक रुकी तो वह एक बार पुनः कह उठा – “तुम पशु हो! बल्कि पशुओं से भी अधम!”

मैं चुप नहीं रह सका – “क्यों? अब क्या त्रुटि हुई मुझसे?”

मन ने कहा – ‘त्रुटि कोई नहीं! बस तुम्हारी मूर्खता पर हँसी आ गयी! और तुम्हारे पिताश्री की चरण-पादुकायें? वे न हों, तो तुम्हारी बुद्धि पशुओं से भी हीन कोटि की हो जाती है।’

‘नाटक न करो! मुझे अपनी भूल स्वीकार करने में क्षणार्ध भी नहीं लगता, किन्तु मुझे यह भान होना चाहिये कि मुझसे भूल हुई। पशु हूँ मैं, मानता हूँ, किन्तु तुम हँसे क्यों? यह मुझ पर व्यंग्य है, मेरा उपहास है और यदि यह अकारण है तो मुझे तुम्हारा प्रतिरोध करना ही होगा, भले तुम वही हो जो मैं हूँ!’

‘अरे रे रे! तुम तो बुरा मान गये! किन्तु समझो तनिक! सामान्य दृष्टिकोण से जो अर्थ इस श्लोक का तुमने बताया, वह नितान्त अनुचित तो नहीं है, किन्तु वह सामान्य दृष्टिकोण वाला अर्थ है। यही कारण था तुम्हारी शङ्का का। तुमने पूछा था न? कि क्या मेरा मन भी? तेरा मन या मेरा मन कैसा? उस ‘मनस्त्वं’ पद का तात्पर्य तो चिदानन्दाकार विश्व-वपु का मनस्तत्व है, तुम जैसे पशुओं का मुझ जैसा मन नहीं! और तुमने इस श्लोक के शब्दानुक्रम पर ध्यान दिया? नहीं न? तो अब ध्यान दो! श्लोक में तत्वों का एक क्रम है! मनस्त्वं – तुम्हीं मन हो! व्योमस्त्वं – तुम्हीं आकाश हो! मरुदसि – मरुत भी तुम्हीं हो! और मरुत्सारथिरसि, मरुतः सारथिर्यस्य - वायु जिसका सारथी हो – अर्थात् अग्नि, भी तुम्हीं हो! त्वमापः – जल भी तुम्हीं हो, तथा भूमिस्त्वयि - भूमि भी तुम ही हो!

अब तनिक कुण्डलिनी की यात्रा-पथ में आने वाले षड्चक्रों के सम्बन्ध में सोचो! प्रथमतः क्या कहा? मनस्त्वं! और षड्चक्रों में मनस्तत्व का स्थान ‘आज्ञा-चक्र’ है। फिर क्या कहा? व्योमस्त्वं! तुम्हीं आकाश हो! और आकाश-तत्व का स्थान उससे नीचे का ‘विशुद्ध-चक्र’ है। आगे? मरुदसि – मरुत भी तुम्हीं हो! मरुत अर्थात् वायु! और वायु का स्थान विशुद्ध चक्र के नीचे अनाहत् चक्र है। पुनः, मरुत्सारथिरसि, अग्नि भी तुम्हीं हो! और अग्नि का स्थान अनाहत के नीचे मणिपूर चक्र है। त्वमापः – जल भी तुम्हीं हो! और जल-तत्व का स्थान मणिपूर के नीचे स्वाधिष्ठान चक्र है। और अन्ततः कवि ने कहा कि भूमिस्त्वयि - भूमि भी तुम ही हो! और भूमि तत्व, पृथ्वी-तत्व का स्थान मूलाधार है। तो तुम्हें क्या लगता है? आदि शङ्कराचार्य भी तुम जैसे वातुल कवियों की भाँति मात्र शब्द-जाल रचते थे? इस सामान्य प्रतीत होते श्लोक में षड्चक्रों का और उनसे सम्बंधित तत्वों का साङ्केतिक वर्णन है। तन्त्र का हर वर्ण रहस्य का अधिष्ठान है मूर्ख! किन्तु तुझे मूर्ख भी कैसे कहूँ?

पता नहीं कि तू जानता है अथवा नहीं, किन्तु वितर्क, विचार, आनन्द एवं अस्मिता, इन चारों से सम्बंधित, चार प्रकार की ‘मानसिक सम्प्रज्ञात समापत्ति’ होती है। मन का स्थूल ध्येयाकार हो जाना मन की रूपापत्ति है जिसे ‘वितर्क सम्प्रज्ञात समापत्ति’ कहा जाता है, और तुझे मन को स्थूल ध्येयाकार कर लेने हेतु कोई प्रयास तक नहीं करना पड़ता! मन का शब्दात्म होना ‘विचार सम्प्रज्ञात समापत्ति’ कहलाता है और तू मन को शब्दायित करने में भी प्रवीण है। मन का आनन्दाकार होना ‘सानन्द समापत्ति’ है और तू मेरे माध्यम से, मुझे आधार बना कर, घृणित परिस्थितियों में भी आनन्द की अनुभूति कर लिया करता है। चिदात्म होना ‘सास्मिता समापत्ति’ कही जाती है। और यह चिदात्म हो सकना तेरे वश की बात नहीं! चिदात्म होना तो, बहुतों के वश की बात नहीं, अतः इसे जाने दे! अब पूछ कि समापत्ति क्या है और सम्प्रज्ञात क्या है? समत्व की प्राप्ति समापत्ति है तथा प्रज्ञा से संयुति सम्प्रज्ञात है।

तो, मनस्तत्व, व्योमतत्व, वायुतत्व, अग्नितत्व, जलतत्व, एवं भू-तत्व, क्रमशः आज्ञाचक्र, विशुद्धचक्र, अनाहत् चक्र, मणिपूर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और अन्त में भूमिस्त्वयि - भूमि भी तुम ही हो! पृथ्वी-तत्व का स्थान! मूलाधार! प्रक्रिया प्रारम्भ होती है निम्नतम एवं स्थूलतम से और चलती है एक-एक करते हुए उच्चतम एवं सूक्ष्मतम तक। जो जितना स्थूल होगा, उतना ही नीचे होगा और जैसे जैसे स्थूलता कम होती जायेगी, वह तिरता जायेगा, ऊपर उठता जायेगा। भगवत्पाद चिदात्म हो चुके थे अतः उनका शब्द-क्रम सूक्ष्म से प्रारम्भ हुआ। अमृत पान कर चुकी कुण्डलिनी का नाड़ियों को अमृत से सींचते हुए लौट कर स्वस्थान पर पुनर्विश्राम का क्रम।

अतः ध्यान रहे कि तन्त्र के सम्बन्ध में यदि कोई कुछ कहता है, तो वह, वह नहीं कहता जो वह कह रहा है। वह वह कहता है जो वह नहीं कह रहा है। और जो उसे पकड़ सका जो नहीं कहा जा रहा है, वही समझ पायेगा कि वास्तव में कहा क्या जा रहा है। लौकिक रूप से सौन्दर्य-लहरी के इस श्लोक का वह अर्थ जो तुमने बताया, वह अनुचित नहीं है, किन्तु वह मात्र अर्थ है। और मुझे तुमसे अर्थ की नहीं, निहितार्थ की अपेक्षा रहती है। फिर भी जब तुम पोंगा-पण्डितों जैसे मात्र अर्थ-निष्पादन करते हो तो मुझे हँसी आ जाती है। यू आर डिफरेंट माई बॉय! सो, थिंक सम डिफरेंट, से सम डिफरेंट, ऐक्ट सम डिफरेंट! इफ यू आल्सो आर रनिंग थ्रू अ प्री-डिटर्मिन्ड ट्रैक लाइक दिस ट्रेन, ह्वाट इज द डिफ़रेंस बिटवीन यू, द लाइव वन, ऐंड दिस ट्रेन, व्हिच इज कैरीइंग यू?’

यदि मेरा मन, कोई स्थूल संज्ञा होता, तो मैं उसे अब तक कई बार जुतिया चुका होता। जब देखो तब मुझे लताड़ता रहता है। किन्तु विवशता थी। मैं अपने मन से बस मन ही मन लड़ सकता था। और मेरा मन, मुझसे कहीं अधिक हठी है, कहीं अधिक क्रूर है, कहीं अधिक निर्लिप्त है, कहीं अधिक असभ्य, कहीं अधिक उद्दण्ड, कहीं अधिक उजड्ड, और कहीं अधिक बुद्धिमान भी! मुझे बहुधा अपने मन के समक्ष मौन रहना पड़ जाता है।

और मेरे मन को मेरा मौन ही क्षुभित कर पाता है। अपने इस उद्दण्ड, हठी, क्रूर एवं असभ्य मन से मुझे अब कोई बात ही नहीं करनी!

‘तुमसे नहीं होगा!’ बगल से किसी ने कहा। मुझे प्रतीत हुआ कि यह ध्वनि भीतर से आयी है – ‘तुमसे नहीं होगा! क्योंकि मन सूक्ष्मतम तत्व है। जो जितना ही सूक्ष्म होता है, उसकी व्यापकता भी उतनी ही अधिक होती है। तुम मुझसे नहीं भाग सकते!’

‘तुम मुझे कुछ देर छोड़ देने का क्या लोगे?’

‘जब मना करने पर भी यहाँ तक आ ही गये तो अब थोड़ी दूर और! बारहवाँ छन्द स्मरण करो और उस आद्या को प्रणाम कर के चिन्तन को विराम दो! तुम्हारा गन्तव्य भी आने ही वाला है।’

मानना पड़ा।

प्रसूते संसारं जननि भवती पालयति च
समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च ।
अतस्त्वं धातासि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिरपि
महेशोऽपि प्रायः सकलमपि किं स्तौमि भवतीम्।।१२।।

हे देवि! तुमने ही जगत् को उत्पन्न किया अतः सृष्टिकर्त्री शक्ति ब्राह्मी होने के कारण सृजनकर्ता ब्रह्मा तुम स्वयं हो, तुम्ही इस संसार का पालन किया करती हो, उनका भरण-पोषण करती हो अतः त्रिभुवनपति - श्री-पति - विष्णु की वैष्णवी शक्ति होने के कारण विष्णु भी स्वयं तुम्ही हो, तथा प्रलय के समय समस्त क्षित्यादि पञ्च-महाभूत वाले इस जगत का संहार करने वाली रौद्री शक्ति होने के कारण रुद्र भी, महेश भी तुम्ही हो अतः मैं, तुम इस स्थावर एवं जङ्गम जगत की कारणभूत शक्ति की क्या और कैसे स्तुति करूँ? तुम तो शब्दों से भी परे, वाणी से परे, शब्दातीत एवं वाचातीत हो! तो मैं क्या और मेरी क्षमता क्या? मैं क्या तुम्हारे स्वरूप की व्याख्या करूँगा? किस प्रकार कर ही सकूँगा?

‘किन्तु इतनी भी शीघ्रता क्या? ‘सकलमपि’ को तो तुमने छोड़ दिया। मुझसे भागने का तुम्हारा प्रयास अनुचित है और असम्भव भी!’

‘हाँ! भूल हुई! ‘स’ का अर्थ है ईश्वर, शिव, महादेव, ‘क’ का अर्थ है विष्णु भी, ब्रह्मा भी, कामदेव भी, अग्नि भी, वायु भी, यम भी, आत्मा भी, मन भी, जल भी, समय भी, विष भी, और ‘ल’ है विश्वात्मा, पृथ्वी, इन्द्र, आदि आदि इत्यादि! तो ‘सकल’ का एक अर्थ तो सम्पूर्ण है ही किन्तु वास्तव में स, क एवं ल इन तीन वर्णों द्वारा जो कुछ भी परिभाषित हो सकता है वे सब इस ‘सकल’ शब्द में सन्निहित हो जाते हैं अतः ‘प्रायः सकलमपि’ का तात्पर्य यह भी हुआ कि ये सब जो हैं, और सभी भी, जब तुम्हारी स्तुति में असमर्थ हैं तो मैं क्या तुम्हारी स्तुति कर पाऊँगा?’

‘बस यही भाव उचित है। तुम क्या? कोई नहीं कर सकता। जब वह कौलाचार्य कह रहा है, कि उसके द्वारा सम्भव नहीं, तो तुम तो हो ही क्या? इसी कारण कहा कि तुमसे नहीं होगा। स्वयं सोचो! जितना तुमने सोचा, उससे कई करोणों गुणा शाक्त-आगमों में कब का लिख कर छोड़ा जा चुका है जिसमें से जाने कितने तो लुप्त हो गये और फिर भी जब वह सब मिल कर पर्याप्त नहीं प्रतीत होता, तो तुम क्या और कितना बता सकोगे? अतः यही भाव उचित है। इसी करण कहा मैंने! कि यहाँ तक चले चलो! इसी भाव पर विराम होना चाहिये।’

गन्तव्य लगभग निकट आ चुका था। आज प्रथम बार प्रतिदिन की एक उबाऊ एवं नीरस यात्रा कब समाप्त हो गयी थी यह ज्ञात न हो सका। डिब्बे में खर-भर बढ़ गयी थी। ट्रेन रुकी। चाय! चाय! चाय! गरम समोसे! पूड़ी-छोले! धक्का-मुक्की! और बाहर रिमझिम फुहार। ट्रेन अन्य स्थानों पर भी रुकी थी और वहाँ भी यही दृश्य प्रतिदिन देखता था, किन्तु आज मुझे कुछ पता नहीं चला। मैं सम्भवतः बैठे बैठे ही सो गया था।

मैं उतरा और इस बार मैंने अपने मन से कहा - ‘चलो भई! भज कलदारम्, भज कलदारम्, भज कलदारम् मूढ़मते!’

मन पुनः ठहाका लगा कर हँस पड़ा – ‘पशु ही हो तुम! चलो! भज कलदारम्!’



-----क्रमशः, किन्तु जाने कब!-------



त्रिलोचन नाथ तिवारी...



निर्दिष्ट पाद टिप्पणी.. ...

* शृंखला की टूटी कड़ियों को जोड़ने के क्रम में ‘राधा’ का नाम स्वाभाविक रूप से आ गया। यह सोद्देश्य नहीं है। राधा-तत्व पर मेरा आलेख ‘आदि में न होती यदि राधा की रकार...’ पढ़ा जा सकता है।

** षोडशी एवं महाषोडशी हेतु, यदि उचित समझें तो कृपया मघा पर प्रकाशित आलेख “पाव पौना सवा डेढ़ ढाई साढ़े षोडशी ललिता त्रिपुरसुन्दरी सिनीवाली उत्पत्ति व्युत्पत्ति” का सन्दर्भ ग्रहण करें।

*** यदि आप इस कूट का थोड़ा सा रहस्य जानना चाहते हों तो मेरा ‘मन एकादशी, बुद्धि द्वादशी, चित्त प्रदोष समान’ नामक ललित आलेख देख सकते हैं। सम्प्रति इसे अवसरानुकूल कभी और विस्तार देने के उद्देश्य से छोड़ा गया।
और विशेष यह, कि मेरी सामर्थ्य नहीं कि मैं किसी स्तोत्र में सुधार करूँ। यदि किसी के पास गुरु-प्रदत्त काली-कर्पूर स्तोत्र है तो उसे अपने गुरु के आदेश-निर्देश एवं शब्द पर अडिग रहना चाहिये क्योंकि गुरु चाहे जैसा हो, उसका आदेश सर्वोपरि है, किन्तु यदि पुस्तकों के माध्यम से, चाहे वह किसी भी द्वारा व्याख्यायित एवं प्रकाशित हो, इस स्तोत्र को प्राप्त कर कोई इसका पाठ कर रहा हो तो उसे मेरे इस सुधार पर ध्यान देने से लाभ ही होगा अतः वह यदि उसकी इच्छा हो तो वह ‘रतासक्तो’ के स्थान पर  ‘अरतासक्तो’ पाठ स्वीकार कर सकता है। यदि उसकी इच्छा हो तो!



----एक निवेदन----

इस शृंखला के किसी भी आलेख को कॉपी-पेस्ट करना प्रतिबन्धित है। साथ ही यह भी निवेदन है कि इस निबन्ध को उस दक्षिणा काली का लालित्य-प्रसाद मान कर पढ़ें। यह सब लिखना मेरी सामर्थ्य का नहीं। वह लिखवा देती है तो लिख जाता है, नहीं लिखवाती तो रुका रहता है।

इन पङ्क्तियों का लेखक तन्त्र-ज्ञान में शून्य है अतः तत्सम्बन्धी टिप्पणियों के उत्तर देना सम्भव नहीं है।

आलेख के किसी शब्द/वाक्य/कथन से किसी का भी कोई मतभेद हो तो विद्वज्जन अपनी धारणा पर स्थिर रहने हेतु स्वतन्त्र हैं। बुद्धि-विलास का यह उपक्रम विवाद का प्रक्रम बने इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि यह रस की हाट है! ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर कोई मार्ग नहीं जाता!



आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत २०७९
तदनुसार दिनाङ्क २६.०९.२०२२
ब्रह्मबेलायां,

आद्यार्पणमस्तु।



[यदि टङ्कण की कोई त्रुटि है, तो उस हेतु अलग से क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योंकि अब उन्हें सुधारने का न कोई अवसर है, न कोई औचित्य!]

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