शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

सदाशिवेन देवेशि क्षणमात्र रमेत् प्रिये, अमृतं जायते देवि तत्क्षणात् परमेश्वरी। तदुद्भवामृतं देवि लाक्षारस समायुतम्, तेनामृत देवेशि तर्पयेत् परदेवताम्।।

सदाशिवेन देवेशि क्षणमात्र रमेत् प्रिये,
अमृतं जायते देवि तत्क्षणात् परमेश्वरी।
तदुद्भवामृतं देवि लाक्षारस समायुतम्,
तेनामृत देवेशि तर्पयेत् परदेवताम्।।

-----तन्त्रपरक ललित निबन्ध (भाग ११)-----

            स्वप्न , कुछ छवियों, विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं का एक क्रम है जो सामान्यतः निद्रा के कुछ चरणों में मन में अनैच्छिक रूप से उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य हर रात अपनी नींद के लगभग दो घण्टे स्वप्न देखने में व्यतीत करता है, और प्रत्येक स्वप्न लगभग पाँच से बीस मिनट तक का होता है, यद्यपि स्वप्न देखने वाले को यह कहीं अधिक लम्बा भी प्रतीत हो सकता है। स्वप्न मुख्यतः निद्रा के उस चरण में भासमान हुआ करते हैं जो तीव्र नेत्र संचलन चरण हुआ करता है और उस समय मस्तिष्क की गतिविधियाँ सर्वाधिक होती हैं, लगभग जाग्रत होने के समान क्षणों जितनी। सिगमंड फ्रायड ने अपने अध्ययन से यह निर्धारित किया कि मनुष्य के अंतर्मन को जानने के लिए उसके स्वप्नों को जानना नितान्त आवश्यक है। ‘इंटरप्रिटेशन ऑव ड्रीम्स' नामक अपने पुस्तक में उन्होंने यह बताने की चेष्टा की है कि जिन स्वप्नों को हम निरर्थक समझते हैं उनके भी कुछ विशेष अर्थ होते हैं। उनके कथनानुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को जिनकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में सम्भव नहीं होती, कभी सामान्य रूप से अथवा कभी प्रतीक रूप से व्यक्त करते हैं। कोई व्यक्ति अपनी जिस इच्छा को प्रकट नहीं कर पाता उसकी वह दमित इच्छा स्वप्न के द्वारा अपनी तृप्ति पा लेती है। जैसे-जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जाती है, समाज के प्रति उसका भय जटिल से जटिलतर होता जाता है और इस भय के कारण वह अपनी अनुचित इच्छाओं को न केवल दूसरों से छिपाने की चेष्टा करता है वरन् वह स्वयं से भी छिपाता है।
            डॉक्टर फ्रायड के अनुसार मनुष्य के मन के तीन भाग हैं – पहला, जिसमें सभी इच्छाएँ आकर अपनी तृप्ति पाती हैं। इनकी तृप्ति के लिए मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति से काम लेना पड़ता है। मन का यह भाग चेतन मन कहलाता है और यह भाग बाहरी जगत् से व्यक्ति का समन्वय स्थापित करता है। मनुष्य के मन का दूसरा भाग अचेतन मन कहलाता है जो उसकी सभी प्रकार की भोगेच्छाओं का आश्रय है। इसी में उसकी सभी दमित इच्छायें निवास करती हैं। और व्यक्ति के मन का तीसरा भाग अवचेतन मन कहलाता है। इस भाग में मनुष्य का नैतिक स्वत्व रहता है। फ्रायड ने नैतिक स्वत्व को किसी राष्ट्र या राज्य के सेन्सर विभाग की उपमा दी है। जिस प्रकार सेन्सर विभाग किसी नये समाचार या चलचित्र या पुस्तक के प्रकाशित होने के पूर्व ही उसकी छानबीन कर लेता है उसी प्रकार मनुष्य के अवचेतन मन में उपस्थित सेन्सर अर्थात् नैतिक स्वत्व, किसी भी वासना के स्वप्नचेतना में भी प्रकाशित होने के पूर्व उसकी काट-छाँट कर देता है। अत्यंत अप्रिय अथवा अनैतिक स्वप्न देखने के पश्चात् मनुष्य के मन में एक आत्म-भर्त्सना उपजती है और स्वप्नद्रष्टा को इस आत्म-भर्त्सना से बचाने के लिए उसके मन का सेन्सर विभाग स्वप्नों में अनेक प्रकार की तोड़मरोड़ करके ही उसकी दबी इच्छा को प्रकाशित करता है और फिर जाग्रत होने पर यही सेन्सर व्यक्ति के द्वारा देखे गये स्वप्न के उस भाग को कभी-कभी भुलवा भी देता है जिससे व्यक्ति को आत्म-भर्त्सना की अनुभूति होती हो। और इसी कारण, कभी – कभी हम देखे गये पूरे स्वप्न को ही भूल जाते हैं। डॉक्टर फ्रायड ने स्वप्नरचना के कई प्रकार बताए हैं किन्तु उनमें से प्रधान हैं - संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावान्तरीकरण तथा नाटकीकरण। संक्षेपण में देखे गये स्वपन में मन का कोई बहुत बड़ा प्रसंग छोटा कर दिया जाता है। विस्तारीकरण में ठीक इसका उल्टा होता है जिसमें स्वप्नचेतना एक छोटे से अनुभव को भी एक लम्बे स्वप्न में व्यक्त करती है। भावान्तरीकरण की अवस्था में हम अपने अनैतिक भाव को ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रकाशित होते नहीं देखना चाहते जिसके प्रति उन भावों का प्रकाशन आत्मग्लानि उत्पन्न करे। नाटकीकरण में कोई विचार अथवा इच्छा जब स्वप्न में प्रकाशित होती है तो उस समय वह दृष्ट प्रतिमाओं एवं दृश्यों का सहारा लेती है और व्यक्ति की स्वप्नचेतना अनेक मार्मिक बातों को एक पूरी परिस्थिति चित्रित करके वैसे ही दिखाती है जैसे कोई व्यक्ति कोई चलचित्र अथवा नाटक देख रहा हो। चूँकि स्वप्न किसी शिक्षा को सीधे रूप से अभिव्यक्ति नहीं देता अतः स्वप्न में अनेक चित्रों और घटनाओं के सहारे जो भाव व्यक्त होता है उसका अर्थ तत्काल लगाया जा सकना सम्भव नहीं होता। किन्तु इतना अवश्य है, कि स्वप्न में दीखता वही है जो हमारे अवचेतन में होता है अतः यदि कोई प्रयास करे तो स्वप्नों के माध्यम से किसी व्यक्ति के अवचेतन को पढ़ा जा सकता है। अतः स्वप्नों को सार्वजनिक नहीं करना भी उन्हीं दमित वासनाओं की प्रेरणा होती है जिनसे वर्जनाएं संश्लिष्ट हों! जी हाँ! इच्छाओं को वासना कहना यहाँ सोद्देश्य है।
            मेरा स्वप्न मुझे याद था। था नहीं! याद है! तो क्या अर्थ है उस स्वप्न का?
            मैं उलझ चुका था!
            मुझे फ्रायड के शोध से कोई विरोध नहीं और मुझे फ्रायड के शोध पर अविकल रूप से विश्वास हो, ऐसा भी नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि वे सब कुछ तो नहीं किन्तु बहुत कुछ ठीक ही कहते हैं। तो जब स्वप्न का कारण चेतन, अचेतन एवं अचेतन नामक मन के ही तीन भाग हैं तो इस स्वप्न का अर्थ किसी शकुन-विचारक, किसी मनोवैज्ञानिक या स्वयं फ्रायड से ही क्यों पूछना? मन से ही क्यों न पूछें? किन्तु मन है कहाँ?
            इस समस्त संसार में मैं और मेरा मन, ये दोनों एक दूसरे के प्रति जितने क्रूर हैं, उतनी क्रूरता मैंने कहीं देखी तो क्या, कहीं पढ़ी तक नहीं! और अभी ढाई घण्टों तक मैं अपने वक्त का बादशाह था। रोटी की सत्ता दस बजे से चलेगी। अभी तो मात्र साढ़े सात बज रहे थे!
            तो शहंशाह – ए – वक़्त ने, जो खुद अर्दली भी था और खुद ही सिपाही भी, सम्मन जारी कर दी – ‘ब-हुक्म शहंशाह ए वक़्त ए ढाई घण्टे, वह जो मन नाम से जाना जाता है या असल वा फर्जी तौर पर इस नाम से मशहूर है, और जिस पर ये इल्जाम है कि वह अपनी लावाजिब कारस्तानियों की वीडियो बना कर सपनों के नाम से शाया किया करता है, के लिये यह हुक्म फरमाया जाता है कि अदालत ए हाकिम में पेश हो कर या तो अपनी सफायी दे, या फिर इल्जाम क़ुबूल करे। हुक्म की फ़ौरन से पेश्तर तामील हो!’
            और मन दस्तबस्ता हाजिर था – ‘जी हुजूर! मुजरिम हाजिर है।’
            मन नहीं था तो मुझे उस पर बहुत क्रोध आ रहा था क्योंकि फ्रायड की फिलासफी तो यही कहती थी कि उस डरावने सपने, जिसके कारण मेरी जान तक जा सकती थी, का इकलौता, वाहिद जिम्मेदार मेरा यह कमबख्त मन ही था, लेकिन मैंने और मेरे मन ने साथ मिल कर कम गुनाह थोड़े न किये हैं? कहीं ये मेरी ही पोल-पट्टी खोलने लग गया तो?
ब-कलम खुद कि ...
तुम्हारी पोल-पट्टी खोलने लग जाय! तो क्या हो?
जो मन, हर बात, ढंग से तोलने लग जाय! तो क्या हो?

तो जिनसे ख़ास रिश्ता हो! उन्हें रुसवा नहीं करते!
वगरना कब्र! खुद ही मिट्टी रोलने लग जाय! तो क्या हो?

            मुझे लगा कि मन के प्रति इतनी कठोरता उचित नहीं। अन्यथा जब इसे अवसर मिलेगा तो यह बहुत लथेरेगा। मैंने ज़बान पर चाशनी लपेट कर कहा – ‘आओ यार! कितना उलझा हुआ हूँ मैं, और तुम हो कि सिरे से गायब हो।’
            ‘हाजिर तो हूँ हुजूर! फरमाइए!’
            ‘अरे यार! अब इतना भी क्या गुस्सा? हो जाता है कभी – कभी! तुमसे भी बहुत बार हुआ है। चलो! छोडो गिले – शिकवे!
            ‘अरे नहीं हुजूर! अब आप तो आप हैं! शहंशाह ए वक़्त ए ढाई घण्टे! तो मेरी क्या औकात कि..’
            ‘देखो! अधिक नाटक न करो! कहा न कि हो जाता है कभी-कभी! अच्छा! सॉरी! एस ओ आर आर वाई! सॉरी!’
            ‘बोलो! क्या है?’
            ‘ये क्या सपना दिखाया तुमने? और क्यों? फ्रायड कहता है कि सारे सपने तुम्हारे कारण दिखते हैं! तो ये सपना क्यों दिखाया तुमने? और मतलब क्या है इसका?’
            ‘अपन कोई सपना-वपना नहीं दिखाते! बस, तुम जो चाहते तो हो, किन्तु जान – बूझ कर स्वयं से भी कहने से बचना चाहते हो, वही तुम्हारे सामने ला खड़ा करता हूँ! वह सपना तुम्हारा स्वयं का सत्य है जिससे तुम स्वयं बचते फिरते हैं! मतलब पूछते हो? मुझसे? क्या तुम स्वयं नहीं चाहते कि तुम अपने दोषों से, अपनी दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाओ? किन्तु हो नहीं पाते तो यह लालसा तुम्हारे अवचेतन में बसी कसमसाती रहती है। तुम सगर्व कहते हो कि तुम्हारा अहं तुम्हारे सोहं बनने के मार्ग में तुम्हारा संबल है और स्वयं! स्वयं यह भी जानते हो कि अहं अ + हं है, अ अर्थात् नकार और हं अर्थात् शिव, शुभ! अर्थात् तुम्हारा अहं तुम्हें प्रत्येक शुभ से अलग कर चुका है! और यह तुम जानते हो! किन्तु मानते नहीं हो। क्या मैं गलत कह रहा हूँ?’
            ‘यार मैं बात उस स्वप्न की कर रहा हूँ और तुम अ एवं हं ले कर खड़े हो गये!’
            ‘मैं भी उस स्वप्न की ही बात कर रहा हूँ! सत्य कहना! क्या तुम स्वयं स्वीकार नहीं करते कि तुम्हारा अन्तःकरण दूषित है? और क्या तुम स्वयं यह नहीं चाहते कि उस दूषण को झाड-पोंछ कर साफ़ कर डालो एवं सर्वात्मना शुद्ध एवं पवित्र हो जाओ? मुझसे तो तुम्हारा कुछ छिपा है नहीं? तो तुम मानो अथवा मत मानो, किन्तु मैं जानता हूँ कि तुम सदा यह चाहते रहे, किन्तु इस दिशा में कभी सार्थक प्रयत्न नहीं किया। वह इमारत, जिसे तुमने रँगाई-पुताई होते देखा वह इमारत कुछ और नहीं तुम्हारा अन्तःकरण ही है, जो, मैं जानता हूँ कि बहुत भव्य है, अत्यन्त विशाल, बहुत ऊँचा! किन्तु तुमने इसे गन्दा, अव्यवस्थित एवं अपवित्र रख छोड़ा है। इसी कारण तुमको वह इमारत बहुत ऊँची, बहुत भव्य दिखी जिसकी रँगाई-पुताई हो रही है, ऐसा आभास हुआ तुमको! किन्तु वास्तव में वहाँ कुछ नहीं हो रहा था। बस तुमको प्रतीत हुआ कि साफ़-सफाई और रँगाई-पुताई हो रही है! कौन कर रहा था वह साफ़-सफाई और रँगाई-पुताई? देखा था तुमने स्वयं के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति को उस स्वप्न में वहाँ? नहीं न! वहाँ बस तुम थे, वह इमारत थी, सफाई होते होने का भ्रम था, किन्तु इसके अतिरिक्त वहाँ कुछ भी और था? यदि था तो ऐसा कुछ होते क्यों नहीं दिखा? क्योंकि वह इमारत तुम्हारी इसी वासना का चित्रमय निरूपण थी कि तुम्हारा अन्तःकरण, जो दूषित है, वह अब शुद्ध हो रहा है, किन्तु वास्तविकता में न ऐसा कुछ तुम्हारे अन्तःकरण के साथ है, न ऐसा कुछ उस इमारत के साथ था। एनी ऑब्जेक्शन माय लार्ड?
            ‘नो! इट्स ट्रू! यू मे कन्टिन्यू!’ बाहर से स्पष्टतः तो मैंने यही कहा किन्तु भीतर से दाँत पीसते मैं सोच रहा था – ‘मैं जानता था! साले को मौक़ा मिला तो बहुत लथेरेगा!’
            मन है वह मेरा! मेरी सोच, मेरी चिन्तना, कुछ भी उससे अछूते नहीं! वह समझ गया! – अभी दाँत मत पीसिये माय लार्ड! आज आप थोड़ा और भी, और थोड़े ठीक से भी लथेरे जायेंगे! बहुत दिनों से मैं संकोच में कुछ कह नहीं पाता था! किन्तु आज तुमने मुझे अदालत में आना है यह कह कर बुलाया है! तो शपथ लेता हूँ कि जो कहूँगा, सच कहूँगा और सच के सिवा कुछ न कहूँगा! यह शपथ तो तुमको मेरे उपस्थित होते ही मुझसे ले लेनी चाहिये थी, किन्तु तुम तो इस समय शहंशाह ए वक़्त ए ढाई घण्टे हो! नो रूल्स ऐंड नो रेगुलेशन्स! आगे सुनो! सत्य है कि तुममें ज्ञान की पिपासा अत्यधिक है! किन्तु वह ज्ञान तुम चाहते कैसे हो? कि कबाड़ में मिल जाय! रद्दी के भाव मिल जाये! तुमको यह परख तो है कि क्या पढ़ना है और क्या नहीं, किन्तु जो तुम पढ़ना चाहते हो, जानना चाहते हो, वह तुमको बिना कोई मूल्य दिये चाहिये! जानते हो? अरे! भूल हो गयी! जो मैं जानता हूँ वह तुम नहीं जानोगे? किन्तु क्या मानते हो कि ज्ञान की प्राप्ति कबाड़ में, रद्दी के भाव नहीं हुआ करती? सॉरी! पता है कि तुम मानते भी हो! तुम्हें ज्ञात है कि जहाँ से ज्ञान मिले वहाँ खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। टाइम, रिस्पेक्ट, ओबेडियेंस, फेथफुलनेस, कैश ऐंड काइंड! समय ले कर जाओ! आदर के साथ जाओ! अनुज्ञा का भाव ले कर जाओ! विश्वशनीयता ले कर जाओ! और थोड़ी सी रकम, और थोड़ा सा कुछ उपहार भी ले कर जाओ! यदि तुम्हें कहीं से ज्ञान की लालसा है, तो इन सात को लिये बिना वहाँ नहीं जाना चाहिये क्या यह तुमको ज्ञात नहीं? और तुम मंजिलें चढ़ते गये! खाली हाथ! मिलीं क्या तुम्हें वहाँ? कुछ पुरानी पुस्तकें! सड़े पन्नों वाली वे पुस्तकें, जिनका आज रद्दी में भी ठीक-ठाक मूल्य नहीं मिल सकता क्योंकि कबाड़ी उन सड़े पन्नों की वजह से उनका भाव चालू भाव से आधा या तिहाई लगाता है और वह भी यदि ले गया तो! तो वे किताबें फिर से गला कर सादा कागज़ बना दी जाती हैं। किन्तु! किन्तु तुमने स्वप्न में क्या सोचा? कि कबाड़ में ही बिकनी हैं इन्हें, तो उन किताबों को तुम सस्ते में कैसे ले सको! यह सोच रहे थे तुम! यह नहीं सोच रहे थे कि ज्ञान की, कला की कोई कीमत नहीं हुआ करती और वे पुस्तकें जिस भी मोल मिलें, वे अनमोल थीं! नहीं! तुमको वे किताबें सस्ते में, नाकुछ कीमत पर चाहिये थीं! और क्या किया तुमने? जो पुस्तकें तुमको भा गयीं, उन्हें निकाल-निकाल कर फर्श पर फेंकते गये! शीर्ष पर कौन रहीं? जो तुम्हारी दृष्टि में अरुचिकर थीं, निष्प्रयोज्य थीं, व्यर्थ थीं! ऐसे ही तुम निष्प्रयोज्य को शीर्षतम एवं उपयोगी को निम्नतम स्थान देते रहे हो।
            सुना तो होगा ही तुमने! एक बड़े महत्व का वाक्य है - सूली ऊपर सेज पिया की! वह जो परम काम्य तत्व है न? वह बहुत ऊँचे, गिरि-शृंगों से भी बहुत ऊँचे, और अनेक कंटकों से, संकटों से घिरा हुआ, हुआ करता है। उसे पाने को तुम स्टूल या सीढ़ी खोज रहे थे? अच्छा है कि बुद्धि आ गयी और तात्कालिक रूप से उपादेय, उस रेलिंग पर अपना एक पाँव रखने की युक्ति तक पहुँच गये। किन्तु क्या तुमको नहीं ज्ञात? कि सूक्ष्म साधनों को सीढ़ी बनाने का सङ्कट क्या होता है? बिचले और बिछले, तो गिरे! और तब उस अधःपतन की न कोई सीमा होती है, न अवधि! अतः तुम गिर रहे थे उस स्वप्न में क्योंकि तुमने एक सूक्ष्म साधन को सीढ़ी बनाई थी और फिर भी असावधान थे! और गिरते जा रहे थे, क्योंकि जो ज्ञान-शीर्ष से बिछुरा, उसके अधःपतन की न कोई सीमा होती है, न अवधि!
            और उस अधःपतन के समय, तुम सोच क्या रहे थे? कि मेरे बच्चों का क्या होगा? मेरी पत्नी का क्या होगा? मेरे मित्रों का क्या होगा? मतलब यह संसृति तुम चलाते हो? तुमसे पहले कोई मरा ही नहीं? या तुम्हारे बाद नहीं मरेगा? यही वह मृत्यु है न? जिसे जीतने को रावण ने कैलास सर पर उठा लिया था? और यही मृत्यु है जिसके द्वार पर नचिकेता जैसा हठी धरना दे कर बैठ गया था। यही मृत्यु है, जिसके भय से सिद्धार्थ अपनी सजी-संवरी और गदराई हुई दुनिया छोड़ कर भाग गया था। सुनो! इस मृत्यु से न तो किसी का कुछ बनता है, और न ही किसी का कुछ बिगड़ता है। कम से कम उसका तो बिलकुल नहीं, जो मर गया! किन्तु! सच कहूँ? तुमको वास्तव में न तो अपनी पत्नी का ध्यान था, न बच्चों का, न मित्रों का! तुमको मात्र अपनी मृत्यु से एक भय था! यह जान कर भी, कि अब मरना तो है ही, तुम मृत्यु से बचना चाहते थे! और प्रार्थनायें कर रहे थे! यही है! यही है वह वासना! वह मोह! वह माया! जिसे तुमको दिखाना और दिखाते रहना मेरा कार्य है! मेरा धर्म है! मैं तुम्हारा मन हूँ! मुझे तुम्हारे सारे दोष, सारे पाप, सारे छल ज्ञात हैं! सीढ़ियों से चढ़ने वाले को सीढियों से उतरना होता है। यदि कोई ऊपरी मंजिल से अपनी गलती से गिर कर मर जाये, अथवा जान बूझ कर कूद कर मर जाये, तो इसमें किसी और का क्या दोष? तुम अपनी त्रुटियों के कारण अधःपतन को प्राप्त होते रहे हो! और यह मुझे तुमको बताना ही था। सीधे – सीधे तो तुम सुनते नहीं! तो सपना बना कर दिखाना पड़ा! मन और दर्पण, ये दोनों व्यक्ति को उसका सत्य दिखा देने हेतु विवश हैं! वह स्वप्न तुम्हारा आतंरिक सत्य था और उसे दिखाना मेरी विवशता!’
            ‘शहंशाह ए वक़्त ए ढाई घण्टे’ इस समय स्वयं मन की अदालत में अपराधी सा खड़ा था। और उसके सारे आरोप सत्य थे।
            मैंने पुनः कहा – ‘सॉरी! एस ओ आर आर वाई! सॉरी!’
            ‘इट्स ओ के! अब कहो! क्या करना है?’
            ‘तुम्ही कहो! क्या करूँ?’
            ‘तुम्हारे दिन तुम्हारी रोटियों के नाम गिरवी पड़े हैं। तो अभी उनकी सोचो! यदि मन सदा साथ रहे तो दैनिक प्रपंच-निष्पादन में बाधा आती है। रिज्क गिनते हुए तस्वीह फिराया नहीं करते। मिलूँगा पुनः, जब मुझे लगेगा कि मिलना आवश्यक है।
            मुझे एक अपराधबोध एवं एक सन्नाटे के साथ छोड़ कर मेरा मन अदृश्य हो गया और अब मेरे साथ पुनः मेरे झूठ थे, मेरे छल थे, मेरी वासनायें थीं। मन के अदृश्य होते ही मैं पुनः धीरे-धीरे मनुष्य से एक पशु में रूपान्तरित होने लगा था। और अगले कुछ दिनों तक मैं पशु ही रहा। पशु! जिसका मेरुदण्ड उर्ध्वाधर नहीं, क्षैतिज हुआ करता है। जिसके शिश्न, उदर एवं मस्तिष्क न्यूनाधिक लगभग एक ही तल में हुआ करते हैं। जिसकी चिन्ता एवं चिन्तना मात्र शिश्न एवं उदर को संतुष्ट करने की हुआ करती है।
            चल रहा था जैसा चल रहा था, कि एक रात मन ने मुझे अपने ही कक्ष में एकान्त में पकड़ा – ‘क्या हाल हैं?’
            ‘ठीक ही हूँ! तुम तो ऐसे गये कि भूल ही गये! मिलते रहा करो! तुम साथ होते हो तो मैं भी मनुष्य हुआ करता हूँ!’
            ‘अब मुझसे तो झूठ मत बोलो! तुम स्वयं मुझसे बचे-बचे फिरते हो। एक तो मेरी उपस्थिति ही तुम्हें असहज कर देती है और मैं आऊँगा तो कुछ सार्थक कार्य बता दूँगा जिससे तुम कतराते फिरते हो।’
            ‘यदि तुम कहो तो क्या नहीं करता मैं?’
            ‘एक तो उस मूर्ति के ही सम्बन्ध में जो मैं कहता हूँ वह तुम नहीं कर रहे!’
            ‘देखो! वह एक जटिल कार्य सौप दिया है तुमने मुझे! किन्तु फिर भी, मैं तुम्हारी डाँट तो सुन-सुन कर वह कार्य कर भी दूँ, तुम तो मुझे पिटवाने का इंतजाम कर देते हो। और मैं कुछ करता कब हूँ इस कार्य – निष्पादन की प्रक्रिया में? सब तो तुम्हारा ही करा-धरा है। तो मैं तो सहर्ष प्रस्तुत हूँ किन्तु अब से इस नाटक में जो भूमिका मेरी रही, वह तुम निभाओ और तुम्हारी भूमिका मैं! स्वीकार हो, तो प्रारम्भ करें।’
            मन हँस पड़ा - ‘मूर्ख हो तुम! यदि हमने भूमिकाओं को परस्पर परिवर्तित किया तो यह नाटक तत्काल रोक देना पडेगा। ऐसा प्रतीत होगा कि किसी कोमल कमनीय काया वाले अभिनेता को कंस का और किसी विशालकाय स्थूल काया वाले अभिनेता को कृष्ण की भूमिका में मंच पर उतार दिया गया हो। मैंने प्रारम्भ में ही इन भूमिकाओं के निर्वहन हेतु सोच-समझ कर पात्र-चयन किया था। तुम स्थूल के प्रतिनिधि हो और मैं कोमल, कमनीय, सूक्ष्म का! तो स्थूल की अभिव्यक्ति तुम्हें शोभा देगी और सूक्ष्म की अभिव्यक्ति मुझे! अन्यथा तुम स्थूल और मैं सूक्ष्म, दोनों हैं तो एक ही! किन्तु एक स्तर पर भिन्न भी हैं! नाटक में इन भूमिकाओं के निर्वहन हेतु जो चयन किया गया है, वही उचित है। चलो! सोलहवें छन्द को पढ़ो और उसकी विवेचना करो!’
            मन की बातों को काट पाना मेरे हेतु सदा असंभव रहा। अतः मैंने पढ़ा -
गृहे संमार्जन्या परिगलितवीर्यं हि चिकुरं,
समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने।
समुञ्चार्य प्रेम्णा मनुमपि सकृत्कालि सततं
गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ॥ १६॥
            अनूचान तन्त्र-विशेषज्ञ एवं अध्येता यह बताते हैं कि इस श्लोक में तन्त्र का एक अन्य प्रयोग निर्दिष्ट है। जो साधक, दिन के मध्य भाग में, मध्याह्ने, दोपहर में, मंगलवार के दिन, कुजदिने, प्रेमपूर्वक – प्रेम्णा, मनुनपि – तुम्हारे पूर्व कथित मन्त्रों को, सकृत् – एक बार भी, गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्यं – गृह के, घर के साफ-सफाई करने वाली दासी के समागम से निकले वीर्य को, चिकुरं समूलं समुञ्चार्य – उसी के बालों को जड़ से उखाड़ कर, या कुछ लोग कहते हैं कि अपने बालों को जड़ से उखाड़ कर, उस स्खलित वीर्य एवं उस केश दोनों को एक साथ, वितरति चितायां - चिता में आहुति देता है, वह, गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः - इस पृथ्वी का गजारूढ़ राजा और बहुत अच्छा कवि भी हो जाता है।
            ‘अत्यन्त सतर्कता से कार्य लेने लगे हो! अनूचान तन्त्र-विशेषज्ञ एवं अध्येता यह बताते हैं कि! अरे! मैंने यह कब पूछा कि वे क्या बताते हैं? मुझे तो यह बताओ कि इस छन्द का तुम क्या निहितार्थ समझते हो!’
            ‘यही पढ़ा है, यही जाना है, तो यही समझता भी हूँ। हाँ इतना विशेष अवश्य है कि तन्त्रज्ञों ने मध्याह्ने को अर्धरात्रि व्याख्यायित किया है, जबकि मध्याह्न का अर्थ दोपहर होता है अतः मैंने अर्धरात्रि शब्द का उपयोग नहीं किया। वैसे यह प्रयोग, सम्भव तो अर्धरात्रि में ही है अतः विद्वानों ने उचित ही कहा है। किन्तु फिर कवि ने मध्याह्ने का प्रयोग क्यों किया? मध्याह्ने के स्थान पर वह अर्द्धनिशायां का प्रयोग सहजता से कर सकता था!’
            ‘जिन्हें अपने मूर्खतापूर्ण गर्हित मंतव्यों को आरोपित कर तन्त्र को कलुषित सिद्ध करने में आनन्द आता हो, अथवा जिन्हें तन्त्र का त तक ज्ञात नहीं, वे तन्त्र की व्याख्या करने लगें तो ऐसे ही अर्थ के अनर्थ हो जाया करते हैं और नव-पिपासु भटक कर पतन के गर्त में जा गिरते हैं जिसमें उनका दोष मात्र उनका अज्ञान हुआ करता है किन्तु वे अपने मूर्ख मार्गदर्शकों के अज्ञान का परुनाम भोगते हैं। पहले इस मध्याह्ने को ही देखते हैं। मध्य अह्ने! यह दोपहर हेतु रूढ़ शब्द अवश्य है, किन्तु जो रूढ़ियों से अलिप्त हो, वही तो तन्त्र है! तो रूढ़ अर्थ से यहाँ कोई तात्पर्य नहीं! मध्य का अर्थ होता है बीच में, और अह्न का अर्थ होता है भाग। मध्याह्ने का अर्थ होता है मध्य भाग में! किसके मध्य भाग में? होगा स्पष्ट अभी! प्रथम तनिक इस छन्द के अन्वय पर ध्यान दो!
            अब तक तुहें यह तो स्पष्ट हो ही गया होगा कि वह महाकाल नामक कवि अपने छन्दों में गूढ़ात्मत्कता को एक विशिष्ट रीति से नियोजित करता है। वैसे ही, जैसे किसी शब्द की वर्णाली को अलग-अलग कर के एक व्यतिक्रम में रख दिया जाये और किसी से कहा जाये कि इसे एक क्रम में सजा कर एक सार्थक शब्द बनाओ। किन्तु उसने उस व्यतिक्रमित वर्णाली को नितान्त अर्थहीन भी नहीं रखा। उसकी व्यतिक्रमित वर्णाली से भी एक अर्थ निकलता है जो भ्रमित करने वाला है। और ये सभी गोरू गुरु, उसी भ्रमोत्पादक वर्णाली के परितः भटकते रहे हैं तथा उन्होंने उसकी व्यतिक्रमित वर्णाली को क्रमबद्ध करने का प्रयास तक नहीं किया। और उनमें इतनी क्षमता भी नहीं थी! क्योंकि उनके लिये तो बाबा वाक्यं प्रमाणं ही अंतिम है। अब इस छन्द का यथार्थ अन्वय जानो –
            कालि! समूलं चिकुरं समुञ्चार्य संमार्जन्या कुज, दिने सकृत् मनुमपि प्रेम्णा, परिगलितवीर्यं हि वितरति स ततं (ततं स) गृहे चितायां मध्याह्ने गजारूढो याति, क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः।
            और अब अर्थ समझो इसका! चिकुर का अर्थ तो पहले ही व्याख्यायित किया जा चुका है। चञ्चलता! तो,
            हे कालि! हे काल की अधिष्ठात्री! हे काल के भी ऊपर अवस्थित शक्ति! जो, समूलं चिकुरं समुञ्चार्य, अपनी चंचलता को समूल उखाड़ कर, संमार्जन्या कुज, झाड-बुहार कर, कुज हुआ, कुज क्या है? रूढ़ अर्थ में कु का अर्थ पृथ्वी और ज का अर्थ जन्मा हुआ अर्थात पृथ्वी का पुत्र मंगल, किन्तु, तनिक ध्यान दो कि कुमार का अर्थ क्या है? और क्यों है? कुमार पार्वती-पुत्र कार्तिकेय की संज्ञा है। क्यों? क्योंकि वे इतने सुन्दर थे कि उनके समक्ष काम देव भी कलुषित प्रतीत होता था। कु का अर्थ है कलुष, और मार का अर्थ है कामदेव! तो कुमार अर्थात् जिसके सौन्दर्य के समक्ष कामदेव भी कलुषित प्रतीत हो! कुकुर जानते हो? कुत्ता! क्यों कहा जाता है कुत्ते को कुकुर? क्योंकि कु अर्थात् कलुषित तथा कुर अर्थात् ध्वनि! जिसकी ध्वनि कलुषित है वह कुकुर है। सामान्य भाषा में भी कह दिया जाता है कि अधिक न भूँको! क्योंकि कुकुर की ध्वनि कलुषित एवं अप्रिय हुआ करती है। अब कु अर्थात् कलुषित यह तो स्पष्ट ही हो गया, किन्तु ज का अर्थ मात्र जन्मदाता या जन्मदात्री ही नहीं, जेता, जीत लेने वाला भी होता है। अपठितों एवं अर्द्ध-पठितों के पास रूढ़ से आगे बढ़ पाने की कोई संभावना नहीं हुआ करती! ज के अर्थ हैं – मृत्युंजय, जन्म, पिता, विष्णु, विष, भुक्ति, तेज, पिशाच, वन, वेगवान, तेज और जीतने वाला - जेता।
            अब शब्दों के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध उक्ति है – प्रयोगेण अभिज्वलति! प्रयोग द्वारा जो जाज्वल्यमान हो कर अपने अर्थ को अभिव्यञ्जित करे! तो सन्दर्भ एवं प्रसंग के अनुसार ही शब्दों का तात्पर्य निर्धारित हुआ करता है। और इसी कारण यहाँ कुज का अर्थ मंगल नहीं, कलुष-जेता है! जो अपने कलुष पर विजय प्राप्त कर चुका हो वह कुज है! अतः
            हे कालि! हे काल की अधिष्ठात्री! हे काल के भी ऊपर अवस्थित शक्ति! जो, समूलं चिकुरं समुञ्चार्य, अपनी चंचलता को समूल उखाड़ कर, संमार्जन्या कुज, झाड-बुहार कर, कुज हुआ, अपनी चंचलता को समूल उखाड़ कर, पूर्णतः झाड-बुहार कर, अपने कलुष पर विजय प्राप्त कर चुका हो, दिने सकृत् मनुमपि प्रेम्णा – दिन में कभी एक बार भी, दिने सकृत्, मनुनपि प्रेम्णा प्रेम से तुम्हारे पूर्व कथित मन्त्रों का जप कर ले, और, परिगलितवीर्यं हि वितरति स ततं, परिगलितवीर्यं का तात्पर्य भी समझाया जा चुका है, सहस्रार से झरता अमृत! तो परिगलितवीर्यं हि वितरति, सहस्रार से झरते अमृत को वितरित करती हुई, बताया जा चुका है कि कुण्डलिनी जब सहस्रार से अमृत पान कर के पुनः मूलाधार की ओर लौटती है तो समस्त नाड़ियों को उस अमृत से सींचती हुई, समस्त नाड़ियों में वितरित करती हुई लौटती है और कुण्डलिनी के सहस्रार की ओर आरोहण को प्रभव तथा मूलाधार की ओर प्रत्यावर्तन को अप्यय कहा जाता है और इन दोनों का सफलता पूर्वक संपन्न हो जाना ही योग-सिद्धि है, और ततं का अर्थ है व्यापक, तो परिगलितवीर्यं हि वितरति स ततं, वह सर्व-व्यापिनी शक्ति जब सहस्रार से झरते अमृत को समस्त नाड़ियों में वितरित करती हुई लौटती है, तब, गृहे चितायां मध्याह्ने गजारूढो याति घर में चिता पर गजारूढ़ हुई अब यहाँ न चाहते हुए भी मूलाधार क्षेत्र को समझाना आवश्यक है अन्यथा यह छन्द कदापि समझ में आने वाला नहीं! अतः सुनो!
            मेरुदण्ड में छह मुख्य केंद्र है जो तात्विक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। उन केन्द्रों को कुण्डलिनी विज्ञान में चक्र तथा पद्म दोनों कहा गया है। शुष्क योगी इसे चक्र कहते हैं तथा रससिद्ध योगी इसे पद्म कहते हैं। भेद कोई नहीं, किन्तु चक्र कहने का तात्पर्य यह कि नीरस शुष्क योगी इससे निकलने वाले अरों को यान्त्रिक दृष्टिकोण से देखते-समझते हैं और पद्म कहने का तात्पर्य यह कि रससिद्ध योगी इसे पुष्प की पंखुड़ियों की भाँति देखते-समझते हैं किन्तु चक्र कहें या पद्म, बात एक ही है। इन केन्द्रों का नाम क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा है। ये सभी केन्द्र, चक्र, या पद्म, सूक्ष्म चैतन्य शक्ति के केन्द्र हैं। भौतिक रूप से आधुनिकतम यंत्रों द्वारा भी इन्हें देखा जाना सम्भव नहीं। क्योंकि ये इतने सूक्ष्म हैं कि इन्हें चैतन्य मन के अतिरिक्त कोई अनुभव तक नहीं कर सकता। सभी का विवेचन असमीचीन भी होगा एवं विषयांतर भी होगा किन्तु मूलाधार को समझना इस छन्द के निहितार्थ को समझने हेतु आवश्यक है।
            प्राणी-मात्र के यौनांग एवं गुदा मे मध्य, मेरुदण्ड के निचले भाग में एक सूक्ष्म कन्द होता है जिससे सभी नाड़ियाँ निकली हुई होती हैं। बहत्तर हजार उन नाड़ियों में से बहत्तर नाड़ियाँ मुख्य हैं, और उन बहत्तर में से भी दस नाड़ियाँ अति-मुख्य हैं जिनका नाम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशश्विनी, अलम्बुषा, कुहू तथा शंखिनी हैं। इन दस में से भी तीन- इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना, सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इड़ा जिसे चन्द्र नाडी भी कहा जाता है, उस कन्द से निकल कर वाम नासा-रन्ध्र तक जाती है। यह शीतल-स्वभावा है अतः चन्द्र नाडी भी कही जाती है और इड़ा नाम भी इसके इड़ा, इदु, इन्दु स्वभाव के कारण ही है। पिंगला नाडी उस कन्द से निकल कर दक्षिण नासा-रन्ध्र तक जाती है तथा यह उष्ण-स्वभावा है। पिंगल अर्थात रक्त-पीताभ! यह सूर्य नाडी भी कही जाती है और इसका कारण इसका स्वभाव ही है। इन दोनों के बीच होती है सुषुम्ना! प्राणिमात्र के प्राणवायु का सञ्चलन मात्र इन्हीं तीन नाड़ियों में होता है। कुछ मत करो! कोई मुहूर्त मत देखो! बस अपने नासारंध्रों के निकट अपनी हथेली ले जा कर अनुभव करो कि तुम्हारी श्वांस किस नथुने से बाहर निकल रहे है। यदि बायें नथुने से निकल रही है तो इड़ा प्रवाहित प्राणवायु के समय का वह कालखण्ड शान्तिकर कृत्यों हेतु वह शुभ समय है, और यदि दाँयें नथुने से निकल रही है तो पिंगला से प्रवाहित प्राणवायु के समय का वह कालखण्ड उग्र-कर्मों हेतु उचित समय है। यदि प्रश्वांस दोनों नथुनों से निकल रही हो तो इसका अर्थ है कि प्राणवायु का प्रवाह सुषुम्ना से हो कर हो रहा है। यह साधना हेतु सर्वश्रेष्ठ समय हुआ करता है।
            गान्धारी वाम-नेत्र तक जाती है, हस्तिजिह्वा दक्षिण नेत्र तक, पूषा दक्षिण कर्ण तक, यशश्विनी वाम कर्ण तक, अलम्बुषा मुख-गुहा तक, कुहू जननेन्द्रियों तक, और शंखिनी गुदा तक जाती है।
            इसी कन्द के परितः है मूलाधार चक्र या मूलाधार पद्म! और इसी कन्द को साढ़े तीन फेरों में लपेट कर सोया करती है वह आदि शक्ति आद्या जिसे उसकी कुण्डलाकृति के करण कुण्डलिनी कहा जाता है। उसके कुण्डलाकृति के फेरे वामावर्ती होते हैं अतः उसे वामा भी कहा जाता है और उसकी उपासना के आचार को ही वामाचार कहा जाता है। वामाचार का जो रूढ़ अर्थ लोगों में प्रचलित है वह भ्रामक एवं नितान्त अनुचित है। उस वामाकृति आद्या कुण्डलिनी के आराधन की आचारसंहिता ही वामाचार है। और, गुदा एवं जननेन्द्रियों के मध्य का वह, जिसे मध्याह्न - मध्य भाग - कह लेने में कुछ भी अनुचित नहीं, उसी मध्य भाग में जिसमें वह कन्द है, जहाँ वह वामा आद्या शक्ति सोयी है, जो समस्त नाड़ियों का मूल भी है तथा उनका आधार भी, वह प्रथम शक्ति चैतन्य केन्द्र है जिसका नाम मूलाधार है।
            कुण्डलिनी विज्ञान के अवधारणाओं के अनुसार, इस शक्ति केन्द्र का वर्ण सिन्दूरी है, पीताभ रक्तिम, टह-टह गुलनार, मधूक पुष्प के रंग का! और इस केन्द्र पर नाड़ियों का एक ऐसा गुच्छा है जो चक्र के चार अरों जैसा अथवा पद्म के, कमल के, चार पंखुड़ियों जैसा एक आकृति रचता प्रतीत होता है। यही उस मूलाधार पद्म के दल, कमल-दल अथवा चक्र के अरे हैं। इनको क्रमशः परमानन्द, सहजानान्द, योगानन्द तथा वीरानन्द नाम दिया गया है। इन कमल दलों पर क्रमशः वं, शं, षं तथा सं स्वर्णिम वर्ण में उपस्थित हैं। ध्यान रहे, ये वर्ण उन दलों पर न तो खुदे हुए हैं, न लिखे हुए हैं! ये तो उन दलों पर क्रमशः विद्यमान, व्याप्त एवं आसीन हैं। हमारे पास उन्हें अभिव्यक्त करने का कोई और सक्षम माध्यम नहीं है तो उन्हें हम लिखा या खुदा मान कर समझते-समझाते भर हैं। ये वर्ण और ऐसे ही प्रत्येक पद्म पर आसीन विद्यमान एवं अवस्थित अन्य वर्ण स्वयं में पूर्ण चैतन्य मन्त्र हैं और मन्त्र देवता का स्वरुप हुआ करते हैं अतः ये स्वयं में देवता भी हैं। प्रत्येक देवता की अपनी विशिष्ट शक्ति हुआ करती है अतः ये सम्बंधित देवता की शक्ति भी हैं। और ये शक्तियां एक आवरण हैं उस केन्द्र के एक प्रमुख देवता की, और उस प्रमुख देवता के शक्ति की, और उसके मन्त्र की!
            चैतन्य शक्ति के इस केन्द्र का तात्विक निरूपण पृथ्वी तत्व द्वारा किया गया है और पृथ्वी तत्व का बीज है ‘ल’। इसके ऊपर आरूढ़ ब्रह्म-चेतना का निरूपण एक बिन्दु द्वारा किया जाता है अतः ल तथा उस पर आरूढ़ बिन्दु समेकित रूप से निरूपित होता है ‘लं’ वर्ण से! यही पृथ्वी बीज लं है। पृथ्वी का गुण गन्ध है। यही कारण है कि मृत्तिका को, मिट्टी को गन्धवती कहा गया है। मानसिक एवं मंत्रात्मक समर्पण में लं पृथिव्यात्मकं गन्धं कल्पयामि नमः का वास्तविक निहितार्थ यह है, न कि इस मन्त्र द्वारा अपने आराध्य को कल्पित पुष्प समर्पण! प्रत्येक मंत्रात्मक बीज एक देवता है और प्रत्येक देवता का एक वाहन है। पृथ्वी तत्व समस्त पञ्चभूतों में स्थूलतम है, सबसे भारी, सर्वाधिक दृढ़, अतः इस चैतन्य मन्त्र बीज का वाहन भी वैसा ही कल्पित किया गया – ऐरावत! एक हाथी! हाथी शक्ति, स्थूलता एवं दृढ़ता का प्रतीक है। और ऐरावत इन्द्र का वाहन मान्य है अतः यह मूलाधार, इन्द्र-शक्ति का, ऐन्द्रिक शक्तियों का केन्द्र है। ऐन्द्रिक शक्ति सृजन का हेतु है अतः सृजन का देवता जिसे सामन्यतः ब्रह्मा कह लिया जाता है यहाँ का प्रमुख देवता है। किन्तु उसकी शक्ति है सावित्री! स्पष्ट है कि सावित्री सवित्रि शक्ति है, प्रसविता शक्ति है अतः जिसे ब्रह्मा कह लिया जाता है वह वास्तव में प्रसविता सविता है जिसकी शक्ति सावित्री है। सविता का अर्थ ही है सर्जक! और यह गुण सूर्य के अतिरिक्त किसी में नहीं! सूर्य न हो तो सृजन के समस्त प्रयास निष्फल होंगे! अतः जिसे ब्रह्मा कहा जाता है वह सविता है, सर्जक है, सूर्य है। अधिक विस्तार में न जा कर, मूलाधार के व्याख्या के मूल ऊदेश्य पर लौटते हैं।
            यहीं, इसी मूलाधार में, उस कन्द के परितः तीन ऐसे बिन्दु-केन्द्र हैं जो एक अधः-मुख त्रिकोण रचते हैं। तंत्रों इस त्रिकोण को ही योनि कहा गया है। यह अधोमुख त्रिकोण उस आद्या का बहिरंग रचता है जिसके केन्द्र में वह कन्द है जिसे तन्त्र में स्वयंभू शिवलिंग नाम दिया गया। तान्त्रिक शब्दावली में चित् शक्ति संपन्ना इस अधोमुख त्रिकोण का एक नाम चिता भी है। एक अधोमुख त्रिकोण और उसका मध्यवर्ती एक बिन्दु! एक योनि एवं उस योनि में एक लिंग! और उस योनि में उस लिंग को साढ़े तीन फेरों में लपेट कर सोयी एक परम-ज्योतिष्मती रश्मि-वल्लरी के रूप में मंत्रमयी एवं ज्योतिमयी वह वक्रा वामा आद्या कुण्डलिनी! शिवालयों में अरघे सहित शिवलिंग तथा उस लिंग को साढ़े तीन फेरों में लपेटे एक सर्पिणी जो लिंग के ऊपर अपना फण रखे सोयी है, इसी मूलाधार चक्र में उसी अधोमुख त्रिकोण रूपी योनि, उसी कन्द – बिन्दु रूपी लिंग एवं उसी परम-ज्योतिष्मती रश्मि-वल्लरी सर्पिणी रूपी वामा आद्या का प्रतीकात्मक मूर्तिमय निरूपण है। अरघे सहित शिवलिंग और वह सर्पिणी तन्त्र-शास्त्र के एक गुह्यतम अवधारणा की सरलतम अभिव्यक्ति है।
            इस कुण्डलिनी को जगा कर मूलाधार से उन्नयन हेतु प्रेरित कर, एक एक कर सभी पद्मों को वेधती, प्रत्येक दो पद्म के मध्य स्थित एक विशिष्ट ग्रन्थि और इस प्रकार तीन ग्रन्थियों रुद्रग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं बह्मग्रन्थि को खोलती, सहस्रार तक, सहस्र-दल कमल तक जा कर उससे झरते अमृत पान का करती और उस सहस्रार की कर्णिका पर किन्तु उससे भी थोड़ा सा ऊपर, जिसे तांत्रिक कैलास की संज्ञा दी गयी है, वहाँ विराजमान, परम शिव से सायुज्य प्राप्त कर चुकी उस आद्या को वहीं नहीं छोड़ा जा सकता! कुण्डलिनी के उस परमशिव से सायुज्य की अवधि बढ़ायी तो जा सकती है, और यही काम्य भी है, क्योंकि उस सायुज्य की अवधि ही रति-रस-आनन्द की अवधि है जो जितनी ही दीर्घ हो, आनन्द की लब्धि उतनी ही अधिक होगी किन्तु! किन्तु इसे अनन्त नहीं किया जा सकता! समाधि से तो शिव भी जागते हैं! किन्तु इस जागने से पूर्व, इस आनन्द-रस-लब्धि का उपसंहार करने से पूर्व, उस आद्या को पुनः सहस्रार के ऊपर स्थित ब्रह्म-रन्ध्र से उन्हीं सीढ़ियों से क्रमशः उतार कर पुनः मूलाधार में अवस्थित कर देना आवश्यक है अन्यथा,
            अन्यथा यदि किसी व्याघात के कारण यह आद्या कुण्डलिनी की शिव-सायुज्य प्रक्रिया व्यवधानित हुई, तो रति-रस-आनन्द-मग्न वह कुटिला क्रुद्ध हो कर महासंहार मचा देगी! अतः! अतः! जिस कुण्डलिनी को हठात् प्रेरित कर सहस्रार की ओर आरोहण हेतु उन्मुख किया गया तथा प्रभव – संक्रिया संपन्न करायी गयी, उसी कुण्डलिनी को बहला-फुसला कर मूलाधार की ओर प्रत्यावर्तन हेतु विवश करना होता है, जिससे वह पुनः जा कर वहीं, उसी त्रिकोण योनि में उसी लिंग से लिपट कर पुनः सो जाय जहाँ नित्य सोया करती है। इस अप्यय नामक संक्रिया की सिद्धि हुए बिना कुण्डलिनी सिद्धि हो ही नहीं सकती क्योंकि तब वह आद्या एक ऊँची इमारत से किसी विचलन के कारण अधः-पतित होगी और फिर वह मात्र महाविनाश की ही भूमिका रचेगी! और तब जो होगा, वह मात्र मृत्यु तथा मृत्यु का भय होगा!
            अब इस छन्द का अर्थ समझा और समझाया जा सकता है। अन्यव दुहराओ तो तनिक!’
            और मैंने दुहराया – ‘कालि! समूलं चिकुरं समुञ्चार्य संमार्जन्या कुज, दिने सकृत् मनुमपि प्रेम्णा, परिगलितवीर्यं हि वितरति स ततं (ततं स) गृहे चितायां मध्याह्ने गजारूढो याति, क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः।’
            ‘हाँ! तो क्षितिपरिवृढः तथा गजारूढो याति का निहितार्थ समझ में आया कुछ? पृथ्वी तत्व, अधीष्ठित देवता, उसका वाहन ऐरावत हाथी, कुछ सामञ्जस्य अनुभूत हुआ? यह छन्द कुण्डलिनी के शिव-सायुज्य के उपरान्त उसके समस्त नाड़ियों को लब्ध अमृत से सींचते हुए पुनः मूलाधार मे आकर विश्राम करने की प्रक्रिया और उसकी महत्ता का निरूपण करता है। अब तनिक तुम ही कहो इसका अर्थ! मैं तो थक गया बोलते बोलते!’
            और मैंने कहा - ‘हे कालि! हे काल की अधिष्ठात्री! हे काल के भी ऊपर अवस्थित शक्ति! जो, समूलं चिकुरं समुञ्चार्य, अपनी चंचलता को समूल उखाड़ कर, संमार्जन्या कुज, झाड-बुहार कर, कुज हुआ, अपनी चंचलता को समूल उखाड़ कर, पूर्णतः झाड-बुहार कर, अपने कलुष पर विजय प्राप्त कर चुका हो, दिने सकृत् मनुमपि प्रेम्णा – दिन में कभी एक बार भी, दिने सकृत्, मनुनपि प्रेम्णा प्रेम से तुम्हारे पूर्व कथित मन्त्रों का जप कर ले, और, परिगलितवीर्यं हि वितरति स ततं, सहस्रार से झरता अमृत! तो, स ततं परिगलितवीर्यं हि वितरति, वह सर्व-व्यापिनी शक्ति जब सहस्रार से झरते अमृत को समस्त नाड़ियों में वितरित करती हुई लौटती है, तब, गृहे, उसके मूल निवास, उसके मूल गृह, मूलाधार में, चितायां मध्य अह्ने - उस चित शक्ति संपन्न अधोमुख त्रिकोण के मध्य भाग में अर्थात, उस बिन्दु रूप कन्द रूप स्वयम्भू लिंग के परितः, पुनः गजारूढो याति, अपने मूल गृह, अपने घर, मूलाधार में, योनि अथवा चिता अथवा अधःमुख त्रिकोण में पुनः गजारूढ़ हुई, क्षितिपरिवृढः - क्षिति तत्व की साम्राज्ञी को, सहस्रार तक पहुँचा कर रति-सायुज्य करा कर, पुनः लौटा ला कर यथा स्थिति अवस्थित करा देता है, वह सत्कविवरः – सच्चा कवि होता है। (कवि शब्द की गूढार्थ व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है।)
            साधु! सुधर रहे हो थोड़ा-थोडा! अब कहो! अगले छन्द की ओर चलें? या विश्राम करोगे?’
            ‘विश्राम ही करना चाहूँगा अब!’
            ‘सोच लो! फिर नये छन्द को नये सिरे से व्याख्यायित करने हेतु एक नयी भूमिका रचनी होगी! व्यर्थ ही समय लगेगा!’
            ‘सोच लिया! जब नयी भूमिका रचनी होगी तब रच लेंगे! अभी तो थक गये यार! यह छन्द बहुत थकाने वाला रहा!’
            ‘ठीक है! तो सो जाओ अब! मिलते हैं शीघ्र ही!’
            मेरे पास अब मन को कोई उत्तर देने भर की भी शक्ति नहीं बची थी। मैंने बस चुपचाप करवट बदल ली। दृष्टि घड़ी की ओर गयी तो ज्ञात हुआ, अब सोने का समय कहाँ बचा? भोर हो चुकी थी।



-----क्रमशः, और शीघ्र!-------
त्रिलोचन नाथ तिवारी...
----एक निवेदन----

इस शृंखला के किसी भी आलेख को कॉपी-पेस्ट करना प्रतिबन्धित है। साथ ही यह भी निवेदन है कि इस निबन्ध को उस दक्षिणा काली का लालित्य-प्रसाद मान कर पढ़ें।

इन पङ्क्तियों का लेखक तन्त्र-ज्ञान में शून्य है अतः तत्सम्बन्धी टिप्पणियों के उत्तर देना सम्भव नहीं है।

आलेख के किसी शब्द/वाक्य/कथन से किसी का भी कोई मतभेद हो तो विद्वज्जन अपनी धारणा पर स्थिर रहने हेतु स्वतन्त्र हैं। बुद्धि-विलास का यह उपक्रम विवाद का प्रक्रम बने इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, क्योंकि यह रस की हाट है! ज्ञान के विश्वविद्यालयों को यहाँ से हो कर कोई मार्ग नहीं जाता!



आश्विन शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत २०७९
तदनुसार दिनाङ्क ०२.१०.२०२२
प्रात बेलायां,
आद्यार्पणमस्तु।

[यदि टङ्कण की कोई त्रुटि है, तो उस हेतु अलग से क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योंकि अब उन्हें सुधारने का न कोई अवसर है, न कोई औचित्य!]

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