हमारे मनोमय जगत में स्वर्ग की चाहे जो अवधारणा हो, किन्तु वास्तविक जगत में स्वर्ग का प्रदेश इसी धरा पर रहा, यह निर्विवाद है। रघुवंश की उक्ति ‘त्रिविष्टपस्य पतिः जयन्तः’ तथा महाभारत वन पर्व के ‘त्रिविष्टपम्शक्रइवामितौजा’ से स्पष्ट है कि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत ही कभी स्वर्ग था जहाँ नन्दन वन था। अमरकोश में भी ग्रन्थकार ने स्वर्ग, स्वः, नाक, त्रिदिव, त्रिदशालय, सुरलोक, द्यौः सहित त्रिविष्टप को भी स्वर्ग का पर्याय बताया है। आज का तिब्बत यह त्रिविष्टप ही कभी इन्द्र की शासित भूमि एवं देवगणों का गण-क्षेत्र रहा है।
देवों के साथ हमारे इतिहास एवं मिथिहास
में कुछ अर्द्धदेवों का भी उल्लेख है जिनमें नाग, यक्ष, गन्धर्व तथा किन्नर आते
हैं। देवों के प्रथम एवं प्रमुख सहयोगी घटक नाग-गण का गण-क्षेत्र काश्मीर, सिकियांग
या हरिवर्ष, हाटक या लद्दाख, कार्त्तस्वर या कराकोरम, सिन्धुकोष या हिन्दुकुश,
काम्बोज या काबुल की घाटी तथा सुमेरु या थियानशान पर्वत था जिस गण के मुखिया शिव
थे। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय वाङ्गमय में उल्लिखित शिव वास्तव में
एक न हो कर तीन हैं। प्रथम शिव हैं एक सर्व-विद्या विशारद एवं महान योद्धा ‘ऐतिहासिक
शिव’, दूसरे हैं उसी प्रथम शिव की अतिरञ्जित अतीन्द्रिय शक्तियों के आरोप से आकार
पाये ‘पौराणिक शिव’ तथा तीसरे शिव हैं इन दोनों से नितान्त भिन्न तन्त्र-दर्शन के
विषय ‘निराकार शिव’। काल-क्रम में इन तीनों का परस्पर समाहार हो गया अतः आज हमारे
समक्ष शिव का जो स्वरुप है वह इन तीनों स्वरूपों का सम्मिश्रण है किन्तु ‘ऐतिहासिक
शिव’ देवों के सहयोगी नागों के गणमुख्य थे जिनके अधीन भू-क्षेत्र का उल्लेख किया
गया।
देव संगठन का तीसरा घटक यक्षों का गण
था जिसका प्रमुख वैश्रवण कुबेर था और उसकी राजधानी अलका थी। हिमालय पर आज भी
अलकापुरी-बांक नामक एक स्थान है तथा यह स्थल उसी अलका की स्मृति है। कालिदास के
मेघदूत के उस यक्ष एवं यक्षिणी की गाथा आप भूले तो नहीं ही होंगे जो अपने स्वामी
कुबेर के शाप से रामगिरि पर निर्वासित जीवन जी रहा था? हो सकता है कि यह कथा
कवि-कल्पित हो! किन्तु कल्पना वास्तविकता से बहुत दूर नहीं जा सकती। वह यक्ष अलका
का ही था तथा उसे अलका के अधीश्वर से ही शाप मिला यह कहने में कालिदास ने कुछ तो
सत्य इतिहास का मान रखा ही होगा? कालिदास से यह आशा तो नहीं की जा सकती कि वे
खरबूजे के खेत में उसकी लता से लटकी एक मछली का चित्रण कर दें? अतः कथानक कवि-कल्पित
अवश्य था, किन्तु उस पात्र का चयन कालिदास ने इतिहास के सत्य से ही किया था। अलका
यक्ष-भूमि थी यह मान्यता तो अब भी है और इसी अलका को घेर कर आज भी अलकनन्दा की
धारा इसके तीन ओर से बहती है। अलका का आनन्द-साधन होने के ही कारण उसे अलकनन्दा
कहा गया। यक्षों का यह क्षेत्र कुमाऊँ – गढ़वाल तक पसरा रहा हो तो कोई आश्चर्य
नहीं।
देव-संगठन का चौथा घटक जिसका क्षेत्र कुल्लू,
कांगड़ा, चम्बा से ले कर आज के जम्मू तक था और जिसका क्षेत्र विपाशा से आगे रावी
तथा चन्द्रभागा तक फैला था उसे किन्नर देश कहा जाता था। यद्यपि जातिगत आधार पर यह
यक्षों से भिन्न थे, किन्तु इस गण के गणमुख्य भी कुबेर ही थे। इस गण-क्षेत्र का
मुख्यालय कुलूत अर्थात् कुल्लू रही होगी जिसका एक अन्य केंद्र लाहुल भी था।
विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में ‘कौलूतस्यचित्रवर्मा’ कह कर कुलूत नरेश का उल्लेख
किया है। यह कुलूत आज का कुल्लू ही है। साहित्य में इसे किम्पुरुषखण्ड कहा गया है
तथा इस क्षेत्र की प्राकृतिक विशिष्टतायें इस क्षेत्र के आकर्षण का हेतु तब भी थीं
और अब भी हैं।
देव-संगठन का पाँचवाँ घटक था गन्धर्वों
का गण, जिनका आवास-क्षेत्र विस्तृत गान्धार प्रदेश था तथा उसका केन्द्र थी
पुष्कलावती जिसे आज चारसद्दा के नाम से जानते हैं। यही वह भूमि है जहाँ अनेकों बार
देवासुर सङ्ग्राम हुए। शकदेश से अनेकों आक्रमण इस क्षेत्र पर होते रहे जिससे विवश
हो कर राजधानी को पुरुषपुर अर्थात् पेशावर स्थानान्तरित करना पड़ा होगा। किम्पुरुषखण्ड
एवं गान्धार के मध्य का भाग काश्मीर नागों के ही आधिपत्य में रहा।
यद्यपि यह कोई शोध-परिणाम नहीं है किन्तु
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सङ्केतों के आधार पर स्वर्ग भूमि का एक स्थूल भूगोल
कुछ इसी प्रकार का ज्ञात होता है जो राजनैतिक रूप से पाँच गण-संस्थाओं - देव, नाग, यक्ष,
किन्नर एवं गन्धर्वों का एक समुच्चय था जिसे पञ्चजन कहते थे। इन पञ्चजनों के ज्ञान, बुद्धि, पराक्रम
तथा समाज को योगदान आदि की गाथा से तो सम्पूर्ण प्राचीन साहित्य भरा पड़ा है किन्तु
इनमें से नागों का एक विशिष्ट योगदान जो भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को प्राप्त
हुआ वह था ‘ताम्बूल’!
ताम्बूल की उत्पत्ति कैसे हुई इस
सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में आनर्त नरेश राजा सिद्धसेन तथा विश्वामित्र का एक
रुचिकर सम्वाद है -
“विश्वामित्र बोले - राजन ! जैसे आजकल तुम आनर्तदेश के स्वामी हो, इसी प्रकार पूर्वकाल में ‘दम्भ’ नाम से प्रसिद्ध राजा इस देश
के शासक थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। एक दिन ऐसा आया, जब वे सहसा कुष्ठरोग से
ग्रस्त हो गये। उसी समय अनेक शत्रुओं ने भी उन पर आक्रमण कर दिया। उनका राज्य छिन
गया और वे रैवतक पर्वत पर चले गये। वहाँ जाने पर भी चोर और बटमार उन्हें सब ओर से
पीड़ा देने लगे। उनसे बचने का विचार करके वे देवर्षि नारदजी का दर्शन करने के लिए गये।
उन्होंने नारद मुनि से हाथ जोड़, दीन भाव से कहा - 'मुनिश्रेष्ठ ! मैं सब ओर से शत्रुओं द्वारा सताया गया, अतः अपना राज्य छोड़ कर रैवतक
पर्वत पर चला आया। वन में आने पर भी मुझे शान्ति नहीं मिली। पापी लुटेरों ने सब ओर
से मुझे पीड़ा दी और मेरे पास जो कुछ भी हाथी, घोड़े, रथ, स्वर्ण आदि वस्तुयें तथा स्त्रियाँ थी, उन सबको लूट लिया ।
“सिद्धसेन का वचन सुनकर नारद जी ने
दिव्य दृष्टि से समस्त वृत्तांत जान लिया और कहा - महाराज! पूर्व शरीर में तुमने
कोई कुकर्म नहीं किया है। मैंने दिव्य दृष्टि से तुम्हारे पूर्व-जन्म का सब हाल
जान लिया है।
“दम्भ ने कहा - ‘प्रभो ! यदि पूर्वजन्म में मैंने कोई पाप नहीं किया है, तो इस जन्म में कोई पाप किया
हो, ऐसा कुछ तो मुझे स्मरण नहीं! फिर क्या कारण है कि सहसा मेरा राज्य छिन गया?
“राजा का वचन सुनकर नारद जी ने बहुत
देर तक सोचकर कहा - राजन! मैं तुम्हें पुनः राज्य की प्राप्ति एवं आरोग्य का उपाय
बताता हूँ। तुम्हारे राज्य में अतिसुन्दर हाटकेश्वर नामक पुण्यमय तीर्थ है, जहाँ सब पातकों का नाशक तीर्थ
शंखतीर्थ बहुत प्रसिद्ध है। जो मनुष्य श्रध्दापूर्वक वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की
अष्टमी को रविवार के दिन सूर्योदय के समय इसमें स्नान करता है वह सब प्रकार के
कुष्ठरोगों से मुक्त हो सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है ।
विश्वामित्र कहते हैं कि देवर्षि नारद की
बात सुनकर राजा दम्भ ने वैसा ही किया और उसी समय कुष्ठरोग से मुक्त हो गये।
तदनन्तर उनसे पूर्वकाल में इसी जन्म में जो एक भूल हुई थी उसका प्रायश्चित भी किया।
उनसे भूल क्या हुई थी? स्कन्द पुराण के अनुसार उनसे भूल यह हुई थी कि उन्होंने किसी
समय चूर्णपत्र के साथ, तम्बाकू के साथ, ताम्बूल सेवन कर लिया था।
यह समस्त वृत्तांत सुनकर आनर्त-नरेश को
बड़ा आश्चर्य हुआ और यह जानने कि उत्सुकता हुई कि चूर्णपत्र खाने से दोष क्यों होता
है?
विश्वामित्र ने उन्हें बताया - प्राचीन काल की बात है,
देवताओं ने समुद्र मन्थन द्वारा अमृत प्राप्त करके उसे नन्दनवन
में रखा। उसी स्थान पर इन्द्र को प्राप्त ऐरावत हाथी के बाँधने का खम्भा भी था।
नागराज (नाग = हाथी) ऐरावत रात-दिन वहाँ बँधा अमृत की दिव्य सुगन्ध लेता रहता था।
एक समय उस कलश से एक लता प्रकट हुई और वह फैलती हुई नागराज ऐरावत के आलान (बाँधने
के खम्भे) पर चढ़ गयी। देवता लोग उस अपूर्व सुगन्धित लता के पत्र तोड़कर मुखशुद्धि
के लिए खाते थे और खाकर बड़े प्रसन्न होते थे। तदनन्तर वैद्य धन्वन्तरि ने उसे
देखकर कहा - "यह नाग के आलान पर फैली है अतः नागवल्ली नाम से प्रसिद्ध होगी
और मेरे वचन से यह सदा कामदेव का उद्दीपन करनेवाली होगी।" तत्पश्चात् उन्होंने
नागवल्ली पत्र के साथ सुपारी,
चूना और कत्थे का संयोग करके उसके द्वारा इन्द्र-देवता को तृप्त
किया।
तृप्त एवं प्रसन्न इन्द्र ने कहा – ‘राजन्!
वर माँगो।
धन्वन्तरि बोले - यह नागवल्ली कृपा
करके मुझे भी दीजिये, जिससे मर्त्यलोक में भी इसका प्रचार हो।
'तथास्तु'
कहकर इन्द्र ने नागवल्ली (पान की बेल) उन्हें दे दी। धन्वन्तरि ने
अपने नगर में जाकर उसे अपने उद्यान में आरोपित किया। तदनन्तर शीघ्र ही उसका सब ओर
प्रचार हो गया । उसे खा-खाकर मनुष्य काम-भोग में आसक्त हो गये। कोई भी यज्ञ आदि
सत्कर्म न तो करता था और न ही कराता था। समस्त धार्मिक क्रियायें लुप्त हो गयीं।
देववृन्द यज्ञभाग से वञ्चित हो गये और क्षुधा से पीड़ित हो ब्रह्मा जी के समीप जा
कर बोले - "सुरश्रेष्ठ! मर्त्यलोक में समस्त धर्मकार्य बन्द हो गये हैं। सारा
जगत ताम्बूल भक्षण कर कामासक्त होता जा रहा है अतः हमलोगों पर कृपा कीजिये, जिससे हमारा यज्ञकार्य नष्ट
न होने पाये।”
ब्रह्मा जी शोच में पड़े ही थे कि उन्हें एक यज्ञ के लिए पुष्करतीर्थ जाना पड़ा। वहाँ उनके पास पहुँच कर दारिद्र्य ने उनको प्रणाम करके विनयपूर्वक कहा – “देव ! मैं तो ब्राह्मणों के घर में रह कर उपवास करते-करते ऊब गया हूँ! वे जब देखो तब कोई व्रत, कोई उपवास करते रहते हैं। मेरे, मुझ दारिद्र्य के प्रभाव उन पर दृष्टिगोचर ही नहीं होते! जिस दिन घर में खाने को अन्न न हो, उसी दिन वे एक व्रत, एक उपवास का आयोजन कर लेते हैं। स्वयं तो परम संतुष्टि के साथ भूखे रहते ही हैं, मुझे भी भूखा रहने को विवश करते हैं। अब, क्योंकि उनका आहार ही तो मेरा आहार है, अतः आप कोई धनवानों का अच्छा सा घर मेरे रहने के लिए बताइये, जहाँ खूब पेट भरकर भोजन मिले और तृप्ति बनी रहे।” सोच-विचार कर ब्रह्मा जी बोले -
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा चिरं ध्यात्वा पितामहः।
अब्रवीच्च दरिद्रं तं छिद्रार्थं धनिनामिह ॥ ७३ ॥
चूर्णपत्रे त्वया वासः सदा कार्यो दरिद्र भोः!
ताम्बूलस्य तु पर्णाग्रे भार्यया मम वाक्यतः॥ ७४ ॥
पर्णानाम् चैव वृन्तेषु सर्वेषु त्वत्सुतेन च।
रात्रौ खदिरसारे च त्वम् ताभ्याम् सर्वदा वस॥ ७५ ॥
(स्कन्दपुराण, खण्डः ६ - नागरखण्ड, अध्यायः २१०)
“हे दारिद्र्य! मैं तुम्हें धनिकों के
छिद्र-स्थल बताता हूँ। तुम्हें चूर्णपत्र (तम्बाकू) में सदा निवास करना चाहिये। तुम
ताम्बूल के पत्ते के अग्रभाग में (पत्ते के नोंक में) पत्नी के साथ रहो और वृन्त
में (पत्ते के डंठल में) अपने समस्त पुत्रों के साथ निवास करो। रात्रि होने पर तुम
तीनों, तुम, तुम्हारी भार्या एवं तुम्हारे पुत्र, कत्थे में निवास करें।”
राजन! राजा दम्भ ने अज्ञानतावश उन सब
दोषों से युक्त ताम्बूल खा लिये थे, अतएव उन्हें सहसा ऐश्वर्य से हाथ धोना पड़ा। [आलेख
की विषय-वस्तु एवं सीमा के अनुरूप इस कथानक के समस्त सन्दर्भ श्लोक प्रस्तुत करना
न सम्भव है, और न ही उचित अतः सन्दर्भ हेतु पाठकों को स्कन्दपुराण के खण्ड ६
(नागरखण्ड) के अध्याय २१० का अध्ययन करना चाहिये।]
इस प्रकार प्रकारान्तर से स्कन्दपुराणकार
ने यह बताया कि पान के पत्ते का अग्रभाग तथा पान के डंठल का सेवन हानिकर है तथा
रात्रि में कत्थे का प्रयोग नहीं करना चाहिये। आज भी पान के पत्ते का अगला भाग तथा
डण्ठल नहीं खाया जाता तथा ताम्बूल-सेवन का वास्तविक रुचिविलास रखने वाले एवं जानने
वाले रात्रि में कत्थे का सेवन नहीं करते। सम्भवतः उस काल में कर्कट रोग को कुष्ठ
के अन्तर्गत ही परिगणित किया जाता रहा हो, अथवा कुष्ठ रोग के समान भयंकरता
प्रदर्शित करना ग्रंथकार का उद्देश्य रहा हो, किन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि
तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य हेतु हानिकर है, कुष्ठ सम घातक कर्कट रोग का जनक है, यह
हमारे मनीषियों ने उस काल में बता दिया था जिस काल स्कन्दपुराण की रचना हुई थी।
अब उक्ति है – ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’।
अति तो किसी भी कार्य का बुरा है, तो तम्बाकू का सेवन भी यदि अत्यधिक हो, तो उसके
हानिकर होने में क्या आश्चर्य? किन्तु अल्प मात्रा में तम्बाकू का सेवन ओषधि के
समान गुणकारी है यह निघण्टु का वचन है। द्रव्य-गुण खण्ड में निघण्टुकार कहता
है –
तमालपत्रम् बहुतीक्ष्णकेन,
विरेचकम् वातकफम् सुहृद्यम्।
आनाह-गुल्म-क्षय-पाण्डुरोगम्,
सहस्ररोगेषु निवारणम् स्यात्।।
तमालपत्र अर्थात् तम्बाकू
अत्यन्त तीक्ष्ण होता है किन्तु यह वात एवं कफ का विरेचक, आनाह अर्थात्
कोष्ठबद्धता, गुल्मरोग, क्षयरोग, पाण्डुरोग सहित सहस्रों रोगों का निवारक है। अब पाठक
स्कन्दपुराणकार के वचन मानें अथवा निघण्टुकार के, यह उनके विवेक पर छोड़ा जाता
है।
ताम्बूल - उत्पत्ति की स्कन्दपुराणकार
की इस कथा को झुठलाने का मेरे पास कोई साधन नहीं है किन्तु जाने क्यों कथा के
उपदेशों पर पूर्ण विश्वास होते हुए भी कथावस्तु पर मेरा मन विश्वास नहीं कर पाता।
नागवल्ली जैसी सुकुमार लता प्रसरित हो कर हाथी बाँधने के अलान पर चढ़ गयी और बढ़ती
रही किन्तु ऐरावत जैसे अतिकाय हस्ती को बाँधने वाली लौह-शृंखला से, उसके पैरों से,
उसके पाँच-पाँच शुण्ड-दण्डों से उस लता को कोई हानि नहीं पहुँची? और ऐरावत ने उस
लता को उखाड़ कर खाया भी नहीं? मैंने अपने वरिष्ठों से सुना है कि एक पालतू हथिनी
एक ढोली तक पान का चर्वण अत्यन्त आनन्द से कर जाती थी। यह विचार करना महत्वपूर्ण
है कि जब हाथी पान के पत्ते खाते हैं तो ऐरावत ने उस नागवल्ली लता को छोड़ कैसे
दिया होगा? न भी खाता हो वह पान, तो अलान के चतुर्दिक घूमने-फिरने में ही वह लता
नष्ट हो जानी थी! पान तो वैसे भी बड़े श्रम एवं सेवा से उगता है। अतः स्कन्दपुराणकार
ने अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति हेतु जो कथानक रचा उसमें छिद्र हैं।
नाग शब्द एक बहुविकल्पी शब्द है। नाग
शब्द हाथी का ही नहीं, सर्प का भी पर्याय है, सिन्दूर का भी, किन्तु यहाँ जिस नाग-जाति का उल्लेख है उसका सम्बन्ध
न तो सर्प से है, और न ही हाथी से। नाग शब्द की एक व्युत्पत्ति नग से भी है। ‘न
गच्छति इति नगः’ - जो कहीं आता-जाता नहीं, वह नग है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार नग का
अर्थ हुआ ‘पर्वत’, अतः नाग का एक अर्थ हुआ पर्वतीय! पौराणिक कथा-कुहेलिका में जिस
नाग-जाति को भूमि पर रेंगने वाली सर्पों की योनि का प्राणी मान कर हम-आप भ्रमित
होते हैं वह वास्तव में सभ्यता तथा संस्कृति में उन्नत मानवों की ही एक जाति थी
जिसके सम्बन्ध आर्यों से वैवाहिक सम्बन्धों की सीमा तक सुहृद थे तथा वे स्वर्ग के
पञ्चजन का एक अङ्ग थे। कुन्ती के पिता शूरसेन का नाना आर्यक एक नाग ही था – सुमुख
नाग का पितामह तथा चिकुर नाग का पिता! वासुकि, कर्कोटक, धनञ्जय, आपूरण, पिञ्जरक,
एलापत्र, दधिमुख, अश्वतर आदि-आदि नाग इस जाति के प्रमुख इतिहास-पुरुष थे, अश्वसेन
और तक्षक भी!
रूपकों तथा अतिरञ्जित कथाओं में कृष्ण
द्वारा कालिय-मर्दन की कथा भारतीय आख्यानों की बहुचर्चित घटना है किन्तु वह कालिय
भी कोई सहस्त्र-फण सर्प नहीं एक पराक्रमी नाग ही था जिसका नाम भी संयोग से कृष्ण
ही था। अब कहाँ कृष्ण वासुदेव और कहाँ कृष्ण नाग? अतः वासुदेव कृष्ण की तुलना में
उसे हेय दिखाने को ही उसके नाम को विरूपित कर के कृष्ण से कालिय कर दिया गया।
नागों का प्रादुर्भाव कश्यप तथा कद्रू से है और वे साँप नहीं, मनुष्य ही हैं। आज
तक वह जाति भारशिव-नागों के रूप में विद्यमान है तथा अब राजभर कहलाती है। इस जाति
ने कालान्तर में अपनी शक्ति का वह निदर्शन किया जिसका विरुद वाराणसी का दशाश्वमेध
घाट आज तक दुहरा रहा है।
इतिहास के कथानकों को आधार बना कर
निर्मित चलचित्रों में आपने राज-वंशीय चरित्रों के वस्त्रों पर दोनों कन्धों पर
जटित एक उभरा हुआ गोला अथवा शंकु अवश्य देखा होगा। वास्तव में वे परिधान भारशिव जाति की पहचान थे जिन्हें नाटकों
एवं चलचित्रों में प्रत्येक काल एवं वंश के राजाओं एवं राजपुत्रों के
वस्त्र-विन्यास हेतु अज्ञानता-वश या प्रमाद-वश प्रयुक्त किया जाता है। यह राजकीय
परिधान वास्तव में मात्र भारशिव राजन्यों का परिधान रहा है। भारशिव अपने कन्धों पर,
अपने एक अथवा दोनों कन्धों पर, पत्थर का, काष्ठ का, धातु का, अथवा किसी भी पदार्थ
का निर्मित, शिवलिंग का एक प्रतीक स्थापित किये रहते थे जिसकी एकमात्र युक्ति यही
थी कि वे उस प्रतीक को स्कन्ध-देश पर अपने परिधानों में स्यूत कर लें। स्कन्दगुप्त
के काल तक यह युक्ति-पूर्ण वस्त्र-विन्यास उस नाग जाति की पहचान ही बन चुकी थी और इसी
कारण अपने स्कन्धों पर शिव-प्रतीक का भार उठाती वह जाति भारशिव प्रसिद्ध हो गयी।
इस जाति के शासकों ने अनेक शिवायतनों का निर्माण भी कराया था। शैव तन्त्र एवं
शैव-सम्प्रदाय की अभिवृद्धि में भी इन भारशिवों का योगदान अप्रतिम है। इन भारशिवों
में जिन्होंने राज्य-भार वहन किया वे राज्यभारशिव कहे गये तथा जिन्होंने शैव आगम
एवं शिवोपासना का प्रचार करने का भार वहन किया वे धर्मभारशिव कहलाये। नाग जाति के
इन दोनों वर्गों में से राजभर भारशिवों ने राजनैतिक साम्राज्य की, तथा शिवभर
भारशिवों ने एक सांस्कृतिक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी आधारभूमि शैव-दर्शन तथा
शैव उपासना थी। यह राज्यभारशिव ही लोक में घर्षित हो कर ‘राजभर’ तथा धर्मभारशिव ही
‘शिवभर’ हो गया।
नाग ब्राह्मणों के सदैव अनुगत रहे तथा ब्राह्मणों
के साथ नागों का अनिर्वचनीय लगाव रहा। इस लगाव का एक प्रमाण तो जनमेजय का नाग-सत्र
ही है जिसमें अर्जुन के गाण्डीव से अर्जित राज्य के स्वामी महाराज परीक्षित शमीक
ऋषि की ग्रीवा में एक मृत सर्प लपेट देने के अपराध के फलस्वरूप शमीक के पुत्र
श्रृंगी के मन में उपजे प्रतिशोध का लक्ष्य बने तथा एक तक्षक नामक नाग से अपनी
रक्षा न कर सके। श्रृंगी के इस प्रतिशोध का प्रति-प्रतिशोध परीक्षित के पुत्र जनमेजय
ने नाग जाति के विध्वंस के प्रयास के रूप में लिया किन्तु तक्षक एवं उसके सहयोगी
कर्कोटक अंततः सुरक्षित बच ही गये, भले इसका परिणाम साठ हजार ब्राह्मणों के यज्ञ-स्थल पर वध तथा
शेष अनेकों के आर्यावर्त के निष्कासन की आज्ञा के रूप में सम्मुख आया।
कुषाणों के समय से पूर्व ही यह नाग
जाति कन्तितपुरी (आधुनिक मीरजापुर, उत्तरप्रदेश), मथुरा, विदिशा, पद्मावती और मगध से
ले कर प्राग्ज्योतिषपुर तक पसरी थी। सातवाहनों की दुर्बलता का लाभ उठा कर जब
विन्ध्य की उपत्यका से निकले एक ब्राह्मण ‘विन्ध्यशक्ति’ ने अपना प्रभाव विस्तीर्ण
करना प्रारम्भ किया तब उसे अपने क्षेत्र के नागों द्वारा अत्यधिक सहायता प्राप्त
हुई तथा विन्ध्यशक्ति के पश्चात् उसके पुत्र प्रवरसेन ने जब वास्तविक रूप से वाकाटक
वंश के सम्राट की पदवी ग्रहण कर अपने कुल की कीर्ति को अमर किया उस समय भी नागों
का प्रभूत सहयोग उसे प्राप्त था। यही कारण है कि नागों की प्रतिष्ठा में वाकाटकों
ने ताम्रपत्रों पर उनकी प्रशस्तियाँ उकेरीं – “अंसभार-सन्निवेशित - शिवलिंगवाहन
शिवसुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंशानाम् पराक्रमअधिगत भागीरथी अमलजलमूर्द्धाभिषिक्तानाम्
दशाश्वमेध अवभृत स्नानानाम्.. .. .. ।” अर्थात् ‘यह ताम्रलेख उस राजवंश के इतिहास
का उल्लेख है जिन्होंने अपने स्कन्ध पर शिवलिङ्गों का वहन करके शिव को संतुष्ट
किया तथा भागीरथी के अमल जल में अवभृत स्नान कर दश अश्वमेध यज्ञ किये।’ इतना ही
नहीं, भारशिवों के शिल्प-स्पर्श से ही प्रथम बार ‘नदी गङ्गा’ को मकरासीन देवी की ‘मानवीय
आकृति’ में उकेरा जाना सम्भव हुआ। नागों के प्रचलित कराये सिक्कों में नन्दी तथा त्रिशूल
का अङ्कन प्राप्त होता है जो सिद्ध करता है कि नागों ने अपने स्वर्णिम स्वर्गिक
काल के गणमुख्य शिव को विस्मृत तो नहीं ही किया वरन् उन सुधियों को वे शिवलिंगों
के रूप में ही नहीं अपितु अपनी कला एवं संस्कृति सहित अपनी चेतना में भी निरन्तर
ढोते रहे अतः उनका ‘भारशिव’ नाम सार्थक ही है।
गुप्तवंश के उत्थान एवं मथुरा पर
गुप्तों के अधिकार होने से पूर्व तक मथुरा में सात नागवंशी राजाओं का उल्लेख
प्राप्त होता है। जब समुद्रगुप्त द्वारा गुप्त साम्राज्य के विस्तार का अभियान
चलाया गया तब मथुरा का शासक गणपति नाग तथा पद्मावती का शासक नागसेन नाग था।
समुद्रगुप्त की विजय-वाहिनी को इन्होने पर्याप्त प्रतिरोध दिया था जिसका अन्त
समुद्रगुप्त के पुत्र का कुबेरनागा नामक नागकन्या से विवाह के उपरान्त हुआ तथा
मथुरा एवं पद्मावती ही नहीं, अन्य नागवंशी राजाओं ने भी चन्द्रगुप्त की अधीनता
स्वीकार कर ली एवं इस प्रकार नागों के स्वर्णिम इतिहास का पटाक्षेप हुआ किन्तु समुद्रगुप्त
ने ‘उत्खाद-प्रतिरोपण’ नीति के अन्तर्गत गङ्गा तथा यमुना के मध्य अन्तर्वेदी का
गोप्ता एक नाग को ही नियुक्त किया था जिसका नाम शर्वसेन था। मगध का शिशुनाग वंश भी
नागों का ही है तथा काशी के एक घाट पर दश अश्वमेध यज्ञ कर उसे दशाश्वमेध घाट नाम
देने वाले नाग ही हैं इसमें तो इतिहारकारों को भी कोई संदेह नहीं।
अतः मेरा मानना है कि जब हिमालय की
ऊँचाइयों से स्वर्ग की सभ्यता तथा संस्कृति नीचे की ओर उतरी तब नाग अपने मूल निवास
से आर्यावर्त में उतर कर मालवा से लेकर हस्तिनापुर, विदर्भ, श्रावस्ती, कौशाम्बी,
काशी तथा मगध होते हुए प्राग्ज्योतिषपुर (आज के असम) तक फैल गये, और जहाँ भी वे
गये, उनकी प्रिय नागवल्ली नामक यह पर्वतीय लता भी उन्हीं के साथ फैलती – पसरती चली
गयी। नागवंशियों ने ही अपने साथ पान की बेलें लायीं तथा उनका प्रचार-प्रसार किया।
कथा सरित्सागर में भी उदयन को एक नाग द्वारा एक कभी न सूखने वाली नागबेल देने का
वर्णन है। अब वह नागबेल कभी न सूखने वाली बेल तो नहीं ही रही होगी अन्यथा उसकी
प्रजाति अब भी कहीं न कहीं अवश्य होती अतः सम्भव है कि वह नागवल्ली की कोई कम जल
में तथा कम श्रम एवं देख-रेख में पनपने वाली प्रजाति रही हो, किन्तु इससे भी इतना तो
स्पष्ट है कि नागवल्ली अर्थात पान का प्रसार करने वाले नागवंशी ही थे।
आधुनिक शोधकर्ता यह सिद्ध करते हैं कि
पान का उद्भव देश मलय द्वीप या मलाया है जहाँ से पान भारत में पहुँचा; और यह भी कि
मलाया में लगभग दो हजार वर्षों से पान की खेती होती है जबकि भारत में यह अब से सात
सौ वर्षों से पहले परिचित या प्रचलित नहीं था। जिस नागवल्ली का उल्लेख शिवपुराण
एवं स्कन्दपुराण में है, कथासरित्सागर में है, और जिस नागवल्ली का उल्लेख उदयन के
साथ जुड़ा है उसे ये मात्र सात सौ वर्ष पहले भारत में प्रचलित हुआ बताते हैं।
ध्यातव्य है कि उदयन गौतम बुद्ध का समकालीन ही नहीं था प्रत्युत बुद्ध तथा उदयन का
जन्म एक ही दिन हुआ था।
ईसा से ५०८ वर्ष पूर्व भारत में एक और महान
विभूति का जन्म हुआ था जिन्हें भगवत्पाद आदि शंकराचार्य कहा जाता है। भगवत्पाद अपने
आनन्दलहरी नामक कृति के तीसरे ही श्लोक में कहते हैं –
मुखे ते ताम्बूलम् नयनयुगले
कज्जलकला।
ललाटे काश्मीरं विलसति गले
मौक्तिकलता।
स्फुरत्काञ्ची शाटी
पृथुकटितटे हाटकमयी।
भजामि त्वां गौरीं
नगपतिकिशोरीमविरतम्।।३ आनन्दलहरी।।
हे देवि! तुम्हारे मुख में
ताम्बूल है, दोनों नयन काजल की पतली रेखा से सुशोभित हैं, ललाट पर काश्मीरज (केसर)
की बिन्दी है तथा पृथु कटि में बँधी साड़ी के ऊपर चमकदार करधनी सुशोभित है। ऐसी
भूषा में सज्जित, हे गौरवर्णा ‘नगपति’-किशोरी - नगपति की कन्या गौरी, मैं तुम्हें अविरत
भजता हूँ।
पुनः सौन्दर्यलहरी के
पैसठवें एवं अट्ठानबेवें श्लोक में भी उन्होंने ताम्बूल का उल्लेख किया है।
रणे जित्वा
दैत्यानपहृतशिरस्त्रैःकवचिभिर्-
निवृत्तैश्चण्डांशत्रिपुरहरनिर्माल्यविमुखैः।
विशाखेन्द्रोपेन्द्रैः
शशिविशदकर्पूरशकला
विलीयन्ते मातस्तव वदनताम्बूलकबलाः॥६५
सौन्दर्यलहरी॥
कदा काले मातः कथय
कलितालक्तकरसं
पिबेयं विद्यार्थी तव चरणनिर्णेजनजलम्।
प्रकृत्या मूकानामपि च
कविताकारणतया
कदा धत्ते वाणीमुखकमलताम्बूलरसताम्॥९८
सौन्दर्यलहरी॥
यदि आनन्दलहरी का तीसरा श्लोक देखें तो
नगपति-किशोरी पार्वती को भगवत्पाद ने ताम्बूल चर्वण करते बताया है। नगपति का अर्थ
यहाँ ‘हिमालय नाम का पर्वत’ ग्रहण करना असमीचीन होगा। पाषाणों के कन्यायें नहीं जन्मतीं।
यत्परः शब्दः स शब्दार्थः - शब्द से जो भाव प्रकट होता है वही उस शब्द का अर्थ
होता है अतः यहाँ ‘नगपति’ का अर्थ पर्वतों के स्वामी और व्याज से पर्वतीय क्षेत्र
तथा वहाँ के निवासी जनों के, नागों के स्वामी का अर्थ ही अभिव्यञ्जित होता है और
साथ ही यह भी कि नाग जाति के स्त्री हों या पुरुष, सभी रुचि के साथ ताम्बूल सेवन
करते थे।
पश्चात् के दो श्लोक सौदर्यलहरी के हैं। भगवत्पाद के
इन श्लोकों की अर्थमाधुरी का वर्णन यहाँ मेरा अभीष्ट नहीं है फिर भी इनमें से एक
श्लोक के सम्बन्ध में मैंने अपने एक निबन्ध ‘मन एकादशी, बुद्धि द्वादशी, चित्त प्रदोष समान’ में अपनी अल्पबुद्धि से कुछ अल्प सा विवेचन किया है।
किन्तु यहाँ तो मैं मात्र यह इङ्गित करना चाहता हूँ कि पाँच सदी
ख्रीष्टाब्द पूर्व जिस देश के साहित्य में ताम्बूल का उल्लेख हो उसे मलाया से
आयातित घोषित करने का क्या औचित्य रहा होगा? वास्तव में यह तो ‘उलटे बाँस बरेली’ जैसी
बात है। हमारे साहित्य
में उल्लेख हैं कि दो सहस्र वर्ष पूर्व भी, भारत के नाविक मलय द्वीप जाते – आते
रहते थे। मलय द्वीप के एक शिलालेख में भी साहसी भारतीय ‘बुधगुप्त’ का उल्लेख है जो
बंग देश के रक्तमृत्तिका नामक स्थान से मलय द्वीप गया था। अतः हुआ यह होगा कि, ऐसे
ही साहसी नाविक अपनी यात्रा में अपने साथ नागवल्ली लता को मलय द्वीप तक भी ले गये
होंगे और वहाँ की भूमि तथा जलवायु इस सुकोमल लता को अनुकूल लगी होगी तो मलय द्वीप
में भी पान का प्रचार-प्रसार हो गया होगा। और यह अभिकल्पना निराधार भी नहीं है।
मलय द्वीप में उसके प्रथम शासक के सम्बन्ध में एक अद्भुद किम्वदन्ती
प्रचलित है। कहते हैं कि मलय देश में उस समय सर्वत्र कुप्रबन्ध एवं अराजकता पसरी
थी। उस द्वीप की प्रजा को कोई सक्षम शासक चाहिये था। प्रजा ने मन से ‘भट्टार गुरु’
की प्रार्थना की और एक दिन महामेरु पर्वत से उतर कर एक सुपुष्ट वृषभ पर आरूढ़ एक
व्यक्ति वहाँ पहुँचा जो मलय द्वीप का प्रथम शासक बना। ‘भट्टार’ शब्द ‘भट्टारक’ का
अपभ्रंश है एवं मलय द्वीप समूह में यह ‘शिव’ का परिचायक शब्द है। इसी के साथ
किम्वदन्ती का वह सुपुष्ट वृषभ भी वास्तव में शिव-वाहन नन्दी का अभिव्यञ्जक है
जिससे यह स्पष्ट है कि इस किम्वदन्ती में शिव प्रकारान्तर से समाविष्ट हैं। अब शिव
स्वयं नाग-प्रमुख थे अतः निश्चित ही मलय द्वीप का वह प्रथम शासक कोई नागवंशी ही रहा
होगा, जिसने अपने आराध्य एवं गणप्रमुख की वहाँ प्रतिष्ठा की। तो यह प्रश्न
स्वाभाविक है कि भारत को पान मलाया ने दिया, अथवा मलय द्वीप या मलाया को पान भारत
ने दिया?
नागों के गण-मुख्य शंकर का परिवार ताम्बूल का रसिक रहा है। पर्वत कन्या -
पर्वतीय कन्या – हिमगिरि किशोरी उमा जिन्हें देवी पार्वती कहें, दुर्गा कहें,
त्रिपुर-सुन्दरी कहें, शिवानी कहें या उनके नाम के जिस पर्याय से उल्लिखित करें,
वे तो ताम्बूल सेवन में अभिरुचि रखती ही थीं, उनके पतिदेव, स्वयं शिव, एवं दोनों
पुत्र गणेश एवं कार्तिकेय की भी ताम्बूल सेवन में कम अभिरुचि नहीं थी। माता के
चर्वित, माता के लालारस से परिप्लुत मुख से निकाल कर दिये ताम्बूल-खण्ड को इन्द्र,
उपेन्द्र तथा देवसेनाध्यक्ष कार्तिकेय किस आमोद एवं आभार के साथ ग्रहण करते हैं
इसका वर्णन भगवत्पाद ने सौन्दर्यलहरी के पैसठवें श्लोक में किया है जिसकी ललित
व्याख्या मेरे द्वारा पूर्व-कथित निबन्ध में की जा चुकी है किन्तु तनिक
सौन्दर्य-लहरी के पूर्व-उद्धृत श्लोक संख्या ९८ पर विचार तो करें!
“हे माता! तुम्हारे चरणों की धोवन में जो अलक्तक-रस घुला है, उसे पान करने
का अवसर मुझ विद्यार्थी को कब प्राप्त
होगा? वह चरणोदक तो सरस्वती के मुख-कमल से निःसृत ताम्बूल-रस के
समान, जन्म-मूक को भी, जन्मतः ही जो गूँगा हो उसको भी, कवित्व-शक्ति प्रदान करने
में सक्षम है!”
भगवती का चरणोदक कैसा है? भगवती के चरणों में अलक्तक लगा है अतः उन चरणों
का धोवन, वह चरणोदक, पान की पीक जैसे रङ्ग का - सरस्वती के मुख से निःसृत ताम्बूल-रस
के रंग जैसा होना ही है! अब नकारात्मकता के पक्षधर यहाँ विवाद का घटक खोज लेंगे।
खोजते रहें! मैंने थोड़े न लिखा है! आचार्य भगवत्पाद शङ्कर ने लिखा है! तो यदि अभियोग
बनता भी हो तो आदि शङ्कराचार्य पर बनेगा। मैं तो मात्र यह कहना चाहूँगा कि जो सरस्वती
के मुख से ताम्बूल-रस रूप में निःसृत होता है, उसके सेवन का जो प्रभाव है, वैसा ही
अविकल प्रभाव तो देवी पार्वती के चरणोदक-पान का है। और सरस्वती के मुख से निःसृत
क्या होता है? काव्य! अन्य शब्दों में कहें तो सरस्वती के मुख से काव्य वैसे ही
निःसृत होता है जैसे उनके मुख से पान की पीक! इसी कारण भगवत्पाद कहते हैं - वह माता
का चरणोदक तो सरस्वती के मुख-कमल से निःसृत ताम्बूल-रस के समान
जन्म-मूक को भी कवित्व-शक्ति प्रदान करने में सक्षम है!
ताम्बूल के साथ सरस्वती का सम्बन्ध स्थापित करते किसी कवि ने लिखा –
ताम्बूलेन रहित जिह्वाम् जड़ीभूता सरस्वती।
जिस प्रकार कोई कुलवधू नग्न होने पर सहसा
कक्ष से बाहर नहीं निकलती, सरस्वती भी उसी प्रकार ताम्बूल रहित जिह्वा पर जड़ीभूत
हो रहती है, बाहर नहीं आती।
माता भगवती शिवानी को ताम्बूल प्रिय है, यह सिद्ध है और सरस्वती के मुख-कमल
से ताम्बूल-रस का भी वर्णन भगवत्पाद ने किया अतः ताम्बूल सेवन तो सरस्वती भी करती
ही हैं यह भी सिद्ध हुआ। शेष रहीं लक्ष्मी, तो ताम्बूल का नैवेद्य उन्हें भी प्रिय
है। ॐ शं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्री महालक्ष्मी प्रीतये समर्पयामि नमः। तथा,
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्री महालक्ष्मी श्रीपादुकाभ्याम् नमः
अनुकल्पयामि।। आदि मन्त्र अनायास तो हैं नहीं? अतः महागौरी, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती,
तीनों को ताम्बूल अति-प्रिय है, किन्तु शिव-कुटुम्ब तो ताम्बूल का कुछ अधिक ही
रसिक है।
मनुष्य अपने आराध्य को वह सब समर्पित करना चाहता है जिसे वह श्रेष्ठ समझता
है। स्थूल रूप में न सम्भव हो, तो मानसपूजा का विधान है क्योंकि स्थूल रूप में न
सही तो मनसा ही, वह सब, जो मनुष्य अपने जाने सर्वश्रेष्ठ समझता है, अपने आराध्य को
समर्पित कर स्वयं को कृतकृत्य एवं कृत्पुण्य मानता है और माता भगवती, शिव, तथा
गणेश की मानस-पूजाओं में ताम्बूल का मानसिक समर्पण अनिवार्य रूप से आया है। भगवती
की मानस पूजा में –
और शिव की मानस पूजा में -
सौवर्णे नवरत्न-खण्ड-रचिते पात्रे घृतं
पायसं,
भक्ष्यं पञ्च-विधं पयो-दधि-युतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानाम् युतं जलं रुचिकरं
कर्पूर-खण्डोज्ज्वलं,
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो
स्वीकुरु॥
मैंने नवीन रत्नखण्डों से जड़ित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पाँच प्रकार
का व्यञ्जन, कदलीफल,
पानक (मधुवारि, शर्बत), अनेकों शाक, कर्पूर सुवासित स्वच्छ मीठा जल तथा
ताम्बूल – ये सब मैंने मन के द्वारा ही बना कर आप हेतु प्रस्तुत किये हैं।
हे प्रभो! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये।
तथा, गणेश की मानस पूजा में – “अष्टाङ्गयुक्तं गणनाथ दत्तं ताम्बूलकं ते
मनसा मया वै। गृहाण विघ्नेश्वर भावयुक्तं सदा सकृत्तुण्डविशोधनार्थं॥” - हे गणनाथ!
मेरे द्वारा मानसिक रूप से प्रदत्त यह अष्टाङ्ग युक्त ताम्बूल है। हे विघ्नेश्वर!
तत्काल-मुखशुद्धि हेतु भावना-पूरित यह ताम्बूल ग्रहण करें। एवं “क्रमुकैलालवङ्गानि
नागवल्लीदलानि च। ताम्बूलं गृह्यताम् देव सङ्कटम् मे निवारय।।” सुपारी, एला लवङ्ग
आदि से युक्त इन नागवल्ली दल से निर्मित ताम्बूल को ग्रहण कर, हे देव! मेरे सङ्कट
का निवारण करो। - ऐसी भावना करते हुए अपने इष्ट को मानसिक रूप से ताम्बूल अर्पित
करने का विधान है।
संक्षेप में कहें, तो शिव-परिवार, नाग-गण-प्रमुख का पूरा का पूरा परिवार ही
ताम्बूल-रसिक है। भवानी तो ताम्बूल की रसिक हैं ही, किन्तु भोला को भाँग अनिवार्यतः
चाहिये। और भाँग के बाद पान जम जाय तो क्या ही बात? गणेश को भी ताम्बूल प्रिय है
ही और कार्तिकेय माता के मुख से चबा कर उगले ताम्बूल-खण्ड पर ही मुग्ध एवं
कृतकृत्य हैं, वरन् माता द्वारा अर्द्धचर्वित वह ताम्बूल – खण्ड पा कर तो इन्द्र
एवं उपेन्द्र भी हर्षित होते हैं (देखिये सौन्दर्यलहरी का श्लोक ६५ और मेरा
पूर्व-उल्लिखित निबन्ध) तो भारतीय संस्कृति में ताम्बूल का प्रचलन तो अनादि काल से
है।
योगिनी तन्त्र के कुछ श्लोकों को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा
हूँ -
सर्व्वेशी योगिनीपीठे धर्म्म कैरातजः मतः।
कामरूपे न सन्यास्तथा दीर्घव्रतम्
प्रिये।।
न त्यजेत् सामिषम् देवी ब्रह्म्चर्य्यामतं
न च।
संसर्गात् पातकं नैव स्त्रीधर्म्मे
धर्म्ममाश्रयेत्।।
न शुक्रदर्शनम् स्त्रीणाम् ताम्बूलाशा सदा
भवेत्।
हंस पारावतम् भक्ष्यम् कूर्म्मवाराहमेव च।
कामरूपे परित्यागाद्दुर्गतिस्तत्र
सम्भवेत्।।
अर्थात्, कामरूप का धर्म किरात जाति से जन्मा है। उनमें संन्यास विधि अथवा
दीर्घकालीन व्रतों का विधान नहीं है। कामरूप में सामिष आहार (मत्स्य-मांसादि) का
निषेध तथा ब्रह्मचर्य का नियम भी नहीं है। वहाँ संसर्ग-दोष का पातक भी नहीं लगता अर्थात्
स्पर्श, भोजन, पान, रमण आदि में जाति-भेद होने पर भी कोई दोष नहीं! यहाँ स्त्री की
ऋतुरक्षा (स्त्री के ऋतुकाल में उससे रमण) धर्म की मान्यता है। यहाँ हम इस ‘न
शुक्रदर्शनम् स्त्रीणाम्’ को इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि विवाहादि शुभ कार्यों
में इस भूभाग में शुक्र-दर्शन आवश्यक
नहीं, अर्थात् ज्योतिषीय दृष्टिकोण से शुक्रास्त का विचार कामरूप-क्षेत्र में नहीं
किया जाता। यहाँ स्त्रियाँ सदैव ताम्बूल का अशन करती हैं, ताम्बूल खाती हैं। हंस,
कबूतर, कछुआ, सूअर, सभी यहाँ भक्ष्य हैं। कामरूप में इन आचारों के परित्याग से
दुर्गति सम्भव है।
योगिनी-तन्त्र उद्धृत कामरूप की आचार-संहिता पर मुझे कुछ नहीं कहना। मेरा
अभिप्रेत तो मात्र ‘स्त्रीनाम् ताम्बूलाशा सदा भवेत्’ - यहाँ स्त्रियाँ सदैव
ताम्बूल का अशन करती हैं, ताम्बूल खाती हैं, मात्र इतना ही निर्दिष्ट करना है।
योगिनी-तन्त्र तक में असम, जिसे अहोम कहें, कामरूप देश कहें, प्राग्ज्योतिषपुर कहें,
में स्त्रियों को ताम्बूलाशी – पान खाने वालियाँ - कहा गया है। प्राचीन भारतवर्ष में
ताम्बूल का इतिहास कितना पुरातन है यह शोधकर्ता कभी शोध सकेंगे? अथवा अनायास ही
ताम्बूल को मलाया से आयातित बताते रहेंगे?
हमारे संस्कृत साहित्य ने जीवन के किसी भी क्रिया-कलाप को अनदेखा या अछूता
नहीं छोड़ा। विभिन्न दर्शनों, अनेकानेक आख्यानों, नीति-श्लोकों, काम-शास्त्र के
गुह्य कलापों से लेकर कोई ऐसा क्षेत्र नहीं रहा जिस पर हमारे मनीषियों ने अपनी
लेखनी न चलायी हो और भारतीय संस्कृति में रचा-बसा ताम्बूल उन मनीषियों की दृष्टि
में नहीं आया? किसी ने इस नागवल्ली-लता के पत्र एवं उसके आस्वादन-विधि के सम्बन्ध
में कुछ नहीं लिखा?
हमारा पुरातन संस्कृत साहित्य यत्र-तत्र हमारे देश में ताम्बूल सेवन का
प्रमाण-मात्र ही नहीं प्रस्तुत करता वरन् ताम्बूल-सेवन की विधियों का भी विशद
वर्णन करता है। सब कुछ एकत्र नहीं है, सँजोना और जुटाना होगा, किन्तु है अवश्य! एक
उदाहरण भद्रबाहु संहिता से लेते हैं -
नागवल्ली-दलास्वादो युज्यते
क्रमुकैः समम्।
एला लवङ्ग कङ्कोल कर्पूराद्यन्वितैरपि।।
चूर्ण-पूगदलाधिक्ये साम्ये
चात्र सितक्रमात्।
दुर्गन्धागन्धसौगन्ध्य-बहुरङ्गान्
विदुर्बुधाः।।
पित्तशोणितघातात्-रूक्षक्षीणाक्षिरोगिणाम्।
स चापथ्यं विषार्तस्य
क्षीवशोषवतोऽपि च।।
कामदं षड्-रसाधारमुष्णं
श्लेष्मापहं तथा।
कान्तिदं कृमिदुर्गन्धवातानां
च विनाशकम्।।
यःस्वादयति ताम्बूलं
वक्त्रभूषाकरं नरः।
तस्य दामोदरस्येव न
श्रीस्त्यजति मन्दिरम्।।
स्वापान्ते वमने स्नाने
भोजनान्ते सदस्यपि।
तत्पुनह्यमल्पीयः सुखदं
मुखशुद्धिकृत।।
(भद्रबाहु संहिता, कुन्दकुद
श्रावकाचार, श्लोक ३५ से ४०)
[नागवल्ली-पत्र अर्थात्
ताम्बूल का आस्वादन सुपारी के साथ और इलायची, लवङ्ग, कङ्कोल (कबाबचीनी), कर्पूर आदि सुगन्धित वस्तुओं
के साथ करना योग्य है। ताम्बूल भक्षण में चूना, सुपारी और पान इनकी अधिकता में और समानता में, चूना के क्रम से
दुर्गन्ध, निर्गन्ध, सौगन्ध तथा बहुरंग को विद्वज्जन कहते हैं। अर्थात् यदि ताम्बूल
वीठिका में चूने की अधिकता हो तो मुख में दुर्गन्ध उत्पन्न होगी, यदि सुपारी की अधिकता हो तो
मुख निर्गन्ध रह जायेगा, यदि पान के पत्ते का भाग अधिक होगा तो मुख सुगन्धित रहेगा और
यदि तीनों उचित परिमाण में होंगे तो मुख का रङ्ग भी सुन्दर होगा और स्वाद भी अच्छा
होगा। पित्त-रोगी,
रक्त-क्षय से पीड़ित,
रुक्ष-शरीरी,
क्षीणदेही,
और नेत्ररोगी पुरुषों के लिए ताम्बूल-भक्षण करना अपथ्य है तथा
विष से पीड़ित, क्षीव (मदमत्त) एवं शोषरोग (सूखा रोग) वाले दुर्बल पुरुष हेतु भी ताम्बूल
अपथ्य है। ताम्बूल-भक्षण कामवर्धक,
छहों रसों का आधार,
उष्ण, कफनाशक,
कान्ति-दायक,
और कृमि,
दुर्गन्ध तथा वातरोग का विनाशक है। जो मनुष्य मुख को भूषित करने
वाले ताम्बूल का आस्वादन करता है,
उसके घर को लक्ष्मी उसी प्रकार से नहीं छोड़ती है, जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु का
साथ नहीं छोड़ती है, अर्थात् ताम्बूल-सेवी पुरुष के घर सदा लक्ष्मी का निवास रहता
है। स्वापान्त अर्थात् शयन हेतु जाने के अन्तिम क्षणों में, वमन होने पर, स्नान करने के उपरान्त, भोजन के
पश्चात् तथा सभा में, सुखद और मुखशुद्धि करने वाला ताम्बूल अल्प परिमाण में अवश्य ग्रहण
करना चाहिये।]
एक सुभाषित सूक्ति स्मृत कराऊँ?
यन्मुखम् वेदविभ्रष्टम्,
ताम्बूल रस वर्जितम्।
सुभाषितपरिभ्रष्टं च तन्मुखम्
विलमव्रवीत।।
-- जो मुख वेद विभ्रष्ट हो, अर्थात् वेदों की
ऋचाओं का पाठ न करता हो,
चलो! नहीं करता तो न सही,
किन्तु ताम्बूल-रस से भी वर्जित हो, पान न
खाता हो,
और, सुभाषित भी न बोलता हो,
तो, उस मुख को मुख नहीं, बिल कहना चाहिये!
बिल तो जानते हैं न? जिनमें
मूषक-वर्गीय एवं सरीसृप-वर्गीय जन्तुओं का आवास होता है? संस्कृत का विल और देशज
बिल एक ही है। इस सुभाषित के अनुसार जो व्यक्ति पान नहीं खाता उसका मुख, मुख नहीं,
बिल है। यह अवश्य है कि यदि पान न भी खाता हो, किन्तु वेद-पाठ करता हो या सुभाषित
वचन बोलता हो तब उसके मुख को मात्र पान न खाने के कारण ‘बिल’ नहीं कहा जा सकता।
भर्तृहरि नीति-शतक में
संस्कृत का एक सुभाषित है –
केयूराणि न विभूषयन्ति पुरुषम्, हारा न चन्द्रोज्ज्वला।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं
नालङ्कृता मूर्धजाः।।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं
वाग्भूषणं भूषणम्।।
केयूर से मनुष्य
की शोभा नहीं होती, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार धारण करने से, न ही सुगन्धित जल से स्नान से!
देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे केश-कलाप
ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा
बढाती है। अन्य समस्त भूषण एक दिन नष्ट हो जाते हैं अतः भूषित-वाणी ही मनुष्य का
एकमात्र आभूषण है।
किन्तु ‘मुख का भूषण पान
है’ किसी से सुन कर इस उक्ति पर इतराते ताम्बूल ने जब यह श्लोक सुना तो उसे
अत्यन्त दुःख हुआ। करेला नीम पर तब जा चढ़ा जब एक अन्य कवि ने कह दिया –
मृषा वदति लोकोऽयम्, ताम्बूलम् मुखभूषणम्।
मुखस्य भूषणम् पुंसः स्यादेकैव: सरस्वती l।
संसार यह मिथ्या कहता है कि ताम्बूल मुख का भूषण है। पुरुष के
मुख का भूषण तो एकमात्र सरस्वती ही है। वाणी ही सर्वश्रेष्ठ आभूषण है।
ताम्बूल की ग्लानि देख ऐसे में उसको सांत्वना देता एक अन्य कवि
कहता है -
वाणी स्यान्मुखभूषा का तव
हानिरनेन रे ताम्बूल!
यावद्भुवि भक्तास्तव बन्धो!
ख्यातिं परां यास्यसि।।
यदि (लोगों की दृष्टि में) वाणी ही मुख
का आभूषण हो गयी, तो रे ताम्बूल! इससे तेरी क्या हानि हो गयी भैया? जब तक पृथ्वी पर तुम्हारे
भक्तगण हैं, ताम्बूल-सेवी हैं, (तुम) उत्कृष्ट यश प्राप्त करते रहोगे।
एक अन्य कवि ने ताम्बूल के विषय में
कहा है –
किम् वीरुधो भुवि न सन्ति
सहस्रशोऽन्या,
यासां दलानि न परोपकृतिं
भजन्ते।
एकैव वल्लीषु विराजति
नागवल्ली,
या नागरीवदनचन्द्रमलङ्करोति।।
वल्लियाँ तो हजारों हैं, और वे मानव का
परोपकार भी कम नहीं करतीं किन्तु इन सभी के शीर्ष पर एक ही वल्ली, नागवल्ली
विराजमान है जो नागरिकाओं के मुखचन्द्र को अलङ्कृत करती है। और महाकवि माघ
‘शिशुपाल वध’ के अष्टम सर्ग में कहते हैं –
स्वच्छाम्भःस्नपनविधौतमङ्गमोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो
विलासिनीनां ।
वासस्तु प्रतनु
विविक्तमस्त्वितीयानाकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्यः।।
निर्मल जल से स्नान किये हुए स्वच्छ
अङ्ग, ताम्बूल-राग से दमकते होष्ठ, तथा सुन्दर स्वच्छ महीन वस्त्र, विलासिनियों
हेतु इतना प्रसाधन पर्याप्त है यदि वे कामकला से शून्य नहीं हैं - ‘यदि कुसुमेषुणा
न शून्यः’। अधुना नारियों में अधर-रञ्जक-वर्तिका की कुप्रथा अवश्य चल निकली है
किन्तु कभी ताम्बूल ही नारियों का अधर-रञ्जक हुआ करता था।
ध्यातव्य है कि ताम्बूल कोई सामान्य वस्तु
नहीं! यह शुभता, समृद्धि एवं सम्मान का परिचायक है। हमारे देश में धार्मिक
अनुष्ठानों एवं सामाजिक समारोहों में इसके उपयोग की प्रथा अत्यन्त प्राचीन काल से
रही है। ताम्बूल सेवन की अनुशंसा एवं वर्जना के उल्लेख धर्मशास्त्रों, आयुर्वेद,
तन्त्र-शास्त्र, ज्योतिष, पुराणों एवं कामशास्त्र आदि में सङ्कलित हैं। ताम्बूल
हमारी संस्कृति में पूजा से ले कर प्रथा तथा परम्परा तक समाविष्ट है अतः ताम्बूल
की अपनी महत्ता एवं महनीयता है। उसके प्राशन एवं उपभोग के भी कुछ नियम हैं, कुछ
आचार हैं!
ताम्बूल-वीठिका के निर्माण एवं उसके
घटक द्रव्यों के अनुपात से सम्बंधित विनिर्देश हमारे संस्कृत साहित्य में भरे पड़े
हैं। ताम्बूल के औपचारिक घटक मात्र चार हैं – नागवल्ली-दल या पान का पत्ता,
सुधावलेह अर्थात् चूना, खदिर-अवलेह या खदिर-गुटिका अर्थात् कत्था तथा पूगीफल
अर्थात् सुपारी। किन्तु इन औपचारिक घटक-द्रव्यों से निर्मित ताम्बूल का सेवन भी
औपचारिक ही है। ताम्बूल के स्वाद एवं गुणों में वर्धन हेतु ताम्बूल-वीठिका के निर्माण
में कुछ विशिष्ट घटक-द्रव्यों का भी प्रयोग होता है। वे विशिष्ट घटक द्रव्य हैं – लवंग,
एला, जातिपत्री, जातीफल, तज-त्वक्, कङ्कोल, वाताद, काजव, नारिकेल, काश्मीरज, कर्पूर,
इन्द्रभेषज या शुण्ठी, मुशीर, श्वेत चन्दन, कस्तूरी, कृष्णागरु, मुरमांस,
नख तथा यदि ईश्वर ने लक्ष्मी देवी की कृपा से आप्यायित किया हो तो
सुवर्ण एवं रजत पत्र! यदि ये घटक-द्रव्य आपको अनजाने से प्रतीत हो रहे हों तो उनके
प्रचलित नाम क्रम से लौंग, छोटी इलायची, जावित्री, जायफल, दालचीनी, कबाबचीनी,
बादाम, काजू, नारियल, केसर, खाने वाला भीमसेनी कपूर, सोंठ, खस, श्वेत चन्दन, कस्तूरी,
काला अगर, मुरमांस, नख तथा यदि आर्थिक रूप से सक्षम हों तो सोने और
चाँदी के वरक। तमाल-पत्र अथवा पत्रचूर्ण या तम्बाकू भी ताम्बूल का एक घटक है अवश्य,
किन्तु इस सूची में उसे छोड़ते हैं। इस प्रकार चार मूल घटक तथा इक्कीस (तम्बाकू को
ले कर बाईस) विशिष्ट घटक एक साथ मिलते हैं तब बनता है पान का वास्तविक बीड़ा!
पर्णानि पूग-खण्डानि, चूर्णे
च, खदिरं शुभम्।
कर्पूरैलालवङ्गादिजातीफलताजत्वकः।
चतुर्भिर्मिलितेद्रव्यैस्ताम्बूलम्
मम वल्लभे।
मृगनाभिः मरीचानि मुरमांस
नखान्स्तथा।।
इस सूची के दो घटक कुछ अल्पज्ञात से हैं। एक
है मुरमांस तथा दूसरा है नख। मुरमांस का वानस्पतिक
नाम कसेरिया एस्कुलेन्टा है। यह मसालों के अन्तर्गत ही परिगणित एक पदार्थ है जिसे
सप्तरंगी, सप्तचक्री, मिरमीरी या सतरंगी कहा जाता है। नख के सम्बन्ध में
जान कर आपको तनिक अटपटा लग सकता है किन्तु नख क्या है तथा इसका नाम नख क्यों है यह
जानना आप के लिये रुचिकर अवश्य हो सकता है।
घोंघे आदि की जाति के जीवों के मुँह का
एक ऊपरी आवरण या ढकना होता है जिसका आकार नख
के समान चन्द्राकार अथवा यदा-कदा गोल भी होता है। यह छोटा, बड़ा, सफेद, नीला कई प्रकार और रङ्ग का
होता है जिनमें से छोटा और सफेद रङ्ग वाला श्रेष्ठ माना जाता है। छोटे वाले को
वैद्यक ग्रन्थों मे क्षुद्र-नखी तथा बड़े वाले को उसकी आकृति के अनुसार शङ्खनखी, व्याघ्रनखी तथा बृहन्नखी आदि कहते
हैं। चूँकि यह एक जैविक पदार्थ है अतः इसे जलाने से दुर्गन्ध उत्पन्न होती है
किन्तु इसे मीठे खाद्य तेल में, तिल के तेल में, डाल कर कुछ दिनों तक छोड़ देने से अत्यन्त
सुन्दर गन्ध निकलती है। यह एक प्रसिद्ध गन्धद्रव्य है जिसका व्यवहार ओषधि रूप में
भी होता है, देवार्चन में भी, तथा पान में तो होता ही है। आयुर्वेद के अनुसार यह
हलका, ऊष्ण, स्वादिष्ट,
शुक्र-वर्धक और व्रण, विष, श्लेष्मा, वात, ज्वर, कुष्ठ तथा मुख की दुर्गंध को दूर
करने वाला कहा गया है। इसी को तिल-तैल-भावित कर, उस तैल की कुछ बूँदे ताम्बूल में डाली
जाती हैं।
ताम्बूल-वीठिका का निर्माण जितना सहज
प्रतीत होता है, वास्तविकता में उतना सहज है नहीं! प्रथम तो नागवल्ली – दल को ही
लीजिये! अत्यन्त सुकुमार लता होती है नागवल्ली! इसकी देखभाल अत्यन्त कठिन एवं
श्रमसाध्य है। तनिक सी ऊँच – नीच हुई नहीं कि यह सूख भी सकती है, सड़ भी सकती है। पुनश्च,
ताम्बूल-पत्र को तोड़ लेने के पश्चात् उसे पकाना भी एक धैर्य की परीक्षा लेने वाला
कार्य है और पान के पत्ते को पकाना आवश्यक है क्योंकि हरा पत्ता स्वाद में तिक्त,
या कषाय, परिपाक में उष्ण, मुख में जड़ता तथा दाह उत्पन्न करने वाला तथा मलोत्पादक
होता है। इसके विपरीत पका हुआ श्वेत ताम्बूल-पत्र श्लेष्मा, वात तथा आम (आँव) का
नाशक, पथ्य, रुचिकर तथा पाचन-शक्ति को दीपित करने वाला होता है। पान का पत्ता
जितना ही पुराना हो, उसके भैषज्य गुणों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है।
कृष्णपर्णं तिक्तमुष्णम्
कषायं
धत्ते दाहं वक्त्रजाड्यं मलम्
च।
शुभपर्णं श्लेष्मवातामयघ्नं,
पथ्यं च रुच्यं, दीपनं पाचनं
च।।
पर्णे पुराणमकटु क्षुल्लकं
तनु पाण्डुरम्,
विशेषाद्गुण वेद्यमन्याद्हीन
गुणस्मृतं।।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उगने
वाले ताम्बूल के अपने विशेष नाम तथा विशेष गुण हैं जिनकी चर्चा इस सुदीर्घ आलेख को
और भी विशद बना देगी अतः उससे सायास बचा जा रहा है, तदापि श्रीवाटी, आम्बाड,
सप्तसी या सप्तशिरा, गुहागर आदि ताम्बूल की प्राचीन प्रजातियाँ हैं। उत्तर भारत
में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का उत्पादन एवं उपयोग किया जाता है, वे देशी, देशावरी,
कलकतिया,
कपूरी,
बाङ्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, आदि हैं। मालवा का पान मालव
तथा मगध का मागधी विख्यात है। यह मागधी ही आज लोक में मगही के नाम से जाना जाता
है। काशी का पान अत्यन्त प्रसिद्ध है किन्तु उसकी विशिष्टता ताम्बूल की किसी
प्रजाति में नहीं, काशेय ताम्बूलिकों के पान पकाने के श्रम तथा ताम्बूल निर्माण की
अन्यतम कला में है। पान के पत्तों का पकाना जिसे वाराणसी में पान कमाना कहा जाता
है, काशी की अपनी ही विशिष्ट विधा है जिसमें वर्षो तक पान के पत्तों को सड़ने से
बचाते हुए पकाया जाता है। आज भी सम्पूर्ण भारतवर्ष से पान पहले काशी पहुँचता है
तथा काशी के कुशल तथा धैर्यवान ताम्बूलिक उसे पका कर पुनः देश भर में भेज देते
हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि जिस पाण्डुर ताम्बूल-पत्र का आप आज सेवन करते हैं
वह पत्ता नागवल्ली लता से कब विच्छिन्न किया गया होगा? सम्भवतः आज से न्यूनतम एक
वर्ष पूर्व! और यह वर्ष-पूर्व ताम्बूल-लता-वृन्त से विच्छिन्न ताम्बूल-पत्र यदि सद्यः-विच्छिन्न
ताम्बूल पत्र सा स्वाद देता है तो इसे काशी के ताम्बूलिकों की यश-गाथा स्वीकार
करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये।
उत्तर-प्रदेश का महोबा जिसका प्राचीन
नाम महोत्सवा रहा है तथा जिसकी ख्याति चन्देल नरेश परमर्दिदेव एवं उनके सामन्तों आल्हा-ऊदल
के शौर्य, उनके राजकवि जगन्नायक जिनका लोक-विश्रुत नाम ‘जगनिक’ प्रसिद्ध है, तथा ओज-काव्य
‘परमाल-रासो’ के कारण ही अमर नहीं है। महोबे की प्रसिद्धि में ताम्बूल-पत्र का भी लगभग
समान ही योगदान है जिसे खा-खा कर वीरों ने सहर्ष अपने शीश रणचण्डी को अर्पित किये।
महोबे के ‘देसावरी’ अथवा ‘देशावरी’ पान की एक अपनी ही विशिष्टि है। यह पान यदि हाथ
से छूट कर गिर जाये तो भूमि पर गिरते ही पतले दर्पण की भाँति चूर-चूर हो जाता है
तथा तनिक से आघात से टुकड़े-टुकड़े हो जाने वाला यह पान जब बीड़े के रूप में मुख में
जाता है तब सत्वर ही गल कर ताम्बूल के अन्य घटक द्रव्यों से अतिशीघ्र एकसार हो
जाता है। महोबे के पान के ही गुणों वाला मालवा का पान भी होता है। मालव-ताम्बूल
पत्र भी ऐसे ही अल्प-आघात से चूर हो जाने वाले ताम्बूल की प्रजाति है तथा मुख में
उसकी घुलनशीलता भी लगभग महोबे के देसावरी पान जैसी ही है। मालवा भी महोत्सवा की ही
भाँति वीर रण-पुङ्गवों की भूमि रही है। दोनों क्षेत्रों के नाम में भी साम्य है,
माटी के गुणों में भी और यदि काव्यात्मक भाषा में कहें तो उनके हृदय भी एक जैसे होते
हैं अन्यथा दोनों क्षेत्रों में उगने वाला हृदयाकृति ताम्बूल एक सा भङ्गुर स्वभाव
वाला, एक जैसा घुल-मिल जाने वाला, क्यों होता? मालवा तथा महोत्सवा दोनों प्रेम तथा
स्वाभिमान के नाम पर शीश कटाने वाले तथा मिलनसार हैं, किन्तु उनके हृदय भी अत्यन्त
नम्र आघातों से भग्न होते रहे हैं, अविकल देसावरी एवं मालव ताम्बूल की ही भाँति!
आषाढ़ बीतते-बीतते मालवा की विभूति कालिदास तथा उनके मेघदूत का स्मरण अनुचित तो
नहीं है? विद्योत्तमा का वियोग मेघदूत की पाती कैसे बनता है यह मालव भूमि ही सिखा
सकती है तथा परमर्दिदेव की कन्या चन्द्रप्रभा से जयित्रचन्द्र के उत्कट किन्तु गुप्त
प्रेम का मूल्य महोत्सवा ही चुका सकता है।
ताम्बूल का दूसरा मुख्य घटक है पूगीफल
अथवा सुपारी। सुपारी नारियल की प्रजाति का ही वृक्ष है। इसके फल से सुपारी निकालना
ही अत्यंत श्रमसाध्य कार्य है किन्तु उससे भी अधिक श्रमसाध्य कला है ताम्बूल मे
सेवन हेतु सुपारी को काटना। यान्त्रिक युग में अब तो सुपारी काटने के यन्त्र भी आ
गये हैं किन्तु सरौते से सुपारी काटना कभी एक कला हुआ करती थी। सरौते से बाजरा,
मोतिया तथा छाली आदि आकार-प्रकार में सुपारी काटने में जिस तन्मय संलग्नता की
आवश्यकता होती थी, आपा-धापी वाले इस कालखण्ड में उसकी सम्प्राप्ति असम्भव है अतः
अब यह कला विलुप्त हो चुकी है।
आज पूगीफल का सेवन अनेकों रोगों का जनक
माना जाता है किन्तु इसके ओषधीय गुणों को जानने हेतु राजनिघण्टु के आम्रादिवर्ग
नामक एकादश अध्याय के श्लोक संख्या २३४ से २४५ का सन्दर्भ ग्रहण करना उचित होगा।
चूँकि सुपारी एक ओषधीय पदार्थ है अतः इसका सेवन भी अन्य ओषधि-द्रव्यों की भाँति
परिमित मात्रा में ही उचित है। इसके भेषज गुणों का परीक्षण करना हो तो आपको
आयुर्वैदिक ‘सुपारी-पाक’ नामक ओषधि का सन्दर्भ ग्रहण करना चाहिये। यह एक
आयुर्वैदिक पुष्टिकर अवलेह है जो सुपारी के चूर्ण को घृत एवं एवं गोदुग्ध में पका
कर निर्मित होता है तथा स्त्रियों के जननाङ्गों के सङ्क्रमण-जनित रोगों में अत्यन्त
लाभकर है, गर्भाशय को बलान्वित करता है, वन्ध्य दूर करता है, अनियमित एवं पीड़ादायक
कष्टकारी रजोनिवृत्ति में उपयोगी है, प्रदर रोग का श्रेष्ठतम उपचार है। पुरुषों
में ध्वज-भंग एवं न्यून-कामेच्छा के उपचार में तथा पुरुषों एवं नारियों, दोनों की
ऊर्जा एवं शक्ति में वर्धन तथा रोग-प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि में इसका कोई
प्रतिस्थानीय नहीं है। किन्तु इतने गुणों के होते हुए भी अकेले सुपारी चबाने का
निषेध है – अनिधाय मुखे पर्णे पूगं खादयति यः नरः। सप्तजन्म दरिद्रत्वम् अन्ते न
स्मरेत् हरिम्।। मुख में बिना पान डाले जो व्यक्ति पूगीफल खाता है वह सात जन्मों
तक दरिद्र होता है तथा अंतिम समय में, मृत्यु के समय में, उसे हरि-स्मरण का अवसर
तक प्राप्त नहीं होता। इसे शास्त्रोक्त चेतावनी के रूप में ग्रहण करना चाहिये तथा
सुपारी से बनने वाले ‘पान-मसाले’ जैसे उत्पादों के सेवन से बचना चाहिये।
ताम्बूल का तीसरा मुख्य घटक है
सुधावलेह अर्थात् चूना। संस्कृत साहित्य में चूने की प्राप्ति के आधार पर इसके नाम
एवं गुण का वर्णन है। इसमें प्रथम नाम अश्मसम्भव का है। अश्म पत्थर को कहते हैं। चूना
पत्थर को ढेर सारे जल में भिगो कर प्राप्त चूना अश्मसम्भव है। खाने हेतु चूने की
प्राप्ति का यही सर्वाधिक प्रचलित माध्यम भी है किन्तु इस चूने का एक दोष है। इसे
सदैव जल-प्लुत ही रखना आवश्यक होता है अन्यथा एक बार सूखने पर यह अनुपयोगी हो जाता
है। रहीम ने इसी चूने के लिये लिखा – ‘रहिमन पानी राखिये’। किन्तु अश्मसम्भव को
छोड़ दें तो, अन्य प्रकार से प्राप्त चूने में यह दोष नहीं होता। ताम्बूल के साथ
सेवन करने हेतु यह चूना सर्वाधिक निकृष्ट एवं त्याज्य है क्योंकि यदि ढंग से बुझा
न हो तो यह मुख में दाह एवं क्षत का कारण भी बन सकता है। खाने योग्य चूने को
प्राप्त करने के अन्य माध्यम हैं कुछ विशिष्ट वनस्पतियाँ, कुछ विशिष्ट शैल, तथा
कुछ विशिष्ट जीव। वनस्पतियों द्वारा प्राप्त चूना ही सुधा है। अर्जुन के वृक्ष से प्राप्त
चूना कफहारी, अर्क अथवा मंदार से प्राप्त चूना गुल्म-नाशक, कुटज से प्राप्त चूना
शोष का नाशक, करञ्ज से प्राप्त चूना वात-शामक, रुच्यद अर्थात कतक (रीठा) वृक्ष से
प्राप्त चूना पित्त का शमन करने वाला, कमल से प्राप्त चूना पित्त का नाश करने वाला,
शैलों से प्राप्त चूना पित्त बढाने वाला, स्फटिक से प्राप्त चूना दन्तपक्तियों को
दृढ़ करने वाला तथा शुक्ति आदि से प्राप्त चूना रुक्षकारी होता है। किन्तु शुक्ति
से प्राप्त चूना वात एवं पित्त दोनों का नाश करता है, शम्बूक से प्राप्त चूना
श्लेष्म रोग में लाभकर होता है। मुक्ता से प्राप्त चूना वात रोग को जीतने वाला
होता है तथा राजाओं के सेवन योग्य यही चूना होता है।
चूर्णं चार्जुनवृक्षजं कफहरं
गुल्मघ्नमर्काह्वयं
शोषघ्नं कुटजं करञ्जजनितं
वातापहं रुच्यदम्।
पित्तघ्नं जलजं बलाग्निरुचिदं
शैलाह्वयं पित्तदं
स्फाटिक्यं दृढदन्तपङ्क्तिजननं
शुक्त्यादिजं रूक्षदम्।।
शुक्तिजम् वातपित्तघ्नं
शम्बूकं श्लेष्मरोगजित्।
राज्योग्यम् तु सर्वत्र
मुक्ताचूर्णम् तु वातजित्।।
आधुनिक युग में वनस्पतिज चूना
दुष्प्राप्य है। आज तो यही नहीं ज्ञात कि अर्जुन, आक, कुटज, करञ्ज या कमल से चूना
प्राप्त करने की विधियाँ क्या हैं। बुझाये गये कली चूने का प्रयोग इस कारण समाप्त
हो चला कि यदि विधि पूर्वक निर्मित न किया गया हो तो उसके सेवन से मुखदाह एवं
मुखक्षत की सम्भावना प्रबल है तथा आज के व्यवसायिक युग में इतना श्रम कौन करे?
प्रथम तो चूना पत्थर को पर्याप्त जल में बुझाना, पुनः महीन कार्पास वस्त्र से उसे
मल – मल कर छानना, छोटे से छोटे ठोस कण को निकालना, फिर उसमें उचित मात्रा में दधि
मिश्रित कर पर्याप्त मर्दन से पिच्छिल बनाना और प्रयोग में लाने तक उसे सूखने से
बचाना, मात्र इस कारण कि उसे ताम्बूल पर अत्यल्प मात्रा में लेपित करना है? छोड़िये
भी! और स्फटिक अथवा मोतियों से चूना कौन प्राप्त करता है? वह राजाओं-महाराजाओं एवं
धनाढ्य रईसों के समय की बात थी जब स्फटिक एवं मोती से प्राप्त चूने का ताम्बूल-रसिक
उपयोग-उपभोग किया करते थे। आज किसी को कहा जाय कि ताम्बूल में स्फटिक अथवा मोती से
प्राप्त चूने का सेवन किया जाना चाहिये तो कहने वाला उपहास का पात्र बन कर रह
जायेगा अतः ले-दे कर बचता है शुक्त्यादिज चूर्ण!
चूर्णप्रावार शब्द मोलस्का वर्ग के प्राणियों
यथा सीप, शङ्ख, शम्बूक आदि का सामूहिक नाम है तथा इस प्रजाति के जीवों का बाह्य
कवच चूना प्राप्त करने का एक सहज साधन है। इस वर्ग के प्राणियों को चूर्णप्रावार
वर्ग का कहते ही इसी कारण हैं कि इनका प्रावार, इनका कवच, चूने से बना होता है।
ऐसे प्राणियों के छोटे-बड़े कवच एकत्र कर उन्हें जला कर खाने योग्य चूना प्राप्त कर
लिया जाता है और इस प्रकार से प्राप्त चूना ‘पानी गये न ऊबरे’ की परिभाषा से भी
मुक्त होता है। सूख जाने पर पुनः जल मिला कर यह सद्यः उपयोग में लाया जा सकता है।
वर्तमान में खाने योग्य चूने का यही शुक्त्यादिज भेद ही प्रचलित है अतः सामिष
भोज्य पदार्थों से घृणा करने वाले जैन भावापन्न जन यह ध्यान दें कि यदि वे
ताम्बूल-सेवन के अभ्यासी हैं तो बने-बनाये चूने का ताम्बूल में उपयोग उन्हें
तत्काल त्याग देना चाहिये क्योंकि वह एक जीव के जारित कङ्काल से प्राप्त होता है
तथा इसका सेवन करने के प्रायश्चित स्वरूप कृच्छाचार आदि का यथाविधि पालन भी उन्हें
यथाशीघ्र कर लेना चाहिये। व्रतादि में भी चूने का पान कह कर ताम्बूल-सेवन करने
वाले भी ध्यान दें। व्रत में किसी जीव के कङ्काल का सेवन कहाँ तक उचित है? भविष्य
में भी यदि उन्हें ताम्बूल सेवन करना हो तो उन्हें अश्मसम्भव कोटि के सुधावलेह पर
(चूना पत्थर से प्राप्त चूने पर) ही निर्भर रहना चाहिये। मुखदाह तथा क्षत का सङ्कट
तो रहेगा किन्तु उसका भी उपाय है – “मुखे दह्यते चूर्णकेन प्रमादाद्यदा नागवल्लीदलेन
पुंसः। सितातैल सौवीरकैः तन्निवृत्तिः पृथक तस्य गण्डूष एवोपदिष्टः।।” यदि
प्रमादवश ताम्बूलसेवन के समय चूने की अधिकता से मुखदाह हो जाये तो चन्दन के तेल
तथा मिसरी के सेवन से उस दाह की निवृत्ति हो जाती है किन्तु इनका पृथक से गण्डूष
करना चाहिये। गण्डूष शब्द का सामान्य अर्थ कुल्ला करने से ग्रहण किया जाता है
किन्तु यह गण्डूष विधि नहीं है। आयुर्वेद के अनुसार गण्डूष-द्रव्य को मुख में पूरा
भर कर तब तक बिना जिह्वा हिलाये स्थिर रहना होता है जब तक नेत्रों तथा नासिका से
जल-स्राव न होने लगे। तत्पश्चात गण्डूष को थूक दिया जाता है। यह वास्तविक गण्डूष
विधि है तथा इस प्रक्रिया में न्यूनतम एक से डेढ़ घटी का समय तो लगता ही है। और भी
उपाय हैं –
ताम्बूलमध्यस्थितचूर्णकेन
संदह्यते यस्य मुखं नरस्य ।
तैलेन वा केवत्वकाञ्जिकेन
सुखाय गण्डूषमसौ विदध्यात् ॥
अर्थात् चूने से मुखदाह होने
पर किसी भी खाद्य तेल अथवा काञ्जी के गण्डूष से भी लाभ होता है। व्यक्तिगत रूप से
मैं देशी घी के गण्डूष को प्राथमिकता देना चाहूँगा।
इसी कारण सामान्य जनों हेतु शास्त्र ने
कहा –
शुद्धाश्मचूर्णं खादिरस्य
सारं कस्तूरिका चन्दन मिश्र चूर्णं।
ताम्बूलमेतत प्रवदामि राज्ञः
सौभाग्यदं कान्तिसुखः प्रदम् च।।
अतः सामिष-निरामिष के द्वंद्व में पड़े
लोगों हेतु शुद्धाश्मचूर्ण अथवा कली चूने से प्राप्त चूना ही सेवनीय है। किन्तु
नहीं भाई! इस श्लोक में भी कस्तूरी का उल्लेख है। और कस्तूरी है मृगनाभि जो मृग की
हत्या कर के ही प्राप्त होती है। अतः जैन भावापन्न एवं कट्टर वैष्णव ताम्बूल से
दूर ही रहें तो उचित है। कहा भी है – सकल पदारथ एहि जग मांही। करम हीन नर पावत
नाही। तो पान, सबके लिये नहीं है। ऐसे लोगों को ताम्बूल के स्थान पर वर्जनायें ही
चबाना चाहिये क्योंकि आनन्द लेना आ जाये तो वर्जनाओं में भी आनन्द है, बल्कि वर्जनाओं
में ही आनन्द है किन्तु हमारे मनीषियों ने उन अरसिक काष्ठ हृदयों हेतु भी उपाय
बताये हैं –
कर्पूर कङ्कोल लवङ्ग पूग
जातीफलैर्नारङ्गखण्डपर्णैः।
शुद्धाश्मचूर्णं खदिरस्य सारं
ताम्बूलमेतद् नवधा भवन्ति।।
कर्पूर,
कङ्कोल (कवाबचीनी) लवङ्, पूग (सुपारी) जातीफल (जायफल) नारङ्गखण्ड (अब यहाँ नारंग
से नारंगी अथवा संतरा न समझ लीजियेगा! आयुर्वेद में नारंग का अर्थ पिप्पली होता है
और वही यहाँ अभिप्रेत भी है।), पर्णैः (एक से अधिक पान के पत्ते), शुद्धाश्मचूर्ण
(चूना पत्थर से शुद्धता पूर्वक प्राप्त चूना) तथा खदिर-सार, ताम्बूल में ये नौ
पदार्थ नियोजित करने योग्य हैं। और इनमें से कोई भी व्रतादि में असेवनीय कोटि का
नहीं है। अतः खूब चबाइये पान! व्रत में भी!
अब चाणक्य नीति अध्याय ८ श्लोक २ के अनुसार -
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वाऽपि कर्तव्याः स्नानदानाऽदिकाः क्रियाः ॥
गन्ना, पानी, दूध, कंद-मूल, पान, फल, तथा ओषधियों का सेवन करने के उपरान्त
भी स्नान आदि और अन्य धर्म कार्य किये जा सकते हैं। व्रत-उपवास रहा जा सकता है
अथवा नहीं? चाणक्य इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते। किन्तु व्रतादि में
कन्द-मूल-फल-पुष्प-तना आदि का सेवन वर्जित नहीं। शुद्धि-अशुद्धि का ध्यान रखा जा
सके तथा चूने के रूप में अश्मसम्भव चूर्ण का प्रयोग किया गया हो, तो ताम्बूल में
कोई ऐसा पदार्थ नहीं होता जो अन्न की श्रेणी मे आता हो। अतः ताम्बूल सेवन व्रतादि
में भी विहित है, यदि उसमें शुद्धता का ध्यान रखा जा सके। आवश्यक नहीं कि ताम्बूलिक,
तमोली, शुद्धता का ध्यान रखे ही हो, किन्तु यदि स्वयं शुद्धता से ताम्बूल वीठिका
निर्मित की गयी हो, तो व्रतादि में ताम्बूल चर्वण में दोष नहीं। किन्तु दोष क्यों
नहीं? ताम्बूल कामोद्दीपक है। व्रतादि में काम का उद्दीपन होना उचित नहीं, तथा
ताम्बूल में यदि जैविक पदार्थ नियोजित हों तो भी, व्रतादि में इसका सेवन अनुचित
माना जा सकता है। अतः व्रतादि में ताम्बूल सेवन इस कारण वर्जित हो, तो होना
चाहिये, किन्तु जैविक उत्पादों से रहित ताम्बूल में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो
व्रत-वर्जित हो। वैसे तो व्रत में किसी भी ऐसे पदार्थ का सेवन वर्जित है जो
व्यावसायिक दृष्टिकोण से अर्जित-उपार्जित हो। व्रत में तो अकृष्टपच्या भूमि से
स्वतः उत्पन्न खाद्य-पदार्थों के सेवन के अतिरिक्त अन्य समस्त खाद्य-पदार्थों का
सेवन वर्जित है किन्तु व्रत-उपवासादि में व्यावसायिक दृष्टिकोण से उत्पन्न किये
गये फलादि एवं अन्य खाद्य तो हम भरपूर प्रयोग करते ही हैं! फिर ताम्बूल ने कौन सा
पाप किया है? किन्तु मन माने की बात है! मानते हैं हम वही, जो सहज भी है, सुखद भी
है तथा हमारे मन के अनुकूल भी है। शास्त्र तो आलों में धरने के लिये हैं, अतः धर
दिये गये हैं।
और अब, ताम्बूल का अंतिम मुख्य घटक
पदार्थ – खदिर-राग!
अथर्ववेद के काण्ड तीन में शत्रुनाशन
सूक्त है जिसकी प्रथम ऋचा है –
पुमा॑न्पुं॒सः परि॑जातोऽश्व॒त्थः
ख॑दि॒रादधि॑ ।
स ह॑न्तु॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं
द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥अथर्व० तृतीय काण्ड १॥
(सः) वह (पुमान्) रक्षाशील (अश्वत्थः) अश्वत्थामा अर्थात् अश्वों, बलवानों में ठहरने वाला पुरुष, अथवा वीरों के ठहरने का स्थान
पीपल का वृक्ष, (पुंसः) रक्षाशील (खदिरात् अधि) स्थिर स्वभाव वाले परमेश्वर से, अथवा खदिर वृक्ष से (परिजातः)
प्रकट होकर (मामकान् शत्रून्) मेरे उन शत्रुओं या रोगों का (हन्तु) नाश करे (यान्)
जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी
जानते हैं] ।
वैदिक गूढार्थ का विवेचन यहाँ मेरा
अभीष्ट नहीं है। यहाँ तो मात्र यह इङ्गित करना है कि खदिर वृक्ष तथा उससे उत्पन्न
खदिर राग के महत्व को वैदिक ऋषि भी जानता था तथा यदि किसी खदिर वृक्ष के कोटर में
अश्वत्थ अर्थात् पीपल उग आये तो उस पीपल में खदिर तथा अश्वत्थ दोनों के भैषज्य गुण
समाहित हो जाते हैं यह आयुर्वेद एवं तन्त्र का वचन है।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “प्रजापतेः
प्राणेषूत्क्रान्तेषु शरीरं श्वयितुमध्रियत” इत्युपक्रम्य “अस्थिभ्य एवास्य खदिरः समभवत् तस्मात् स
दारुणोबहुसारोदारुणमिव ह्यस्थि तेनैवेनं तद्रूपेण समर्द्धयति अन्तरे वैल्वा
भवन्ति बाह्ये खादिरा अन्तरे हि मज्जानोबाह्यान्यस्थीनि”- प्रजापति की अस्थि से खदिर का प्रादुर्भाव है।
कत्थे की पर्यायवाची
जानना भी रुचिकर हो सकता है। कत्थे का एक नाम गायत्त्री भी है। क्यों? क्योंकि यह
गायत्री की भाँति ही कल्याणकारी है। इसके अन्य पर्याय बालतनय, दन्त- धावन,
तिक्तसार, कण्टकीद्रुम, बालपत्र (बालपुत्त्र), खद्यपत्री, क्षितिक्षम, सुशल्य, वक्रकण्ट,
यज्ञाङ्ग, जिह्वशल्य, कण्टी, सारद्रुम, कुष्ठारि, बहुसार, मेध्य, रक्तसार, कर्कटी,
कुष्ठहृत्, बालपत्रक, यूपद्रुम आदि हैं तथा सभी पर्याय खदिर के गुणवाची ही हैं।
यूपद्रुम इसका नाम इस कारण है कि वैदिक यज्ञों के बलियूप खदिर काष्ठ से ही निर्मित
करने की प्रथा थी।
खदिरो रक्तसारश्च गायत्री दन्तधावनः
कण्टकी बालपत्रश्च बहुशल्यश्च यज्ञियः।
खदिरः शीतलो दन्त्यः कण्डूकासारुचिप्रणुत्।।
तिक्तः कषायो मेदोघ्नः कृमिमेहज्वरव्रणान्।
श्वित्रशोथामपित्तास्रपाण्डुकुष्ठकफान् हरेत्।।
खदिरः श्वेतसारोऽन्य कदरः सोमवल्कलः
कदरो विशदो वर्ण्यो मुखरोगकफास्रजित्।।
इरिमेदो विट्खदिरः कालस्कन्धोऽरिमेदकः
इरिमेदः कषायोष्णो मुखदन्तगदास्रजित्
हन्ति कण्डूविषश्लेष्मकृमिकुष्ठविषव्रणान्।।
(भावप्रकाशनिघण्टु, वटादि वर्ग)
खदिर वृक्ष की टहनी का दातौन
या खदिर-चूर्ण का मंजन दाँतों के रोगों हेतु अत्यन्त लाभकर है और खदिर के प्रयोग
से भूतबाधा का निवारण भी होता है यह भी शास्त्रोक्त है – विट्खदिरः कटुरुष्णः
तिक्तो रक्तव्रणोत्थ दोषहरः। कण्डूति विष विसर्पज्वर कुष्ठ उन्माद भूतहरःऽपि च।।
तांत्रिक प्रयोगों में भूत-बाधा निवारण हेतु गृह-कीलन में खदिर काष्ठ के ही
स्थाणुओं का प्रयोग होता है।
इस अत्यन्त गुणकारी खदिर वृक्ष का सार
है खदिर-राग अर्थात् पान में सेवन किया जाने वाला कत्था! खैर के
पेड़ से निकलता है। किन्तु कैसे? कत्था बनाने के लिए खैर के पेड़ का तना काटकर
उसकी लकड़ी को अत्यन्त पतले-पतले टुकड़ों में काट लिया जाता है, फिर इन कटी हुई
लकड़ियों को एक तार के पिञ्जर में रख कर जल में न्यूनतम तीन घण्टे तक उबाला जाता
है। उबालने पर खदिर काष्ठ का सत्व शनैः-शनैः उस उबलते जल में घुलता जाता है।
पश्चात्, इस खदिर-सत्व को मलमल के कपड़े से छान कर एक खुले बरतन में डालकर छाया
वाले स्थान पर तब तक के लिए रखा जाता है,
जब तक वह घनसत्व रवादार न हो जाये। किन्तु यह तो खदिर घनसत्व की
प्राप्तिविधि मात्र है। ताम्बूल में इसके उपयोग हेतु इस घनसत्व को पुनः पकाना होता
है तथा, यह पकाना सामान्य भी हो सकता है, विशिष्ट भी!
एक अच्छा ताम्बूलिक इस खदिर-घनसार को
विशिष्ट रीति से पका कर तथा अन्य उपायों द्वारा उसे ताम्बूल में प्रयोग हेतु
निर्मित करता है और ताम्बूल का वास्तविक एवं विशिष्ट रसिक उसी विशिष्ट रीति से
निर्मित खदिर-राग का अपने ताम्बूल में उपयोग करता है अन्यथा जीने का नाम घुरहू तो
हइये है।
खदिर अवलेह के निर्माण से भी अधिक
श्रमसाध्य है खदिर-वटी का निर्माण तथा खदिर सार की तुलना में ताम्बूल में इसका
प्रयोग अधिक सुस्वादु भी होता है, और अधिक गुणकारी भी।
लवंङ्ग जाती मृगजा शशीनाम
भागद्वयं जतिफलत्र्यं च।
वल्लद्वयं त्वक् च तमालपत्रं
कङ्कोलवल्ला इह तुर्यवल्ला।।
खदिरस्य सारस्य तदाष्टभागा
भागद्वयं साधु सुचन्दनस्य।
कृष्णागरुश्चारुतरैकभागः
एला च वल्लद्वय मुक्तचूर्णं।।
षट्भागिकम् कुङ्कुमकेसराणाम्
आलोड़येत् पाटलसारयुक्तं।
मासप्रयोगेण स च शुष्ककासं
वटीम् च बध्वा चणकप्रमाणं।।
एषास्य वैरस्य हरातिपथ्या
भुक्तान्नजारा जठरेषुजातं।
वातामयम् हन्ति सदा नृपाणाम्,
ताम्बूलरागं कुरुतेऽतिरम्यं।।
कर्पूरसारमलयेद्कुरङ्गनाभिः
सम्मर्दितम् खदिरभूरूहसारं।
यत्नेन केसरतरुप्रसवावृतम् तत्
ताम्बूल
रोचककरम् धरणीपतीनां।।
दो भाग लवङ्ग, जावित्री तथा कस्तूरी के
साथ तीन भाग जायफल, दो वल्ल भार दालचीनी तथा तमालपत्र (एक वल्ल भार तीन रत्ती का
होता है अतः छह रत्ती दालचीनी तथा इतना ही तेजपत्ता) एक वल्ल भार कङ्कोल
(कवाबचीनी) तथा चार वल्ल खदिर-सार, इन सबका मिला कर जो भार होता है उसका आठवाँ भाग
शुद्ध चन्दन, तथा एक भाग कृष्णागरु (काला अगर), दो वल्ल भार एला (छोटी इलायची) तथा
मुक्ता-चूर्ण, तथा छह भाग कुङ्कुम युक्त केसर सार (केतकी पुष्प-सार – केवड़ा जल) के
साथ खूब आलोड़ित करे, मथे। तत्पश्चात इसे कासे के पात्र में एक मास तक सूखने दे और
फिर चने के आकार की वटी बना ले। इस वटी का अतिपथ्य से वैर है तथा यह भूख से अधिक
खाये अन्न को तत्काल पचा देता है। साथ ही साथ यह वात एवं आम रोग का भी नाशक है तथा
ताम्बूल राग को अति-रम्य बनाता है अर्थात इसके साथ पान खाने पर उसका रङ्ग अत्यन्त
सुरङ्ग लाल निखर कर आता है। कर्पूरसत्व, चन्दन तथा कस्तूरी के साथ खदिर-चूर्ण का
सम्मर्दन करके यत्न से केसर के आसवित जल में मिला कर ताम्बूल सेवन करने से राजा भी
आनंदित होता है।
अब खदिर-राग हेतु इतना षट्-राग कौन
करे? तो कत्थे को अधिक से अधिक ढंग से उबाल भर लिया और हो गया पान में लगाने का
कत्था! किन्तु किसी आयुर्वेदाचार्य से पूछिये तो आज भी वह ‘खदिरादि वटी’ की प्रशंसा करते नहीं थकेगा। मुख
के छालों एवं स्वरभंग तथा दुर्गंधयुक्त श्वांस, दाँतों के रोग, गले के संक्रमण आदि रोगों में
यह वटी अत्यन्त लाभकारी है। इतना ही नहीं, यदि किशी क्षत से रक्त-स्राव न रुक रहा
हो तो उसपर कच्चे कत्थे का चूर्ण रख कर दबा दीजिये, रक्त-स्राव तत्काल रुक जायेगा।
ताम्बूल का सेवन करने को तो बहुत से
लोग करते हैं, किन्तु सभी को ताम्बूल सेवन करना नहीं आता। ताम्बूल का वास्तविक
रसिक ताम्बूलिक के आपण से बनी-बनायी ताम्बूल-वीठिका का सेवन कदाचित ही करता है, तथा
यदि विवशता में करता भी है तो उसमें अपने अनुसार कुछ अन्य योग्य घटक अवश्य नियोजित
करता है। अन्यथा तो, ताम्बूल के वास्तविक रसिक के पास अपना व्यक्तिगत करङ्क अथवा
स्थगिका, सामान्य भाषा में कहें तो पानदान, अवश्य होता है तथा वह अपनी रुचि के
अनुसार ताम्बूल-वीटक स्वयं सजाता है क्योंकि ताम्बूल-वीटक सजाना भी एक कला है।
ताम्बूल में खदिर अधिक हो जाये तो लालिमा अत्यन्त गाढ़ी हो कर अस्वाभविक लगने लगती
है, सुपारी अधिक हो जाये तो लालिमा क्षीण हो कर अशोभनीय लगने लगती है, चूना अधिक
हो जाये तो सुगन्ध नष्ट होती है, मुख में क्षत हो जाने की सम्भावना अलग से, तथा
यदि पान का पत्ता ही अनुपात से अधिक हो जाये तो सुगन्ध बिखर जाती है अतः
ताम्बूल-वीटक निर्माण में कौन सा पदार्थ कितनी मात्रा में तथा किस अनुपात में हो
यह तो कोई ताम्बूल-रसिक एवं वीठिका सजाने का कला-मर्मज्ञ ही जान सकता है। संस्कृत
आचार्यों नें इस हेतु भी स्पष्ट विनिर्देश दिये हैं –
पर्णाधिक्ये दीपनी रङ्गदात्री
पूगाधिक्ये रुक्षदा कृच्छदात्री।
चूर्णाधिक्ये
सोष्णदुर्गंधदात्री साधिक्ये चेत् खदिरे शोषदात्री।
द्विपत्रमेकपूगं च सचूर्ण खदिरं
च तत्।
गायत्रीगुटिकाचूर्णे पूगम
नागलतादलं।।
नात्युचैर्नातिनीचैःश्च
पर्णानामधिकं वरं।।
अर्धपूगं सखदिरम् रक्तिकम्
योज्यचूर्णं।
यथोत्तरे यथा स्वादमधिकम
अंगेन योजिताम।
समपत्र फले रागो, विरागस्तु
फलेऽधिके।
चूर्णाधिक्ये तु दुर्गंधम
पत्राधिक्ये सुगन्धता।।
क्रमुकं पञ्चनिष्कम् स्यात्,
खादिराश्च पलद्वयं।
गुन्जाद्वयं चूर्णमानं
ताम्बूलक्रमुत्तमम्।।
[जिस ताम्बूल में पत्ते अधिक
हों तो भूख बढाने वाला तथा मुख को सुरंग लाल बनाने वाला, सुपारी अधिक हो तो मुख
में सूखापन एवं कृच्छरोग का जनक, चूना अधिक हो तो उष्णता उत्पन्न करने वाला तथा
मुख को दुर्गन्धमय बनाने वाला तथा खदिर अधिक हो तो मुख सुखा देने वाला होता है। दो
पत्तों के पान में एक सुपारी, थोड़ा चूना और कत्था होना चाहिये। पत्ते न तो लता के
अत्यन्त निचले भाग के हों, न ही अधिक ऊपर के भाग वाले हो, तथा पत्ते सामान्य से
कुछ अधिक ही संख्या में हों। सुपारी पाँच निष्क भार से अधिक तथा खदिर दो पल भार से
अधिक नहीं होना चाहिये। चूने की मात्रा भी दो गुञ्जा भार से अधिक नहीं होना
चाहिये।]
ताम्बूल-वीटक निर्माण के घटक-द्रव्यों
के गुण एवं उनके अनुपात की चर्चा तो अत्यन्त विशद हो जायेगी, किन्तु ताम्बूल सेवन से सम्बंधित एक
विशेष कला की चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है। ताम्बूल का सेवन सुरुचि-पूर्ण एवं
अभिजात ढङ्ग से होना चाहिये और इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पान की पीक थूकना।
पान की पहली तथा दूसरी पीक नहीं निगली जाती। पहली पीक उदर हेतु तीक्ष्ण होती है
अतः इसे निगलना तो महादोषकर कहा गया है, दूसरी पीक भी पचने में कठिन तथा भेदी (कष्टकारी)
होती है किन्तु तीसरी और अन्य पीकें अमृत-समान गुणकारी होती हैं –
आद्यं पिक्ककम् त्याज्यं,
महादोषकरम् च यत्।
द्वितीयं दुर्जरम् भेदी,
त्रितीयाद्यमृतोपमम्।।
अतः पान की पहली तथा दूसरी
पीक तो थूकनी ही पड़ती है! किन्तु इसे यत्र-तत्र नहीं थूकना चाहिये। इससे ताम्बूल
सेवन की सुरुचिपूर्ण रसिकता अन्यों हेतु कुरुचि बन सकती है अतः ताम्बूल-रसिक नागर
के निकट एक पतद्ग्रह, एक पूगपात्र, एक पीकदान अवश्य होना चाहिये। और यदि कहीं
अन्यत्र थूकने की विवशता आ पड़े तो? तो पान की पीक थूकना भी एक कला है।
पान की पीक थूकना भी कला है? हाँ भाई!
है!
दण्डी के दशकुमार-चरित उत्तरपीठिका द्वितीय उच्छ्वास में एक आख्यान है
जिसमें राजकुमार नागदत्त राजकुमारी अम्बालिका के शयनकक्ष में चोरी से प्रविष्ट हो
जाता है। प्रेमिका से मिलने जाना था तो स्वाभाविक था कि ताम्बूल – सेवन कर के
जाता, किन्तु उतनी रात्रि में उसे ताम्बूल मिला नहीं। वैसे भी इस प्रकार के अभिसार
– प्रक्रमों में अर्द्ध-रात्रि तो हो ही जाया करती है! ताम्बूल की खोज में
प्रेमिका को प्रतीक्षा कराना कहाँ उचित है? किन्तु जब वह अपनी प्रेमिका के शयनकक्ष
में पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी प्रिया तो सो रही है। अर्थात्? अर्थात् विलम्ब तो
हो ही चुका था! प्रियतमा की सुखनिद्रा में व्यवधान उसे उचित नहीं लगा होगा किन्तु
उसने देखा कि उस सुन्दरी के पर्यंक के निकट एक मञ्चक पर करङ्क धरा था। अर्थात्?
अर्थात् उसकी प्रियतमा भी ताम्बूल रसिक ही रही होगी अन्यथा उसके शयन-कक्ष में
करङ्क होने का क्या प्रयोजन? प्रेमी महोदय ने उसी करङ्क से अपनी रुचि के अनुसार एक
ताम्बूल-वीठिका सजायी, बीड़ा मुख में दबाया तथा निद्रा-निमग्न अपनी प्रिया को मुग्ध
भाव से निहारते हुए कक्ष की भित्ति के नागदन्त पर टँगी एक लाक्षा-रञ्जित पट्टिका
उतार कर तथा वहीं धरी एक पेटिका से लेखनी-वर्तिका – लिखने की बत्ती, निकाल कर
पट्टिका पर अपने हृदय के उदगार लिख अपनी प्रेमिका के चरणों में धर दिया।
नागर एवं नागरिका के शयनकक्ष में इस प्रकार के उपादान होने ही होने चाहिये
अतः हुआ करते थे! आश्चर्य कैसा? प्रमाण हेतु कामसूत्र के नागरवृत्त प्रकरण के सूत्र
चार के अनुसार - “बाह्य प्रकोष्ठ में ऐसी सुन्दर शय्या हो जिस पर कोमल बिछावन से
युक्त, सिरहाने एवं पायताने दोनों ओर उपधान अर्थात् तकिये हों, शय्या बीच में झुकी
होनी चाहिये (कारण? समझने हेतु आप स्वयं बुद्धिमान हैं!), श्वेत आस्तरण बिछा हो,
और समीप ही एक दूसरी चारपायी भी हो! (कारण? कहा न? आप बुद्धिमान हैं!)। शैया के
सिरहाने कूर्च स्थान तथा वेदिका हो जिस वेदिका पर रात्रि के समय प्रयोग होने से
अवशिष्ट सुगन्धित लेप तथा पुष्पहार आदि तथा सिक्थ-करण्डक अर्थात् मोम का डिब्बा
धरा हो, सुगन्धित वस्तुओं के पात्र हों, मातुलुङ्ग की छाल हो, और करङ्क अर्थात्
पानदान भी हो! निकट ही भूमि पर पीकदान धरा हो! भूमौ पतद्ग्रहः! नागदन्त अर्थात्
खूँटी पर वीणा टँगी हो, चित्र-फलक, तूलिका एवं रङ्ग से भरे पात्र हों, पुस्तकें
हो, न सूखने वाली कुरण्टक माला हो! कुरण्टक जानते हैं? पीली कटसरैया! सहचर, झिण्टी, अम्लान,
कुरण्टक,
सैरेयक,
कुरबक,
बाणा, बाण, दासी, कटसरैया, पियाबांसा आदि नामों से भी इसे जाना जाता
है। अंग्रेजी में इसे पोरक्यूपाइन फ्लावर (Porcupine flower) कहते हैं। कटसरैया के बहुशाखी क्षुप, बाग बगीचों में, बाड़ों में, खेतों के किनारे, कहीं भी
देखने को मिल जाते हैं। पुष्पों के आधार पर इसके विभिन्न भेद हैं। श्वेतपुष्प वाली
कटसरैया सहचर (Barleria dichotoma Roxb.) कहलाती है, पीतपुष्प वाली कुंटक (Barleria prionitis Linn.), रक्तपुष्प वाली कुरबक, (Barleria cristata Linn.), जिसे कालिदास ने भी मेघदूत में स्थान
दिया, तथा नीलपुष्प वाली दासी या वाण,
(Barleria strigosa Willd.) कहलाती है। आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं
प्रभाव में उष्ण होने से यह कफ एवं वातशामक है, इसका लेप शोथहर,
वेदनाहर,
वेदनास्थापक,
व्रणशोधक,
कुष्ठघ्न एवं केश्य (केश-पतन की समस्या से ग्रस्त पाठक विशेष
ध्यान दें!) है। यह नाड़ियों के लिए बलप्रद होती है। कटसरैया अल्परक्तशर्कराकारक
(मधुमेह के उपचार में प्रयोज्य),
मूत्रल (मूत्रावरोध के उपचार में प्रयोज्य), अल्परक्तचापकारक
(उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु प्रयोज्य), केंद्रीय तंत्रिकातंत्र अवसादक (उत्तेजना-शामक) तथा पूयरोधी (मवाद
बनने से रोकने वाला, अतः घाव पर लेप लगाने में प्रयोज्य) होती है। इसकी जड़ ज्वरघ्न, स्तम्भक तथा वेदनाशामक होती है
(पैरासिटामोल से अधिक प्रभावी है), इसकी छाल स्वेदजन तथा कफनिस्सारक होती है। कटसरैया
के पत्र मूत्रल, स्तम्भक तथा वेदनाशामक होते
हैं। यह व्रण, संधि, ग्रंथिशोथ, तंत्रिकाशूल,
आमवात,
विषजन्य सङ्क्रमण,
कण्डू,
कुष्ठ,
त्वक्-विकार,
कास, शोथ, दन्तशूल एवं शुक्रमेह में लाभप्रद है। और
पुष्प? सूखते ही नहीं भाई कई-कई दिनों तक! तो ऐसे पादप की पुष्पमाला तो नागरक एवं
नागरिका के शयनकक्ष में होनी ही चाहिये। पुष्पों का सामीप्य रहेगा तो आवश्यकता
पड़ने पर पादप के पञ्चांग भी उपलब्ध हो ही जायेंगे।
और? और निकट ही भूमि पर एक गोल आसन हो! उस पर सहारे हेतु एक उपधान हो! निकट
ही द्यूत-क्रीड़ा की समस्त सामग्री रखी हो, चौपड़ हो, पासे हों, चतुरंग फलक हो! और
बाह्य प्रकोष्ठ में तोता-मैना आदि पालित पक्षियों के पिञ्जर हों! तक्षण-कार्य
हेतु, नम्र-काय पदार्थों में खोद कर चित्रकारी हेतु उपस्कर भी हों और,
और भवन के निकट वृक्ष-वाटिका हो, जिसकी घनी शाखाओं पर, छाया में, पुष्पों
एवं लताओं से मण्डित प्रेङ्खादोला – झूला - हो, और निकट ही लताओं से आच्छादित
लता-मण्डप हो!
भाई, अब आज के समय में तो यह सब एक साथ उपलब्ध होना दिवा-स्वप्न ही है,
किन्तु कामसूत्र के रचयिता के काल में, चारुदत्त एवं बसंतसेना के काल में,
समुद्रगुप्त के काल में, और जब उज्जयिनी में पालक का राज्य था, उस काल में यह सब
सामान्य बात थी। तो दण्डी के कथानक के उस प्रेमी युवक की प्रेमिका के शयन-कक्ष में
न पानदान का अभाव था, न चित्र-फलक, रङ्गों एवं कूर्चिकाओं का ही! मात्र एक पीकदान
नहीं था! क्यों नहीं था? राजकुमारी की सेविका पतद्ग्रह रखना भूल गयी होगी भाई! अथवा
सोते समय राजकुमारी द्वारा ताम्बूल-सेवन की सम्भावना न होने के कारण ही सेविका ने
उसे हटा दिया भी हो सकता है। क्यों व्यर्थ प्रतिवाद करना? नहीं था, तो बस नहीं था।
ले-दे कर बात इतनी सी है कि दण्डी के अनुसार वहाँ कोई पतद्ग्रह नहीं था।
तो राम का मैदा, राम का घी!
निद्रा-निमग्न अपनी प्रिया को मुग्ध भाव से निहारते हुए प्रेमी महोदय ने अपने हृदय
के उदगार लिखे –
“त्वामयमाबद्धाञ्जलि
दासजनस्तमिममर्थमर्थयते ।
स्वपिहि मया सह
सुरतव्यतिकरखिन्नेव मामैवम्।।”
---“यह सेवक अंजलिबद्ध हो
तुमसे यही याचना करता है कि तुम मेरे साथ सुरत से थक कर ही सोया करो, इस भाँति (बिना सूरत के) नहीं!”
पान तो खा ही रखा था अतः इस अवधि में
उसका मुख पान की पीक से भर गया। बेचारा प्रेमी! पान की पीक से मुख लबालब भरा होने
तथा उसे यथोचित स्थान पर न थूक सकने की पीड़ा आप समझेंगे? समझ सकेंगे, यदि आप
ताम्बूल-प्रेमी होंगे!
थूके बिना रहा नहीं जा सकता था और
थूकने का कोई उचित स्थान उसे दिख नहीं रहा था। तो उस युवक ने क्या किया? उसने भित्ति
पर इस कुशलता से पीक थूकी कि चूने से पुती भित्ति पर एक मिथुन-चक्रवाक का, एक चकवे-चकई
का जोड़ा बन गया। अनन्तर वह अपनी सोती हुई प्रेमिका से अपने अङ्गुलीयक का विनिमय
करके, अंगूठियाँ बदल कर, लौट आया। सन्दर्भ प्रस्तुत है -
नागदन्तलग्ननिर्यासकल्कवर्णितं फलकमादाय
मणिसमुद्गकाद्वर्णवर्तिकामुद्धृत्य तां तथाशयानां तस्याश्च मामावद्धञ्जालिं
चरणलग्नमालिखमार्यां चैताम्-
"त्वामयमाबद्धाञ्जलि दासजनस्तमिममर्थमर्थयते
।
स्वपिहि मया सह
सुरतव्यतिकरखिन्नेव मामैवम्।।
हेमकरण्डकाच्चवासताम्बूलवीटिकां
कपूरस्फुटिकां पारिजातकं चोपयुज्यालक्तकपाटलेन तद्रसेन सुधाभितौ चक्रवाकमिथुनं
निरष्ठीवं । अङ्गुलीयकविनिमयं च कृत्वा कथङ्कथमपि निरगां।
तो दण्डी के प्रमाण से अब तो मान
लीजिये! पान की पीक थूकना भी एक कला है।
ताम्बूल के अन्य घटक-द्रव्यों का गुण
जानने हेतु आयुर्वेद के आकर ग्रंथों का अध्ययन ही उचित होगा क्योंकि उन समस्त
घटकों के समस्त शुभ गुणों का वर्णन किसी एक आलेख में प्रस्तुत कर सकना सम्भव नहीं।
फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है ताम्बूल-वीटक में नियोजित किया जाने वाला
प्रत्येक घटक द्रव्य आयुर्वेद द्वारा अनुशंसित एवं प्रशंसित है। आज के समय में इस
प्रकार से ताम्बूल-वीठिका का निर्माण तो सम्भव नहीं, किन्तु यदि वास्तव में
ताम्बूल का आनन्द लेना है तो इन विशिष्ट-घटक पदार्थों में से कम से कम आठ पदार्थों
का उपयोग तो करना ही चाहिये। मान्यता है कि ताम्बूल-रहित अर्पित नैवेद्य को देवता
स्वीकार नहीं करते अतः सभी देवताओं को ताम्बूल अर्पण का विधान है किन्तु यह बताना
असमीचीन न होगा कि पूजन आदि में नैवेद्य-स्वरुप अर्पित किये जाने वाले ताम्बूल में
भी चार मुख्य घटक द्रव्यों के साथ न्यूनतम अन्य आठ विशिष्ट घटक-द्रव्यों, तथा
तान्त्रिक उपासना विधियों में देवार्पण हेतु निर्मित ताम्बूल में न्यूनतम तेरह
अन्य विशिष्ट घटक-द्रव्यों का समावेश आवश्यक है। गणेश की मानसिक पूजा में उल्लिखित
‘अष्टाङ्गयुक्तं ताम्बूलम्’ का यही निहितार्थ है। इसी प्रकार निर्मित ताम्बूल हेतु
धन्वन्तरि ने कहा –
ताम्बूलम् कटु,
तिक्तमुष्णमधुरं, क्षारं कषायान्वितम्,
वातघ्नम् कफनाशनम् कृमिहरम्
दुर्गन्धिनिर्णाशनम्।
वक्त्रस्याभरणम्
विशुद्धिकरणम् कामाग्निसन्दीपनम्,
ताम्बूलस्य सखे त्रयोदशगुणाः
स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः।।
कटु, तिक्त, उष्ण, मधुर, क्षार एवं
कषाय, छह रस जिसमें प्राप्त होते हैं, वातनाशक, कफनाशक, कृमि-हारी, दुर्गन्धि का
नाश करने वाला, मुख का आभूषण, शुद्धिकारी, काम-वर्धक, इन सात ओषधीय गुणों के साथ ताम्बूल के समान
तेरह गुणों वाला पदार्थ तो स्वर्ग में भी दुर्लभ है - त्रयोदशगुणाः स्वर्गेऽपि
ते दुर्लभाः।
हमारे मनीषियों ने शिशुओं हेतु भी
ताम्बूल-प्राशन का मुहूर्त बताया है। आश्चर्य न करें। शिशु के जन्मोपरांत अन्यान्य
संकारों में से एक ताम्बूल-प्राशन संस्कार भी है।
सार्द्धमास द्वये दद्यात
ताम्बूलं प्रथमं शिशो।
कर्पूरादिक सम्मिश्रम्
ताम्बूलं योजयेद्भिषग्।।
ढाई मास का हो जाने के उपरान्त शिशु को
प्रथम बार कर्पूरादि मिश्रित ताम्बूल का सेवन कराना चाहिये जो किसी योग्य
भिषगाचार्य द्वारा निर्मित किया गया हो। और इसके लिये ज्योतिषीय आधार पर उचित
मुहूर्त की लब्धि भी आवश्यक है –
मूलाश्विमैत्रकरतिष्यहरीन्दुनभेषु
पौष्णे तथा मृगशिरो
अदितिवासवेषु।
अर्केंदुजीवभृगुबोधनवासरेषु
ताम्बूल नूतनदल अशनं शिवाय।।
--- मूल, अश्विनी, अनुराधा
(मैत्र), हस्त (कर), पुष्य (तिष्य), रेवती (पौष्ण), मृगशिरा, पुनर्वसु (अदिति) तथा
धनिष्ठा (वासव) आदि नक्षत्रों में, जब चंद्रमा शिशु के लग्न से दशम भाव में हो, तथा
रविवार, सोमवार, गुरुवार, शुक्रवार अथवा बुधवार में से कोई वार हो, तब ऐसे मुहूर्त
में शिशु को प्रथम बार ताम्बूल सेवन कराना शुभ होता है।
ताम्बूल
हिन्दी के कवियों का भी लाड़ला रहा है। ताम्बूल सेवन हेतु उसे अपने मुख मात्र तक ही
नहीं, कवियों ने ताम्बूल को अपने काव्य में भी स्थान दिया है। कवि केशवदास का एक
पद है -
तोरि तनी टकटोरि कपोलनि
जोरि रहे कर त्यों
न रहौंगी।
पान खवाई सुधाधर पान कै,
पाँय गहे तस हौं न
गहौंगी।।
केशव चूक सबै सहिहौं
मुख चूमि चलै यह पै
न सहौंगी।
कै मुख चूमन दै फिरि मोहि
कि आपनि धाय से जाय
कहौंगी।।
अँगिया की तनी
तोड़ दी, कपोलों को सहलाया, हाथ जोड़ रहे हो, मैं ऐसे ही थोड़े न मान जाऊँगी! पान
खिला कर अधरामृत पान कर लिया, और अब पैर पकड़ते हो? किन्तु मैं ऐसा कुछ नहीं करने
वाली! तुम्हारी सारी भूलें स्वीकार हैं, किन्तु यह जो तुम मेरा मुख चूम कर अब चले
जाते हो, यह मुझे स्वीकार नहीं है। मैं तुम्हारी सभी त्रुटियों को सहन कर लूँगी, किन्तु तुमने पान खिलाकर, मेरे अमृत जैसे होठों का जो रसपान
किया है, इसके लिए मैं तुम्हें क्षमा नहीं करूँगी। अतः यदि तुम चाहते हो कि
मेरा-तुम्हारा सम्बन्ध यथोचित बना रहे, तो इसके लिए यही पूर्वबन्ध है कि तुम भी
अपना मुख मुझे चूमने दो, नहीं तो मैं अपनी धाय माता से तुम्हारी शिकायत करूँगी। पुनश्च
..
पहिले ही रूठि चली उठि पीठि दे
मैं चितई सखि, तैं न
लखी री।
पुनि धाइ धरें हरिजू की भुजानि
तैं छूटिबे कों बहु
भाँति झखी री।।
गहि के कुच पीड़न दन्त नखच्छत
बेरिनि की मरजाद
नखी री।
पुनि ता ही को पान खवावति है?
उलटी कछू प्रीति की
रीति सखी री।।
पहले ही उनकी
ओर पीठ करके रूठ कर जब तुम उठ गयी थी तब, हे सखी! तुमने भले ध्यान न दिया हो,
मैंने सब देखा! जब कृष्ण ने दौड़ा कर तुम्हें पकड़ लिया तब तुमने उनकी भुजाओं से
छूटने हेतु बहुत प्रयास किया था किन्तु पकड़ कर कुचमर्दन तथा दन्तक्षत एवं नखक्षत
के समय उसने कोई मर्यादा नहीं शेष छोड़ी। और अब, तुम उसी को पान खिला रही हो? सत्य
है, प्रीति की रीति कुछ उलटी ही हुआ करती है।
वेणु तज्यो उनि बैन तें बोलो
न बोल बिलोकत,
बुद्धि भगी है।
वे न सुनें, समुझे न तू बाति,
ये प्रेत लग्यो?
किधों प्रीति जगी है?
केसव
वे तुहि-तोहि रटें,
रट तोहि इते उनही की
लगी है।
वे भखें पान न,
पान्यों न तू,
तो ते कान्ह ठगे? कि
तू कान्ह-ठगी है??
एक बार दोनों
ने दोनों को देखा और बस! उन्होंने अपनी वंशी त्याग दी है और तुम्हारी जिह्वा से भी
बोल नहीं फूटते! वह कुछ सुन नहीं रहे और तू कुछ समझ नहीं रही! यह तुम दोनों को
प्रीति लगी है या कोई प्रेत लग गया है? केशवदास कहते हैं कि एक सखी अपनी सखी से
कहती है कि वे तुम्हारा नाम रटे जा रहे हैं और इधर तुम्हें भी उनके नाम की रट लगी
है। उधर वे पान नहीं खाते, इधर तुम पानी तक नहीं पीती। यह बताओ! कि कृष्ण तुम्हारे
द्वारा ठगे गये हैं या तुम उनके द्वारा ठगी गयी हो?
ताम्बूल के
सन्दर्भ में ऋषियों ने, और रीतिकालीन कवियों ने, जो लिखा, सो लिखा, किन्तु किसी
अर्वाचीन कवि ने भी इस नागवल्ली के सन्दर्भ में क्या कुछ लिखा है? ‘पान खाये सैंया
हमार ओ’ या ‘खइके पान बनारस वाला’ जैसे काव्य के अतिरिक्त? कुछ भी? लिखा है? जी! लिखा
है! देखिये तो तनिक!
पान सो पदार्थ सब जहाँ को सुधारत,
गायन को बढ़ावत जामे चूना चौकसाई है।
सुपारिन के साथ मसल मिले भाँत भाँत
जामे कत्थे कि रत्ती भर थोड़ी सी ललाई है।।
बैठे हैं सभा माँहिं बात करें भाँत भाँत,
थूकन जात बार-बार, जाने क्या बड़ाई है।
कहें कवि ‘किसोरदास’,
चतुरानन की चतुराई,
साथ पान में तमाखू किसी मूरख ने चलाई है।।
कवि ने कविता के अन्त में अपना नाम भी आवास-स्थल सहित बताया है।
-पंडित
किसोरदास “खंडवावासी”
पता- बम्बई
बाज़ार रोड-
गाँजा गोदाम
के सामने-
उचित है भाई!
काव्य के साथ अपना नाम-पता दे देना चाहिये! अन्यथा क्या जाने कब कौन ले उड़े? इन पंडित
किसोरदास “खंडवावासी” को आप जानते हैं? नहीं जानते? जानते हैं आप! बस पहचानते नहीं!
ये किसोरदास “खंडवावासी” जी, भारतीय चलचित्र-जगत के
बहुमुखी प्रतिभाशाली कलाकार, जिन्हें अभिनय, गायन, संगीत, कवित्व, एवं अन्य न जाने
कितनी विधाओं में निपुणता प्राप्त थी, उन “श्री किशोर कुमार” जिन्हें अंतिम रूप से
एक गायक के रूप में पहचाना जाता है, की रचना है।
ताम्बूल का
नाम इतिहास के कुछ रक्त-रञ्जित पृष्ठों पर भी अङ्कित है। मध्यकालीन इतिहास में
राजपूताने के कई राजवंशियों की नृशंस-निर्मम हत्या हेतु विष देने के लिये माध्यम
के रूप में ताम्बूल जैसे शुभ पदार्थ का घृणित उपयोग किया गया। पण्डित जगन्नाथ की
यवनी प्रेमिका लवंगी जो उनकी अर्धांगिनी भी बनी उसका गर्भस्राव रोशनआरा द्वारा
दिये गये विषयुक्त ताम्बूल सेवन के कारण ही हुआ था। वह तो लवंगी ने ताम्बूल में कटु
स्वाद का अनुभव कर अरुचि के कारण पान का बीड़ा ही थूक दिया था अन्यथा रोशनआरा का यह
कुचक्र तो लवंगी के प्राण ले लेने हेतु ही था क्योंकि उसे पण्डित जगन्नाथ के साथ
दाराशिकोह का मधुर मैत्र-सम्बन्ध स्वीकार न था किन्तु पण्डित जगन्नाथ तक रोशनआरा
की पहुँच नहीं थी अतः उसने अपनी घृणा का लक्ष्य लवंगी को बनाया। पान में कच्चा
पारा अथवा पिसा हुआ काँच मिला कर खिला देने की घटनायें भी सुनने में आती हैं जिससे
कई श्रेष्ठ गायकों का जीवन एवं भविष्य दोनों नष्ट हो गया। यही कारण है कि हमारे
मनीषियों ने किसी अन्य द्वारा प्रदत्त ताम्बूल सेवन में सावधानी रखने का विनिर्देश
किया है –
प्रदानाद्वामहस्तेन, परस्त्री हस्तेन च।
ताम्बूलं खादयति मूढः तस्य लक्ष्मीर्विनश्यति।।
म्लेच्छहस्तात् शत्रुहस्तात् शंकितस्य जनस्य च।
वैदग्धजन हस्तात् ताम्बूलग्रहणम् निषिध्यते।।
बाँयें हाथ से
दिया हुआ तथा परस्त्री द्वारा प्रदत्त ताम्बूल यदि कोई मूर्ख खाता है तो निश्चित
ही उसकी लक्ष्मी का विनाश हो जाता है। म्लेच्छ-वर्ग (निहितार्थ समझने भर को आप
चतुर हैं) के हाथ से, शत्रु के हाथ से, जिन लोगों पर तनिक भी आशंका हो उनके हाथ
से, तथा ईर्ष्या – द्वेष रखने वालों के हाथ से ताम्बूल ग्रहण करना निषिद्ध
है।
पुनश्च, कुछ
विशेष परिस्थितियों में भी ताम्बूल सेवन का निषेध है, यथा –
ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम्।
विषमूर्च्छामदार्तानाम् अपथ्यम् शोषिणामपि।।
अक्षिरोगे क्षये पाण्डुरोगान्त्रामयवानपि।
अपस्मारी श्वासकासी हृद्रोगी रक्तपित्तकी।।
तद्वक्त्रपाके नयनप्रमाथे शिरोविकारे मदात्यये च।
विषे क्षये शोणितपित्त रोगे व्रणे हितं न तरुणज्वरार्ते।।
व्रण,
रक्तविकार एवं पित्तविकार, रूक्ष तथा कुपित नेत्रों के समय (जिसे आँख आना कहते हैं),
विष खाये हुए को, मूर्च्छा के रोगी को, जिसने अत्यधिक मदिरा का पान किया हो तथा
सूखा रोग वाले को ताम्बूल का प्रयोग अपथ्य है। आँखों के किसी भी रोग में, क्षय रोग
में, पाण्डु रोग में, आन्त्र रोगों में, आम (आँव) रोग में, अपस्मार (मिरगी)
में, श्वासकास (अस्थमा) में, ह्रदय रोग
में, तथा जब ज्वर तीव्रता में हो, तब ताम्बूल सेवन हानिकर होता है तथा अन्त में,
‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’! व्यसन कोई भी हो, अन्ततः
विनाश का कारण बनता ही है, और ताम्बूल-सेवन एक कम मूल्य वाला अभिजात मुखवास है, पर्ण
है, कोई प्लक्ष-वृक्ष का पत्र नहीं, जो दिन भर बकरी की तरह चबाते रहा जाये अतः
ताम्बूल का सेवन सीमित मात्रा में ही उचित है क्योंकि -
दन्तदौर्बल्यपाण्डुत्वनेत्ररोगबलाक्षयान्।
वितनोत्यास्यरोगांश्च तामबूलमति सेवितं।।
पूजन एवं
अर्चन में, प्रथा एवं परम्परा में, विलास एवं विनोद में, तथा कुत्सित दुरभिसंधियों
में भी, समान रूप से प्रतिभागी इस ताम्बूल के साथ क्या तत्व-दर्शन का भी कोई
सम्बन्ध है? सामान्यतः परिलक्षित तो नहीं होता, किन्तु ताम्बूल तन्त्र का एक
प्रमुख उपादान है तथा सम्मोहन एवं वशीकरण में इसके प्रयोग अचूक हैं। उन प्रयोगों
का सार्वजनिक उल्लेख उचित नहीं, किन्तु इसके अतिरिक्त भी ताम्बूल का तन्त्र-दर्शन
में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
तन्त्र में
अधोमुख त्रिकोण शक्ति का प्रतीक है तथा उस त्रिकोण के मध्य में स्थित बिन्दु शिव
का! पान का अधोमुख पत्र वही अधोमुख त्रिकोण रचता है तथा उसके मध्य स्थित नीचे से
दीर्घ किन्तु ऊपर की ओर सूक्ष्म होता जाता एक अखण्ड पूगीफल उर्ध्वमुख त्रिकोण का या
बिन्दु का प्रतीक हो जाता है। ताम्बूल-पत्र उस शक्ति का प्रतीक है जिसने स्थूल जगत
में नारी रूप धारण किया तथा पूगीफल उस शिव-तत्व का प्रतीक है जिसने स्थूल जगत में
पुरुष रूप धारण किया। योनि सहित शिवलिङ्ग का अविकल चित्र रचता ‘अधोमुख ताम्बूलपत्र
पर मध्य में धरा हुआ अखण्ड पूगीफल’ साक्षात् शिव-शक्ति का विग्रह है। तन्त्र-दर्शन
के अनुसार क्रिया शक्ति तथा इच्छा शक्ति दोनों जब समवेत रूप से ज्ञानोन्मुख होते
हैं तब नर एवं नारी के स्थूल पिण्ड में एक चिन्मय ज्योति का प्रादुर्भाव होता है
तथा शिव-शक्ति की इसी लीला को शाक्त-दर्शन अधोमुख एवं उर्ध्वमुख त्रिकोण अङ्कित
श्री चक्र के नाम से व्याख्यायित करता है। गार्हस्थ जीवन में यह ताम्बूल सरलतम रूप
से उपलब्ध उसी श्री-चक्र का अधिष्ठान है जिसमें उस शिव-शक्ति का लीला-विलास ही
नहीं उसका तेज भी सन्निहित है। जिस प्रकार रस-शास्त्र में गंधक को शक्ति-तत्व या
देवी का रज, तथा पारद को शिव-तत्व अथवा शिव का वीर्य माना गया है उसी प्रकार
ताम्बूल में खदिर-राग शक्ति-तत्व का तेज है जिसे देवी का रज माना जा सकता है तथा सुधाचूर्ण
शिव-तत्व का तेज है जिसे शिव का ओज या वीर्य कल्पित किया जाना चाहिये। यही कारण है
कि शास्त्रकार ताम्बूल-वीटक को गृहस्थों हेतु परम मङ्गलमय मानते हैं और यही कारण
है कि कोई गार्हस्थ पूजन-विधान इष्ट को ताम्बूल समर्पण के बिना पूर्ण नहीं माना
जाता। पान के पत्ते का रस, सुपारी का रस, खदिर-सार का रस तथा चूना जिस प्रकार मिल
कर एकाकार हो जाते हैं, उसी प्रकार गार्हस्थ जीवन में जब पुरुष एवं नारी अपनी
सम्पूर्ण तेजोगरिमा सहित एकाकार हो जाते हैं तभी गार्हस्थ जीवन अलौकिक आनन्द का
हेतु बन पाता है। ताम्बूल-वीटक दाँतों द्वारा चर्वित हो कर आपत्ति-विपत्ति में
भिन्न गुण-धर्मों वाले ‘लोहित-कृष्ण-शुक्लां’ पदार्थों का एकाकार हो, तद्रूप हो,
नवीन रङ्ग-राग सृजित करना सिखाता है। यह रहस्यमय आदर्श मात्र गार्हस्थ जीवन में ही
नहीं, सामाजिक व्यवस्था में भी व्याप्त है जिसमें विभिन्न मान्यताओं, रूढ़ियों,
प्रथाओं, जीवनशैली एवं विचारधाराओं वाले जन सम्मिलित हो एक राष्ट्र के नियामक बनते
हैं। यही ताम्बूल-आदर्श सनातन वर्ण-व्यवस्था में भी है जिसमें ब्राह्मण की तीक्ष्ण
श्वेताभ मेधा का मुक्ता-चूर्ण, क्षत्रिय के अप्रतिहत रक्ताभ शौर्य का खदिर-राग,
वैश्य की स्वर्णाभ सम्पदा का पूगीफल तथा श्रमिक वर्ग के हरित-नील काया से झरता
पीताभ श्रम-सीकर एकाकार हो राष्ट्र की अस्मिता को अनुप्राणित करता है तथा
राष्ट्रीय चेतना स्वयं सर्वशक्तिमान देवी के रूप में ऋग्वेद के दशम मण्डल के वाक्
सूक्त- ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूना चिकितुषी प्रथमां यज्ञियानाम्। तां मा देवा
व्यदधुः पुरूत्रा भूरिस्थात्रां भूर्या वेशयन्तीम्।।’ मन्त्र का उद्घोष करती है।
ताम्बूल हमें ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना
उपासते।। -- हम सब एक साथ चलें, एक साथ एक बात बोलें, हमारे मन एक हों तथा जिस प्रकार पहले के
विद्वान अपने नियत कार्य के लिए एक हो जाते थे, उसी प्रकार हम भी समुद्देश्य हेतु परस्पर साथ
में मिल कर उद्योगरत रहें।’ के सिद्धान्त पर चलना सिखाता है। ताम्बूल हमें परस्पर
द्वेष एवं विरोध की भावना से ऊपर उठ कर परस्पर एक रस, एक रङ्ग, एक मन हो, एकाकार
हो जाना सिखाता है।
आप हेतु विभिन्न
गुणों वाले महार्घ द्रव्यों के संयोग से एक उत्तम ताम्बूल-वीटक सजाना मुझ अकिञ्चन
दरिद्र हेतु असंभव है किन्तु शब्दों के माध्यम से सजायी यह श्रम-साध्य ताम्बूल
वीठिका यदि आपको रुचिकर लगी हो तो मैं स्वयं को कृतकृत्य समझूँगा। इस आलेख का
उद्देश्य ताम्बूल-सेवन को प्रोत्साहित अथवा हतोत्साहित दोनों में से कुछ भी करना
नहीं है। यह आलेख मात्र ताम्बूल शब्द को लेकर मन में उगी भावनाओं का शब्दाङ्कन है
जिसे बुद्धि-विलास के अतिरिक्त कुछ भी समझना असमीचीन होगा।
आज
गुरु-पूर्णिमा है! आज अपने गुरु को ताम्बूल-दान का विधान है –
गुरुभ्यः सम्प्रदातव्या
द्वात्रिंश पर्ण-वीटिका!!
गुरु को
बत्तीस ताम्बूल-पत्रों की बनी वीटिका प्रदान करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त भी
बांधवों को अठारह, जामाता को पन्द्रह, अपनी पुत्री को तीस तथा सामान्य कन्याओं को
पचीस ताम्बूल-पत्रों से रचित वीटक के दान का विधान है।
अधोमुख
ताम्बूल-पत्राकार अखिल भारत राष्ट्र की “ताम्बूल में सेवनीय सामान्य एवं विशिष्ट
घटक-द्रव्यों के शुभ गुणों से युक्त” समस्त सनातनी प्रजा को गुरु-पूर्णिमा की अनन्त-अशेष
हार्दिक शुभकामनायें।
त्रिलोचन नाथ तिवारी.
🙏🙏
जवाब देंहटाएंआप सच में त्रिलोचन हैं।
जवाब देंहटाएंये हम सब का सौभाग्य है कि हम आपसे जुड़े है।
प्रणाम दादा
🙏🙏
जवाब देंहटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत अकल्पनीय बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसाधु.. विप्रवर साधु..
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम भैया , ऐसा लेख जिसमें एक बार उतरो तो बहते चले जाओ एक बार पढ़ने के बाद मन करता दुबारा पुनः पढ़ता जाऊं।
जवाब देंहटाएंचार या पांच बार मे कई दिनो मे पढा। कल पूरा पढने के बाद आज दूसरी बार एक बार मे पूरा पढ़ा और आनंद दो गुना हो गया।
जवाब देंहटाएंअद्भुत !